{Featured in IMDb Critics Reviews}
एक बाप जिसने अपने बेटे का नाम रखा राजा राम। गुजरात का एक गांव खाखर जहां कभी रामलीला नहीं हुई। अब जब पहली बार हुई तो उसमें राम, सीता का कैरेक्टर निभाने वाले कलाकारों को ही गांव वाले भगवान मानने लगे। अब उस बाप के बेटे को अचानक सूझा की वो तो एक एक्टर बनना चाहता है। जबकि बाप उससे चक्की पिसवा रहा है। जैसे तैसे उसे रावण जैसा बड़ा और खलनायक का किरदार मिला। अंत में उसी कैरेक्टर में इतना घुसा नहीं कि उसे सीता मैया से प्यार हो गया और वो अपने अंत होने पर उसे भगा ले गया।
अंत होने पर? जी हां वो तो भाई कैरेक्टर निभा रहा था न अपना। हा… हा… हो…हो… एक तो कायदे से देखा जाए तो आज के समय में लोगों के पास खाने को भले न हो लेकिन टिकटॉक, इंस्टा रील्स के जमाने में उनके पास मोबाइल जरूर है। और ये खाखर गांव में राम लीला नहीं हुई? बिजली भी जब-तब रहती है।
इस फ़िल्म का पहले नाम ‘रावण लीला’ था। जिसे विवादों के चलते ‘भवाई’ कर दिया गया। ऐसा नहीं है कि फ़िल्म कचरा है। बल्कि यह कुछ थोड़ा बहुत आपको देती है। जैसे इसके एक संवाद में बाप बेटे से उसके कलाकार बनने के फैसले पर कहता है। ‘जो जैसा सोचता है, करता है वो वैसा ही बन जाता है।’, ‘इन कलाकारों को दुनिया भांड कहती है।’ कायदे से यह सच भी है और इसके लेखक-निर्देशक हार्दिक गज्जर गुजरात के विभिन्न रंग-रूप में ढली संस्कृति को भी दिखाते हैं। तो वहीं राजनीतिक-धार्मिक विमर्श के आईने में लिपटी भी फ़िल्म नजर आती है।
राजेंद्र गुप्ता, प्रतीक गांधी, ऐंद्रिता राय, राजेश शर्मा, अभिमन्यु सिंह, गोपाल सिंह, अंकुर भाटिया, अंकुर विकल, फ्लोरा सैनी आदि का अभिनय मिलाजुला सा है। इस फ़िल्म के साथ दिक्कत यह है कि यह एक निश्चित समय की कहानी को बयां नहीं करती। लिहाजा उसकी सिनेमेटोग्राफी, कैमरे, लुक, सेटअप, लोकेशन बेदम और बेअसर से मालूम होते हैं। गाने तो ओ हो मत ही पूछिए। बस आखरी में आने वाला ‘रंगमंच’ गाना जरूर कुछ राहत देता है।
बाकी कहानी ठीक ठाक रही उसे बेहतर किया जा सकता था। बस दिक्कत उसकी स्क्रिप्टिंग के साथ नजर आती है। फिर यह फ़िल्म भले हमें कहती रहे कि ‘इस युग में सभी रावण हैं।’
अपनी रेटिंग – 2 स्टार
तेजस पूनियां
लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
Related articles
डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
विज्ञापन
