देशमुद्दास्त्रीकाल

सांस्कृतिक समता का संघर्ष

 

  • संजीव चन्दन

 

भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों के हक में समाज सुधार के कई चरण हैं और कई रूप- आजादी के पहले 18वीं सदी के उत्तरार्ध से शुरू होकर एक दौर 19 वीं सदी के आख़िरी वर्षों तक का कहा जा सकता है, स्त्रियों के हक में समाज सुधार की मुहीम देश के सुदूर पूरब से पश्चिम तक फैली थी. इस मुहीम में एक धारा इन सुधारों में जाति-प्रश्न को शामिल नहीं करती थी तो दूसरी धारा अपने विचारों और सुधार की मुहीम में जाति को केंद्र में रख रही थी. दूसरा दौर आजादी के आंदोलनों के राजनीतिक-संगठन के रूप में उभरने के साथ शुरू होता है-भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के बाद का दौर समाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में स्त्रियों की सक्रियता का दौर रहा-भारत एक आधुनिक राष्ट्र बनने की ओर उन्मुख था तो स्वाभाविक है स्त्री-प्रश्न अपनी आधुनिकता बोध के साथ नये रूप में सामने आये. राज्य की भूमिका हर प्रकार के समाजिक सुधारों के समर्थन में थी लेकिन समाज इसके लिए धीरे-धीरे तैयार हुआ. एक ओर गांधी जी ने स्त्रियों को अपने आंदोलनों में आमंत्रित कर सामयिक सक्रियता दी तो दूसरी ओर डॉक्टर अम्बेडकर स्त्रियों को न सिर्फ जाति-जेंडर की जकडन से मुक्ति के लिए आहूत कर रहे थे बल्कि श्रम मंत्री के रूप में राज्य की भूमिका उनके हित में नियत भी कर रहे थे. इसी दौर में थोड़ी हिचकिचाहट के साथ, लेकिन बिना ज्यादा संघर्ष के, स्त्रियों को पुरषों के समान मताधिकार भी मिला.

तीसरा दौर संविधान के लागू होने के बाद भारत का अपना दौर है. आज 70 सालों के खिलाफ नकारात्मक प्रचार के बीच 1950 में संविधान लागू होने को देखें तो यह स्त्रियों और अन्य वंचितों के हक में एक मील स्तम्भ की तरह है. इसके बाद भारत में समता की दिशा में राज्य के कदम धीरे-धीरे बढ़े ही संविधान की ताकत के साथ समतावादी आंदोलनों, पहलों ने भी समाज का स्वरूप बदलना शुरू किया. स्त्री-आंदोलनों का एक दौर 70 के दशक में शुरू हुआ, जिसने ठोस कानूनी सुधारों के अलावा सांस्कृतिक स्पेस पर भी दावेदारी की. देवराला सतीकाण्ड के बाद स्त्रीवादियों और समतावादियों ने जहाँ पुरजोर विरोध किया वहीं समाज का यथास्थितिवादी तबका इसके पक्ष में खड़ा हुआ. यथास्थितिवाद की प्रतिक्रियाएं यथावत थीं लेकिन स्त्रीवादी आवाजों से उनके हौसले पस्त होते हैं. आज सती की कोई दूसरी घटना उसके बाद उस स्तर पर महिमामंडित नहीं हुई. 9वें दशक के आख़िरी वर्षों में शाहबानों के तलाक और मेंटेनेंस का मामला जितना कानूनी था उतना ही मुस्लिम समाज में सांस्कृतिक समता को भी लक्ष्य करता था. राज्य की भूमिका हालांकि यहाँ समग्रता में समझा जाना चाहिए-एक ओर उसका एक अंग यानी नायापालिका समता की ओर उन्मुख था,  मुस्लिम स्त्रियों के हक में था तो दूसरी ओर कार्यपालिका विधायिका को प्रभावित करते हुए यथास्थितिवादी मुसलमानों के हक में खड़ी हुई. फिर भी औरतों की आवाज और उनके संघर्ष के रूप में शाहबानों और उसके स्त्रीवादी समर्थकों का संघर्ष दर्ज हुआ.

पिछले दिनों तमाम नकारात्मकता और राज्य पर खुद यथास्थितिवादियों के कब्जे के बावजूद स्त्रियों के हक में दो बुलंद आवाजों को सांस्कृतिक-सामाजिक स्पेस पर उनकी दावेदारी के रूप में देखा जाना चाहिए. एक आवाज है तीन तलाक के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं और सगठनों की आवाज और दूसरी सबरीमाला में प्रवेश का संघर्ष. मुस्लिम महिलायें तीन बार तलाक बोलकर तलाक दिये जाने के खिलाफ एक क़ानून बनाने की मांग कर रही थीं, जिसका मुसलमानों का यथास्थितवादी तबका मजहबी मामले की आड़ में मुखालफत कर रहा था. इस बीच जब केंद्र की सत्ता पर हिन्दू यथास्थितिवाद के तर्कों के साथ खड़े लोग काबिज हुए तो मुस्लिम महिलाओं की ये मांगे उनके एजेंडा के अनुरूप दिखीं इसलिए वे इसके लिए प्रेरित हुए-इस बार भी परन्तु किसी भी कारणवश राज्य की भूमिका स्त्रियों के हक में सैद्धांतिक रूप से दिखी जरूर. हालांकि सत्ता पर काबिज लोगों को मुस्लिम महिलाओं की मांगों से ज्यादा रुचि हिन्दुओं के सामने मुसलमानों को एक ‘बुरे दूसरा समूह’ की छवि देने में ज्यादा रही है. सवाल उनकी नियत पर उठना लाजिम था, उठा भी. हालांकि वे तीन तलाक के खिलाफ का अध्यादेश लाते रहे लेकिन अंतिम रूप से इसे क़ानून की शक्ल नहीं दे सके, क्योंकि तीन तलाक बिल लोकसभा में तो पारित हुए लेकिन राज्यसभा में पारित न होने के कारण बिल स्वतः निरस्त हो गया. तीन तलाक बिल का प्रारूप भी एक ख़ास नियत वाली सरकार द्वारा बनाया गया प्रारूप था-जिसे अपने आप में मुस्लिम समूह के प्रति होस्टाइल प्रारूप होना ही था.  इस बिल का स्वाभाविक विरोध हुआ.  अब आगे चुनी हुई सरकार की नीति और नियत पर मुस्लिम महिलाओं के संघर्ष का हासिल टल गया. हालांकि इन लड़ाइयों का एक हासिल यह भी है कि समाज में चिन्तन का एक विषय ये छोड़ जाती हैं और निरंतर आधुनिक होता समूह इसे अंजाम तक ले जाने के लिए उद्देलित होता है. बहुत कम ही सही लेकिन मुस्लिम महिलाओं को भी हम समान आचार संहिता की बात करते हुए भी देख सकते हैं. यानी समूहों के निजी के नाम पर पुरुषों के समाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व को स्थापित करने वाली सोच भी प्रश्नांकित हो रही है.

हिन्दू स्त्रियों द्वारा सांस्कृतिक-समता का संघर्ष केरल के सबरीमाला में हुआ. इसके लिए कानूनी लड़ाइयाँ लड़ी गयीं. मंदिर में रजस्वला होने की उम्र तक की स्त्री (10 से 55 उम्र तक की स्त्री) का प्रवेश-निषेध महिलाओं के साथ जेंडर आधारित विभेद तो था ही साथ ही इसमें बहुत पहले ही गैरकानूनी करार दिया गया छुआछूत भी अपना कम कर रहा था. उच्चतम न्यायालय ने बहुमत से मंदिर प्रवेश के इस निषेध को गैरकानूनी करार दिया. और जैसा होता आया है यथास्थितिवादियों ने इस निर्णय का न सिर्फ विरोध किया बल्कि यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश की कि निषिद्ध उम्र की महिलायें कानूनन अधिकार प्राप्त कर मंदिर में दाखिल न हों. इस जमात को इस तथ्य से भी कोई लेना-देना नहीं था कि इस मंदिर में यह विभेदकारी व्यवस्था हमेशा से नहीं रही है. समता के इस संघर्ष को लेकर राज्य की भूमिका पुनः वंचितों के पक्ष में था-एक ओर न्यायपालिका उनके अनुकूल थी तो दूसरी ओर कार्यपालिका आदेश को लागू कराने के लिए बाध्य और प्रतिबद्ध. हालांकि सत्ता पर काबिज यथास्थितिवादी जमातों का स्टैंड यहाँ मुसलमान महिलाओं के हक में उनके क्रांतिकारी तेवर के ठीक विपरीत था. सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा अपनी निजी हैसियत में उच्चतम न्यायालय के फैसले को न लागू होने देने के लिए कटिबद्ध लोगों के न सिर्फ साथ दिखी बल्कि उन्हें उकसाती हुई और संगठित करती हुई दिखी. खुद प्रधानमंत्री की दोहरी भूमिका और कथन सामने आये-सबरीमाला मामले को परम्परा और तीन तलाक के खिलाफ कानून को उन्होंने जेंडर-समानता का अलग-अलग मुद्दा बताया. हालांकि राज्य सैद्धांतिक तौर पर उच्चतम नायालय के फैसले के खिलाफ नहीं जा सका.

संविधान के दायरे में, संविधान की संरक्षा में स्त्रियों की सामाजिक-सांस्कृतिक बराबरी के लक्ष्य इन्हीं प्रयासों के जरिये हासिल किये जाने की कोशिश होती रही हैं और हम निरंतर एक आधुनिक एवं समता-उन्मुखी समाज के रूप में उभर भी रहे हैं. इन्हीं दिनों एक चिह्नित किया जाने वाला फैसला उच्चतम न्यायालय से हासिल किया गया-वह था धारा 497 का उन्मूलन. व्यभिचार के मामले में प्रायः न इस्तेमाल होने वाली यह धारा क़ानून की किताबों में रहकर स्त्रियों के सांस्कृतिक स्तर पर दोयम दर्जे की होने की धारणा को पुष्ट कर रही थी. इसके होने से स्त्री के पुरुषों की सम्पत्ति समझे जाने को क़ानूनन वैधता मिल रही थी.इस धारा के अनुसार कोई भी व्यभिचार व्यभिचार तबतक है जबतक इसमें शामिल स्त्री के पति को कोई आपत्ति हो अन्यथा व्यभिचार व्यभिचार नहीं होगा और दूसरे पक्ष की यानी शामिल पुरुष की पत्नी इस मामले में कोई कानूनी पहल भी नहीं कर सकती थी. कानूनी पहल का हक़ भी उस पति को ही होता था जिसे अपनी पत्नी के व्यभिचार पर ऐतराज हो.

क़ानून और संघर्षों के जरिये स्त्रियाँ आज यदि अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक स्पेस पर दावेदारी कर रही हैं तो उस दावेदारी का दृश्य भी बदला है. सुधार आंदोलनों के पहले चरण से अलग स्त्रियाँ खुद पहल ले रही हैं. इसकी शुरुआत भारत में स्त्रीवादी आंदोलनों के साथ शुरू हो गयी थी. आज सबरीमाला में प्रवेश का प्रयास करती महिलाओं का संघर्ष देखा जा सकता है और उनके समर्थन में एक दिन में लाखो महिलायें मानव श्रृंखला बनाकर खड़ी भी होती हैं. यह दृश्य संविधान से संचालित भारत का एक सकारात्मक हासिल है और 70 सालों की कथित विफलता के जुमले को निरस्त भी करता है.

लेखक स्त्रीकाल पत्रिका के सम्पादक हैं|

सम्पर्क- +91 81302 84314, themarginalised@gmail.com

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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