- सलिल सरोज
अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लाइड की मृत्यु के बाद से ही दुनियाभर में रंगभेद के खिलाफ आन्दोलन चल रहा है। ब्लैक लाइव मैटर के नाम से सेलिब्रिटीज से लेकर हर कोई इससे जुड़ रहा है। रंगभेद को लेकर लोगों का गुस्सा फेयरनेस क्रीम पर भी बरस रहा है क्योंकि लोगों का मानना है कि इस तरह की क्रीम लोगों में विभिन्नता को उत्पन्न करती है। हिन्दुस्तान यूनीलीवर ने अपने 45 साल पुराने प्रोडक्ट ‘फेयर एँड लवली’ क्रीम पर एक बड़ा फैसला किया है। क्रीम के नाम से फेयर शब्द को हटाया जा रहा है।
यूँ तो लोग इस तरह के फेयरनेस क्रीम का विरोध आज से नहीं बल्कि लम्बे समय से कर रहे हैं क्योंकि ऐसी चीजें रंगभेद को बढ़ावा देती है। लेकिन पिछले कुछ समय से ब्लैक लाइव मैटर अभियान ने काफी जोर पकड़ा है और अब यूनीलीवर को भी झुकना पड़ रहा है। गौरतलब बात है कि सिर्फ पिछले साल भारत में फेयर एँड लवली ने करीब 3.5 हजार करोड़ का बिजनेस किया था।
इतिहास गवाह है कि सदियों से समाज सिर्फ स्त्री की देह का कायल है, उसके दिमाग और हुनर का नहीं। स्त्री के अन्तहीन श्रम को इतने खुले तौर पर कभी मान्यता नहीं दी गयी, जितनी कि उसके देह के सौंदर्य को। क्या यह महज इत्तेफाक है कि आज दुनियाभर में होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं की बुनियाद सिर्फ दैहिक सौंदर्य है? भारत की आजादी के वर्ष यानी 1947 में होने वाली पहली भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में भी सिर्फ दैहिक सुन्दरता को केन्द्र में रखा गया था, न कि आजादी के आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाली स्त्रियों के जज्बे, श्रम और साहस को।
एक प्रतिष्ठित लेखक अपनी किताब ‘स्त्रीत्व का उत्सव‘ लिखने की शुरुआत ही ‘पृथ्वी की सुन्दरतम सृष्टि स्त्री है‘ लिखकर करते हैं। असंख्य बार यह जुमला सुनने/पढ़ने को मिलता रहता है। ज्यादातर बौद्धिक, ज्ञानी, रचनात्मक, विवेकवान और प्रगतिशील पुरुष स्त्री को सृष्टि की सुन्दरतम रचना कहते हैं। असल में स्त्री को सृष्टि की सुन्दरतम रचना कहने के मूल में दैहिक सौंदर्य की अटूट उपासना का ही भाव है। यह बात हमारे इतिहास और हर तरह के रचनात्मक पक्ष में साफ तौर पर उभर कर आती है।
खूबसूरत कविताएँ रचने वालीं कवयित्री निर्मला पुतुल की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं-
‘वे दबे पाँव आते हैं तुम्हारी संस्कृति में
वे तुम्हारे नृत्य की बड़ाई करते हैं
वे तुम्हारी आँखों की प्रशंसा में कसीदे पढ़ते है, वे कौन हैं…..?
सौदागर हैं वे…समझो…पहचानो उन्हें बिटिया मुर्मू…..पहचानो….’
सौंदर्य दृष्टि पर राम मनोहर लोहिया ने दिलचस्प सवाल उठाया है कि दुनिया में गोरा रंग ही सुन्दर क्यों माना जाता है? उनका उत्तर है कि वह इसलिए कि दुनिया पर गोरी चमड़ी वालों का शासन रहा है; यदि काले लोगों का रहा होता तो काला रंग सुन्दर माना जाता। लोहिया समाज परिवर्तन के लिए सौंदर्य के इन प्रतिमानों को बदलने की बात करते हैं और सौन्दर्य को देखने की जो हमारी जड़ीभूत दृष्टि है उस पर जबर्दस्त हमला करते हैं और इस तरह से समाज परिवर्तन के लिए सौंदर्य–दृष्टि के परिवर्तन पर जोर देते हैं। इससे पता चलता है कि वास्तविक परिवर्तन सिर्फ सत्ता बदल जाने से ही नहीं, सुन्दरता सम्बन्धी सोच को भी बदलने से होगा। इससे यह भी पता चलता है कि सौन्दर्य दृष्टि के मूल में भी राजनीति होती है।
सौंदर्य दृष्टि में परिवर्तन का अर्थ है राजनीतिक सोच में भी अन्तर आना। सोच में परिवर्तन आने से न सिर्फ सामाजिक आदर्शो को देखने के नजरिये में फर्क आता है बल्कि साहित्य के सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमान भी बदलते हैं। सामाजिक सोच के बदलने से साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय सोच में कैसे फर्क आता है इसका दिलचस्प उदाहरण है कबीर का काव्य। कभी कबीर की कविता को अनगढ़ कहकर कमतर महत्व दिया गया था, लेकिन प्रश्नाकुलता जैसे ही आधुनिकता की कसौटी बनी, प्रश्न उठानेवाले कबीर महत्वपूर्ण हो उठे। उनके अनगढ़पन के सौंदर्य के वैशिष्ट्य पर भी साहित्य चिन्तकों का ध्यान गया।
लोगों ने बहुत पहले ही कयास लगाना शुरू कर दिया था कि इंटरनेशनल कॉस्मेटिक ब्राण्डों की नजर भारत के बाजार पर थी इसीलिए भारतीय सुंदरियों को ख़िताब दिया गया। ये बात काफी हद तक सच भी है। आखिर लक्मे, चैंबर, एल्ले18, एवन, कलर बार, मेबलीन, लोरियल, एमवे, रेवलॉन जैसे इंटरनेशनल ब्राण्ड ने भारतीय बाजार पर अपना कब्ज़ा जमा ही लिया है, तो इसमें सौंदर्य प्रतियोगिताएँ और फिल्म फेस्टिवल्स का ही तो मुख्य योगदान रहा है।
यह भी दिलचस्प है कि जैसे ही भारतीय बाजार पर इनका एकाधिकार हुआ मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स का भारत में जैसे अकाल ही पड़ गया! बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की तो परिभाषा ही ‘बहु-राष्ट्रीय’ है। हालाँकि, कुछ भारतीय कम्पनियाँ भी जरूर उभर रही हैं जैसे, शहनाज़ हुसैन, हिमालया, बायोटिक, लोटस, कलरसेंस,व्हीएलसीसी, जोविस, विविय्ना कलर्स आदि और अब कुछ उत्पादों के साथ बाबा रामदेव की पतंजलि भी आ चुकी है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि लोगों की जुबान पर चढ़े बड़े विदेशी ब्राण्डों को हटाना इनके लिए बेहद मुश्किल बन चुका है।
‘मेक-अप’ की संस्कृति पश्चिमी देशों से आरम्भ होकर भारत सहित पूरे विश्व में फैल गयी है। एक अनुमान के मुताबिक 2015 से 2020 के बीच इसमें 3.5 से 4.5 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है और 2020 तक 500 बिलियन डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है। एशिया में इसका कारोबार खूब फल फूल रहा है। इस क्षेत्र में बढ़ती माँग का श्रेय इसकी बढ़ती हुई जनसंख्या को जाता है। अमेरिका में बढ़ती हिस्पैनिक आबादी शानदार व्यक्तिगत देखभाल ब्राण्डों के लिए माँग बढ़ा रही है।
सौंदर्य या कॉस्मेटिक उत्पाद उद्योग उन क्षेत्रों में से एक है जो अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव के बावजूद अप्रभावित रहा। कॉस्मेटिक बिक्री ने अपने सम्पूर्ण उत्पादों में एक निश्चित मात्रा बनाए रखी है।
भारत में मौजूदा बधाई देने वाले 95% लोग नहीं जानते कि मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता कब से, किसने और क्यूँ शुरू की? मौजूदा व्यवस्था में इसे कौन चला रहा है और क्यों? यहाँ तक की हम अनभिघ हैं कि मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड दो अलग-अलग चीज़ हैं, जो अलग कम्पनी संचालित करती हैं। मिस वर्ल्ड की शुरुआत ‘एरिक मोरले’ नामक इन्सान ने की थी। जिसका शुरूआती नाम बिकिनी कॉन्टेस्ट था और उद्देश्य था एक ऐसी प्रतियोगिता जहाँ से एरिक अपनी बिकनी बिज़नस को बढ़ा सके और ज्यादा से ज्यादा बिकिनी और महिला शरीर को बाजारवाद की खातिर इस्तमाल में ला सकें।
मिस यूनिवर्स सौंदर्य प्रतियोगिता की शुरुआत की थी पसिफ़िक मिल्स नाम की एक कपड़ा मिल ने, ताकि वो अपने उत्पाद बेचने के लिए बहतर दिखने वाली लड़कियाँ छांट सकें। बाद में अलग-अलग हाथों से होती हुई, इस वक़्त अमेरिका के महामहिम श्रीमान् डोनाल्ड ट्रम्प के पास इसका मालिकाना हक है। एक प्राइवेट कम्पनी इसे संचालित करती है व सहयोग देती है। यानी के दोनों ही प्रतियोगिता निजी सम्पति मात्र है। जिनका संचालन एक परिवार मात्र करता है। इसमें काफी सारी शर्त रखी गयी हैं। जिनमें एक शर्त चरित्र है। अब चरित्र में ये बिकिनी उत्पाद वाले किस चीज़ को रखते हैं ये बात तो वो ही जाने। बाकि रजनीगंधा पान मसाला से लेकर अल्ट्रा बेवरेज तक का पैसा इसमें लगा है।
अब शुरू करते हैं मुद्दे की बात, सन् 1994 में एक साथ मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स पर कब्ज़ा किया दो भारतीय सुन्दरियों ने, ऐश्वर्या राय और सुष्मिता सेन ने। वर्ष 1994 से पहले जहाँ हमारे बाथरूम में मात्र 2 से 3 बोतल होती थी, एक साधारण शैम्पू, एक साधारण तेल और एक कोई इत्र अब इन्हीं बोतलों की संख्या लगभग 15 हो चुकी है, क्योंकि ऐश्वर्या और सुष्मिता जैसा बनना है तो आपको लक्स से नहाना जरुरी है, बालो में डव शैम्पू लगाना जरुरी है, शैम्पू के बाद एक कंडीशनर तो बेहद जरुरी है, हाथ धोने का साबुन अलग होगा, शरीर का साबुन अलग और मुँह का साबुन अलग, मुँह पर साबुन से काम नहीं चलेगा, सुष्मिता जैसा मुँह चाहिए तो फलाने कम्पनी के फेशवाश से मुँह धोना जरुरी है, बालों में सिर्फ कंडीशनर और शैम्पू से काम नहीं चलेगा।
तेल के साथ सीरम भी लगाना पड़ेगा। ये सब हमें किसने बताया और किसने मनवाया? हमारे समाज की दो सुन्दरियों ने, क्योंकि हम सब इनके जैसा बनना चाहते है। तो हमे वो ही करना पड़ेगा जो ये करती हैं। दूसरों जैसा बनने की चाहत पैदा करना और फिर उनका अनुसरण करवाना ही बाजार को ताकत देता है। कब लोरिअल, पी एंड जी, यूनिलीवर, लक्मे, गोदरेज हमारे बाथरूम में घुस गये पता ही नहीं चला। आज हमारी व्यय योग्य आय का सबसे बड़ा हिस्सा ये ही खा रहे हैं।
कहते हैं खूबसूरती का कोई पैमाना नहीं होता, नजर-नजर का फर्क होता है। लेकिन बात जब शारीरिक सुन्दरता की हो तो ये कहा जा सकता है कि खूबसूरती को मापा जा सकता है। और इस माप का पैमाना खुद वैज्ञानिकों के पास है। यानी अगर विज्ञान किसी चीज को खूबसूरत कहता है तो उसके पीछे वैज्ञानिक कारण होता है।
जान लेते हैं जो खूबसूरती की परिभाषा तय करता है। गोल्डन रेशियो यूरोप से आया है जहाँ के कलाकारों और वास्तुकारों ने एक समीकरण का उपयोग किया – जिसे गोल्डन रेशियो कहा जाता है- यानी अपने किसी भी मास्टरपीस को बनाने के लिए इसी मानक का इस्तेमाल किया जाता है। वैज्ञानिकों ने इसे समझाने के लिए इसका गणितीय सूत्र दिया है। किसी के चेहरे की लम्बाई और चौड़ाई को मापकर नतीजा निकाला जाता है। गोल्डन रेशियो के अनुसार आदर्श परिणाम लगभग 1.6 है। माथे की हेयरलाइन से आँखों के बीच की जगह का माप लिया जाता है, आँखों के बीच की जगह से नाक के नीचे तक मापा जाता है और नाक से लेकर ठुड्डी तक के नाप लिए जाते हैं। अगर इन माप एकसमान हो तो व्यक्ति को सुन्दर माना जाता है।
मॉडल या एक्ट्रेस हमेशा अपने लुक्स को बेहतर करने के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी करवाते रहते हैं। लेकिन कभी इस बात को नहीं मानते कि उन्होंने ऐसा कुछ करवाया है। बेला ने भी हमेशा इस बात को नकारती आई हैं कि उन्होंने अपने चेहरे पर किसी तरह की कोई सर्जरी करवाई है। लेकिन समय समय पर कई कॉस्मेटिक डॉक्टर्स इस बात की तरफ इशारा करते आए हैं कि बेला के चेहरे में पहले से काफी बदलाव दिखाई देते हैं जो बिना सर्जरी के नहीं हो सकते।
अगर परफेक्ट सुन्दरता के पीछे ये कॉस्मेटिक सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी ही है तो फिर बेला को दुनिया की सबसे ज्यादा खूबसूरत महिला कैसे कहा जा सकता है। लेकिन बात शारीरिक सुन्दरता की है और मानक भी माप के आधार पर ही हैं तो फिर सुन्दर बनने के लिए सिर्फ पैसे की ही जरूरत समझिये। क्योंकि ये सुन्दरता तो पैसा देकर पाई जा सकती है। कॉस्मेटिक सर्जन डॉ जूलियन डी सिल्वा ने जिस भी आधार पर खूबसूरती मापी है, उनका उद्देश्य भी अपनी दुकान चलाना ही है।
लेकिन क्या सुन्दरता की परिभाषा भी बदलती रहती है? सौंदर्य विशेषज्ञ रचना शर्मा का कहना है, “इस समय एँजेलीना जोली जैसा चौड़ा जबड़ा सुदंरता की पहचान समझा जा रहा है। कई महिलाएँ तो कॉस्मेटिक सर्जरी करा कर चेहरे को नया रूप दे रही हैं”। सौंदर्य प्रसाधनों के इस्तेमाल से सुन्दर दिखने की परम्परा सदियों पुरानी है। लेकिन यह भी सच है कि किसी देश में जो सुन्दर है कहीं और वह असुन्दर। भारतीय अभिनेत्रियों में डिंपल को आमतौर पर सुन्दर ही माना जाता है जैसे दक्षिण एशियाई देशों में माथा या पेशानी या ललाट की कवियों ने चाँद से तुलना की है जबकि अन्य किसी देश में शायद ही माथे पर इतना ध्यान दिया गया हो।
पश्चिम में गालों की उभरी हुई हड्डी या चीकबोन सुन्दरता का मापदण्ड है जबकि पूर्वी देशों में नहीं। इसी तरह होंठ कैसे हों इस पर भी अलग-अलग राय हैं। दादी-नानी के ज़माने में चौड़ या मोटे होठों वाली महिला को कोई सुन्दर नही मानता था जबकि पश्चिमी देशों में सोफ़िया लॉरेन या जूलिया रॉबर्ट्स जैसे भरे-भरे होंठ अन्य महिलाओं के लिए ईर्ष्या का विषय हैं। कहीं काली आँखें सुन्दर समझी जाती हैं तो कहीं नीली। कहीं काले बालों पर शेर लिखे गये हैं तो कहीं ब्लॉंड यानी सफ़ेद बालों वाली महिला आकर्षित समझी जाती है।जूलिया रॉबर्ट्स की सुन्दरता के तो सभी क़ायल हैं। भारत के भी कुछ इलाक़ों में छरहरे बदन वाली लड़की सुदंर है तो दक्षिण भारत में भरे-भरे शरीर वाली। यानी कुल मिला कर यह कि सुन्दरता क्या है इसकी व्याख्या बहुत मुश्किल है।
आज हम जिस युग में जी रहे हैं वो एक ऐसा वैज्ञानिक और औद्योगिक युग है जहाँ भौतिकवाद अपने चरम पर है। इस युग में हर चीज का कृत्रिम उत्पादन हो रहा है। ये वो दौर है जिसमें ईश्वर की बनाई दुनिया से इतर मनुष्य ने एक नयी दुनिया का ही अविष्कार कर लिया है यानी कि वर्चुअल वर्ल्ड। इतना ही नहीं बल्कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी आर्टिफिशल इनटेलीजेंस ने भी इस युग में अपनी क्रान्तिकारी आमद दर्ज कर दी है। ऐसे दौर में सौंदर्य कैसे अछूता रह सकता था।
इसलिए आज सुन्दरता एक नैसर्गिक गुण नहीं रह गया है अपितु यह करोड़ों के कॉस्मेटिक उद्योग के बाज़रवाद का परिणाम बन चुका है। कॉस्मेटिक्स और कॉस्मेटिक सर्जरी ने सौंदर्य की प्राकृतिक दुनिया पर कब्ज़ा कर लिया है। आज नारी को यह बताया जा रहा है कि सुन्दरता वो नहीं है जो उसके पास है। बल्कि आज सुदंरता के नए मापदण्ड हैं और जो स्त्री इन पर खरी नहीं उतरती वो सुन्दर नहीं है।
परिणामस्वरूप आज की नारी इस पुरुष प्रधान समाज द्वारा तय किए गये खूबसूरती के मानकों पर खरा उतरने के लिए अपने शरीर के साथ भूखा रहने से लेकर और न जाने कितने अत्याचार कर रही है यह किसी से छुपा नहीं है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि खूबसूरत दिखने के लिए महिलाएँ उन ब्यूटी पार्लरस में जाती हैं जिनका संचालन करने वाली महिलाओं का सुन्दरता अथवा सौंदर्य के इन मानकों से दूर दूर तक कोई नाता ही नहीं होता। दरअसल आज हम भूल गये हैं कि सुन्दरता चेहरे का नहीं दिल का गुण है। सुन्दरता वो नहीं होती जो आईने में दिखाई देती है बल्कि वो होती है जो महसूस की जाती है। हम भूल गये हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि ईश्वर का ही हस्त्ताक्षर है और इस शरीर के साथ साथ हमारा यह जीवन हमें उस प्रभु का दिया एक अनमोल उपहार।
लेखक संसद भवन, नई दिल्ली में कार्यकारी अधिकारी हैं|
सम्पर्क- +919968638267, salilmumtaz@gmail.com
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