- कुमार कृष्णन
तकरीबन पिछले एक दशक से खुद को राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में स्थापित कर चुके प्रशांत किशोर पिछले दो वर्षों से कुछ और करने की ठान चुके हैं, और शायद इसी छटपटाहट का परिणाम था उनके द्वारा पटना में 18 फरवरी को आहुत संवाददाता सम्मेलन। दिल्ली चुनाव के नतीजे से उत्साहित होकर प्रशांत किशोर ने अपनी राजनीतिक रणनीति को लोगों के समक्ष उजागर कर दिया। देश की राजनीति को वे बहुत पहले से परोक्ष रूप से समझते रहे हैं और जदयू में बतौर उपाध्यक्ष शामिल होकर प्रत्यक्ष रूप से भी बिहार की राजनीति को समझने में कामयाब रहे हैं। उन्हें लगा कि बिहार में भी केजरीवाल मॉडल का प्रयोग किया जा सकता है। केजरीवाल ने आम लोगों को अपने लिए खास बनाया तो प्रशांत किशोर ने इसके लिए बिहार के युवाओं को लक्ष्य बनाया है। युवाओं को स्वस्थ राजनीति करने और इसके लिए सीधे तौर पर भागीदार बनने के लिए उनको प्रेरित करना पीके का शगल रहा है। यह काम पीके ने जदयू में रहते हुए भी किया था। इसी का नतीजा है कि उन्होंने यह दावा किया कि अभी बिहार के करीब पौने तीन लाख युवा उनके सम्पर्क में है जिसे 20 मार्च तक 10 लाख करने का लक्ष्य है। पीके अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपने नेतृत्व में बिहार के 8800 पंचायतों से जुड़े 1000 युवकों की बकायदा एक समर्पित टीम तैयार करने में जुट गए हैं।
सवाल यह है कि चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर क्या अब एक नई पार्टी बनाएंगे? उनकी प्रेस कान्फ्रेंस तो कुछ ऐसा ही संकेत दे रही है। उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु और बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार को खुली चुनौती दे दी है। वह सौ दिन बिहार घूमेंगे और जन जागरण करेंगे। इसे उन्होंने ‘बात बिहार की’ यात्रा का नाम दिया है।
प्रशांत कह रहे हैं कि नीतीश के शासन में बिहार का असली विकास नहीं हुआ। 2005 में जब नीतीश ने सत्ता संभाली तब बिहार सबसे पिछड़े राज्यों में शामिल था। नीतीश कुमार के करीब 15 सालों के शासन के बाद भी बिहार सबसे पिछड़े राज्यों की कतार में ही है। विकास की सूची में बिहार 22वें नम्बर पर है। प्रशांत इसे 10 सर्वश्रेष्ठ राज्यों की सूची में लाने का सपना दिखा रहे हैं।
बिहार में विधानसभा के चुनाव नवम्बर में होने हैं। इसलिए प्रशांत किशोर का यह अभियान काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। प्रशांत को चुनावों का माहौल बदलने में माहिर माना जाता है। 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के चुनाव अभियान की रणनीति प्रशांत किशोर ने ही बनाई थी। बाद में वह नीतीश कुमार से जुड़ गए। 2015 के विधानसभा चुनावों की रणनीति बनाने में प्रशांत किशोर की अग्रणी भूमिका थी। पंजाब में कांग्रेस, आंध्र प्रदेश में वाईएस आर कांग्रेस और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के लिए रणनीति भी उन्होंने ही बनाई थी। अब तक उनकी रणनीति सिर्फ उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों में असफल रही है। तब वह कांग्रेस के साथ थे।
चुनाव की रणनीति बनाते-बनाते प्रशांत की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी सामने आई। नीतिश कुमार ने उन्हें अपनी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और उसके पहले कश्मीर में धारा 370 में फेरबदल को लेकर प्रशांत और नीतीश में विवाद शुरू हुआ। उसका पटाक्षेप प्रशांत को पार्टी से निकाले जाने के बाद हुआ।
प्रशांत किशोर ने अपनी जिस रणनीति की घोषणा की है, उससे लगता है कि वह सीधे-सीधे सुशासन बाबू की राजनीतिक बुनियाद पर हमला करने की तैयारी कर रहे हैं। नीतीश कुमार के राजनीतिक दबदबे के तीन मुख्य आधार प्रचारित हैं। पहला सुशासन यानी गुड गवर्नेंस, दूसरा अपराध पर नियंत्रण और तीसरा विकास। प्रशांत ने विकास को सबसे पहले निशाने पर लिया है। अब भी बिहार में अच्छे कॉलेज और विश्वविद्यालय नहीं खुले हैं और बिहार के छात्र दिल्ली और दूसरे राज्य के प्राइवेट विश्वविद्यालयों की तरफ भाग रहे हैं। बिहार में न तो उद्योग आए हैं और न ही रोजगार बढ़ा। बिहारी नौजवान रोजगार के लिए देशभर में भटक रहा है। कभी गुजरात में तो कभी महाराष्ट्र में उस पर हमला होता है। प्रशांत ने सबसे पहले बिहार के बेरोजगार नौजवानों को अपने अभियान का केंद्र बनाया है। उनका लक्ष्य 18 से 35 वर्ष के युवक हैं।
प्रशांत ने अभी कोई पार्टी बनाने की घोषणा नहीं की है लेकिन वह अपने साथ एक करोड़ लोगों को जोडऩे की तैयारी कर रहे हैं। जाहिर है कि आगे चलकर पार्टी की घोषणा भी हो सकती है। इसका बड़ा नुकसान जेडीयू और बीजेपी गठबंधन को हो सकता है। सवर्ण मतदाता का इस गठबंधन को समर्थन है। अब रोजगार का संकट इस समुदाय के युवाओं को प्रभावित कर रहा है।
नीतीश कुमार को सत्ता में जमे 15 साल होने जा रहे हैं, इसलिए अब वह कमियों का ठीकरा लालू प्रसाद यादव या राजद पर नहीं फोड़ सकते। बीजेपी के साथ जेडीयू के गठबंधन पर प्रशांत सीधा निशाना साध रहे हैं। उनका कहना है कि गांधी और गोडसे एक साथ नहीं चल सकते। दरअसल यह लड़ाई तो तब ही शुरू हो गई थी, जब प्रशांत जेडीयू में थे। प्रशांत ने सबसे पहले नीतीश पर कश्मीर मुद्दे को लेकर ही निशाना साधा था। 2015 के विधानसभा चुनावों में नीतीश आरजेडी के साथ थे इसलिए मुसलमानों का वोट भी उन्हें आसानी से मिल गया था। मगर अब मुस्लिम मतदाता बीजेपी के साथ-साथ उसके सहयोगियों के भी खिलाफ दिखाई दे रहे हैं। नीतीश के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती होगी अति पिछड़ा और अति दलित के साथ सवर्ण मतदाताओं को जोड़े रखना। प्रशांत किशोर इसी वोट बैंक में सेंध मार सकते हैं। रोजगार और विकास ऐसे मुद्दे हैं जो राज्यों के चुनाव में सब पर भारी दिखाई दे रहे हैं। आक्रामक मुस्लिम विरोधी अभियान के बावजूद बीजेपी दिल्ली और झारखंड में चुनाव नहीं जीत पाई।
बदले हुए माहौल में नीतीश के लिए भी यही सबसे बड़ी चुनौती होगी। जाति से ब्राह्मण प्रशांत किशोर एक बड़ा राजनैतिक विकल्प भले ही नहीं बना सके लेकिन उनके बिहार अभियान से सुस्त पड़े विपक्ष को एक नई ताकत मिल सकती है। राष्ट्रीय जनता दल अब भी बिहार में सबसे बड़ा राजनैतिक दल है। कांग्रेस उसके साथ बनी हुई है। जीतन राम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा, मुकेश भले ही अभी राजनीतिक पैंतरेबाजी में जुटे हैं, लेकिन चुनाव में उनके पास भी आरजेडी के साथ रहने के अलावा कोई विकल्प दिखाई नहीं देता। प्रशांत किशोर अगर युवकों को जोड़कर नई राजनीतिक ताकत बन भी जाते हैं तो भी उन्हे गैर नीतीश और बीजेपी दलों के साथ रहना पड़ सकता है। चुनाव का माहौल बदलने में प्रशांत किशोर अपनी महारत कई बार हासिल कर चुके हैं।
राजनीति में नया होने के कारण अभी उनकी छवि साफ सुथरी है। ऐसे में उनका अभियान बिहार में एक नया माहौल पैदा कर सकता है। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर भी बिहार में खलबली दिखाई दे रही है। ऐसे में बिहार का एक नए सामाजिक-राजनीतिक समीकरण से सामना होगा। विधानसभा चुनावों में अभी आठ महीने बाकी हैंं। प्रशांत अपने अभियान पर डटें रहते हैं तो खुद भी राजनीतिक शक्ति बन सक ते हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जनता की नब्ज को पीके अच्छी तरह समझते हैं। जनता की भावनाओं को वोट में कैसे बदला जाए और आधुनिक मीडिया के हथकंडों का इस्तेमाल किस तरीके से की जाए, पीके इसके मास्टर माने जा सकते हैं। शायद यही वजह है कि पीके बिहार में वर्तमान सरकार की लोकप्रियता को वैज्ञानिक तरीकों से परखते हुए एक नए विकल्प के तौर पर खुद को पेश करने में जुट जाना ही बेहतर समझा। बेशक, इसके लिए उन्हें मुक्कमल खाद-पानी दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम से मिला है।
‘आप’ का रणनीतिकार रहते हुए पीके की घनिष्ठता दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल से बनी हुई है। सम्भव है कि आने वाले समय में बिहार में ‘आप’ के चेहरे के रूप में पीके स्थापित हों और जनता का मूड भांपने के लिए पूरे बिहार का दौरा करना पीके की सोची- समझी रणनीति का हिस्सा माना जाना चाहिए। मगर एक पेंच है जो बिहार की राजनीति समझने वाले लोगों को परेशान कर सकती है। पीके का सीधे तौर पर राजनीति में कूदने का यह समय सूबे के दूसरे फायर ब्रांड युवा वामपंथी नेता कन्हैया कुमार के साथ-साथ माना जा रहा है। इसका संकेत भी पीके दे चुके हैं। पीके ने अपने बयान में कहा है कि कन्हैया बिहार का भविष्य हैं। जाहिर है, आने वाले समय में दोनों एक-दूसरे के पूरक बन सकते हैं या फिर यूं कहें कि दोनों मिलकर एक बड़े वोट बैंक को प्रभावित कर सकते हैं। बिहार की राजनीति में जाति एक बहुत बड़ा कारक रहा है। हर पार्टी चुनाव में जातीय धर्म का पालन करना अपना नैतिक जिम्मेदारी मानती है। कन्हैया और पीके, दोनो सवर्ण हैं और नीतीश कुमार को लेकर बिहार के सवर्णों में एक नाराजगी है। पीके इस सच्चाई को बेहतर जानते-समझते हैं। सम्भव है कि पीके इस सच को अपने हित के लिए वोट में बदलना चाहते हों और इसके लिए उन्हें अरविन्द केजरीवाल का साथ मिल सकता है। अरविन्द केजरीवाल को भी दिल्ली से बाहर हिन्दी पट्टी इलाकों में फैलने की अकुलाहट है जिसे पीके के जरिए अंजाम दिया जा सकता है। फिलवक्त प्रतीक्षा करना बेहतर होगा क्योंकि जनता भी काफी हद तक समझदार हो चुकी है और उसे नफे-नुकसान की बेहतर समझ है। संभव है, बिहार एकबार फिर से नई राजनीति का प्रयोगशाला बने जहां जाति-धर्म से ऊपर उठकर नई सोच-समझ से लवरेज नया और आदर्श चुनावी परिणाम मिले।
लेखक स्वतन्त्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं|
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