इस देश में दलित, पिछड़ों, वंचितों को ऊपर उठाने के इरादे से बरसों पहले देश में संविधान बनाया गया। हालांकि इसके साथ-साथ लिखित संविधान में और भी कई बातें लिखित हैं। लेकिन उन्हें मानता, जानता कौन है? या कहें कितने लोग संविधान को मानते हैं? और कितने लोग संविधान को जानते हैं? कई लोग तो यह भी कहते आए हैं कि बस लिखने भर को लिख दिया गया।
लेकिन सिनेमा, साहित्य बराबर आज भी इस मुद्दे की पैरवी करता आया है। ढेरों कहानियां, कविताएं, उपन्यास संविधान के ख़ाके में तथा उसी दायरे में रहकर लिखीं गईं। ऐसे ही ढेरों छोटी-बड़ी फिल्में भी बनी। फिल्में और साहित्य यूँ ही लिखा, रचा जाता भी रहेगा। सम्भवतः उन लिखने और रचने वालों को यह उम्मीद हो कि एक दिन सूरज उनकी ओर भी आकर रोशनी देगा। क्योंकि कहते हैं न कि उम्मीदों से ज़िंदगी रोशन है। और जब ऐसा साहित्य, सिनेमा हमारे- आपके सामने आता है तब कहीं-न-कहीं हम यही कहते हैं कि ये आग बनी रहनी चाहिए।
उत्तरप्रदेश के बनारस की पृष्ठभूमि में रची-बसी शॉर्ट फिल्म ‘दाहक’ भी कुछ ऐसी ही आग दिखाने की कोशिश करती नजर आती है। इसी कोशिश के चलते यह कभी उन्नीस तो कभी बीस हो जाती है। इक्कीस क्यों नहीं हो पाती उसका कारण जब भी यह फ़िल्म आएगी तो आप जान लीजिएगा।
एक्टिंग के लिहाज से एक दो को छोड़ बाकी का काम औसत है। सिनेमैटोग्राफी कुछ-कुछ ठीक है। बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है। कैमरामैन का काम भी दो-चार जगह अच्छे सीन को कवर करता है। एडिटिंग, फ़िल्म की कलरिंग और लुक में यदि ये लोग थोड़ा और मेहनत अभी करके फिर रिलीज करें तो बेहतर हो सकेगा। डायरेक्टर दीपक कुमार इससे पहले ‘नक्काश’ जैसी बेहतरीन फिल्मों में बतौर सहायक निर्देशक असिस्ट भी कर चुके हैं।
दरअसल इंडिपेंडेंट डायरेक्टर्स की फिल्मी दुनिया और उस राह में कई खुर-पेंच आते ही हैं। लेकिन जो उन खुर-पेंच राहों पर राजी-राजी सफ़र कर जाए तो फिर ये उम्दा कमाल भी कर दिखाते हैं बहुधा। हमारे ऊपरी तबके के फिल्मकारों को चाहिए कि जैसे यह फ़िल्म ऊंच-नीच , जाति-पांति के भेदभावों को नजदीक से देखने का मौका देती है। वैसे ही वे ऊंचे फिल्मकार कम से कम सिनेमा के साथ यह भेदभाव न रखे तो अच्छा होगा। हालांकि यह कोई महान फ़िल्म नहीं है। ना ही यह कोई महान कहानी कहती है। न ही इसके संवाद उस तरीके से नजर आते हैं ज्यादातर के आपके भीतर यह लम्बे समय तक कसमसाहट जगा सके।
लेकिन कुछ दिनों या पलों के लिए ही सही अगर यह काम आपके लिए कर जाती है तो इस फ़िल्म के रिलीज होने और अपने देखने के बाद दूसरों से भी देखने के लिए अवश्य कहिएगा। क्योंकि अच्छा सिनेमा और अच्छा साहित्य देर से ही सही लेकिन लम्बे समय तक बने रहने वाले स्वाद और अंदाज को अपने पीछे छोड़ जाता ही है। काश कि ऐसे फिल्मकारों को कुछ और संसाधन मिलें किसी दिन तो ये अपनी सिनेमाई जादूगरी को भी उस मुकाम तक ले जाकर उस लहजे में आपसे कह सके जहां से आप इन पर फ़ख्र कर सकें।
अपनी रेटिंग – 3 स्टार
तेजस पूनियां
लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
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जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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