बाढ़ और जल प्रबन्धन
हमारा देश एक साथ कई समस्याओं से जूझ रहा है आर्थिक मंदी से शुरुआत हुई तो कोरोना के कारण देशव्यापी पूर्णबन्दी जैसे कदम उठाए गये। जिससे देश की अर्थव्यवस्था (राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद) में लगभग 24% तक गिरावट देखने को मिला जो आने वाले भयावह भविष्य की ओर संकेत करता है। वही ‘बाढ़’ जिसे अगर मौसम के हिसाब से सोचे तो संभावित आपदा है लेकिन इस बारे में सोचना इसलिए जरूरी है कि बाढ़ का संकट कोरोना से निपटने के काम को और उलझा सकता है।
पिछले कुछ साल से सामान्य बारिश के दिनों में भी जहाँ तहाँ बाढ़ की तबाही मचने लगी है मसलन पिछले साल की मौसम विभाग की सामान्य बारिश की अनुमान के बावजूद देश के लगभग आधे से अधिक राज्य बाढ़ के चपेट में आ गये थे। 15 लाख से ज्यादा लोगघरों से भाग कर सुरक्षित जगह तलाशने पड़ी थी। सैकड़ों जानें गयी और हजारों करोड़ का नुकसान हुआ था पिछले वर्ष मानो जैसे तैसे हालात से निपट लिया गया लेकिन इस बार हम पहले से ही कई विपदाओं से गिरे हैं ऐसे में अगर स्थिति नियंत्रण में नहीं रहती तो नुकसान की भरपाई के लिए देश सैकड़ों वर्ष पीछे चला जाएगा।
करुणा को लेकर स्वास्थ्य विशेषज्ञों के तमाम अनुमान और भविष्यवाणी को झूठलाते हुए आज भारत दुनिया के दूसरे सर्वाधिक कोरोना संक्रमित देशों की सूची में अपना स्थान बना लिया और प्रथम स्थान प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। इसीलिए हमें बाढ़ प्रबन्धन की और भी ध्यान देने की आवश्यकता है कुछ सालों से बाढ़ एक स्थाई समस्या बन गयी है। देश में जहाँ एक तरफ हर साल एक बड़ा भू-भाग पानी की किल्लत यानी सूखे से जूझता है वहीं हर वर्ष कई राज्य बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। यह भी हैरत की बात है कि जहाँ बाढ़ आती है वही इलाकों में कुछ महीने के बाद पानी की किल्लत हो जाती है। एक ही साल मे बाढ़ और सूखे की इस विसंगत स्थिति के लिए ‘जल प्रबन्धन’ से बेहतर और क्या शब्द हो सकता है?
वर्षा के पानी को रोककर रखने के लिए बाँध बनाये जाते हैं बाँध आधुनिक काल का उपाय नहीं है बल्कि दुनिया में बाँधों का इस्तेमाल की परम्परा कम से कम पाँच हजार साल पुरानी है इसलिए अब बाँधो को जल नियन्त्रण काएकसमय सिद्ध उपाय मान लिया गया है। देश में अगर पर्याप्त बाँध होते तोसालदर साल जो पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुंद्र में चला जाता है वह नही जाता पर्याप्त बाँध होते तो बाढ़ की विभीषिका भी कम दिखाई देती और ज्यादा पानी बाँधो में जमा होता है वह आने वाले आठ महीनों तक सिंचाई और पीने के काम आता है। यानी सूखे का अंदेशा भी कम हो जाता वैसे तो जल प्रबन्धन पर हर साल और लगभग हर महीने किसी न किसी बहाने बात होती ही है पिछले पाँच साल में देश के ज्यादातर राज्यों ने बाढ़ का प्रकोप झेला है यही वह समय है जब हम अपने जल प्रबन्धन के इतिहास पर भी नजर डाल लेनी चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि आजादी के बाद बड़ी संख्या में बाँध बनाने का काम शुरू किया गया था परन्तु आर्थिक हवाला देकर निर्माण में देरी तथा नेताओं के जल प्रबन्धन के प्रति निष्ठा ने लागातार निराश किया है।
भारतीय राजनीतिक इच्छाशक्ति और जनता की जागरूकता दोनों का एक ऐसा संयोग है जिसका परिणामदेश के सबसे गरीब मजदूर तथा संसाधन विहिन तबका उठा रहा है। जल विज्ञानी और जल प्रबन्धन कई साल से बार-बार बताते आ रही कि देश में पानी की समस्या का समाधान बारिश से मिले खरबों घन मीटर पानी को रोक कर की जा सकती है, यही एकमात्र उपाय है जो बाढ़ और सूखे से निजात दिला सकता है। इसलिए इस साल बाँध और जलाशयों में पानी रोक कर रखने की मौजूदा स्थिति पर नजर डाली जाये तो देश में बाँधो और जलाशयों पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक भारत को प्रकृति से करीब चार हजार अरब घनमीटर पानी मिलता है जबकि हमारी जन भंडारण क्षमता मात्र 258 (लगभग 7%) अरब घनमीटर की है बाकी पानी नदियों के उफान और बाढ़ की तबाही मचाता हुआ समुंद्र वापस चला जाता है चिंता की बात यह है कि विश्व भर में बाढ़ के कारण होने वाली मौतों की पाँचवा हिस्सा भारत नहीं होता है और आर्थिक नुकसान का लेखा जोखा कर पाना असंभव सा है।
“जिसे अब तक ना समझे वो कहानी हु मैं, मुझे बर्बाद मत करो पानी हूँ मैं”
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस बार भी बिहार में आयी बाढ़ को प्राकृतिक आपदा बताकर पल्ला झाड़ लिया लेकिन वे यह भूल गये कि बिहार की नदियों के कहर से बचने के लिए उत्तरी बिहार के लोगों ने वर्षों पहले श्रमदान करके कई मजबूत संबन्ध बनाए जो अनेक वर्षों तक कारगर भी साबित हुए। इनमें से कई इतने कमजोर हो चुके हैं कि थोड़ी सी बारिश में जगह-जगह दरार आ जाती है और हर समय उनके टूटने और भारी तबाही का बड़ा खतरा मंडराता रहता है। इस साल बाढ़ की चपेट में आए दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, पूर्वी चंपारण, गोपालगंज, बाढ़ की तबाही का मंजर सामने आया।
बाढ़ को प्राकृतिक आपदा के नाम देकर पल्ला झाड़ने के बजाय ऐसे बाँधों की मानसून से पहले इमानदारी से जांच कराकर उनकी मजबूती और मरम्मत की लिए समुचित कदम क्यों नहीं उठाए जाते..? प्रशासन क्यों मानसून से पहले ही भारी बारिश से उत्पन्न होने वाले संकटों से निपटने के लिए सतर्क क्यों नहीं होता? क्यों हमारे संपूर्ण व्यवस्था हर साल मानसून के द्वारा दौरान आपदाओं और चुनौतियों के समक्ष बौनी और असहाय नजर आती है? दरअसल हम अभी तक वर्षा जल संचय की कोई कारगर योजना बना ही नहीं पाए हम समझना ही नहीं चाहते कि सूखा और बाढ़ जैसी आपदा पूरी एक दूसरे से जुड़ी हुई है और इनका स्थाई समाधान जल प्रबन्धन की कार्य योजना बनाकर और उन पर इमानदारी पूर्वक काम करके ही संभव है।
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