किसान आन्दोलन: कारण और सरकार के लिए नई चुनौती
दिल्ली बॉर्डर पर चल रहे किसान आन्दोलन को लगभग 10 महीने पूरे हो गए हैं और यह आन्दोलन पंजाब में तो इससे भी पहले अगस्त 2020 में ही शुरू हो चुका था। शुरुआत में पंजाब की 9 किसान जत्थे बंदियों ने इकट्ठा हो यह विरोध शुरू किया और बाद में बाकी किसान संगठनों ने भी पंजाब राज्य की एक सामूहिक योजना और कार्यक्रम के अनुसार इसे आगे बढ़ाना शुरू किया और कुछ महीनों बाद ही यह आन्दोलन पंजाब से निकलकर दिल्ली के बोर्डरों तक पहुंच गया।
हम सब देश वासियों को इस किसान आन्दोलन के प्रमुख कारणों में सिर्फ केंद्र सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानून ही दिखाई देते हैं, जो कि इस आन्दोलन के मुख्य कारण और मुख्य मांगें भी हैं। लेकिन यदि किसान आन्दोलन से पहले बीते कुछ सालों में केंद्रीय सरकार की कार्यप्रणाली व योजनाओं के बारे में गौर करें, तो स्पष्ट रूप से एक राष्ट्रीय आन्दोलन की जमीन तैयार होने की एक और वजह भी नजर आती है: “जनता का जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के प्रति अविश्वास।”
लोकतन्त्र में सबसे बड़ी त्रासदी की शुरुआत अक्सर जनता द्वारा चुनी गई सरकार और जनता के बीच अविश्वास फैलने से शुरू होती है। पूरे देश में यदि किसान कानूनों के आने से पहले घट रही घटनाओं के बारे में कर्मबद्ध तरीके से विचार किया जाए तो यह बात प्रमिणित होती नजर आती है कि पिछले कुछ सालों से केंद्रीय सरकार द्वारा लाई किसी भी योजना के वो नतीजे नही निकले जो कि केंद्रीय सरकार ने योजना पर काम शुरू करने से पहले वादों के रूप में घोषित किए थे। इन सब झूठे वादों की शुरुआत 2014 में भाजपा की आम चुनाव की तैयारियों से ही शुरू होने लगी। 2020 के कृषि सुधारक कानूनों के आने से पहले 2014 से 2020 बीच किए बहुत से वादों व योजनाओं का सफल न होना, जनता के अविश्वास का कारण बना।
इन झूठे वादों और कमजोर योजनाओं का क्रमबद्ध घटनाक्रम इस प्रकार रहा।
2014 चुनाव से पहले घोषित काले धन को वापिस लाने का चुनावी जुमला;
2015 में सरकार द्वारा स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू ना कराने का सुप्रीम कोर्ट में दिया गया हलफनामा;
2016 में बिना किसी योजना के नोटबंदी;
2016 में फरवरी 2022 तक किसानों की आय दुगनी का जल्द ही झूठा साबित होता वादा;
2017 से GST दरों का असमान रूप में लागू होना;
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्र का बढ़ने की बजाए कम होना;
करोना काल में सरकार का मजदूरों के प्रति बेरुखी और
2020 में कृषि कानूनों से संबंधित ऑर्डिनेंस का लॉकडॉन काल में ही जल्दबाजी में लाना।
काले धन का चुनावी जुमला
2014 से पहले भाजपा द्वारा बार-बार चुनाव रैलियों में दो बातों का जिक्र किया गया। पहली बात यह थी कि देश से भ्रष्टाचार और काले धन को खत्म कर देंगे और जो देश का काला धन विदेशों में जमा है उसको देश में वापस लाया जाएगा। देश के 2014 के आम चुनाव से पहले भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में बहुत बार यह घोषणाएं की कि पूरे देश की जनता के हिस्से 15 लाख प्रति व्यक्ति के हिसाब से काला धन देश में वापिस लाकर दिया जाएगा। समाज के एक वर्ग को इस बात पर पूर्ण विश्वास था कि मोदी जी केंद्रीय सरकार बनाने के बाद इसे पूरा करने के लिए काम करेंगे और हर आदमी के हिस्से पैसा आए या ना आए लेकिन देश की प्रगति में यह काला धन इस्तेमाल किया जाएगा।
हां इसमें कोई दो राय नहीं बहुत से लोगों को यह शुरुआत से ही लगता था कि यह कभी संभव होने वाला नहीं है लेकिन जब भाजपा के नेताओं ने सरकार बनने के बाद इसे चुनावी जुमला करार किया तब जनता में पनपे अविश्वास की शुरुआत का यह पहला कारण बना क्योंकि जनता इस उम्मीद से भाजपा को सत्ता में लाई थी कि आने वाले समय में उसके परिवार को काफी समृद्धि मिलने वाली है। उन्हें यह सुनकर जरूर कहीं ना कहीं बहुत बड़ा आघात लगा कि यह तो सिर्फ चुनावी वादों की लिस्ट में बस कही गई एक बात थी।
सुप्रीमकोर्ट में दायर हलफनामा
दूसरा मुद्दा सरकार ने हमेशा 2014 से पहले जो उठाया वह किसान को स्वामीनाथन रिपोर्ट के अनुसार लागत का डेढ़ गुना दाम देने का था। इसकी घोषणाएं बहुत बार मंच से 2014 में एनडीए के प्रधानमंत्री पद उम्मीदवार नरेंद्र मोदी जी और दूसरे नेताओं ने की थी। लेकिन सरकार बनने के बाद 2015 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया कि स्वामीनाथन रिपोर्ट के अनुसार डेढ़ गुना लागत का दाम किसानों को देना संभव नहीं है। किसान वर्ग हमेशा से ही भाजपा को व्यापारियों और शहरी लोगों की पार्टी मानता था लेकिन फिर भी उसी भाजपा को केंद्र सत्ता में बहुमत के साथ लाने के लिए किसान व ग्रामीण वर्ग ने मोदी जी पर विश्वास कर वोट दिए थे। उन्हें विश्वास था कि जो घोषणाएं प्रधानमंत्री उम्मीदवार और अन्य भाजपा नेता अक्सर मंचों से कर रहे हैं इनको वो पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद जरूर पूरा करेंगे। लेकिन जैसे ही काले धन की वापसी की तरह इस पर भी केंद्र सरकार ने 2015 में यू-टर्न लिया, देश के किसानों में केंद्रीय सरकार और भाजपा पार्टी नेताओं के प्रति अविश्वास की भावना और बढ़ गई।
घोषित नतीजे पाने में असफल नोटबंदी
जब प्रधानमंत्री जी ने देश के सामने आकर नोटबंदी की घोषणा की और जनता को यह बताया गया कि इससे देश को बहुत से फायदा होगा जैसे कि काले धन पर लगाम लगेगी, आतंकवादियों के हाथों तक जाने वाला काला धन रुक जायेगा, देश समृद्धि व खुशहाली की तरफ बढ़ेगा।
लेकिन जैसे ही कुछ समय बाद आरबीआई की तरफ से पैसा जमा रिपोर्ट जारी होने लगी तो देश की जनता में यह समझ बने लगी कि देश में की गई नोटबंदी, सरकार की तरफ से बिना कोई योजना के सुनाया गया फरमान था जो कि जनता के लिए कष्टदायक साबित तो हुआ लेकिन यह नोटबंदी काला बजारियों और उग्रवादियों को कोई भी सबक सिखाने में कामयाब नही होगी। समय के साथ ये सिद्ध हो गया कि नोटबंदी सरकार के कुछ चुनिंदा प्रतिनिधियों और विशेषकर प्रधानमंत्री जी द्वारा बनाई गई असफल योजना थी। नोटबंदी केवल छोटे दुकानदारों, छोटे कारोबारियों और हर रोज नगदी में काम करने वालों के लिए ही नुकसानदायक नही रही बल्कि इसने भारतीय अर्थव्यवस्था की कमर भी तोड़ दी। देश के छोटे कारोबार लगभग कुछ समय के लिए बंद हो गए और लोग बैंको की लाईन में अक्सर परेशान होते नजर आए। इस वजह से जनता का केंद्रीय सरकार के प्रति विश्वास डगमगाने लगा और भरोसा कम हुआ।
GST दरों का असामान्य प्रयोग
इसके बाद 2017 में जीएसटी के नाम से जो पूरे देश के लिए ‘एक समान करनिति’ केंद्र सरकार लेकर आई। लोगों को इसके बारे में भी सपना दिखाया गया कि जीएसटी का देश की उन्नति में एक बड़ा योगदान होगा। लेकिन जीएसटी लागू होने सबसे बड़ी मार छोटे व्यापारियों और दुकान चलाने वाले लोगों पर सबसे ज्यादा पड़ी। उनका प्रति वर्ष अकाउंट लिखने और रिटर्न्स को फाईल करने का खर्चा बढ़ा। समय के साथ साथ जीएसटी भी एक असफल योजना के तौर पर व्यापारी समाज और छोटे दुकानदारों ने तो माना ही लेकिन साथ में जनता या कहे उपभोग्ता को भी जीएसटी बेमतलब व नुकसानदायक लगने लगा क्योंकि सरकार ने दो मुख्य वस्तु को जीएसटी के दायरे से दूर रखने का फैसला लिया था। पहली वस्तु जो थी तेल; तेल की बिक्री को जीएसटी के दायरे से दूर रखा गया और जिस समय विश्व में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें जीरो से भी कम थी उस समय केंद्रीय और राज्य सरकारों में तेल पर लग रहे टैक्स दरों को कई गुना बढ़ाया, जिसका नतीजा यह हुआ कि जब धीरे-धीरे विश्व में तेल का दाम बढ़ने लगा तो भारत में तुलनात्मक रूप से तेल की कीमतों में ज्यादा वृद्धि हुई। आज के दिन भारत विश्व के सबसे महंगे तेल बेचने वाले देशों में शामिल हैं। दूसरी वस्तु रही शराब; शराब को भी जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया। और इसकी बिक्री से भी सरकारों ने अपने रेवेन्यू को कई गुना बढ़ाया और ये रेवेन्यू बढ़ाने का असामाजिक तरीका, करोना लॉकडाउन में लोगो को अच्छे से समझ आया। जब सरकारों ने लॉकडाउन में कमाई के लिए शराब ठेकों को खोला। इस तरह जीएसटी के मामले में भी जनता की यह समझ बनने लगी कि सरकार जीएसटी का उपयोग सिर्फ अपने फायदे और ज्यादा से ज्यादा टैक्स के रूप में पैसा इकट्ठा करने में कर रही है।
इसके साथ ही सरकार द्वारा कृषि उपकरणों पर जीएसटी की अधिक दरें लगाई गई, जिससे किसानों के उपयोग में आने वाली वस्तुओं के दाम मार्केट में बढ़े और जिस भाजपा पार्टी के बारे में किसानों को लगता था यह पार्टी हमेशा से किसान विरोधी रही है, उसके प्रति दोबारा वैसा ही माहौल और समझ ग्रामीण क्षेत्रों में बनने लगी। सरकार की इस तरह की कार्यशैली ने जनता और सरकार के बीच जो अविश्वास का पौधा पनप रहा था उसमें खाद और पानी का काम किया।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का घटता क्षेत्र
2014 में सरकार बनने के बाद मोदी जी ने किसानों के लिए एक देशव्यापी योजना पूरे जोर-शोर से शुरू की जिसका नाम था ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना ” । 2015 से ही इस योजना में कृषि बजट का बहुत सारा पैसा लगाया गया और देश के किसानों को यह बताया गया कि फसल बीमा की हद में आने वाले किसानों की संख्या जो कि उस समय 23% थी उसे बढ़ाकर 100% किया जाएगा। इस योजना से किसानों का विश्वास नहीं जीत पाने के दो मुख्य कारण रहे। पहला, किसानों के अकाउंट से बिना सहमति के उनके हिस्से का बीमा प्रीमियम काट लेने पर बीमा क्लेम को पास करवाने में बहुत ज्यादा सरकारी अड़चनों का होना। दूसरा कारण था सरकार ने जो कहा था कि देश का हर खेत इस बीमा योजना के अंदर आएगा उसे भी पूरा करने में सरकार कामयाब नहीं रही। योजना की शुरुआत में बीमा का लाभ उठाने वाले किसानों की संख्या जो 23% थी वो आज केवल 13% रह गई है। सरकार द्वारा इस जरूरी और महत्वपूर्ण बीमा योजना का ठीक से लागू ना करना और केवल इस योजना का इस्तेमाल कर निजी बीमा कंपनियों का पैसा कमाते नजर आना, किसानों को उनसे हो रहे धोखे के समान लगा। इस योजना में भी अविश्वास रूपी पौधा जो बड़ा हो रहा था उसको पूर्ण रूप में विकसित करने में योगदान दिया।
लॉकडाउन में अव्यवस्था और मजदूरों से अमानवीय व्यवहार
2019 में जब पूरे विश्व में करोना महामारी की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन तब भी हमारी सरकार विदेशी राजनेताओं के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रम देश में करवा रही थी। उसके तुरंत बाद मार्च में पूरे देश भर में लॉकडाउन लगाया गया। इस बार भी प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से लोगों से केवल 21 दिनों का समय मांगा था और करोना लड़ाई में देश को जीतने का वादा किया था। लोगों ने सरकार की इस घोषणा पर भी विश्वास कर अपनी तरफ से लॉकडाउन को कामयाब बनाने में और पीएम केयर फंड के लिए भी पैसा इकट्ठा करने में खूब योगदान दिया। लेकिन सरकारों ने जब मजदूरों की प्रति बेरुखी का रूप अपनाया और उन्हें भगवान भरोसे ही छोड़ दिया गया तब जनता को लगने लगा कि सरकार उनके किसी भी काम नहीं आ रही है। इन मजदूरों में काफी संख्या खेतों में काम करने वाले प्रवासी श्रमिकों की भी थी जो कि किसान से उसके परिवार की तरह ही जुड़ाव रखते हैं। फसल लगाने से लेकर मंडी में फसल बेचने तक हर काम में इनका सहयोग किसान लेता है। जब मजदूर परेशान होकर घर लौट रहे थे उस दृश्य ने भी देश की जनता के दिलों दिमाग पर बड़ा आघात पहुंचाया।
दूसरी करोना लहर के समय सरकार की असफल कार्यशैली भी जनता के सामने आ गई। करोड़ों रुपए का सामान अस्पतालों में पड़ा रहा और लोग ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए तड़पते रहे। देश का ऐसा कोई गांव-शहर नहीं था जहां ऑक्सीजन की कमी के कारण किसी ने दम ना तोड़ा हो। सरकार के प्रति अब अविश्वास समाज के हर वर्ग जिसमें किसान भी शामिल था, चरम पर था।
किसानों की आय दुगनी का वादा
2016 में केंद्र सरकार ने घोषणा किया कि फरवरी 2022 तक देश के हर किसानों की आय दोगुना कर देंगे। इस वादे पर किसानों ने दोबारा विश्वास करते हुए लगभग सच मानना शुरू किया और यही कारण था 2019 के चुनाव के समय ग्रामीण क्षेत्र में मोदी के लिए सम्मान और लगाव मौजूद था। 2019 के चुनाव में विपक्षी पार्टियों के नाकामी की वजह से और मोदी का चेहरा देखकर किसानों ने भी आम चुनाव में भाजपा को वोट डाले और केंद्र सरकार दुबारा मोदी जी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत के साथ बनी। लेकिन 2016 में किए गए दुगनी आय के वादा पर कोई काम नही हुआ। 2016-20 तक 4 साल में किसानों की खेती से होने वाली आय में वृद्धि की बजाए कमी आई। जो कि अभी हाल ही में जारी एनएसएसओ की रिपोर्ट से भी सिद्ध होता है। 2020 तक लोगों को समझ आने लगा यह भी केंद्रीय सरकार द्वारा पहले किए वादों की तरह झूठा ही साबित होगा। इससे ग्रामीण तबके को लगने लगा की उसके साथ एक और धोखा होने वाला है।
करोना काल में आए कृषि सुधार कानून का विरोध
मार्च – अप्रैल 2020 के देश में लगे लॉकडाउन के बीच सरकारी तन्त्र कथाकथित किसान कानून अध्यादेशों को ‘किसानों के लिए एक तोहफा’ के रूप में लिख रही थी और जून के महीने में केंद्रीय सरकार ने तीनों कृषि कानूनों के अध्यादेश प्रकाशित किए। देश की जनता को लगा कि यदि अति शीघ्र अध्यादेश लाए जा रहे हैं तो कोई इमरजेंसी जरूर होगी। क्योंकि हमारे संविधान के अनुसार अध्यादेश सिर्फ उन विषयों पर लाए जाते हैं जिन पर तुरंत और शीघ्र कानून बनाने की जरूरत हो। लेकिन इन अध्यादेश को पढ़ने के बाद लगभग कृषि क्षेत्र से जुड़े सभी विशेषज्ञों और बुद्धिजीवियों ने भविष्य में इन कृषि कानूनों से होने वाले दुष्प्रभाव के बारे में लिखना व बोलना शुरू किया। किसान वर्ग तो बहुत सालों से झूठे वादे झेल रहा था तो उसे पूरा यकीन होने लगा कि सरकार पहले की ही तरह केवल झूठ बोलकर धोखा देना चाहती है। इसका नतीजा यह निकला कि अगस्त महीने तक पंजाब का किसानों को यह भली-भांति समझ आ गया कि ये कानून उनके लिए घाटे का सौदा और कुछ कंपनियों के लिए फायदेमंद साबित होंगे। इसी सामूहिक सोच के कारण अलग-अलग संगठनों ने इकट्ठा होकर पंजाब में इस लड़ाई को एक साथ लड़ने का फैसला किया। यहां सबसे गौर करने वाली बात यह रही कि जो किसान संगठन पंजाब में एक साथ इस मुद्दे पर लड़ाई लड़ने को तैयार थे, उनकी अपनी विचारधारा एक दूसरे से बिल्कुल भी मेल नही खाती थी और वो सालों से एक दूसरे के घोर विरोधी रहे हैं, लेकिन एक विषय पर वो एक सा विचार रखने लगे कि ये कृषि कानून किसान के लिए फायदेमंद नहीं है और इन्हें कुछ बड़े कॉरपोरेटिव घरानों और कंपनियों के लिए बनाया गया है। यह एक विचार बनने के मुख्य कारणों में कानूनों में लिखे प्रावधान के साथ-साथ देश की जनता में सरकार के प्रति पनपा है। विश्वास भी था जोकि 2014 से सरकार की कथनी और करनी में अंतर, लगातार झूठे वादे और बिना किसी योजना के बड़े बड़े फैसले लेकर देश की जनता पर थोपने के कारण पैदा हुआ था।
इसी अविश्वास के चलते पंजाब राज्य का किसान ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों के किसान भी इन कानूनों के खिलाफ लड़ाई में जल्दी ही शामिल हो गए। 25 नवंबर 2020 को यह आन्दोलन पंजाब – हरियाणा से निकलकर दिल्ली के बॉर्डर पर आ गया और इससे अगले महीने में उत्तर प्रदेश दिल्ली बॉर्डर और राजस्थान हरियाणा बॉर्डर पर भी अलग – अलग राज्यों के किसानों ने अपना पड़ाव डालना शुरू कर दिया। पिछले 10 महीनों से किसान दिल्ली के बॉर्डर के ऊपर तो बैठने के साथ – साथ हरियाणा पंजाब के सभी राष्ट्रीय राजमार्गों पर लगे टोल प्लाजा को भी अपने धरने स्थल के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। 18 टोल बूथ तो अकेले हरियाणा में ही हैं जहां किसान हर रोज सभा और आन्दोलन की दूसरी गतिविधियों के लिए इकट्ठे होते हैं। अब यह आन्दोलन हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाद देश के बाकी राज्यों में भी फैल रहा है और उसके पैमाने के तौर पर हम 27 सितंबर को हुए भारत बंद की सफलता को देख सकते हैं। इस बंद में दक्षिण भारत के राज्य भी उत्तर भारत के राज्यों के साथ शामिल हुए। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गोवा और महाराष्ट्र में इस बंद का असर देखने को मिला।
केंद्रीय सरकार के सामने नई चुनौती
अब आगे की दशा और दिशा के रूप में यह स्पष्ट है यदि केंद्र सरकार ने किसानों से बातचीत नही शुरू की तो यह आन्दोलन देश के दूसरे राज्यों में भी पहुंचेगा। आने वाले समय मे ये आन्दोलन किसान विरोधी कानूनों को रद्द करवाने और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी कानून पर ही नहीं रुकेगा बल्कि केंद्रीय सरकार के लिए एक नई चुनौती भी रखेगा कि क्या भविष्य में केंद्र सरकार देश के किसानों, किसान संगठनों व ग्रामीण समाज में अपने प्रति पुराना विश्वास स्थापित कर पाएगी? क्योंकि ये सबकी जानकारी में है कि आठवें दौर की वार्ता में केंद्रीय मंत्री समूह ने ये मान लिया था कि केंद्रीय सरकार पराली कानून और बिजली कानून के संशोधन का विचार त्याग देगी और इन दोनों मुद्दों से संबंधित कोई भी प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ाएगी, लेकिन केंद्रीय सरकार की तरफ से लोकसभा के मानसून सत्र में सूचीबद्ध किए गए कानूनों में पराली कानून और बिजली कानून के संशोधन को रखा तो किसान नेताओं को भी सरकार की कथनी और करनी का अंतर स्पष्ट होने लगा है जो कि आने वाले समय में केंद्रीय सरकार की मुश्किल और बढ़ाएगा क्योंकि किसान संगठनो के नेता भी केंद्रीय सरकार पर एक हद से ज्यादा विश्वास करने का विचार नहीं बना पाएंगे।
अगले चरण में केंद्र सरकार की दोनों जिम्मेवारी ही अहम होंगी कि वो किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए जल्दी से जल्दी बातचीत का रास्ता भी निकालें और साथ में देश की जनता के बीच भी खोया विश्वास कायम करें। “जनता का विश्वास अर्जित करे रखना” ही किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली में सरकारों का धर्म और कर्तव्य होता है।
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