जलवायु परिवर्तन ही है लैंगिक विषमता और लैंगिक हिंसा का कारण
पूरी दुनिया इस समय कोरोना महामारी से जूझ रही है। पिछले लगभग दो वर्षों से मानव इस संकट से निकलने का प्रयास कर रहा है। लेकिन टीकाकरण और तमाम सावधानियाँ बरतने के बावजूद करोड़ो लोग इससे प्रभावित हो चुके हैं और लाखों जाने जा चुकी हैं। इसके बावजूद इस संकट को समाप्त करने का कोई ठोस उपाय नज़र नहीं आ रहा है। वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि ज़रा सी लापरवाही कोरोना की तीसरी लहर को आमंत्रण दे सकती है, जो दूसरी लहर से भी अधिक खतरनाक साबित होगी।
लेकिन इस संकटकाल के बीच मानव ने जो एक अहम मुद्दे को भुला दिया है, वह है जलवायु परिवर्तन। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर पिछले कई दशकों से बात हो रही है। हर साल विश्व पर्यावरण दिवस और अन्य महत्वपूर्ण अवसरों पर इस विषय को लेकर न जाने कितने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, सेमिनार, संगोष्ठियाँ आदि होती हैं, लेकिन नतीजा आज भी वही है ‘ढाक के तीन पात।’ वस्तुतः जलवायु परिवर्तन से होने वाले आर्थिक और पर्यावरणीय नुकसान की चर्चा लगभग सभी मंचों पर होती है, किन्तु इन नुकसानों से उत्पन्न सामाजिक समस्याओं खासकर ‘लिंग आधारित’ समस्याओं पर बहस बहुत ही कम देखने को मिलती है।
किसी भी स्थान के औसत जलवायु में अचानक से होने वाले दीर्घकालिक बदलावों को जलवायु परिवर्तन का परिणाम माना जा सकता है। यह मुख्य रूप से दो कारणों से होता है- प्राकृतिक और मानवीय। धरती की टेक्टोनिक प्लेटों का फैलाव, पहाड़ों का अपने स्थान से खिसकना, ज्वालामुखी का फटना और समुद्र में तरंगे उठना आदि जलवायु परिवर्तन के प्राकृतिक कारण हैं, जो सामान्य अवस्था में संतुलित रूप से होते हैं, लेकिन पिछले 150-200 वर्षों में जलवायु परिवर्तन इतनी तेजी से हुआ है कि प्राणी व वनस्पति जगत को इस बदलाव के साथ सामंजस्य बैठा पाने में मुश्किलें आ रही हैं। इस परिवर्तन के लिए प्रकृति नहीं, बल्कि मानवीय कारण या क्रिया-कलाप जिम्मेदार हैं।
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि पर्यावरण परिवर्तन से सबसे अधिक महिलाएँ प्रभावित होती हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने चेतावनी दी है कि पर्यावरण परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर विकासशील देशों की महिलाओं पर पड़ेगा, क्योंकि महिलाएँ अपने घरों के भीतर प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। निम्न और मध्यम आय वाले देशों में 10 में से 8 महिलाओं पर अपने घर के लिए पानी जमा करने की जिम्मेदारी होती है। महिलाएँ विशेष रूप से कृषि और मत्स्य पालन से जुड़ी होने की वजह से जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकती हैं। विश्व स्तर पर भी पानी से संबंधित 70 प्रतिशत प्रबंधन के लिए महिलाएँ जिम्मेदार हैं। अकेले भारत में 65 प्रतिशत से अधिक महिलाएँ कृषि से जुड़े कार्य करती हैं। फिर भी, विडंबना यह कि जलवायु परिवर्तन अनुकूलन में महिलाओं की भूमिका और उनके जुड़ाव को मापने के लिए कोई विश्वसनीय आंकड़ा अब तक उपलब्ध नहीं है।
भारत में 49 करोड़ लोगों की आय का स्रोत किसी ने किसी तरह खेती से जुड़ा हुआ है। भारत सहित विश्व के ज्यादातर देशों में खेतिहर मज़दूरी महिलाएँ ही अधिक करती हैं। तापमान परिवर्तन से बाढ़ एवं सूखे की समस्या तो पैदा होगी ही, साथ ही महिलाओं को खाना पकाने के लिए ईंधन का संग्रह करना भी कठिन हो जायेगा। यही कारण माना जाता है कि जलवायु परिवर्तन से शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण महिलाएँ ज्यादा प्रभावित होंगी, क्योंकि उनकी घरेलू अर्थव्यवस्था जंगल, खेती और प्राकृतिक संसाधनों पर टिकी रहती है। जंगलों की कटाई, फसलें नष्ट होने या प्राकृतिक संसाधनों की कमी के चलते परिवार को पौष्टिक आहार नहीं मिल पाएगा। महिलाओं के सामने परिवार का भरण-पोषण करने की चुनौती होती है। कई बार बच्चों की सेहत की खातिर महिला अपने आहार पर ध्यान नहीं दे पाती है और कुपोषण का शिकार बन जाती है।
प्राकृतिक आपदाओं के वक्त महिलाओं की मुश्किलें अकल्पनीय रूप से बढ़ जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि प्राकृतिक आपदाओं में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के मरने की संभावना अधिक रहती है। सूखा, बाढ़, सुनामी और अन्य आपदाओं का पहला निशाना महिलाएँ ही बनती हैं। एक अध्ययन में पता चला है कि 1970 के दशक में सूखे और बाढ़ के कारण लड़कियों के स्कूल या कॉलेज जाने की संभावना 20 फ़ीसदी कम हो गयी। ऐसे में आशंका है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव जैसे-जैसे बढ़ते जाएँगे, उसी अनुपात में महिलाएँ और लड़कियाँ विकास की इस दौड़ में पीछे छूटती जाएँगी। घरेलू कामकाज में आने वाली मुश्किलों और उसमें लगने वाले समय के चलते लड़कियों के स्कूल जाने की संभावनाओं को झटका लगता है क्योंकि उन्हें भी इस काम में हाथ बटाना पड़ता है।
जब पर्यावरण का विनाश होता है और पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव बढ़ता है, तो लोगों पर दबाव बढ़ता है और प्राकृतिक संसाधनों में कमी आती है। महिलाएँ और लड़कियाँ ही पिछड़े क्षेत्रों में पानी, मवेशियों का चारा और ईंधन की लकड़ियों का प्रबंध करती हैं। इसके लिए उन्हें लम्बी दूरी तय करनी पड़ती है, और जलवायु परिवर्तन इस दूरी को लगातार बढ़ाता जा रहा है। ऐसे में महिलाएँ हिंसा और यौन उत्पीड़न का आसानी से शिकार हो जाती हैं। बीते कुछ समय में यौन हिंसा और अपराध के ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जहाँ किसी घर में पानी या शौचालय का अभाव उस घर की बेटी-बहू के रेप की वजह बन गया।
ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एँग्लिया (यूईए) द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार, एशिया और अफ्रीका में जलवायु परिवर्तन के चलते पुरुषों को अपने खेतों को छोड़कर काम-धंधे की तलाश में शहरों की ओर पलायन करना पड़ रहा है। इससे घर पर रहने वाली महिलाओं पर काम का दबाव बढ़ रहा है। चूंकि पुरुषों के पलायन के बाद महिलाएँ घर पर अकेली रह जाती हैं और उन्हें अकेले ही अपने बच्चों और खेतों का ध्यान रखना होता है। यही वजह है कि वह विषम परिस्थितियों में अपना जीवन जीने को मजबूर हैं। इससे उनके स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन मानव अधिकारों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही तरह के खतरे पेश कर रहा है। इसने भोजन के अधिकार, पानी और स्वच्छता के अधिकार, सस्ती व्यावसायिक ऊर्जा हासिल करने के अधिकार और इसे विस्तार देते हुए विकेन्द्रीकृत व समतामूलक विकास के अधिकार को भी प्रभावित कर रही है।
बढ़ रही बेरोजगारी और गरीबी का सीधा प्रभाव महिलाओं की स्थिति पर पड़ रहा है। गरीबों में भी महिलाओं और लड़कियों का अनुपात ज्यादा है, जिसकी वजह से वह समस्या की चपेट में और ज्यादा आती हैं। इससे इनके सामने आजीविका का संकट और भी गहरा होता जा रहा है। पानी की कमी, ईंधन की कमी का असर बच्चियों के स्वास्थ्य और उनके स्कूलों की शिक्षा पर भी पड़ता है। जहाँ यह समस्याएँ ज्यादा जटिल हैं वहाँ बच्चियों का स्कूल ड्राप आउट अनुपात ज्यादा है। साथ ही यहाँ बाल विवाह की दर, महिलाओं के प्रति होने वाले अन्य अपराध की दर भी ज्यादा है। इस कारण औसत रूप से महिलाओं की स्थिति कमजोर होती जाती है।
यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एँग्लिया में जेंडर एँड डेवलपमेंट की प्रोफेसर नित्या राव ने एशिया और अफ्रीका के 11 देशों में 25 से अधिक अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि समाज में महिलाओं की वर्तमान समस्याओं को जलवायु परिवर्तन और तेजी से बढ़ा रहा है, इसलिए इसे रोकने में महिलाओं की भागीदारी के बिना सफलता नहीं मिलेगी। इन्हीं सब कारणों से महिला संगठनों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए योजना बनाते वक्त महिलाओं के हित का ध्यान रखने की सलाह दी है। वन वर्ल्ड फाउंडेशन इंडिया की अध्यक्ष अदिति कपूर के अनुसार आमतौर पर लोगों को नहीं लगता कि जलवायु परिवर्तन और लैंगिक विषयों का आपस में कोई संबंध हो सकता है, लेकिन हकीकत यह है कि अगर आप भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आकलन करें तो यह आपकी खेती को प्रभावित करता है। इससे यह तय होता है कि आपदा का आप पर कितना असर होगा।
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दोनों ही मामलों में महिलाएँ सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। अगर प्राकृतिक संसाधनों के लिहाज से देखें तो कृषि से संबंधित 70 फीसदी से ज्यादा काम महिलाएँ ही करती हैं। योजना आयोग के मुताबिक चारे और जंगल से मिलने वाले उत्पादों के मामले में भी अधिकांश काम महिलाएँ ही करती हैं। मतलब यह है कि अगर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हमारी प्राकृतिक संपदा पर पड़ता है तो उससे सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएँ ही होती हैं।
पिछले कुछ वर्षों में जिस प्रकार से जलवायु परिवर्तन के खतरे बढ़ते जा रहे हैं, यदि उस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो इसका दुष्परिणाम संपूर्ण मानव जाति को चुकाना होगा। जिसका सबसे बुरा प्रभाव महिलाओं पर पड़ेगा। ऐसे में यदि इसके नुकसान को कम करना है तो हमें आज से ही इसके उपाय शुरू करने होंगे। इससे जुड़ी किसी भी नीति को बनाने में महिलाओं को केंद्र में रखने की ज़रूरत है, ताकि जलवायु परिवर्तन के खतरे को दूर करने के साथ साथ लैंगिक विषमता को भी दूर किया जा सके। (चरखा फीचर)