नागरिक समाज का सत्ताधीशों से सवाल
2020 का साल अविश्वसनीय असंतोष के माहौल में शुरू हुआ है| विद्यार्थियों से शुरू विरोध अब घरेलू महिलाओं तक को समेट चुका है| यह पूछा जाने लगा है कि क्या 1974 वाले हालात होने जा रहे हैं? क्या ऐसा ही गुजरात में,फिर बिहार में, फिर देश भर में 1973-77 में नहीं हुआ था –इंदिरा गाँधी की कांग्रेस की 1971 व 1972 में महाविजय; बांगलादेश युद्ध में पाकिस्तान से टूटकर बांगलादेश का बनना; फिर 1973 में गुजरात के विद्यार्थियों की बढ़ी छात्रावास फीस के खिलाफ बगावत; फिर महिलाओं ने उठाया घरेलू जरूरतों की आसमान छूती कीमतों का सच| फिर समाजसेवकों के उपवास| अन्त में पुलिस से पूरे प्रदेश में टकराहट और हिंसा| फिर सेना का फ्लैग मार्च| जे. पी. और मोरारजी देसाई का नवनिर्माण आन्दोलन को नैतिक समर्थन| गुजरात की नयी चुनी सरकार का इस्तीफ़ा| नयी बनी विधान सभा का विघटन| आन्दोलन के दूसरे मोरचे का बिहार में खुल जाना| सरकार और विपक्ष में पूरी संवादहीनता| प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी की पार्टी में भी असंतोष| सिर्फ भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी, शिवसेना और अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम का समर्थन| अन्तत: इमरजेंसी की 21 महीने की अँधेरी अवधि में संजय गांधी की टोली, युवक कांग्रेस और पुलिस का आतंक| फिर नया लोकसभा चुनाव और इमरजेंसी राज का खात्मा| लोकतन्त्र का अविश्वसनीय पुनर्जन्म!
दुबारा शासन की बागडोर निर्विघ्न हाथ में आने के बावजूद देश की आर्थिक विकास यात्रा रुक सी गयी है| पूंजी निर्माण से लेकर आयत-निर्यात संतुलन और रोजगार अवसर विस्तार तक कहीं से खुशखबरी नहीं आ रही है| पहले किसान सडकों पर आये| फिर श्रमिक संगठनों ने 8 जनवरी को ‘भारत बंद’ किया| देशी अरबपति बैंकों से लिया हजारों करोड़ का कर्ज माफ़ करवाने के बाद भी रोजगार निर्माण के लिए अपनी पूंजी लगाने को तैयार नहीं किये जा सके हैं और बहुदेशीय कम्पनियाँ भी मोदी सरकार से आर्थिक बाजीगरी से परेशान होकर पैर पीछे खिंच रही हैं|
हमारे समाज की धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र की पुरानी दरारों को विकास से भरकर सबका विश्वास पाने की तरफ बढ़ने की बजाय नागरिकता कानून (संशोधन), नागरिकता रजिस्टर और जनसँख्या रजिस्टर के त्रिकोण बनाने की दिशा में कदम बढ़ाकर मोदी सरकार ने एक राष्ट्रव्यापी गतिरोध पैदा कर दिया है| 2011-13 में भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए चले ‘लोकपाल विधेयक आन्दोलन’ के देश की एक नयी पार्टी (आम आदमी पार्टी) और उसकी दिल्ली में एक आधी-अधूरी सरकार (न जमीन की मालिक, न पुलिस या भ्रष्टाचार विरोधी फ़ोर्स पर काबू) के रूप में सिमट जाने के बाद आन्दोलनकारी व्यक्तियों और समूहों के हताश हो जाने से पैदा बिखराव और उदासीनता से त्रस्त नागरिक समाज में एकाएक चौतरफा सक्रियता फ़ैल गयी है| कई विश्वविद्यालयों और न्यायालयों से लेकर शहरों और सूबों में केन्द्रीय सरकार के ताज़ा फैसलों के खिलाफ नागरिकों की लामबंदी का माहौल दीख रहा है| राजधानी के विद्यार्थियों से लेकर उत्तर-पूर्व प्रदेशों और तमिलनाडु तक अलग अलग आशंकाओं के कारण विरोध का दबाव बना हुआ है| इससे हतप्रभ सत्ताधारी दल पुलिस की लाठी-गोली और गिरफ्तारियों का सहारा ले रही है| क्या यह अकारण है कि उत्तर प्रदेश में सरकार की पुलिस ने कई जगहों पर लाठी-गोली का सहारा लिया जिसमें कम से कम 20 लोग मारे गए? देश के भाजपा शासित प्रदेशों में अनेकों सरोकारी नागरिक बिना मुकदमों के बंद किये गए हैं और इनमें वकील, पत्रकार, विद्यार्थी,सामाजिक कार्यकर्ता और साधारण नागरिक भी हैं|
इस सिलसिले में यह नहीं भूलना चाहिए कि हम भारत के लोग येन-केन-प्रकारेण पिछले सात दशकों से प्रतिनिधित्व आधारित शासन प्रणाली की स्थापना की तरफ ही बढ़ते रहे हैं| वैसे कभी कभी फिसल भी जाते हैं| लेकिन कुल मिलाकर, यह व्यवस्था बहुदलीय चुनावी मुकाबले के जरिये जनता के बहुमत को पानेवाले को एक संविधान के आधार पर सत्ता-संचालन की जिम्मेदारी देती है| इस बहुमत को हासिल करने के लिए अनेकों दल अपने अपने चुनाव घोषणापत्रों के आधार पर उम्मीदवार मैदान में उतारते हैं| मीडिया की मदद से अपना पक्ष रखते हैं| बहुमत पानेवाला दल या दल-गठबंधन संविधान की कसम लेकर पांच बरस (या जबतक बहुमत कायम रहे) तक सत्ता का प्रबंध करता है| इस दौरान यदि सरकार की तरफ से कोई फैसला संसद में बहुमत के समर्थन के बावजूद विवादास्पद बन जाता है तो न्यायपालिका की मदद से गुत्थी सुलझाई जाती है| अगर न्यायालय के निर्णय के बावजूद प्रश्न बने रहते हैं तो अगले आमचुनाव में जनता की अदालत से फैसला होता है| तबतक असहमत पक्ष अपनी बात पर अड़े रहते हैं और लोकमत बनाने के लोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं| इसलिए न तो सरकार चला रहे दल द्वारा ‘जनहितकारी’फैसलों के लेने पर प्रतिपक्ष द्वारा पाबंदी लगायी जा सकती है और न सरकार के फैसलों से असहमत होनेवालों के विरोध प्रदर्शन को ‘संसद का अपमान’ घोषित किया जा सकता है| जिस तरह हमारा संविधान दलों को बहुमत पानेपर सरकार चलाने का अधिकार देता है उसी प्रकार नागरिकों और नागरिकों के संगठनों को सरकार के कदमों के विरोध का हक़ संविधान द्वारा ही संरक्षित है| यह अलग बात है कि इस तरह की दशा में एक गतिरोध जरुर पैदा हो जाता है|
लेकिन क्या यह पहली बार हो रहा है? असल में हमारा देश पहली बार 1975-77 मे इस तरह के लोकतांत्रिक गतिरोध से गुजरा था| अन्तर सिर्फ इतना है कि पात्रों की भूमिकाएं बिलकुल उलट गयी हैं| आज के सत्ताधीश तब सडकों पर झंडे लिए धरना दे रहे थे, जुलूस निकाल रहे थे और ‘गद्दी छोडो -गद्दी छोड़ो’ के नारे लगा रहे थे| इसके लिए महीनों बिना मुक़दमा जेलों में बंद रखे गए थे और आज के कई विरोधी दलों के अनेकों नेता तब सत्ताधीश थे और देश-संविधान-लोकतन्त्र के खतरे में होने का बयान दे रहे थे| जे|पी| समेत सभी चिंतित देशभक्तों और लोकतन्त्र प्रेमियों को ‘फासिस्ट’ होने का प्रमाणपत्र दे रहे थे| फिर अपनी कुर्सी बचाने के लिए संविधान को ही तोड़-मरोड़ दिया| अपने प्रतिपक्षियों को ‘देशहित’ में गैरकानूनी घोषित कर दिया| इसीपर जे. पी. जैसे सौम्य राष्ट्रनिर्माता को कहना पड़ा था कि ‘सच कहना अगर बगावत है तो समझो हम भी बागी हैं!’|
आगे का कालचक्र कैसे चला यह इतिहास में दर्ज ही है| 21 महीने ज़रुर सत्ताधीशों की मनमानी चली| लोकसभा चुनाव तक एक साल के लिए टाल दिया गया| लेकिन देश में फैलाते गए प्रतिरोध और दुनिया में बढ़ रहे दबाव के कारण आत्मकेंद्रित आत्ममुग्ध सत्ताधीशों को आखिर में चुनाव कराना पड़ा| फिर कैसे कैसे ऐसे वैसे हो गए …! इसलिए जिनके हाथ में देश ने अपनी लगाम सौंपी है उन्हें आत्ममुग्धता से मुक्त होकर आत्म-चिंतन करना चाहिए| इमरजेंसी के बनानेवालों की और मिटानेवालों की – दोनों पक्षों की कहानी पढ़नी चाहिए|
नागरिकता कानून संशोधन, नागरिकता पंजीकरण और जनसँख्या गणना प्रक्रिया को लेकर पूरे देश में सरोकारी नागरिकों में अनेकों आशंकाएं पैदा हो गयी हैं| इन आशंकाओं का समाधान संविधान को केन्द्रीय तत्व के रूप में पहचानने से ही संभव है| वैश्वीकरण के दौर में भारतीय संविधान का नया पाठ दुनिया में चल रहे ‘अन्यता-विरोधी अभियानों’ के लिए एक स्वस्थ लोकतांत्रिक समाधान होने जा रहा है|
इस बारे में देश की राजधानी समेत अनेक नगरों और महानगरों में लगातार विरोध प्रदर्शन होने से सरकार ही नहीं प्रतिपक्षी और पत्रकार तक चकित है| क्योंकियह ‘नासमझों की भूलभरी हरकत’ नहीं है| इस कदम के खिलाफ देशभर में कानून के सर्वाधिक जानकार तबकों अर्थात वकीलों और बुद्धिजीवियों ने विरोध प्रकट किया है| सरोकारी नागरिको और मानव अधिकार संगठनों की तरफ से सौ से जादा जनहित याचिकाएं दाखिल की जा चुकी है जिनके बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार से जवाब की नोटिस जारी कर दी है| केरल की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इसकी संवैधानिकता को ही चुनौती दी है| पंजाब, पश्चिमी बंगाल और राजस्थान जैसे सीमान्त प्रदेशों की राज्य सरकारों ने इसके विरोध में प्रस्ताव पारित कर दिए हैं|
यह उल्लेखनीय है कि इन प्रदर्शनों में विरोधी दलों की बजाय अनाम स्त्री-पुरुषों, विशेषकर नयी पीढी के छात्र-छात्राओं की अग्रणी भूमिका है| सोशल मीडिया में भी प्रबल प्रतिरोध का माहौल है| कार्टूनों, पोस्टरों, नयी-पुरानी कविताओं, और गांधी-आम्बेडकर के आदमकद चित्रों से लैस यह प्रतिरोधी तिरंगा लहराते हुए भारतीय संविधान के प्रथम संकल्प (‘उद्दघोष’ / ‘प्रीएम्बल’) का प्राय: सार्वजनिक पाठ कर रहे हैं| पुराने अनुभवों वाले हिस्सेदार कहीं कहीं फुटकरिया हिंसा करने के दोषी रहे हैं| भाजपा की सरकारों वाले प्रदेशों में पुलिस की क्रूरता के कारण प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच टकराहटें भी जरुर हुई हैं| लेकिन औसतन नागरिकता से जुड़े विरोध प्रदर्शनों में दिल्ली के शाहीन बाग़ से लेकर कोलकाता के चौरंगी चौराहे तक न सरकार का पुतला जलाते हैं न आसपास की सरकारी संपत्ति की तोड़फोड़ करते हैं| अहिंसक तरीकों से अपनी बेचैनी को शब्द दे रहे हैं| इस अहिंसा के पीछे महिलाओं की हिस्सेदारी है – मानेंगे नहीं, मारेंगे नहीं| हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा!
नागरिकता पंजीकरण के लिए घोषित प्रक्रिया में देश के लोगों से अपने जन्मस्थान-जन्मतिथि आदि के अलावा माता-पिता के जन्मस्थान की दस्तावेजी जानकारी मांगना भी पर्याप्त शंका पैदा कर चुका है| इस बारे मे वाजपेयी राज के दौरान 2003 में बने नियमों के अनुसार इस राष्ट्रव्यापी नागरिकता निर्धारण प्रक्रिया में स्थानीय छोटे अफसर की सबसे बड़ी भूमिका होगी| अगर आपका नाम ‘अस्पष्ट’ कोटि के नागरिकों की सूची में डाला गया तो आप न्यायालय में दोष-सुधार के लिए जाइए! बरसों बरस में अपना नाम सही सूची में लाने की कसरत करने को तैयार हो जाइए| भाजपा के जिम्मेदार नेताओं के अनुसार इस प्रक्रिया से कम से कम दो करोड़ ‘घुसपैठिया’ मुसलमानों की पहचान करके देश से बाहर निकाला जायेगा| कहाँ भेजेंगे?
‘घुसपैठियों को भगाने’ की इस बेसिरपैर की मुहीम से सिर्फ दो बातें होने जा रही हैं: एक, कुछ संवेदनशील जिलों में ‘हिन्दू’ वोटबैंक बढेगा, और दूसरे,‘बाबूराज’और ‘दादागिरी’ के हाथ मजबूत होंगे| स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार के चोर-दरवाजों के खुलने की आशंका है| प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि नागरिकता रजिस्टर पर उनके मंत्रिमण्डल में चर्चा भी नहीं हुई है तो इसको लेकर काल्पनिक अनुमानों के आधार पर आन्दोलन नहींकरना चाहिए| गैर-भाजपाई केन्द्रीय मन्त्री रामविलास पासवान का बयान है कि हमें चिंतित होने की बजाय प्रधानमन्त्री मोदी पर भरोसा करना चाहिए| लेकिन भारतीय जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में नागरिक रजिस्टर बनाने का संकल्प है| राष्ट्रपति रामनाथ कोविद के सदन के संबोधन में इसका एलान है| गृहमन्त्री अमित शाह ने जनसँख्या रजिस्टर को नागरिक रजिस्टर का पहला कदम बताया है| भारतीय जनता पार्टी के नेता कहते हैं कि यह तो हमारे चुनाव घोषणा पात्र में साफ़ लिखा था और देश ने हमें पांच साल के शासन का जनादेश दिया है| इस दुहरी भाषा का एक ही अर्थ निकालना नयी पीढ़ी का जवाब है|
भारत के परिवर्तनकामी चिंतकों और समाजकर्मियों की शिकायत रही है कि हमारे देश में जिन्हें परिवर्तन चाहिए उनमें इसकी क्षमता नहीं है और जो सक्षम हैं उनमें इसके लिए प्रवृत्ति या रुझहान नहीं है| भारतीय समाज के जनसाधारण की उदासीनता और सहनशीलता को लेकर अनेक व्याख्याएं मशहूर हैं| इस ‘चुप्पी’ की जड़ में सामंतवाद, उपनिवेशवाद और जातिप्रथा की एकजुटता से पैदाराजनीतिक संस्कृति को जिम्मेदार मानने का चलन है|
मार्क्स ने इसको ‘सदियों से एक दूसरे से अलग’ गाँवों में जी रहे लोगों के जड़वत आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था से जोड़ा था| उनको आशा थी कि औपनिवेशिकता के बावजूद ब्रिटिश पूंजीवाद द्वारा प्रवर्तित उदयोगीकरण और आधुनिकीकरण से अन्तत: इस देश के श्रमजीवी के जरिये समूचा देश जागेगा| स्वामी विवेकानंद ने भारत के विदेशियों द्वारा बार-बार पराजित होने के मूल कारक के रूप में जीवनदर्शन और समाजव्यवस्था के दुहरे संकट को इंगित किया| उनका आवाहन था कि हम पाश्चात्य ज्ञानधारा से समृद्ध हुए विज्ञान और पूर्व की साधना से सम्पन्न आध्यात्मिकता के समन्वय के लिए आगे बढ़ें| अपनी समाज व्यवस्था को पुनर्जीवन देने के लिए अद्वैतवाद के मूल्यों और इस्लाम की सामाजिक समता को जोड़ें| महात्मा गाँधी ‘उदासीनता’के महादोष को समाज के आभिजात्य वर्ग में ‘संपत्ति के लालच’ और असत्य और आदर्शहीनता की व्यापकता से उपजा मानते थे| उन्होंने चरित्र-निर्माण, रचनात्मक कार्यक्रम और सत्याग्रह के संगम में नए भारत का उदय देखा| सावरकर इसके लिए महावीर-बुद्ध और अशोक द्वारा प्रचारित अहिंसा-करुणा-क्षमा की संस्कृति से को सबसे बड़ा कारण बता चुके हैं| उनकी समझ में हिन्दू जागरण के जरिये ‘हिन्दू राष्ट्र’ की रचना के लिए ‘सात निषेधों को अपनाना’ ही युगधर्म है| डा. आम्बेडकर ने इसे ब्राह्मण-वर्चस्व और अस्पृश्यता की हजारों साल से जारी समाज रचना से जुड़ा पाया| उन्होंने जातिव्यवस्था को नष्ट करना एकमात्र मार्ग बताया और इसके लिए ‘शिक्षित बनो-संगठित हो-संघर्ष करो’ का महामंत्र दिया| लोहिया ने भारतीयों में सरोकार और सक्रियता के चिंताजनक अभाव को ‘जाति और योनि के दो कटघरों में कैद’ सभ्यता का परिणाम माना|
2020 के देश और लोगों के सपनों, सवालों, संभावनाओं और समाधनों को समझाने के लिए हमें और सभी राजनीतिज्ञों-नौकरशाहों-पूंजीपतियों को समझना चाहिए कि विदेशी राज से आज़ादी के लिए एक सदी तक लड़ने के बाद संजोयी गयी राष्ट्रीयता और बनाये गए देश के कारण भारतीय समाज में कम से कम तीन बुनियादी बदलाव आ चुके हैं –1| स्वराज के विस्तार की प्रतिबद्धता, 2| विकासशीलता की भूख, और 3 लोकतांत्रीकरण में हिस्सेदारी की दावेदारी| इक्कीसवीं शताब्दी में जनम लेनेवाले और होश सम्भालानेवालों के सामने देश-दशा से लेकर अपने परिवार और पास-पड़ोस के बारे में यही तीन मुख्य कसौटियाँ रहती हैं|
भारत की नयी पीढ़ी आशा और निराशा के दो पाटों में फंसने से नाराज है| यह अपने सपनों के लिए जी-जान से जुटे हुए हैं| इसी सन्दर्भ में अपने को, अपने समाज को और समूचे देश को दुनिया के सन्दर्भ में समझने की कोशिश करते हैं| इस प्रक्रिया में शिक्षा से लेकर रोजगार के मोर्चे पर मिल रहे अनुभवों से नाराजगी महसूस करते हैं| बेलगाम भ्रष्टाचार से लेकर बेतहाशा प्रदूषण को हमारी व्यवस्था का परिणाम समझते हैं| इसके लिए वह अर्थव्यवस्था के संचालकों से जादा हमारे राजनीतिक नेतृत्व को जिम्मेदार मानते हैं| इसीलिए अपनी बहसों के अन्त में यही सवाल उठाते हैं कि क. क्या यही स्वराज (आज़ादी) है? या इस प्रसंग में आज़ादी क्यों नहीं है? ख. आप इसको विकास कहेंगे? या यहाँ विकास कब होगा? ग. क्या यह लोकतन्त्र है? या हम कब लोकतन्त्र को अपनाएंगे? आइये इसको ज़रा धीरज से समझ लें|
एक, देश के हर तबके ने कमोबेश ‘गुलामी’ से विद्रोह करने की राह पहचान ली है और स्वराज को ‘जन्मसिद्ध अधिकार’ समझ लिया गया है| 15 अगस्त के पहले तो ‘आज़ादी’ का सपना जोखिम की बात थी लेकिन 15 अगस्त 1947 के बाद लालकिले पर तिरंगे के लहराने के बाद से पूरा समाज एक दूसरे की देखा-देखी स्वराज-यात्रा में शामिल होता जा रहा है| इससे ‘स्वराज-विस्तार’ और ‘वि-औपनिवेशीकरण’ (अंग्रेज़ी में ‘डी-कोलोनाइज़ेशन’) की प्रक्रिया को वैधता मिल चुकी है| इससे धार्मिक अस्मिता, भाषाई दावेदारी, जातिगत हिस्सेदारी आदि को भी बढ़ावा मिलाना तय है| लेकिन इस पूरी प्रक्रिया को लोकतन्त्र के चौखटे में ही अपने को समेटना भी पड़ेगा| क्योंकि ‘स्वराज’ स्वयं में चौमुखी है – राजनीतिक स्वराज, आर्थिक स्वराज, सामाजिक स्वराज, और अध्यात्मिक वैयक्तिक स्वराज|
दूसरे, देश में ‘विकासशीलता’ की भूख सर्वव्यापी हो चुकी है क्योंकि भारत का वंचित हिस्सा प्रगति की दौड़ में अब किसी भी कीमत पर शामिल होना चाहता है| इस भूख ने अस्मिता की राजनीति को पीछे छोड़ दिया है| इसमें वंचित जातियाँ, वंचित वर्ग, वंचित समुदाय और वंचित क्षेत्र – चारों प्रकार के समूहों का दबाव बढ़ रहा है| इस सन्दर्भ में नयी आर्थिक नीतियों से जुड़े बाजारवाद और भोगवाद के कारण गाँव और शहर, और नगर और महानगर के बीच शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक अवसरों के चार जरुरी सन्दर्भों में बढ़ते फासले बेहद चिढ़ाने वाले होते जा रहे हैं|
इसी भूख को ‘अच्छे दिन’ की आशा भी कहा जाता है| कई क्षेत्रीय दलों ने इसी भूख का अल्पकालीन समाधान प्रस्तुत करके कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी समेत सभी राष्ट्रीय दलों के निर्गुण वायदों को महत्वहीन बनाया है| 2014 के चुनाव में भ्रष्टाचार मुक्त भारत के आन्दोलन की ऊर्जा को भाजपा के ‘अच्छे दिन आयेंगे’ के आकर्षक आश्वासन ने अपने साथ जोड़ने में सफलता पायी थी| लेकिन अब केन्द्रीय सरकार की प्राथमिकताओं में विकास की भूख से जुड़े उपायों की जगह ‘हिन्दू अस्मिता’ और ‘मुस्लिम चुनौती’ को पर्यायवाची मानने वाली दृष्टि को देना चिंताजनक हो गया है|इस पीढ़ी को भारत का संयुक्त राष्ट्रसंघ के विश्व मानव विकास मूल्यांकन में बेहद नीचे अटके रहना अपमानजनक लगता है| यह बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और मुट्ठी भर सम्पत्तिवानों के मुनाफों में बेसिरपैर की बढ़ोतरी को देशभक्ति और राष्ट्निर्माण का सबूत नहीं मानता है| इसमें ओडिशा, बिहार, झारखंड,उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़,असम, विदर्भ, तेलंगाना, और हरियाणा के युवजनों में विशेष असंतोष स्पष्ट है|
तीसरे, भारतीय समाज और राजनीति में तमाम कमियों के बावजूद लोकतांत्रीकरण की धारा का प्रवाह बढ़ता जा रहा है| लोकतन्त्र के तीन आयाम हैं – राजनीतिक लोकतन्त्र, सामाजिक लोकतन्त्र और आर्थिक लोकतन्त्र| डा. आम्बेडकर ने इन तीनों के समान संवर्धन का आवाहन किया था| लेकिन अबतो बाबा साहेब आम्बेडकर के अनुयायी भी इस जरुरत को भूल चुके हैं| संविधान को अपनाने से हमने राजनीतिक लोकतन्त्र की जरूरतें पहचानी हैं और उनको अपनाने में जुट गए है| संविधान का 73/74 वां संशोधन इस दिशा में ही एक बड़ी कोशिश थी जिसे कांग्रेस ने भी नहीं महत्त्व नहीं दिया| हमारी दल-व्यवस्था और चुनाव-व्यवस्था में धनशक्ति, विशेषकर अवैध कमाई की खुली उपस्थिति की उपेक्षा और इसका समाधान न करना देशद्रोह से कम भयंकर अपराध नहीं है|
महिलाओं, दलितों, अनुसूचित जनजातियों और पसमांदा अल्पसंख्यकों जैसे वंचितों को ‘विशेष अवसर’ की व्यवस्था सामाजिक लोकतन्त्र की शुरुआत रही है| महिला आन्दोलन और दलित दस्तक इसी से जुड़े प्रवाह हैं| महिलाओं को पंचायती राज से जुड़े स्थानीय निकायों में 50 प्रतिशत आरक्षण मामूली बात नहीं है| लेकिन बिना संसद और विधान सभाओं में कम से कम 30 प्रतिशत आरक्षण के गाँव-मोहल्ले में हिस्सेदारी से जुडी सम्भावनायें अंकुरित होते ही सूख जा रही हैं| अनुसूचित जनजातियों और ‘विमुक्त जनजातियों’ (‘डी-नोटिफाईड ट्राईब्स’) का सिर उठाना लोकतन्त्र का सामाजिक दायरों में विस्तार है| इसे ‘अर्बन नक्सल’ कहकर पुलिस की जिम्मेदारी बनाना आत्मघाती अज्ञानता है| अब अल्पसंख्यकों की नयी पीढ़ी का स्वर भी इसमें शामिल हो रहा है| इनको ‘इस्लामी आतंकवादियों की भारतीय टुकड़ी’ समझाना भारी भूल है| इन ऐतिहासिक भूलों को कांग्रेस ने नयी आर्थिक नीति के नशे में नब्बे के दशक में शुरू किया| लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने शासन संभालने के बाद इसको दुहराना जारी रखा है| अगर कान्ग्रेस का सामाजिक आधार केन्द्र में 2014 तक कमोबेश लगातार सत्तासीन होने के बावजूद जिला और प्रदेशों में देखते-देखते बिखर गया तो भाजपा और सहयोगी दलों को बेहतर नतीजों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए|
नेहरु के बाद के भारत में लोकतन्त्र के आर्थिक पक्ष को समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने प्रमुखता दी थी| इससे जुड़कर इंदिरा गांधी ने 1966 से 1984 तक ‘प्रगतिशील’ और ‘गरीबनवाज़’ की छबी बनायी| वोट बैंक बनाया| फिर विश्व पूंजीवादी दबाव में हम ‘मंमोहनामिक्स’ की राह पर चले| जब इसकी सीमायें सामने आने लगीं तो ‘पुनर्वितरण’ की विवशता को पहचानना पड़ा| इससे महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से लेकर शिक्षा अधिकार, वन सम्पदा अधिकार, आयुष्मान योजना आदि का सिलसिला बनाया गया| शुरू में आलोचना करने के बाद सरकार में आने के बाद भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को भी आर्थिक न्याय की जरूरतों की अनदेखी करने का दुस्साहस नहीं किया| ‘नोट बंदी’ और जी|एस| टी| को आर्थिक नवनिर्माण की राष्ट्रीय आशा से जोड़ा गया| 2019 के चुनाव में तो एक दल ने प्रति परिवार 6,000/- की किश्त भी पहुंचा दी| दूसरे प्रतिद्वन्द्वी दल ने 72,000/- सालाना का वायदा कर दिया| किसानों की कर्ज़माफी पर राष्ट्रीय सहमति बन चुकी है| यह अलग बात है कि इस सबका सबसे जादा लाभ अभी तक अरबपतियों को ही मिल रहा है क्योंकि हमारे सभी प्रमुख राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल ‘लंगोटिया पूंजीवाद’ (‘क्रोनी कैपिटलिज्म’) के मोहपाश में बंधे हुए हैं|
- उपसंहार
देश में चौतरफा आवेश का माहौल है| सरकार नाराज है कि मामूली लोगों ने क्या सिलसिला बना रखा है? हमने संविधान से मिले अधिकार से ही संसद के बहुमत से कुछ जरूरी कानूनी सुधार किये हैं और कांग्रेस के जमाने से चली रही जनगणना के काम को पूरा करना चाहते हैं| इसमें बाधा डालना तो असहनीय है| लोगों में अपनी बढ़ती असहायता को लेकर आवेश है| कहीं कोई उम्मीद की किरण नहीं दीखती| विरोधी दल सिर्फ रस्म अदायगी करते हैं| मीडिया में राग दरबारी जादा सुनाई पड़ता है| बुद्धिजीवियों में राजा का बाजा बनने की होड़ लगी है| धार्मिक और सांस्कृतिक नेताओं और संगठनों में राजनीतिक और सामाजिक दुखों की कोई समझ नहीं है| अपने बुजुर्गों की इस असहायता को नयी पीढ़ी विरासत में नहीं लेना चाहती है| उसके सपने अभी मरे नहीं हैं| लेकिन अपने सपनों को साकार करने की राह कहाँ है? यह एक जायज सवाल है और इसको पूछने का अधिकार उसे हमारे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन और संविधान ने दिया है| उनसे संवाद करना हमारा दायित्व है| अपने दायित्व की अनदेखी करनेवालों के प्रति आक्रोशित होना देशद्रोह कैसे माना जाये?
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