राजनीति

चुनावी राजनीति, आदिवासी हित और भाजपा का वर्चस्व

 

आदिवासी या अनुसूचित जनजाति एक विविधता से भरी हुई श्रेणी है। इससे सम्बन्धित समूह देश के विभिन्न भागों में फैले हुए हैं। इनके बीच भाषा, परम्परा, शारीरिक बनावट, जनसंख्यात्मक स्थिति आदि के आधार पर काफी भिन्नता है। कुछ समूह (जैसे गोंड) जनसंख्यात्मक रूप से काफी बड़े हैं। दूसरी ओर, कई ऐसे समूह भी है जिनकी जनसंख्या कुछ हजार ही है। कई जनजातियाँ शिक्षा के मामले में और आर्थिक स्तर पर तुलनात्मक रूप से काफी अच्छी स्थिति में हैं। वहीं, कई अन्य अभी भी अपनी जीविका के लिए पूरी तरह से वन संसाधनों पर ही निर्भर हैं। लेकिन विविधता से भरी अनुसूचित जनजाति की श्रेणी को संवैधानिक रूप से कई महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये गये हैं। इनमें से एक महत्त्वूपर्ण अधिकार यह है कि अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या के अनुपात में उनके लिए लोकसभा और राज्यों विधानसभाओं सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया है। भारत की लोकसभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं।

 इस लेख का उद्देश्य इस बात पर विचार करना है कि राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले लोकसभा चुनावों में आदिवासियों की क्या स्थिति है? विभिन्न राष्ट्रीय दलों के चुनाव घोषणा-पत्रों में इनके मुद्दों को कितना महत्त्व दिया जाता है? पिछले दो चुनावों में भाजपा की सफलता और इसके प्रभाव के विस्तार में अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम (यहाँ के बाद वनवासी कल्याण आश्रम) की क्या भूमिका रही है? क्या विशिष्ट रूप से आदिवासी हितों को समर्पित दल सामने आये हैं, और क्या ऐसे दलों का गठन आदिवासियों के हितों की सुरक्षा की गारंटी है? इस आलेख में, इस सवाल की भी पड़ताल की गयी है कि मौजूदा समय में राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में आदिवासी किस प्रकार की दुविधाओं का सामना कर रहे हैं।

आदिवासी, चुनाव घोषणा-पत्र और दलों का प्रदर्शन

यदि हम विभिन्न राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों पर विचार करें, तो उसमें कई ऐसे वायदे होते हैं जो देश के तमाम युवाओं, महिलाओं, किसानों या बुजुर्गों से सम्बन्धित होते हैं। इस लिहाज से ये आदिवासी जनसंख्या के युवाओं, महिलाओं, किसानों और बुजुर्गों आदि से भी सम्बन्धित होते हैं। लेकिन जहाँ विशिष्ट रूप से आदिवासियों के पक्ष में उठाए जाने वाले कदमों का प्रश्न है, तो उसमें एक खास तरह की निरन्तरता देखी जा सकती है। अगर हम काँग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के 2014 और 2019 के घोषणा-पत्रों को देखें तो यह बात सामने आती है कि अन्य लोकलुभावन वायदों के साथ ही पेसा और वन अधिकार कानून जैसे कानूनों को मजबूती से लागू करने तथा आदिवासियों के उनके जल, जंगल और जमीन पर हक को सुरक्षित करने का वायदा करते हैं। भाजपा ने 2014 और 2019 में अपने घोषणा-पत्र में पेसा या वन अधिकार कानून का उल्लेख नहीं किया। लेकिन इसने यह अवश्य उल्लेख किया कि वह आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम स्वराज स्थापित करना चाहती है।

2024 के लोकसभा घोषणा-पत्र में काँग्रेस और भाजपा ने पेसा और वन अधिकार कानून का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु सीपीआई (एम) ने स्पष्ट रूप से इन कानूनों के सही तरीके से क्रियान्वयन की बात कही है। लेकिन यह भी सच है कि घोषणा-पत्र से इतर भाजपा और काँग्रेस के नेता इन कानूनों के प्रति और आदिवासियों के अधिकारों के प्रति लगातार अपनी वचनबद्धता दोहराते रहे हैं। मसलन, राहुल गाँधी अपनी चुनाव सभाओं के दौरान लगातार इस बात पर जोर देते रहे हैं कि काँग्रेस जनजातियों के संसाधनों पर हक को सुरक्षा प्रदान करेगी। काँग्रेस ने आदिवासियों के लिए न्याय के लिए कई तरह की गारंटियों की घोषणा की है जिसमें जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों के हक की सुरक्षा तथा मोदी सरकार द्वारा किये गये ऐसे सभी संशोधनों को वापस लेने की बात सम्मिलित है, जिससे वन अधिकार कानून कमजोर होता है। इसी तरह, भाजपा और नरेंद्र मोदी इस बात पर जोर देते रहे हैं कि उनकी सरकार जनजातियों के कल्याण पर विशेष ध्यान देगी। भाजपा ने आदिम जनजातियों के विकास और कई अन्य योजनाओं द्वारा आदिवासियों युवाओं को शिक्षा, स्टार्ट-अप लगाने आदि में मदद की गारंटी दी है।

ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि काँग्रेस और भाजपा-दोनों की सरकारों ने पेसा या वन अधिकार कानून को पूरी ईमानदारी से लागू करने का प्रयास नहीं किया। इन दोनों कानूनों को सही तरीके से लागू करने का अर्थ है आदिवासियों और अन्य पारम्परिक वन निवासियों को उनके जल, जंगल और जमीन तथा स्वायत्त जीवन की गारंटी देना। 2014 तक केन्द्र में काँग्रेस की सरकार थी, लेकिन उस समय तक इन दोनों ही कानूनों तबरीबन अनमने या आधे-अधूरे तरीके से ही लागू किया गया। 2014 के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी और उसने कई तरह से इन दोनों कानूनों को अप्रभावी और दुर्बल बनाया। असल में, इन कानूनों के विविध प्रावधान निजी उद्यमियों द्वारा वन संसाधनों के दोहन पर रोक लगाते हैं। ऐसे में, नवउदारवादी नीतियों की तरफदारी करने वाली किसी भी सरकार के लिए ऐसे कानूनों को लागू करना कठिन है।

2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से 27 सीटों (57.44 प्रतिशत) पर जीत मिली थी, और काँग्रेस को सिर्फ पाँच सीटों पर ही जीत मिल पाई थी। 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को 31 (65.95 प्रतिशत) सीटों पर जीत मिली। वहीं काँग्रेस को केवल चार सीटों पर ही जीत मिली। बाकी बची सीटों पर निर्दलीय नेताओं और तेलंगाना राष्ट्र समिति, युवजना श्रमिका रायतू काँग्रेस पार्टी, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी, शिव सेना, नगा पीपॅल्स फ्रंट, बीजू जनता दल, नेशनल पीपॅल्स पार्टी और मिजो नेशनल फ्रंट के उम्मीदवारों को जीत मिली थी। इन चुनावों में भाजपा ने आदिवासियों के लिए आरक्षित चार सीटों में तीन पर जीत हासिल की। इसे झारखण्ड के पाँच आरक्षित सीटों में से तीन, मध्य प्रदेश की सभी 6 आरक्षित सीटों तथा गुजरात की सभी 4 आरक्षित सीटों पर जीत मिली। महाराष्ट्र की चार आरक्षित सीटों में से इसे तीन पर जीत मिली। इसी तरह राजस्थान और पश्चिम बंगाल में भी इसे अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों (क्रमशः 3 और 2) पर जीत मिली। भारतीय जनता पार्टी की इस जीत के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आदिवासी मोर्चा अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम (यहाँ के बाद से वनवासी कल्याण आश्रम) की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है।

वनवासी कल्याण आश्रम: आदिवासी बनाम वनवासी विवाद

संघ का जनजातीय संगठन वनवासी कल्याण आश्रम 1952 में अपनी स्थापना के समय से ही यह मानता रहा है कि सभी जनजातीय समूह वनवासी हैं। इनका मूल आधार-वाक्य है: ‘‘तू और मैं एक रक्त’’। अर्थात् यह संगठन जनजातीय समूहों को हिन्दू धर्म के ऐसे अनुयायियों के रूप में देखता है, जो ‘मुख्यधारा’ की हिन्दू सभ्यता से दूर जंगलों में रहते आये हैं। इस संगठन ने इन समूहों के बीच हिन्दू मूल्यों के प्रसार के लिए लगातार काम किया है। गौरतलब है कि हाल के वर्षों में आदिवासी वोटों की जद्दोजहद में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा आदिवासी बनाम वनवासी के रूप में भी सामने आया है। काँग्रेस नेता राहुल गाँधी लगातार इस बात पर जोर देते रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा आदिवासियों को वनवासी मानते हैं क्योंकि वे उन्हें उनका हक नहीं देना चाहते, और उन्हें जंगलों में ही रखना चाहते हैं। लेकिन संघ और वनवासी कल्याण आश्रम की यह दलील रही है कि वे इसलिए जनजातियों को वनवासी मानते हैं क्योंकि मूल रूप से वे हिन्दू समाज का भाग हैं, और यह कहना सही नहीं है कि सिर्फ वे ही इस देश के आदिवासी हैं।

भाजपा का वर्चस्व

आरम्भ से ही वनवासी कल्याण आश्रम ने विभिन्न आदिवासी इलाकों में ईसाई मिशनरियों के काम का तीखा विरोध किया, और यह आरोप लगाया कि मिशनरियों के द्वारा आदिवासियों को लालच देकर उनका धर्मान्तरण कराया जाता है। बाद के दौर में, अलग-अलग स्थानों पर विभिन्न मुद्दों को उठाकर शेष जनजातीय समुदायों को ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासियों के खिलाफ गोलबन्द करने का प्रयास किया। इस उद्देश्य के लिए स्थानीय स्तर के मुद्दों के अतिरिक्त ‘‘डिलिस्टिंग’’ (या विसूचीकरण) जैसे मसले को भी उठाया गया है। इसमें यह माँग रखी गयी है कि जिन आदिवासियों ने ईसाई धर्म को अपना लिया है, उन्हें अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाए।

वनवासी कल्याण आश्रम ने आदिवासियों के बीच शिक्षा, चिकित्सा सेवा तथा स्त्री सशक्तीकरण आदि क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण काम किया है। हालाँकि इनके द्वारा स्थापित स्कूलों और हॉस्टलों में हिन्दू मूल्यों के प्रसार पर जोर दिया जाता है, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इनके इन कार्यों से बहुत सारे आदिवासियों को लाभ मिला है, और इससे इन समुदायों में इनके प्रति एक सद्भाव का भी विकास हुआ है। बहुत से अध्ययनों में यह बात सामने आयी है कि इन कार्यों के बदौलत चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को लाभ हुआ है।

वनवासी कल्याण आश्रम ने वन अधिकर के मुद्दे पर बहुत ही प्रगतिशील रवैया अपनाया है। इसने पेसा और वन अधिकार कानून को सही तरीके से लागू करने की माँग की है। इन कानूनों को निष्प्रभावी या कमजोर करने के किसी भी प्रयास का इस संगठन द्वारा विरोध किया जाता रहा है। इसने आदिवासियों के बलात विस्थापन का विरोध करने के साथ ही साथ संविधान के अनुसूची पाँच में अन्य आदिवासी क्षेत्रों को सम्मिलित करने जैसी माँगों का भी समर्थन किया है। गौरतलब है कि वन अधिकारों का मुद्दा आरम्भ में इस संगठन के एजेण्डा का भाग नहीं था। अमूमन वामपन्थ की ओर रूझान रखने वाले संगठनों ने इन मुद्दों पर ज्यादा जोर दिया। लेकिन विशेष रूप से सन 2000 के बाद वनवासी कल्याण आश्रम ने इन मुद्दों को अपनाया और इन पर व्यवस्थित रूप से काम करना आरम्भ कर दिया। एक तरह से, यह इस संगठन के द्वारा आदिवासियों के जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों को अपनाने की प्रवृत्ति को दिखाता है। इससे भी इसे अपने प्रभाव का विस्तार करने में मदद मिली है।

2014 के बाद के दौर में भारतीय जनता पार्टी को आदिवासी क्षेत्रों, विशेष तौर पर, उत्तर-पूर्व के आदिवासी क्षेत्रों में मिली सफलता के पीछे वनवासी कल्याण आश्रम के निरन्तर कार्य को भी श्रेय दिया जाता है। निश्चित रूप से, इसमें कई स्थानीय कारकों मसलन, दल-बदल और केन्द्र में सत्ताधारी दल से जुड़ाव रखने की स्थानीय स्तर के नेताओं की प्रवृत्ति आदि की भूमिका रही है। किन्तु वनवासी कल्याण आश्रम और इससे जुड़े संगठनों अपने विभिन्न प्रकार के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, सेवा कार्यों, तथा आदिवासियों के हक के मुद्दों के प्रति समर्थन जताकर संघ और भाजपा के आधार को मजबूती प्रदान की है।

नवीन आदिवासी दलों का उदय

राष्ट्रीय दलों ने आदिवासियों के मुद्दों को महत्त्व दिया है किन्तु यह पूरे देश और देश के विभिन्न समूहों के लिए उनकी नीतियों का एक भाग के रूप में ही रहा है। लेकिन स्वतन्त्र भारत में कई ऐसे प्रयास हुए हैं जहाँ आदिवासियों के नेतृत्व में राजनीतिक दल का गठन हुआ। ऐसे दलों ने यह लक्ष्य रखा कि आदिवासियों के हितों को ही अपने राजनीतिक एजेण्डा में सर्वप्रमुख स्थान देंगे। जयपाल सिंह मुंडा द्वारा आजादी के बाद झारखण्ड पार्टी का गठन इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। पहले चुनावों से पूर्व मुंडा आदिवासी महासभा के अध्यक्ष थे। इस संगठन के माध्यम से उन्होंने पृथक झारखण्ड राज्य, आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन की सुरक्षा तथा आदिवासी क्षेत्रों में लगे कल-कारखानों में स्थानीय आदिवासी युवाओं को नौकरी देने जैसी माँगें रखीं। लेकिन जब उन्होंने झारखण्ड पार्टी का गठन किया तो गैर-आदिवासियों को भी इसका सदस्य बनने के लिए आमन्त्रित किया। 1952 के चुनावों में यह बिहार में दूसरे बड़े दल के रूप में सामने आया। किन्तु बाद के समय में झारखण्ड राज्य के गठन की अपनी माँग के पूरा न होने से निराश होकर इन्होंने 1963 में अपनी पार्टी का काँग्रेस में विलय कर दिया। 1970 में अपनी मृत्यु से पूर्व वे फिर से झारखण्ड पार्टी को सक्रिय करना चाहते थे, किन्तु इस योजना को अमली जामा पहनाने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी।

इसके बाद सत्तर के दशक में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) आदिवासी हितों को समर्पित एक दल के रूप में सामने आया। इस दल ने सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में चलने वाले पृथक झारखण्ड राज्य के आन्दोलन का नेतृत्व किया। अलग झारखण्ड राज्य बनने के बाद भी यह एक प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में मौजूद है। इसके अतिरिक्त झारखण्ड में कई अन्य छोटे दल सामने आए, जिन्होंने आदिवासी हितों के प्रतिनिधित्व का दावा किया। इसके अतिरिक्त गोंडवाना गणतन्त्र पार्टी, इंडियन ट्राइबल पार्टी और भारत आदिवासी पार्टी ऐसे राजनीतिक दल रहे हैं जिनका क्रमशः महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में थोड़ा प्रभाव रहा है। इस सन्दर्भ में भारत आदिवासी पार्टी का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है जिसका गठन 2023 के राजस्थान विधानसभा चुनावों के पहले हुआ था, और इसे इन चुनावों में तीन सीटों पर जीत मिली। उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी कई ऐसे दल हैं जो विशेष रूप आदिवासियों के हितों के प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं, और उनकी राजनीति इन राज्यों के स्थानीय परिस्थितियों से संचालित होती हैं।

यह गौरतलब है कि अमूमन मुख्य रूप से आदिवासियों के हितों को समर्पित होने का दावा करने वाले अधिकांश राजनीतिक दलों को कभी भी सीधे तौर पर सत्ता में रहने का मौका नहीं मिला। झामुमो को झारखण्ड में सरकार बनाने का मौका मिला है। लेकिन यह दल भी कोई ऐसा आमूल परिवर्तनकारी कदम नहीं उठा पाया जिससे आदिवासियों को नुकसान पहुँचाने वाली नीतियों को पूरी तरह खारिज किया जा सके। अधिकांश राजनीतिक दल नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की भले ही विपक्ष रहते हुए आलोचना करें, किन्तु सत्ता में आने के बाद वे उन्हीं नीतियों के अनुरूप काम करते हैं। इसलिए झामुमो जैसे दल भी खनन और बड़े उद्योगों की स्थापना के माध्यम से विकास करने की नीति को खारिज नहीं करता है, भले ही इससे आदिवासियों के दूरगामी हितों को नुकसान पहुँचे।

हालाँकि एक समृद्ध लोकतान्त्रिक व्यवस्था भिन्न आवाजों (मसलन, आदिवासी, मुसलमान आदि) को संगठित रूप से अभिव्यक्त होने अधिकार मिलना चाहिए, और राजनीतिक दलों का गठन इसका सबसे प्रभावी माध्यम है। वहीं, दूसरी ओर, इन भिन्न पहचानों का अभिव्यक्ति देने वाले संगठनों में देश की व्यापक पहचान या भावना से जुड़ने की प्रवृत्ति भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। चूँकि हमारे देश में फर्स्ट पास्ट द पोस्ट (सबसे ज्यादा मत पाने वाले की जीत) व्यवस्था अपनाया गया है, इसलिए अपरिहार्य रूप से आदिवासी हितों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले दलों को दूसरे समूहों से संवाद भी करना पड़ता है। ऐसे में, जैसे-जैसे इन दलों का आकार बढ़ता है, वैसे-वैसे राजनीतिक व्यवहार्यता इनकी राजनीति में लचीलापन को बढ़ावा देती है।

लोकतान्त्रिक राजनीति में आदिवासियों का हाशियाकरण

यह सच है कि अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण से लोकसभा (और कई राज्य विधानसभाओं में) एक निश्चित सीमा तक आदिवासियों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हुआ है। किन्तु कई ऐसे राज्य हैं जहाँ आदिवासियों की जनसंख्या है किन्तु उनके लिए किसी प्रकार के सीटों के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। मिसाल के तौर पर, उत्तर प्रदेश और बिहार की स्थिति पर विचार किया जा सकता है। इन दोनों ही राज्यों में आदिवासी अत्यन्त छोटी जनसंख्या वाले अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में हैं। इस कारण से इनके लिए कोई सीट आरक्षित नहीं की गयी है। इसका नतीजा यह हुआ है कि इनके मुद्दे लोकसभा चुनावों की राजनीति में पूरी तरह से हाशियाकृत हो गये हैं। चूँकि भारत की चुनावी राजनीति समुदायों के आधार पर होने वाली गोलबन्दी से संचालित होती है, इसलिए बहुत से अल्पसंख्यक समुदाय इस तरह के हाशियाकरण का शिकार हुए है। कई स्थानों पर मुसलमान, और छोटी अति पिछड़ी जातियों को भी हाशियाकृत समूह के रूप में देखा जा सकता है।

यह भी गौरतलब है कि आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर चुने गये सांसद अमूमन अपने दलों के अनुशासन से बँधे होते हैं। इसका अर्थ यह है कि वे किसी मुद्दे पर अपनी मर्जी से अपने विचार व्यक्त नहीं कर सकते हैं, और ‘‘पार्टी-लाइन’’ यानी किसी मुद्दे पर पार्टी का दृष्टिकोण ही उनका दृष्टिकोण होता है। काशीराम ने ऐसे दलित नेताओं की व्याख्या करने के लिए ‘‘चमचा’’ शब्द का प्रयोग किया था। उनके अनुसार, चूँकि आरक्षित सीटों से जीतकर आने वाले दलित उम्मीदवार अपनी जीत के लिए अपनी पार्टी पर निर्भर होते हैं, और उन्हें गैर-दलितों के वोट की भी जरूरत होती है इसिलए वे किसी भी मुद्दे पर दलितों के वास्तविक हित के अनुसार दृढ़ता से अपने विचार नहीं रख पाते हैं। यह बात आदिवासी सांसदों के बारे में भी सच है। संसद में अधिकांश आदिवासी नेता निष्क्रिय रहते हैं, और उन मुद्दों पर भी वे मजबूती से अपने विचार नहीं रख पाते जो सीधे तौर पर आदिवासियों के जीवन को प्रभावित करती हैं।

हालाँकि वर्तमान समय में एक आदिवासी महिला राजनेता द्रोपदी मुर्मू देश की राष्ट्रपति हैं, किन्तु अमूमन आदिवासी नेताओं को सरकार में ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं मिलती है। देश के नीति निर्माण और संसाधन के वितरण आदि से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण मन्त्रालय आदिवासी नेताओं की पहुँच से दूर ही रहे हैं। कभी भी आदिवासी समुदाय से जुड़ा कोई व्यक्ति विदेश, गृह, वित्त या शिक्षा मन्त्री नहीं बना। सामान्य तौर पर, जनजातीय विकास मन्त्रालय का कार्यभार किसी आदिवासी नेता को दिया जाता है, और कुछ अन्य कम महत्त्वपूर्ण मन्त्रालयों की जिम्मेदारी भी इन नेताओं को मिल जाती है। यह एक तरह से सत्ता प्रतिष्ठान में आदिवासियों के सांकेतिक प्रतिनिधित्व को भी दर्शाता है। इसी तरह, विभिन्न मन्त्रालयों में सचिव स्तर के पद तक शायद ही कोई आदिवासी नौकरशाह पहुँच पाता है। कुल-मिलाकर स्थिति यह है कि आजादी के सात दशकों के बाद में आदिवासियों को देश की नियति का फैसला करने वाले पदों और मन्त्रालयों से दूर रखा गया है।

निस्सन्देह भारतीय चुनावी राजनीति में पिछले दस सालों में भाजपा का वर्चस्व रहा है। इस दल ने अपने विभिन्न लोकलुभावनवादी और लाभार्थी बनाने वाली नीतियों से यह कामयाबी हासिल की है। लेकिन यह आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर हक को सुनिश्चित करने में नाकाम रही है। यहाँ तक कि इसकी कोशिश रही है कि वन अधिकार कानून के प्रभाव को कम किया जाए। इसी तरह, आदिवासी सांसद देश की राजनीति या केन्द्र सरकार में महत्त्वपूर्ण दायित्व हासिल करने में नाकाम रहे हैं। साथ ही, पार्टी लाइन से बँधे होने के कारण वे उन मुद्दों को नहीं उठा पाते हैं जो वास्तव में आदिवासियों के हितों से सम्बन्धित हैं। कुल-मिलाकर, आदिवासियों को चुनावी राजनीति में समुचित और वास्तविक प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए अभी एक लम्बा रास्ता तय करना है।

सन्दर्भ

कमल नयन चौबे (2015), जंगल की हकदारी: राजनीति और संघर्ष, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली.

जगन्नाथ अंबागुडिया और वर्जीनीयस खाखा (सं) (2021), हैण्डबुक ऑफ ट्राइबल पाॅलिटिक्स इन इंडिया, सेज प्रकाशन, नयी दिल्ली.

मयंक अग्रवाल (2019), ‘‘डिस्पाइट कंट्रोवर्सीज ऑन ट्राइबल इसुज, बीजेपी विन्स इन ट्राइबल काॅन्स्टीट्युएन्सीज 31 मई, https://news.mongabay.com/

राँची विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग की शोधार्थी ज्योत्सना कुमारी ने सह लेखिका के रूप में लेखक को श्यो किया है

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कमल नयन चौबे

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह काॅलेज में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं। सम्पर्क +919911228278, kamalnayanchoubey@gmail.com
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