कोरोना, श्रमिकों की पस्त-हिम्मती और नागरिकता का सवाल
- कुँवर प्रांजल सिंह
आज के दौर को हम सिर्फ महामारी काल कहकर ही आगे नहीं बढ़ सकते। यह दौर लोकतन्त्र के क्रियाकलाप तथा नागरिकों के साथ होने वाले व्यवहारों के आकलन का भी यही समय है। लोकतन्त्र में निहित सार्वजनिक संस्थाओं ने अपने नागरिकों के साथ किस प्रकार का बर्ताव किया है, इसे भी समझने की आवश्यकता है। इसी के साथ सत्ता की रस्साकशी में श्रमिक और सबाल्टर्न के मनोभाव को समझने का भी दौर है। पुलिसिया राज्य और सरकार के परे श्रमिकों द्वारा बनाये गए स्पेस के बीच अमानवीय संघर्षों को भी समझने की आवश्यकता है। उत्तरदायित्व के सिद्धान्त पर आधारित लोकतन्त्र और पितातुल्य राज्य में बिना महामारी के मर रहे सबाल्टर्न वर्गों का जिम्मेदार कौन है? इसका जिम्मेदार क्या उनका वह वोट है जो उन्हें सिर्फ नागरिक होने का एहसास कराता है? या फिर वह सामाजिक व्यवस्था जिससे वह अपना गाँव-घर छोड़ कर बेहतर जीवन की अभिलाषा में शहर आये थे। इन सब सवालों को राजनीतिक चाहतों ने अपने दया भाव के अन्तर्गत दबा दिया है। इस लेख में उन सवालों से दो-चार होते हुए राजधानी दिल्ली से आ रहे इन नागरिकों से की गई बातचीत के एक टुकड़े को शामिल करते हुए नागरिकता और लोकतन्त्र के रिश्ते की पड़ताल करने का प्रयास किया गया है। यह बातचीत दिल्ली से आजमगढ़ जाने वाली सड़क पर की गयी है। नागरिकता के सैद्धांतिक और संवैधानिक आवरण के भीतर आज इन नागरिकों की स्थिति क्या है, यही इस लेख का प्रस्थान बिंदु है।
मैं: चाची कहा जा रही हैं?
चाची: बेटवा सब तो कहत हव्य की घरे जात हई ….बकी हम तो कहब की जहन्नुम में चली जाइत तो ठीक रहत…
मैं: काहे चाची ?
चाची: बेटवा पहिले इ बतावा तू सरकार क मनई हवा का?
मैं: नाही चाची, हम पढ़ीला दिल्ली में ….
चाची: दिल्ली में …अछा अछा! ऐ बाबू जहां हम कमवा करत रहली ना ….उनहु के लइकवा कुल बड़का स्कुलवा में जात रहनय
मैं: चाची कहाँ घर बा?
चाची: बाऊ घर हमार गाज़ीपुर के लगे ह…
मैं: काहे घरे जात हऊ…
चाची: बाबू खाये के न हह कौनो कामो तो ना रही गयल… जहाँ कमवा करत रहली उहो अब ना बोलौतन त का करी गल्ला भी कुल खत्म होय गयल …..लड़िका हमार फैक्ट्री मा काम करत रहल त उहो जायल छोड़ देहलय फिर का बाबू हमने रोज किन के खाये वाला त कहा से रहित……
मैं : यहाँ तक कैईसे अइलु ….(यमुना एक्सप्रेस-वे)
चाची: दिल्ली में जहाँ हम रहिला उहा हमनी के गाँव के लोग रहेन ….एक दिन सब हिम्मत बनाउलय चला हो घरे चलल जाय ….इहवाँ मर जायल जाई तो कौनो लसियो न पूछिये घरे चौहोप जायल जाई तो कम-से-कम आराम से मरल जाई….सब चलल त हमहु चल दहली
मैं: पैदल आइलु नोयडा तक ?
चाची: हाँ कुछ दूर पैदल अइली कुछ दूर दिनेश उठउनय फिर बाबू पोतवा भी उठवलय 2दिन में इहा अइली…. लेकिन वही बाबू पुलिस रोक लहलय अब सुनय के तईयारय ना लाठियाँ के हुचा से पोतवा के मार देहनय…….. अब बाबू हमने कुछ कय तो सकित नाय बहुत रोलय …..सब चुप करूलय कहली बाबू की गरीबन के क्यो सरकार नाय होत ऐ बाबू (इतने में दिनेश ब्रैड पौकड़ा ले कर आ जाता है)
मैं: इ ट्रकिया कैईसे मिलल?
दिनेश: पैसा दिए तब मिली …..
चाची : हाँ बाबू लेकिन रात में तो आराम रहेला लेकिन दिनवा में बाबू गरम तावा होय जाला जेकरे वजह से गोडवा फूली गयल हह… एक दम डब्बा मतीन ….
मैं: नेता कौनो मदत ना कइले हो
दिनेश: नेता ऐ समय आपन जान बचावत हवय और जब इससे छूटी मिल जाएगी फिर अपनी कुर्शी बचाएंगे..
मैं: अरे भाई वोट तो दिए थे ना..
दिनेश: वोट दिए थे और सरकार भी बनी थी…लेकिन वोट इस लिए नही दिए थे न कि हम मरेंगे तो सरकार हमको बचायेगी…. हम तो वोट दिए थे आपन नौकरी बचानी थी, पेट पालना था। इतना कह कर दिनेश रोने लगा। मैं वहाँ से हट गया। ये तांडव मुझसे देखा नहीं गया।
बात करते हुए एक लोहे के छड़ से लदा एक ट्रक उसी समय वहाँ आकर रुकता है जिसमें अधिकांश लोग मैनपुरी, इटावा के ही थे। उनके चेहरे देख कर ऐसा लग रहा था कि बेबसी और घर जाने की ख़ुशी दोनों न तो रोने दे रही है और न हँसने दे रही है। जब मैंने उस ट्रक को छुआ तो लगा कि हाथ गर्म तवे पर रख दिया है। इस गर्म तवे पर बैठी जनता इस लोकतन्त्र में प्रजा के समान है। यहाँ आदर्श नागरिक व्यवहार की अवधारणा को सामने रखें तो ऐनी बेसेंट के असंतोष प्रासंगिक लगने लगते है। जहाँ वे यह मानती थीं कि जिस सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह के अनुभव से भारतीय जन-मानस तैयार हुआ है, आज उसी क़ानूनी अराजकता का शिकार होता हुआ नज़र आता है और एक ऐसे स्पेस का निर्माण कर चुका है जहाँ नागरिक-समाज और राज्य के बीच एक ऐसी भीड़ है जिन्हें नागरिक के रूप में पहचानना आज भी राज्य के लिए अन्तर्विरोध की स्थिति है।
इस अन्तर्विरोध को दो आधारों पर समझा जा सकता है। प्रथम, एडमंड मार्गन अपनी किताब इन्वेंटिग द पीपुल में जन की अवधारणा के दो रूपों में चिन्हित करते हैं। जिसका मूल तर्क यह है कि ‘जन की अवधारणा’ ईश्वरी मूल सिद्धांत को विस्थापित करती है और लोगों की संप्रभुता को स्थापित करती है। जिसमें शरीर के दो रूप अस्तित्व में आते हैं। एक रूप सामाजिक अस्तित्व से जुड़ा हुआ है दूसरा शरीर की काल्पनिकता से, जो राजनीतिक समुदाय के सभी लोगों की एकता को बयाँ करता है। कहने का आशय यह है कि एक जन सम्प्रभु के रूप में दूसरा जन प्रजा के रूप में।
चाची और दिनेश के दिए गये उपर्युक्त विवरण से वे सम्प्रभु होने के दायरे से बाहर निकल कर एक प्रजा के रूप में अभिव्यक्त होते हैं दूसरी तरफ यह अन्तर्विरोध अम्बेडकर के उस कथन से भी पूरी तरह मेल खाता है जिसे 24 जनवरी 1950 के भाषण में रेखांकित किया था कि ‘राजनीति में समानता और सामाजिक, आर्थिक जीवन में विषमता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति की कीमत एक वोट के आधार पर आँकेंगे लेकिन सामाजिक आर्थिक जगत में विषमतामूलक संरचना के कारण हम एक व्यक्ति-एक मूल्य का उसूल नकारना ज़ारी रखेंगे। वर्तमान स्थिति के आँकलन में दिनेश वोट देने पर विश्वास तो करता है लेकिन उसके सामाजिक जीवन में क्या परिवर्तन आया है? इसका आँकलन वह आज भी करने में असमर्थ है। राजनीतिक व्यवहार के आधार पर देखें तो दिनेश या उस जैसे श्रमिक जिस प्रकार महामारी के प्रकोप से ज्यादा राजनीतिक व्यवस्था से उलझते हुए दम तोड़ गये। ये व्यक्ति का एक मूल्य के रूप में पतन को तो दर्शाता ही है, साथ ही नागरिक के तौर पर राजनीतिक समुदायों की अवधारणा को भी हाशिये पर ले धकेल देता है।
इन बहसों के साथ यदि नागरिकता की सैद्धान्तिक परिभाषा की सुध ली जाए तो टी.एच् मार्शल का नाम पहले आता है। जहाँ वह नागरिकता को राजनीतिक समुदाय को पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में पेश करते हैं। क्योंकि नागरिकता एक ऐसी हैसियत है जो उन लोगों की दी जाती है जो एक समुदाय के सदस्य होते हैं। इस हैसियत को धारण करने वाले सभी लोगों के पास इससे सम्बंधित अधिकार और कर्तव्य समान रूप से होते हैं। इन अधिकारों और कर्तव्यों को तय करने के बारे में कोई सार्वभौमिक सिद्धान्त नहीं हैं। वे आदर्श नागरिक की ऐसी छवि तैयार करते हैं, जिसके आधार पर उपलब्धियाँ आँकी जाती हैं और हासिल करने के लिए मुरादें पाली जाती हैं लेकिन इस प्रक्रिया में राज्य एक खण्डित रूप धारण कर लेता है। राज्य रोजमर्रा के जीवन के समाने खड़ा होता है। मसलन पुलिस, नगर निगम, ग्राम अधिकारी आदि रोजमर्रा जीवन में आने वाले राज्य के रूप हैं। इससे पता चलता है कि राज्य इन खण्डित इकाइयों का एकीकृत रूप है। जिसका स्पष्ट चित्रण तात्कालिक दौर में देखा जा सकता है जो नागरिकता के तीन अधिकारों के भी परे है जिसका जिक्र मार्शल करते हैं। प्रथम, नागरिक अधिकार, इसके अन्तर्गत अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, सभा, आन्दोलन करने का अधिकार शामिल है। दूसरा, राजनीतिक अधिकार में, व्यक्तिगत अवसर, वोट देने का अधिकार, राजनीतिक समानता, वयस्क मताधिकार लोकतांत्रिक सरकार आदि। तीसरा, सामाजिक अधिकार में सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य तथा कल्याणकारी नीतियाँ और सामाजिक सुरक्षा शामिल है। नागरिकता के ये तीनों अधिकार भारतीय संविधान में भी परिलक्षित होते हैं।
इसी क्रम में भारतीय संविधान लोकतन्त्र के माध्यम से उत्तरदायी नागरिकता की अवधारणा को भी आगे बढ़ाता है जिससे नागरिक सिद्धान्त और लोकतन्त्र के बीच मजबूत सम्बन्ध बना रहता है। इन सैद्धांतिक बातों को आज के परिदृश्य में रखें तो नागरिकता के दो दायरे निकल कर आते हैं। एक वह वर्ग जो सरकार के निर्णय को तार्किक मान लेता है, उससे न्यायोचित बनाने के लिए अपने इर्द-गिर्द उदाहरण को सजाता है जिसमें तर्क-वितर्क करने की सम्भावना बहुत कम होती है । यह वर्ग राज्य के खण्डित इकाइयों के साथ कभी-कभी गठबन्धन करता हुआ नज़र आता है। यह वर्ग कानून के शासन के भीतर रह कर कार्य करता है। दूसरा नागरिकता का वह वर्ग जो सिर्फ राजनीतिक लामबन्दी के प्रयोग में तथा चुनावी खेल में ही नागरिक रह जाता है। बाक़ी दिनों में लोकतन्त्र के अन्दर वह सिर्फ भीड़ के रूप में ही पहचाना जाता है। इसी विशेष प्रक्रिया में इस नागरिक को ज्ञानेन्द्र पांडे सबाल्टर्न सिटीजन की संज्ञा देते हैं।
इस नागरिक के अधिकार को लोकतन्त्र कैसे देखता है, यह अभी भी विचारणीय है। और इस तात्कालिक दौर में इसके उदाहरण भी सामने आये हैं कि लोग बेहतर जीवन की अभिलाषा में शहर आये और अपने गाँव जाते समय बिना महामारी के उनकी जान चली गई। दरअसल, यह सवाल सत्ता और सरकार के प्रभुओं से ही नहीं जुड़ा है बल्कि संविधान की नैतिकता पर भी सवाल उठता है। याद करिये 4 नवम्बर 1948 को संविधान सभा में संविधान के मसविदे पर अम्बेडकर संवैधानिक नैतिकता को परिभाषित करते हुए इसे पूरे समुदाय की आवश्यक शर्त के रूप में स्वीकार करते है जिसकी निर्मिति समाज और राजनीति की अन्योन्यक्रिया से होती है। लेकिन प्यास से बिलख कर दस साल का लड़का जब किसी राष्ट्रीय राजमार्ग पर दम तोड़ देता है तो ‘विकास और बदलाव’ जैसे शब्द खोखले लगने लगते हैं। रही बात तात्कालिक सरकारों की तो उदारवादी लोकतन्त्र की पुरानी रवायत है कि इसमें सबसे ज्यादा चिंता मध्यवर्गों को लेकर होती है क्योंकि ईएमआई, ऑनलाइन व्यापार, तनखईया बाबू लोग लोकतन्त्र के ऐतिहासिक धारक रहे हैं। इसके इतर लोकतन्त्र के झंडाबरदारों को यह भी याद रखना होगा कि जिस भीड़ के सामने वे अपने वादे या भाइयों और बहनों का सम्बोधन करते है, आज उसी की पीठ पर लाठियों के निशान और पैरो पर छाले हैं। इनसे रिसती बदहाली केवल श्रमिक की नहीं है बल्कि यह भारत के उन नागरिकों की है जो लोकतन्त्र को जीवंत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया करते हैं।
इस क्रम में यह महामारी भारत की समकलीन राजनीतिक संस्कृति को भी परिवर्तित करने का प्रयास भी तेजी से कर रही है जिसमें पहचान अपने आप में दोहरा रूप ग्रहण करती है। एक, कानून का पालन करने वाले ‘अनुशासनात्मक नागरिक’ की पहचान राज्य द्वारा की जा रही है जो इस महामारी के अन्तर्गत बनाये गए अनुशासन जिसमें सामाजिक दूरी, क्वारेंटाइन, 14 दिन की सरकारी हिरासत या स्वयं को प्रतिबंधित कर लेना शामिल है। इसका पालनकर्ता लगभग सम्भ्रांत तथा मध्य-वर्ग है जिसके पास वैसे घर हैं जहाँ हर कमरे से जुड़ा शौचालय है। लेकिन इस सामाजिक दूरी की पदावली का एक और पक्ष है जिसे समझने की ज़रूरत है। सामाजिक दूरी अपने आप में राज्योन्मुखी अवधारणा है जो जनता की ‘राज्य में’ और ‘राज्य पर’ विश्वास बनाये रखने की अपील करती है। यह सामाजिक दूरी अनुशासनात्मक नागरिक का निर्माण भी करती है जो अति जिज्ञासु राज्य के लिए आवश्यक भी है। वहीं दूसरी तरफ सामाजिक दूरी का सम्बन्ध बहिष्कार की राजनीति पर भी आधारित है जो राज्य के प्रभुत्वशाली सुरक्षात्मक पक्ष को सामने रखता है जिसके पीछे राज्य अपने प्राधिकार का अभ्यास करता हुआ सामाजिक दूरी के उल्लंघन पर साधारण तथा अति-साधारण कानूनों का प्रयोग करता है। राज्य अपने राजनीतिक हित को साधने के लिए इस पद का दोहन भी करता है। यहीं पर श्रमिक नागरिक जैसे व्यवहार के इतर भीड़ जैसा व्यवहार करता है। इस प्रकार महामारी की आड़ में प्रयोग किए जाने वाले शब्द क़ानूनी जामे के अन्दर अपनी व्यवहारिकता को अंजाम दे रहे हैं।
एक सवाल यह भी है कि जिस उम्मीद से ये श्रमिक और कमजोर लोग घर लौट आए हैं क्या उसी उम्मीद से ये वापस जाकर एक बार फिर शहर को रोशन करेंगे? इनकी यह कल्पना राजनीतिक कल्पनाओं के बीच मुठभेड़ का आधार बनाएगी। साथ ही राज्य के द्वारा किए गये व्यवहार की बर्बरता और इन नागरिकों में पैदा हो रहे विरोधी स्वर निकट भविष्य में आमने-सामने खड़े होंगे। गौरतलब यह भी है कि जिस औद्योगिक आवरण में ढल कर इन लोगों ने श्रमिक की पहचान हासिल की है, वह ग्रामीण जीवन से बेहद जुदा है। परिणामस्वरूप इनका पलायन एक बार फिर शहर की तरफ होगा। फिर भी ऐसा लगता है लेकिन शायद स्थितियाँ परिवर्तित हों और इससे दो विपरीत राजनीतिक धाराएँ निकल सकती हैं। एक, क्षेत्रवाद, भाषाई द्वेष और साम्प्रदायिक कारकों से जुड़ी हो सकती है और दूसरा राजनीतिक लामबन्दी में श्रमिक यूनियनों की सक्रियता से, जो आवश्यक भी है ।
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय (राजनीतिशास्त्र विभाग) में शोधार्थी तथा आईसीएसएसआर डॉक्टोरल फ़ेलो हैं।
सम्पर्क- pranja।695@gmai।.com
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