चर्चा में

पलायन मजदूरों का या सरकारों का?

 

  • महेश तिवारी

 

हमारे देश में संविधान को पवित्र पुस्तक का दर्जा दिया जाता है। यह वही संविधान है जिसकी प्रस्तावना शुरू होती है,- ” हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, विचार अभिव्यक्ति …” को अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। ऐसे में वर्तमान परिस्थितियों को देखकर क्या कहें। क्या सच में संविधान की उद्देशिका आत्मार्पित की जा रहीं? या आज़ादी के सात दशक बाद यह सिर्फ़ कोरा कागज़ बनकर रह गयी है?

सच पूछें तो यह उद्देशिका आज़ादी के बाद से ही कोरे कागज़ की भांति ही मालूम पड़ती, बशर्तें वर्तमान दौर में तो इसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहें हैं। देखिए न जिस देश में धार्मिक किताबों से पहले संविधान को जगह दी जाती। आज उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो रहा। वह भी किस कारण से, हुक्मरानों की बेढंग़ नीतियों के और सिस्टम के नकारेपन के कारण। आज की हुकूमत अवाम को रामायण तो दिखाने की ज़हमत जोह लेती है, लेकिन जिस राम की बात बाबा तुलसी करते। उस तुलसीदास की बातों से भी इत्तेफाक जब हुक्मरानी व्यवस्था रखती नजर नहीं आती फ़िर एक अजीब सी बैचेनी होती है।

यहाँ बाबा तुलसी का ज़िक्र इसलिए क्यों जिस रामराज्य के सपने आज की व्यवस्था दिखाती और आए दिन राम मन्दिर निर्माण की बात करती। उस तुलसी को महात्मा गाँधी भी मानते थे। इतना ही नहीं गाँधी और तुलसीदास के विचारों में समानता भी एक बिंदुओं पर देखी जा सकती है। बाबा तुलसीदास और महात्मा गाँधी दोनों ने बात रामराज्य की, लेकिन आज जिस रामराज्य की बात हमारी व्यवस्था कर रहीं। वह दोनों महापुरुषों के विचारों के रामराज्य से एकदम भिन्न है। ऐसे में जिस वक्त देश कोरोना के कहर से काँप रहा। उस वक्त तो देश की सियासी व्यवस्था को वंचित, शोषित मजदूरों के साथ खड़ा होना चाहिए। जिसकी बदौलत बड़े-बड़े शहर और बंगले खड़ें हुए।MIGRANTS WORKERS

जिनकी बदौलत दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर खड़ें हुए। जिसपर आज इतराती है हमारी व्यवस्था। लेकिन दुर्भाग्य देखिए न जिन मजदूरों ने शहरों को बसाया। अपने खून- पसीने से उसे वैश्वि स्तर पर खड़ा किया। आज प्रवासी कहकर उस शहर और वहाँ की व्यवस्था ने उनसे मुँह मोड़ लिया है। दर्द की बेइंतहा तो तब हो जाती है। जब पता चलता कि रामराज्य बनाने का दावा करने वाली सियासी परिपाटी इन मजदूरों को घर तक पहुँचाने के लिए ट्रेन तक नहीं शुरू कर पाई, की भी तो कहीं मजूदरों से पैसे लिए गए और कहीं मजदूरों के मरने के बाद उनके शरीर को ट्रेन मुकम्मल हो पाई। फ़िर कैसा संविधान, कैसा रामराज्य और कैसी व्यवस्था? सरकार का मतलब सिर्फ़ इतना तो नहीं होता कि वह धनाढ्य वर्ग का ही हर समय ख़्याल रखें।

हुजूर मानते हैं, चुनाव लड़ने के लिए धनाढ्य वर्ग आपको चन्दा देता है, लेकिन उस मजदूर वर्ग को क्यों भूल जाते, जिसके मत प्राप्ति के बिना आपकी जीत पक्का नहीं होती और अगर उसने मुँह मोड़ लिया न, फ़िर न रात के अंधेरों में चमकता शहर होगा और न पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था।

यह भी पढ़ें- देशभक्त बनाम देशद्रोही

ऐसे में बात संविधान की प्रस्तावना, बाबा तुलसीदास और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हुई है। तो इन सभी के विचारों को अमल में लाना भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था का कार्य है। देखिए न रामकथा को घर-घर पहुँचाने वाले तुलसीदास के विचारों से साम्य आज की स्थिति में रखते नजऱ नहीं आते। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती। मानते हैं राम के नाम पर आपको झोली भर भरके मत मिल जाएगा, लेकिन वह मत तभी मिलेगा न, जब आप भूख और ग़रीबी की बात करेंगे। यह क्यों भूल जाते महाशय! दूसरी बात रामराज्य की इतनी ही फ़िक्र तो रामराज्य में तो कोई भूखे नहीं सोता था, कोई तपती धूप में प्लास्टिक की बोतल पैर में पहनकर सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करने को विवश नहीं होता था।corona crisis

फ़िर इक्कीसवीं सदी में कैसा रामराज्य क़ायम किया जा रहा। जहाँ न मजदूरों की चिन्ता है, न मजबूरों की। चिन्ता दिखती है तो सिर्फ़ पूँजीपतियों की। जिस तुलसीदास के रामायण को आज की विकट परिस्थितियों में घर घर पहुँचाया जा रहा। उसी बाबा तुलसीदास ने तो कहा था कि “परहित सरिस धर्म नहि भाई परपीड़ा सम नहीं अधमाई।।” इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा था कि, ” नहिं दरिद्र सम दुःख जग माहिं संत मिलन सम सुख कोऊ नाहीं।।” ऐसे में पहले तो सरकारी तंत्र को बाबा तुलसीदास की इन पंक्तियों से ख़ुद को कुछ सीख लेनी चाहिए थी। फ़िर राम कथा को घर-घर पहुँचाने का विचार करना चाहिए था, लेकिन सत्ता के मद में मदांध होना हमारे देश की कोई नई रीति नहीं।

वर्षों से हमारे हुक्मरान इसका कोपभाजन बनते आए है। उसी का शिकार वर्तमान सियासी परिपाटी भी हुआ। तभी तो वह विदेशों से अमीर तबक़े को देश मे लाना नहीं भूला। अमीर खानदान के बच्चों को सुरक्षित घर भेजने में देरी नहीं की, लेकिन जो प्रवासी मजदूर दिल्ली, मुम्बई, अहमदाबाद जैसे शहरों के लिए रीढ़ की हड्डी बने हुए थे। उनको सुरक्षित घर भेजने की सुध नहीं रहीं। वैसे इतिहास गवाह है मजदूरों की सुनता कौन है, उन्हें तो नाम ही मानव संसाधन दे दिया गया है। उनके हिस्से में देश के लिए हमेशा से त्याग और बलिदान ही आता। बस फ़र्क इतना है उन्हें शहीद का दर्जा भी नहीं मिल पाता।

आज के दौर में कोरोना अपने प्रचंड वेग पर है। अब प्रवासी मजदूरों का सब्र भी जवाब दे रहा। तभी वे हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा कर अपनों तक पहुँचने की ठान बैठे हैं। कुछ हद्द तक अब सरकारें भी जागी है, लेकिन जिस हिसाब से औरंगाबाद में सोलह मजूदर ट्रेन से कट गए। उनके आसपास बिखरीं रोटियां शासन की नीतियों को एक झटके में हिला कर रख दी। इसके अलावा मजूदरों के चिथड़े सवाल कर रहें कि आख़िर रोटी की ख़ातिर कब तक मरता रहेगा देश का आम आदमी और मजदूर? क्यों रामराज्य का दावा करने वाली सरकारें मजदूरों की पीड़ा तक समझने में काफ़ी देर कर देती? क्यों व्यवस्थाओं के कानों में जूं सिर्फ़ तभी रेंगती जब ग़रीब- मज़दूर अपनी जान गंवा बैठता है?

यक्ष प्रश्न तो यह भी सोलह मजदूरों की मौत छोड़ गयी, कि जब ट्रेन का टिकट और ट्रेन का इंतज़ाम करने के लिए सरकारों के पास पैसे नहीं थे, फ़िर मरने के बाद उनके परिजनों को सहायता राशि देने का ढकोसला क्यों? क्या समानता और समस्त नागरिकों को न्याय देने का मतलब यहीं होता? अगर यहीं कहता हमारा संविधान और हमारे सियासतदां तो आज दोनों को मजदूरों की आत्मा धिक्कार ही रही होगी। यह तय मानिए।

 जिस संविधान में हम भारत का ज़िक्र है। उसी संवैधानिक देश मे एक आँकड़े के मुताबिक लगभग 14 करोड़ प्रवासी मजदूर है। विश्व बैंक कहता है, कि भारत मे लॉकडाउन  के कारण चार करोड़ आंतरिक प्रवासियों की आजीविका पर असर पड़ा है। इसके अलावा सेंटर फॉर मोनिटरिंग ऑफ इकोनॉमी के आँकड़े कहते कि तालाबन्दी की वजह से करीब 12 करोड़ लोगों का रोजगार छूट गया है। इसके अलावा अगर एक आँकड़े के मुताबिक 370 मौतें लॉक डाउन के कारण हुई है।

यह भी पढ़ेंमजदूर आन्दोलन की तरफ बढ़ता देश

फ़िर यह साफ़ दर्शाता की सरकारी प्रयास नाकाफ़ी शुरुआत से ही थे। इतना ही नहीं ये मौतें गवाह हैं सरकार, ब्यूरोक्रेट्स और सड़े हुए सिस्टम के उस नकारेपन की। जो लॉक डाउन शुरू होने से लेकर अभी तक करीब ढाई लाख मजदूरों को घर भेजकर ही अपनी छाती चौड़ी कर रहा। साथ में ये हत्याएँ है राज्य सरकार के उन दावों और वादों की जो जनकल्याणकारी होने का दम्भ भरते नहीं अघाते। यहाँ एक बात मानते हैं सरकारों ने इस महामारी से निपटने और अवाम को मुसीबतों से बचाने के लिए प्रयास किए हैं, लेकिन वह ईमानदारी तो सच मे नहीं दिखी। जो विदेश से लोगों को लाकर वाहवाही वैश्विक स्तर पर लूटने की दिख रही। वह कर्तव्यपरायणता नहीं दिखी। जितना धनाढ्य वर्ग के प्रति हुक्मरानों की दिखती।

ऐसे में आने वाले वक्त में कोरोना संकट भी टल जाएगा। सब कुछ व्यवस्थित होता हुआ भी नज़र आ सकता, लेकिन जो आर्थिक स्थिति चरमराई है। मजदूर वर्ग का गुस्सा कोरोना काल के बाद दिखना भी लाज़िमी है। ऐसे में उम्मीद यहीं की जा सकती, कि मजदूर वर्ग अब आगे से बड़े शहरों की तरफ़ कूच करने में सौ बार जरूर सोचेगा। तो फ़िर देश की आर्थिक हालत कैसे सुधरेगी और आम जन कोरोना काल के बाद समृद्ध कैसे होगा? यह बड़ा सवाल भी होगा। ऐसे में देश की हुक्मरानी व्यवस्था को बड़े बड़े स्मार्ट सिटी और उद्योगों के एक ही शहर में केंद्रीकरण से हटकर कुछ अलग सोचना होगा।

यह भी पढ़ें- छटपटाते भारतीय प्रवासी मजदूर

जिससे मजदूर वर्ग भी कोरोना काल जैसी स्थिति में दोबारा न फंसे और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था भी दो चार शहरों के बंद होने से ठप्प न हो। ऐसे में कोरोना काल के बाद क्या अभी से सरकारी तंत्र को गाँधी के ग्राम स्वराज की तरफ़ क़दम बढ़ाना शुरू कर देना चाहिए। गाँधी के अनुसार- “सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता तो सब लोगों द्वारा प्रतिकार करने की क्षमता में है।” ऐसे में आज की हुक्मरानी व्यवस्था को उपरोक्त बात को भी जेहन में रखना होगा, क्योंकि देश में मजदूरों की संख्या बहुतायत में है और सरकारी नीतियों से हैरान-परेशान इस वक्त मजूदर वर्ग हैं।

यह जगजाहिर है। इसके अलावा अभी से गाँधी जी की बताई सात बातों पर अमल करना शुरू करना होगा। गाँधी जी की इन सात बातों में पहला विकेन्द्रीकरण है अर्थात शक्ति केन्द्रों का विसर्जन। विकेन्द्रीकरण के बिना ग्राम स्वराज्य सम्भव नहीं। ऐसे में आर्थिक केन्द्रों का विकेन्द्रीकरण अब वक्त की माँग है। गाँव में ही लोगो को रोजगार उपलब्ध कराने होंगे। कुटीर औऱ लघु उद्योगों के साथ कृषि को बढ़ावा देना होगा। गाँधी की अन्य बातों में स्वदेशी, स्वाबलंबन, संरक्षकता यानी धनवान व्यक्ति अपने पड़ोसी व्यक्ति से धन संचय का अधिकार नही रखेगा, पंचायती राज और नई तालीम को बढ़ावा देना होगा। तभी सच्चे अर्थों में देश कोरोना के घाव से और आम आदमी और मजदूर वर्ग आने वाले समय में सरकारी उदासीनता के शिकार से अपने आप को मुक्त कर पाएँगे। वरना स्थिति भयावह होती जा रही, यह निश्चित मानिए।।

 

 

mahesh tiwari

लेखक टिप्पणीकार है तथा सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेखन करते हैं|

सम्पर्क- +919630377825, maheshjournalist1107@gmail.com

.

Show More

सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x