भारत की पहली महिला कैप्टन: डॉ लक्ष्मी सहगल
आजाद भारत के असली सितारे : 38
आजाद हिन्द फौज की रानी लक्ष्मीबाई रेंजीमेंट में कर्नल रहीं डॉ. लक्ष्मी सहगल (24.10.1914- 23.7.2012) का जन्म एक मध्यवर्गीय तमिल परिवार में हुआ था। उनके पिता डॉ. एस. स्वामीनाथन मद्रास उच्च न्यायालय के प्रतिष्ठित वकील थे और माता अमुक्कुटी (अम्मू) स्वामीनाथन एक समाजसेवी और एक जाने-माने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिवार से थीं जिन्होंने आजादी के आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। लक्ष्मी स्वामीनाथन आरम्भ से ही अत्यंत संवेदनशील स्वभाव की तथा दूसरों की मदद में रुचि लेने वाली थीं। मन्दिरों में दलितों के आने-जाने पर रोक, बाल विवाह और दहेज-प्रथा आदि के खिलाफ वे अपने अध्ययन के दौरान ही संघर्ष कर चुकी थीं। यह विरासत उन्हें अपनी माँ से मिली थी। एक दिन उनकी माँ ने ही अपनी बेटी के सारे विदेशी सामान की होली जला दी थी जिसके बाद से लक्ष्मी में भी आजादी के आन्दोलन में शामिल होने की धुन सवार हो गयी।
पढ़ने लिखने में लभ्मी की बचपन से ही रुचि थी और उन्हें तालीम भी अच्छी मिली। पढ़ाई- लिखाई से लेकर संस्कारों तक में वे हर दृष्टि से अपनी माँ पर गयी थीँ। जब लक्ष्मी सोलह साल की थीं तभी उनके पिता का निधन हो गया, लेकिन वे इस विपत्ति से विचलित नहीं हुईं और उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखा। 1932 में उन्होंने विज्ञान से ग्रेजुएशन किया और फिर मेडिकल में एडमीशन लिया। उनके माता–पिता का झुकाव कांग्रेस की ओर था। उस समय गाँधी जी युवाओं से अपनी पढ़ाई छोड़कर भी आजादी की लड़ाई में सहयोग करने का आह्वान कर रहे थे।
किन्तु गाँधी जी के इस प्रस्ताव से लक्ष्मी सहमत नहीं थीं कि विद्यार्थी कॉलेज छोड़कर सत्याग्रह में शामिल हों। वे सोचती थीं कि आज़ादी मिल जाने के बाद भी भारत को डॉक्टर, इंजीनियर आदि की जरूरत पड़ेगी ही। इस तरह भी देश की सेवा की जा सकती है। उन्होंने1938 में मद्रास मेडिकल कॉलेज से एम.बी. बी. एस की डिग्री हासिल की और उसके बाद उन्होंने प्रसूति रोग में डिप्लोमा किया। इस तरह वे 1939 में महिला रोग विशेषज्ञ बनकर अपने डॉक्टरी पेशे में उतरी।
उन्हीं दिनों अचानक देश की परिस्थिति बदल गयी। दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया। एक सितंबर 1939 को पोलैंड पर आक्रमण कर जर्मनी के तानाशाह हिटलर नेका बिगुल बजा दिया था। पोलैंड की सहायता के लिए वचनबद्ध ब्रिटेन ने भी अगले ही दिन जर्मनी के विरुद्ध, युद्ध की घोषणा कर दी। साथ ही भारत की ब्रिटिश सरकार भी युद्ध में कूद पड़ी।
अगस्त 1945 तक चले इस युद्ध में 230000 से अधिक भारतीय सैनिक विदेशी मोर्चों पर लड़े। 24300 सैनिक मारे गए और 64400 घायल हुए। 11800 सैनिकों का कोई अता-पता नहीं चला और 79500 सैनिक शत्रु द्वारा युद्धबंदी बना लिए गए।
स्पष्ट है कि विश्वयुद्ध के इस दौर में अंग्रेज़ों को भारतीय सैनिकों की ही नहीं, डॉक्टरों की भी बहुत ज़रूरत थी। भारतीय सेना की मेडिकल सर्विस में महिला डॉक्टरों को भी भर्ती किया जाने लगा। उन दिनों मद्रास में सबसे अधिक महिला डॉक्टर हुआ करती थीं। उन्हें डर लगा कि उन्हें भी ज़बरदस्ती सेना में भर्ती कर लिया जाएगा। डॉ. लक्ष्मी स्वामीनाथन भारत पर राज कर रहे ब्रिटेन की सेना को अपनी सेवा नहीं देना चाहती थीं। सिंगापुर में उनके कुछ रिश्तेदार रहते थे। इसलिए डॉक्टर की डिग्री मिलने के बाद 1940 में वे सिंगापुर चली गयीं और वहाँ उन्होंने अपनी प्रैक्टिस शुरू की।
सिंगापुर और मलाया (मलेशिया) में उस समय जो भारतीय रहते थे, अंग्रेज़ उन्हें ज़बरदस्ती रबर के बागानों में मज़दूरी करने के लिए ले गए थे। युद्ध के कारण रबर की क़ीमत बहुत बढ़ गयी थी, परन्तु उनकी मज़दूरी में कोई इजाफा नहीं हुआ था। अपनी मजदूरी बढ़ाने के लिए बागान के मज़दूरों ने हड़ताल कर दी। अंग्रेज़ों ने बड़ी सख्ती से हड़ताल को कुचल दिया और मज़दूरों के नेताओं को पहले जेल में डाल दिया और बाद में उन्हें वापस भारत भेज दिया।
इन्ही परिस्थितियों में सिंगापुर में डॉ. लक्ष्मी ने गरीब भारतीयों और मजदूरों (माइग्रेंट्स लेबर) के लिए एक चिकित्सा शिविर लगाया और उनका इलाज किया। इससे वहाँ के भारतीय समाज पर उनका व्यापक प्रभाव पड़ा। उनके अंदर मरीजों की सेवा का जुनून सवार था। वे यह कभी नहीं देखती थीं कि मरीज गरीब है या अमीर। उसके पास पैसे हैं या नहीं। उनकी दिली तमन्ना यही रहती थी कि मरीज जल्दी से जल्दी स्वस्थ हो जाए। वे अपना तन मन धन सबकुछ मरीज पर न्योछावर कर देती थीं। यही वजह थी कि जो भी महिला उनके पास इलाज के लिए आतीं वह उनकी मुरीद बन जाती थी।
सिंगापुर में उन्होंने न केवल भारत से आए अप्रवासी मजदूरों के लिए नि:शुल्क शिविर लगाया, बल्कि वे भारत स्वतंत्रता संघ की सक्रिय सदस्य भी बनीं। वर्ष 1942 में युद्ध के दौरान जब जापानियों द्वारा देश पर आक्रमण किया गया तब अंग्रेजों की ओर से वहाँ लड़ रहे भारतीय सैनिकों को आत्म-समर्पण करना पड़ा था। उस समय हजारों भारतीयों को कैदी बनाकर ले जाया गया। इस मौके पर नेताजी ने भारतीय कैदियों को आजाद हिंद फौज (आईएनए) में शामिल करके अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए आमंत्रित किया था। उस समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिए काम करने का विचार उठ रहा था। इस अवधि में डॉ. लक्ष्मी ने घायल युद्धबंदियों के इलाज की दिशा में बहुत काम किया था और उन सैनिकों का दिल जीता था।
विदेश में मजदूरों की हालत और उनके ऊपर हो रहे जुल्मों को देखकर भी डॉ. लक्ष्मी बहुत दुखी रहती थीं। उन्होंने भी निश्चय किया कि वे अपने देश की आजादी के लिए कुछ करेंगी। इसी दौरान देश की आजादी की मशाल लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस 2 जुलाई, 1943 को सिंगापुर आए। डॉ. लक्ष्मी उनके विचारों से बहुत प्रभावित थीं। उस दौरान नेता जी से लगभग एक घंटे की मुलाकात में डॉ. लक्ष्मी ने उनसे भारत की आजादी की लड़ाई में उतरने की इच्छा व्यक्त की। डॉ. लक्ष्मी के भीतर आजादी का जज्बा देखने के बाद नेताजी ने उनके नेतृत्व में रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट बनाने की घोषणा कर दी, जिसमें वे वीरांगनाएं शामिल हो सकती थीं जो देश के लिए अपनी जान देने को तैयार थीं।
सुभाषचंद्र बोस के उद्देश्य और समर्पण के प्रति उनका झुकाव पहले से था। इस सम्बन्ध में एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया है कि, “बात 1928 की है। कलकत्ता में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था। कांग्रेस सेवादल के अध्यक्ष की हैसियत से नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी वहाँ थे। पहली बार मैंने नेताजी को वहीं देखा। सेवादल के स्वयंसेवक कलकत्ता के मैदान में रोज़ सुबह परेड किया करते थे। परेड देखने के लिए लोग सुबह पाँच बजे ही पहुँच जाया करते थे। मैं भी उनमें से एक होती थी। गाँधीजी को ये परेडें पसंद नहीं थीं। कहते थे, हमारा आन्दोलन अहिंसा का है; इन लोगों को तो हिंसा का रास्ता दिखाया जा रहा है। उसी समय मैं समझ गयी कि सुभाषचंद्र बोस अन्य नेताओं से अलग हैं। मुझे तो उन्हीं के पीछे चलना है। माँ कांग्रेस पार्टी की एक सक्रिय कार्यकर्ता थीं। पंडितजी (जवाहरलाल नेहरू) और गाँधी से काफ़ी परिचित थीं। मेरा भी उनसे कई बार मिलना-जुलना हुआ। लेकिन, मेरा मानना था कि ब्रिटेन जैसे घोर साम्राज्यवादी को केवल सत्याग्रह के द्वारा नहीं हटाया जा सकता। हमें कोई न कोई दूसरा रास्ता भी अपनाना पड़ेगा।”
बहरहाल, जनरल मोहन सिंह के नेतृत्व में गठित आजाद हिन्द फौज की महिला बटालियन का नाम रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट रखा गया था। 22 अक्टूबर, 1943 को डॉ. लक्ष्मी स्वामीनाथन ने रानी झाँसी रेजीमेंट में कैप्टन पद पर कार्यभार सँभाला। उनके नेतृत्व में रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट ने कई जगहों पर अंग्रेजों से मोर्चा लिया और अंग्रेजों को बता दिया कि देश की नारियाँ चूड़ियाँ तो पहनती हैं, लेकिन समय आने पर वे बंदूक भी उठा सकती हैं और उनका निशाना पुरुषों की तुलना में कम नहीं होता।
कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन अपने रेजीमेंट का नेतृत्व करती हुई बर्मा के जंगलों में अंग्रेजों के खिलाफ एक शेरनी की तरह लड़ी थीं। अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें कर्नल का पद भी हासिल हुआ, जो एशिया में किसी महिला को पहली बार मिला था। लेकिन लोग उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही स्मरण करते हैं। डॉ. लक्ष्मी स्वामीनाथन अस्थाई आजाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। वह आजाद हिंद फौज की अधिकारी तथा आाजाद हिंद सरकार में महिला मामलों की मंत्री थीं।
सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेना में रहते हुए उन्होंने कई सराहनीय काम किए। उनको बेहद मुश्किल जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। उनके कंधों पर जिम्मेदारी थी फौज में महिलाओं को भर्ती होने के लिए प्रेरित करना और उन्हें भर्ती कराना। लक्ष्मी ने इस जिम्मेदारी को बखूबी अंजाम तक पहुँचाया। जिस जमाने में औरतों का घर से निकलना भी जुर्म समझा जाता था, उस दौर में उन्होंने 500 महिलाओं की एक फौज तैयार की जो एशिया में अपनी तरह की पहली विंग थी।
इसके बाद ऐसा समय भी सामने आया जब कैप्टन लक्ष्मी गिरफ्तार हुईं। दरअसल द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की शिकस्त के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने आजाद हिंद फ़ौज के सैनिकों की भी धरपकड़ शुरू कर दी। इसी धरपकड़ में 4 मार्च 1946 को लक्ष्मी भी सिंगापुर में गिरफ्तार कर ली गयीं और उन्हें भारत लाया गया। हालांकि, आजादी के लिए तेजी से बढ़ रहे दबाव के बीच उन्हें रिहा कर दिया गया। भारत में रिहा होने के बाद भी उन्होंने आजाद हिन्द फौज के युद्ध बन्दियों के लिए देश भर का दौरा किया और उनके कल्याण के लिए बड़ी धनराशि भी एकत्र किया।
डॉ. लक्ष्मी ने लाहौर में मार्च 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह कर लिया जो उन्ही की तरह आजाद हिन्द फौज के युद्धबंदी थे और उन्ही के साथ रिहा हुए थे। इसके बाद वे कानपुर आकर बस गयीं। बाद में वे सक्रिय राजनीति में भी आयीं। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में रहीं। वर्ष 2002 में वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), अखिल भारतीय फारवर्ड ब्लॉक तथा रिवोल्युशनरी सोशलिस्ट पार्टी की ओर से संयुक्त रूप से डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम के विरुद्ध राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार थीं और उन्होंने चुनाव भी लड़ा था। यद्यपि उन्हें चुनाव में खड़ा करने वाले लोग तथा वे स्वयं भी चुनाव का परिणाम जानती थीं और उस समय उनकी उम्र भी 88 वर्ष की हो चुकी थी फिर भी पार्टी का निर्णय उनके लिए सर्वोपरि था।
वे आजीवन एक सामाजिक कार्यकर्ता बनी रहीं। 1971 में बांग्लादेश संकट के दौरान उन्होंने कलकत्ता के समीप बनगाँव में शरणार्थियों के लिए राहत शिविर का आयोजन किया था और कई महीनों तक उसका संचालन किया था। इसी तरह भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। डॉ. लक्ष्मी सहगल ने 1984 के सिख विरोधी दंगों के दौरान अपने क्लीनिक में अनेक सिख परिवारों को शरण दिया था और उनके समीप दंगायियों को फटकने भी नही दिया था। बाद में शांति बहाल करने में भी उन्होंने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। वे लड़कियों के सौन्दर्य की नुमाइश और उपभोक्तावादी संस्कृति के विरुद्ध थीं। इसीलिए उन्होंने बैंगलोर में होने वाली मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता का विरोध किया था जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था।
अपने डॉक्टरी पेशे को पूरी निष्ठा से निभाते हुए भी वे वाम राजनीति में निरन्तर सक्रिय रहीं। मजदूर संगठनों तथा महिलाओं के मोर्चे पर वे हमेशा पूरी तरह सक्रिय रहीं। उन्होंने 1981 में अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति के गठन में मुख्य भूमिका निभाया। वे महिलाओं के इस सबसे बड़े संगठन की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहीं और उसकी गतिविधियों में निरन्तर सक्रिय रहीं। वे देश-भक्ति का जीता जागता उदाहरण थीं। साम्यवाद की वे समर्थक थीं और वही उनका सपना था।
उन्होंने अपने ऊपर बन रही एक डाक्यूमेंट्री के दौरान बात चीत में कहा था कि, “स्वतंत्रता तीन तरह की होती है। पहली राजनीतिक स्वतंत्रता होती है जो किसी देश को औपनिवेशिक ताकतों से मिलती है। दूसरी आर्थिक होती है और तीसरी सामाजिक। भारत को अभी तक सिर्फ पहली हासिल हुई है।”
उन्होंने स्वीकार किया है कि उनके पिता चाहते थे कि उनकी बेटियां किसी के ऊपर निर्भर न रहें और आर्थिक रूप से स्वावलंबी रहें। अपने पिता के असमय गुजर जाने के बाद भी उनकी बेटियों ने ऐसा करके दिखा दिया। प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई उनकी सगी बहन हैं।
अस्सी वर्ष की उम्र तक कैप्टन लक्ष्मी सहगल निरन्तर सक्रिय रहीं। वे सामाजिक कार्यकर्ता के साथ ही कानपुर में एक पेशेवर डॉक्टर के रूप में भी कार्य करती रहीं। उनका मुख्य उद्देश्य समाज के दबे कुचले लोगों का इलाज करना था और वे आजीवन यह काम करती रहीं।
उनकी बेटी सुभाषिनी अली भी 1989 में कानपुर से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की सांसद रहीं। सुभाषिनी अली ने कम्युनिस्ट नेत्री बृन्दा करात की फिल्म अमू में अभिनेत्री का किरदार भी निभाया था। डॉ सहगल के पौत्र और सुभाषिनी अली तथा मुज़फ्फर अली के पुत्र शाद अली, फिल्म निर्माता और निर्देशक हैं, जिन्होंने ‘साथियाँ’, ‘बंटी और बबली’ जैसी फ़िल्में बनाई हैं।
कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का निधन 98 वर्ष की आयु में 23 जुलाई, 2012 की सुबह 11.20 बजे कानपुर के हैलेट अस्पताल में हो गया। उन्हें 19 जुलाई को दिल का दौरा पड़ने के बाद भर्ती कराया गया था, जहाँ उन्हें बाद में ब्रेन हैमरेज हुआ। लेकिन दो दिन बाद ही वह कोमा में चली गयी। करीब पाँच दिन तक जिन्दगी और मौत से जूझने के बाद आखिरकार कैप्टन सहगल अपनी अन्तिम जंग हार गयी। स्वतंत्रता सेनानी, डॉक्टर, सांसद, समाजसेवी के रूप में यह देश उन्हें सदैव याद रखेगा। वे अन्तिम दिनों तक कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती रहीं। उनकी इच्छानुसार उनका अन्तिम संस्कार नहीं किया गया और उनका मृत शरीर कानपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया गया था। जीवन भर गरीबों और मजदूरों के लिए संघर्ष करती रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल के निधन के समय उनकी पुत्री सुभाषिनी अली उनके साथ थीं।
1998 में उन्हें भारत सरकार द्वारा उल्लेखनीय सेवाओं के लिए पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
आज पुण्यतिथि के अवसर पर हम देश और समाज के लिए कैप्टन लक्ष्मी सहगल के असाधारण योगदान का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।