आजाद भारत के असली सितारे -7
विश्व के प्रथम नास्तिक केन्द्र की संस्थापक सरस्वती गोरा
जिसने समाज सेवा और संघर्ष का रास्ता चुना है उसके जीवन साथी यदि समान विचार और स्वभाव के मिल जाये तो संघर्ष बहुत आसान हो जाता है और जीवन बहुत सुन्दर। जैसे कार्ल मार्क्स और जेनी मार्क्स, ज्यां पाल सार्त्र और सीमोन द बोवुआर, ज्योतिबा फुले और सावित्रीबई फुले, महात्मा गाँधी और कस्तूरबा गाँधी, जयप्रकाश नारायण और प्रभावती देवी आदि। ऐसा ही एक जोड़ा है गोपाराजु रामचन्द्र राव उर्फ गोरा और सरस्वती गोरा (28.9.1912- 19.8.2006) का। अमूमन ऐसे योद्धा प्रौढ़ावस्था में अपना जीवन साथी चुनते हैं किन्तु गोरा और सरस्वती गोरा की जोड़ी ऐसी है जिनमें सरस्वती गोरा की शादी दस वर्ष की कच्ची उम्र में ही हो गयी थी किन्तु, उन्होंने बिना एक दूसरे पर समर्पण किये, एक बड़े लक्ष्य की ओर पूरी वैचारिक दृढ़ता से अपने को ढाला।
आन्ध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में एक नास्तिक केन्द्र (एथीस्ट सेन्टर) है। यह दुनिया का पहला और एकमात्र नास्तिक केन्द्र है। इस केन्द्र की स्थापना 1940 में गोपाराजु रामचन्द्र राव उर्फ गोरा और उनकी पत्नी सरस्वती गोरा ने मिलकर किया था। इस सेन्टर में अत्यन्त समृद्ध पुस्तकालय है, विज्ञान केन्द्र है, स्वास्थ्य से जुड़ा प्रदर्शनी कक्ष है, ‘आर्थिक समता मण्डल’, ‘संस्कार’ तथा ‘वसव महिला मण्डल’ जैसे सहयोगी संगठनों के माध्यम से क्रियान्वित होने वाली सामाजिक कार्य -योजनाएँ है, प्रकाशन विभाग है तथा समय-समय पर यहाँ सम्मेलन और गोष्ठियाँ आयोजित होती रहती हैं। इस केन्द्र द्वारा 1972 में पहला विश्व नास्तिक सम्मेलन आयोजित किया गया था और उसके बाद से अबतक दुनिया भर में ग्यारह विश्व नास्तिक सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं। सबसे बाद का 11वाँ नास्तिक सम्मेलन का आयोजन 4-5 जनवरी 2020 को विजयवाड़ा (भारत) में हुआ।
नास्तिकता अथवा अनीश्वरवाद वह सिद्धांत है जो जगत् की सृष्टि करने वाले, इसका संचालन और नियन्त्रण करनेवाले किसी भी ईश्वर के अस्तित्व को सर्वमान्य प्रमाण के न होने के आधार पर अस्वीकार करता है। अधिकांश नास्तिक किसी भी देवी देवता, पारलौकिक शक्ति या आत्मा जैसी चीज को नहीं मानते। एक नास्तिक मानने की जगह जानने पर विश्वास करता है जबकि आस्तिक किसी न किसी ईश्वर की धारणा को अपने सम्प्रदाय, जाति, कुल या मत के अनुसार बिना किसी प्रमाण के स्वीकार करता है। नास्तिकता इसे अंधविश्वास कहती है क्योंकि किन्हीं दो धर्मों और मतों के ईश्वर की मान्यता एक नहीं होती है। नास्तिकता के लिए ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने के लिए अभी तक के सभी तर्क और प्रमाण अपर्याप्त है।
भारतीय दर्शन के अनुसार “नास्तिको वेदनिन्दक:” अर्थात जो लोग वेद को प्रमाण नहीं मानते वे नास्तिक कहलाते हैं। इस परिभाषा के अनुसार बौद्ध, जैन और लोकायत मतों के अनुयायी नास्तिक हैं। लोकायत को ही चार्वाक मत भी कहते हैं। इतना ही नहीं, सांख्य, योग और वैशेषिक भी नास्तिक दर्शन कहे जा सकते हैं क्योंकि इनमें ईश्वर को सर्जक, पालक और विनाशक नहीं माना गया है। ऐसे नास्तिकों को ही अनीश्वरवादी भी कहते हैं।
हमारे समाज में एक नास्तिक को बड़े हेय दृष्टि से देखा जाता है किन्तु नास्तिक केन्द्र की अपनी वेबसाइट पर दुनिया भर के नास्तिकों की जो सूची दी गयी है उसे देखने पर लगता है कि हम विकास की मंजिलें पार करते हुए आज जहाँ पहुँचे हैं उसके पीछे नास्तिकों की ही मुख्य भूमिका रही है। दुनिया के महान नास्तिकों की उस सूची के कुछ नाम हैं- डेमोस्थनीज (384-322 ई.पू.), अरस्तू (384-322 ई.पू.), कंफ्यूसिअस (551-479 ई.पू.), गौतम बुद्ध (563-483 ई.पू.), वसवेश्वर (12वीं सदी), ब्रूनो (1548-1600), सर फ्रैन्सिस बेकन (1561-1656), गैलीलियो (1564-1642), पियरे बेले(1647-1706), वाल्तेयर(1694-1778), बेन्जामिन फ्रैंकलिन (1706-1790), देनिस दिदेरो (1713-1784), थामस पेन (1737-1803), फ्रैंसेस राइट (1795-1852), लुडविग फॉयरबाख (1804-1872),चार्ल्स डार्विन (1809-1882), एम.ए. बाकुनिन (1814-1876), एलिजाबेथ कैंडी स्टैंटन (1815-1902), जॉर्ज जैकब होल्योक (1817-1906), कार्ल मार्क्स (1818-1883), ईश्वचंद विद्यासागर (1820-1891), सुसान ब्रावनेल एन्थॉनी (1820-1906), लुईस पास्चर (1822-1895), महात्मा ज्योतिराव फुले (1827-1890), चार्ल्स ब्रैडलाग (1833-1891), रॉबर्ट ग्रीन इंजरसोल (1833-1899), चार्ल्स वाट्स (1835-1906), मार्क ट्वेन (1835-1910), फ्रेडरिक नीत्शे (1844-1900), एनी बीसेन्ट (1847-1933), सिग्मंड फ्रायड (1856-1939), फ्रैंसिस्को फेरर (1859-1909), एम्मा गोल्डमान (1869-1940), हैरी हौडिनी (1874-1926), मार्गरेट सांगेर (1879-1966), अल्बर्ट आइंस्टीन (1879-1955), पेरियार ई.वी.रामास्वामी(1879-1973), मुस्तफा कमाल पाशा (1881-1938), मानवेन्द्र नाथ रॉय (1887-1954), जवाहरलाल नेहरू(1889-1964), अर्नेस्ट हेमिंग्वे (1889-1961), जोसेफ लेविस(1889-1968), चार्ली चैपलिन (1889-1977), डॉ. भीमराव अंबेडकर (1891-1956), सरदार भगत सिंह ( 1907-1931), वी.एम.तारकुंडे (1909-2004) अल्बर्ट कामू(1913-1960), कीथ कॉर्निश (1916-2007), हरमान बॉन्डी(1919-2005), इसॉक असीमोव(1920-1992) आदि।
चौंकाने वाली बात यह है कि जिस सरस्वती गोरा और उनके पति गोपाराजु रामचन्द्र राव ने सामाजिक परिवर्तन के लिए समर्पित इस अनूठे संस्थान की स्थापना की है और जिस सरस्वती गोरा ने पूरे दो दशक तक अध्यक्ष पद पर रहते हुए सफलता पूर्वक इसका संचालन किया उनकी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी। उनका जन्म एक मध्यवर्गीय और अत्यन्त रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। दस साल की कच्ची उम्र में ही उनकी शादी कर दी गयी थी और संयोग से शादी होने के बाद भी वे उसी तरह के रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में बहू बनकर गयी थीं। किन विषम परिस्थितियों में अपने आप से, परिवार से और समाज से संघर्ष करती हुई वे नास्तिक केन्द्र की संस्थापक बनीं, यह एक विरल और दिलचस्प उदाहरण है।
सरस्वती गोरा का जन्म 28 सितम्बर 1912 को आन्ध्र प्रदेश के विजयनगरम के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। पोदुर लक्ष्मी नरसिम्हम और कोन्दम्मा की वे आठवीं सन्तान थीँ। अपने माता पिता की अन्तिम सन्तान होने के कारण उन्हें परिवार का बहुत दुलार मिला। प्यार से बचपन में उन्हें ‘चिट्टी’ कह कर पुकारा जाता था। जब वे पाँच साल की हुईं तब उनका नाम विद्यालय में लिखवाया गया और उसी समय उनका नाम विद्या की देवी के नाम पर सरस्वती दर्ज कराया गया। उनका बचपन बड़े सुख- चैन से कटा क्योंकि उनके माता- पिता आर्थिक दृष्टि से काफी सम्पन्न थे। उनके बाबा (ग्रेंडफादर) भी सामाजिक दृष्टि से काफी रसूखदार व्यक्ति थे। गुराजदा अप्पा राव, आदिभाटला नारायण दासु, द्वारम बेंकटस्वामी नायडू, गिडुगु राममूर्ति पंथालु आदि उस समय के सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से प्रतिष्ठित लोगों से उनका मधुर पारिवारिक संबंध था। इन सबके साथ आए दिन बैठकें तथा सामाजिक कार्यों के संबंध में विचार -विमर्श होते रहते थे। सरस्वती यह सब देखती रहती थीं।
सरस्वती के पिता महाराजा के कोर्ट में कर्मचारी थे। यद्यपि के बहुत बड़े पद पर नहीं थे किन्तु उनकी कार्य शैली से लोग वहाँ बहुत प्रभावित थे। इसी प्रभाव के नाते उनके लड़कों को भी अच्छी नौकरियाँ मिल गयीं। सरस्वती का परिवार काफी रूढ़िवादी था। उनके घर की रसोई में किसी नौकर को जाने की अनुमति नहीं थी। उनकी माँ बहुत भी धार्मिक स्वभाव की थीं और उनका ज्यादातर समय पूजा पाठ में ही बीतता था।
उन दिनों रूढ़िवादी प्रतिष्ठित ब्राह्मणों में रजस्वला होने से पहले ही लड़कियों की शादी कर देना पुण्य का काम माना जाता था। सरस्वती भी जब मात्र दस वर्ष की थीं तभी उनका विवाह काकीनाड़ा के उनके पिता के मित्र गोपराजू बेंकटसुभा राव के सुपुत्र गोपाराजु रामचन्द्र राव से हो गया। इस तरह दो मित्रों का परिवार सम्बन्धी बन गया। सरस्वती के ससुराल का परिवार भी उसी तरह का रूढ़िवादी परिवार था। बेंकटसुभा राव भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। उन्हें ‘महादेव शंभो’ कहकर पुकारा जाता था। यद्यपि उन्होंने बाद में अनेक गीत लिखे जिसमें वे शिव, अल्लाह, ईशामसीह, यहोवा आदि को इस सृष्टि को संचालित करने वाले सर्वशक्तिमान ईश्वर का ही विभिन्न नाम बताया।
शादी के बाद सरस्वती की स्कूली शिक्षा बन्द हो गयी। उनकी रुचि पढ़ने में थी और उन्होंने घर में रहकर खास तौर पर धार्मिक पुस्तकें पढ़ना जारी रखा। वे पूजा पाठ भी यथावत करती रहीं। इस दौरान गाँधी जी के नेतृत्व में देश में स्वाधीनता आन्दोलन तेजी से चल रहा था। 1923 में काकीनाड़ा में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस कमेटी की मीटिंग आयोजित हुई। इस अधिवेशन को देखने के लिए अपने पति गोपाराजु रामचन्द्र राव के साथ सरस्वती भी गयीं। यद्यपि उन्हें काँग्रेस के नेताओं की बातें ज्यादा कुछ समझ में नहीं आई किन्तु इस सम्मेलन के बाद उनके ससुर नौकरी से निलम्बित कर दिए गये क्योंकि उन्होंने इस अधिवेशन में स्वयंसेवक का काम किया था और दो बोरी चावल भी सहयोग के रूप में दिया था।
1926 में सरस्वती के पति की कोयम्बटूर के कृषि कॉलेज में शोध सहायक की नौकरी लग गयी। सरस्वती भी उनके साथ पहली बार वहाँ रहने गयीं। उनके पति का पूजा पाठ में विश्वास नहीं था। वे सिर्फ साफ सुथरा रहना पसन्द करते थे किन्तु सरस्वती की पूजा पाठ की आदत पहले से थी। अपने पति से विचार-विमर्श करते हुए धीरे-धीरे उनका भी मन पूजा पाठ से दूर होने लगा। वहाँ कुछ महीने रहने के बाद ही उनके पति ने कुछ कारणों से उस नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और 1927 में कांकीनाड़ा लौट आए। रास्ते में उन्होंने ऊटी, मैसूर, तिरुपति, मद्रास आदि का पर्यटन किया। इस यात्रा की महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इस जोड़ी ने सिर्फ तिरुपति की पहाड़ियों के सौन्दर्य का अवलोकन किया और मन्दिर के भीतर तिरुपति बाला जी का दर्शन नहीं किया। दो महीने बाद ही उनके पति की नौकरी कोलम्बो में लग गयी। वे आनंद कॉलेज कोलंबों में प्रवक्ता बन गये और सरस्वती कोलम्बो चली गयीं। कोलंबों में उनके सम्बन्धों का दायरा बढ़ा और मित्र मण्डली में हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, इसाई आदि सभी धर्मों को मानने वाले शामिल हुए। सरस्वती को उन सबके रीति रिवाजों और कर्मकांडों को ज्यादा करीब से समझने का अवसर मिला। अपने पति और उनके दोस्तों के साथ इन रीति -रिवाजों और कर्म-कांडों को लेकर उनकी लम्बी बहसें होतीं। देखते ही देखते सरस्वती की जीवन चर्चा पूरी तरह बदल चुकी थी। अब वे रूढ़िवादी, परम्परावादी नहीं, तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न हो चुकी थीं।
कोलम्बो में सरस्वती ने पहली बार एक प्रयोग किया। वहाँ रहते हुए एक बार सूर्य ग्रहण लगा। उस समय सरस्वती तीन माह की गर्भवती थीं। हिन्दू धर्म में ग्रहण के समय किसी गर्भवती महिला को बाहर निकलना, सूरज को देखना, किसी चीज को छूरी से काटना आदि पूर्णत: वर्जित होता है। माना जाता है कि ऐसा करने से गर्भ में पलने वाले शिशु पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अर्थात गर्भवती स्त्री कुछ काटती है तो गर्भस्थ शिशु का भी कोई न कोई अंग भंग अवश्य हो जाएगा। सरस्वती ने देखा कि ऐसी मान्यता सिर्फ हिन्दुओं में है अन्य धर्मावलंबियों में नहीं। उनके पति ने सरस्वती को प्रयोग के लिए उकसाया। सरस्वती तैयार हो गयीं। उन्होंने ग्रहण के समय बाहर जाकर सूरज को भी देखा और वह सारा काम भी किया जो ग्रहण के अवसर पर वर्जित था। बाद में सरस्वती ने देखा कि उनके गर्भ में पल रहा बच्चा यथा समय पूर्ण स्वस्थ और बिना किसी परेशानी के, पूरी तरह सामान्य रूप से जन्म लिया। सरस्वती का प्रयोग सफल था और इसका उनके जीवन पर गुणात्मक असर पड़ा। 1928 में उनके पति ने जनेऊ पहनना छोड़ दिया और सरस्वती ने भी पूजा- पाठ और हर तरह का कर्मकांड करना छोड़ दिया। अब वे सामाजिक बुराइयों के पक्ष में खड़ी होने वाली प्रतिक्रियावादी ताकतों का मुकाबला करने के लिए भी पूरी तरह तैयार हो चुकी थीं।
जिस समय महात्मा गाँधी का नमक सत्याग्रह चल रहा था और हजारो लोग गिरफ्तारियाँ दे रहे थे, गोरा परिवार भारत आ गया था और सरस्वती के पति खादी पहनने लगे थे। अब वे सीधे आजादी के आन्दोलन से जुड़ गये। सरस्वती उस समय अपनी दूसरी संतान को जन्म देने के लिए अपने मायके में थीं। गोरा ने उन्हें आजादी के आन्दोलन में हिस्सा लेने सम्बन्धी अपनी गतिविधियों के बारे में लिखा। सरस्वती ने उन्हें इस कार्य के लिए प्रोत्साहित किया। गाँधी जी द्वारा चलाए जा रहे नमक सत्याग्रह के दौरान ही सरस्वती गोरा ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया और उसका नाम ‘लवणम’ रखा। इसके चार महीने बाद सरस्वती काकीनाड़ा आ गयीं। इसके बाद अपने पति के सभी कार्यों में सरस्वती कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ देने लगीं।
गोरा ने काकीनाड़ा के अछूतों की बस्ती में प्रौढ़ों को पढ़ाना शुरू किया जहाँ सरस्वती भी उनका दूसरी तरह से सहयोग करने लगीं। वे अछूत महिलाओं की समस्यायों को सुनती थीं और दृष्टिकोण बदलने का प्रयास करती थीं। इससे समाज और दुनिया को देखने का सरस्वती का नजरिया भी विस्तृत हुआ।
इसी कांकीनाड़ा में प्रख्यात स्वाधीनता सेनानी दुर्गाबाई देशमुख भी रहती थीं। सरस्वती भी उनके सम्पर्क में आईं तो उनकी राजनीतिक समझ भी विकसित हुई और राजनीतिक आन्दोलनों में उनकी हिस्सेदारी भी बढ़ी। दुर्गाबाई देशमुख ने सरस्वती और उनके पति को काँग्रेस के बड़े नेताओं से परिचय कराया। गाँधी जी जब 1933 में कांकीनाड़ा आए तो गोरा ने वालंटियर का काम किया। सरस्वती के लिए भी दुर्गाबाई उत्साह का स्रोत थी। दुर्गाबाई ने स्वयं अनेक अन्तरजातीय विवाह कराए थे। सरस्वती भी भली-भाँति समझ गयी थीं कि अन्तरजातीय और अन्तरधार्मिक विवाह ही समाज में समता और साम्प्रदायिक सद्भाव लाने का एक मात्र रास्ता है।
इसी बीच जब गोरा परिवार मसुलिपत्तनम में था तो गोरा की चाची कुछ दिन के लिए वहाँ आईं और वहीं दिवंगत हो गयीं। गोरा दंपति ने उनके निधन के बाद न तो कोई कर्मकांड किया और न किसी पुजारी को बुलाया। इसके कारण स्थानीय लोगों ने बहुत विरोध किया। सरस्वती गोरा ने इस परिस्थिति का डटकर मुकाबला किया। इसी तरह एक बार उनके पति अपनी नास्तिक गतिविधियों के कारण मसुलिपत्तनम के हिन्दू कॉलेज से बर्खास्त कर दिए गये जहाँ वे शिक्षक थे। अब इनके सामने चुनौती थी कि वे दूसरी नौकरी ढूंढे या पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता बन जाएँ। सरस्वती अपने पति के साथ एक मजबूत स्तम्भ की तरह खड़ी रहीँ। उन्होंने नयी नौकरी ढूंढने की जगह पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता बनने का रास्ता चुना।
इस बीच जातिप्रथा तथा छुआछूत के उन्मूलन के लिए किये गये उनके कार्यों के बारे सुनकर महात्मा गाँधी ने उन्हें अपने सेवाग्राम आश्रम में आमंत्रित किया। ये लोग 1940 में सेवाग्राम गये और वहाँ गाँधी जी के साथ दो सप्ताह तक रुके। उसी वर्ष उन्होंने नास्तिक केन्द्र की स्थापना करने का निर्णय लिया।
गोरा दंपति अपने छ: बच्चों के साथ कृष्णा जिले के एक अति पिछड़े गाँव मुदुनूर आ गया और वहाँ 1940 में विश्व के पहले नास्तिक केन्द्र की स्थापना की। वहाँ गाँव वालों की तरह सामान्य जीवन जीते हुए उन्होंने सबसे पहले प्रौढ़ों को पढ़ाना शुरू किया और उसी के साथ जाति-पाँति, छूआ-छूत जैसी सामाजिक बुराइयों को हटाने, विधवा-विवाह को प्रश्रय देने, सामाजिक सद्भाव तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए जोर शोर से काम करना शुरू किया। सरस्वती का दृष्टिकोण अब पूरी तरह बदल चुका था। वे अब अपने शरीर से मंगलसूत्र तथा अन्य आभूषण उतार चुकी थीं। अब वे पूरी तरह नास्तिक बन चुकी थीं और नास्तिकता के प्रचार के लिए तैयार थीं। 1940 में फिर से सूर्य ग्रहण लगा। इस बार सरस्वती ने 18 गर्भवती महिलाओं को तैयार किया और कोलम्बो के अपने अनुभव को दुहराया जो पूरी तरह सफल हुआ।
महात्मा गाँधी की शिक्षाओं से प्रेरित होकर सरस्वती भारत छोड़ो आन्दोलन में कूद पड़ीं। मुदुनूर का यह नास्तिक केन्द्र आजादी के आन्दोलन का भी महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया। यहाँ से 22 सत्याग्रही महिलाएँ भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान एक साथ जेल गयी थीं जिनमें सरस्वती की छोटी सी बेटी मनोरमा और बहू साम्राज्यम भी थी। इस बार उनकी छ: महीने की जेल हुई थी। वे खुद कई बार जेल जा चुकी थीं जिनमें एक बार वे अपने ढाई साल के बेटे और गोद में अपने एक बच्चे को लेकर जेल गयी थीं।
आजादी के बाद भी सरस्वती के समाज सुधार का कार्यक्रम यथावत जारी रहा। 1953 में भूमि सुधार के आन्दोलन में हिस्सा लेने के कारण वे अपनी साठ सहयोगी महिलाओं के साथ जेल गयी थीं और जेल में उन्हे एक माह तक रहना पड़ा था। इसी तरह 1968 में भी सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित एक आन्दोलन में शामिल होने के नाते उन्हें जेल जाना पडा था। आजादी के बाद वे समझ गयी थीं कि छुआ-छूत, जाति-पाँति आदि के खिलाफ निर्णायक लड़ाई कानून बनाकर लड़ी जा सकती है। इसके लिए उन्होंने बार-बार सरकार पर दबाव बनाए और उसके लिए आन्दोलन किये। 1961 में उन्होंने सेवाग्राम से दिल्ली तक मार्च किया जिसमें उनका नारा था, “मन्त्री नौकर हैं और जनता मालिक है।” सर्वोदय और विनोबा के भूदान आन्दोलन में भी उन्होंने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था।
सरस्वती हरिजन बस्तियों में समाज सेवा के लिए अपने पति के साथ जाती थीं और जब भी जरूरत पड़ती थी वे उनके साथ ही खाना भी खाती थीं। जिस जमाने में हरिजन लड़के और ब्राह्मण लड़की के विवाह के बारे में लोग सोच भी नहीं सकते थे, सरस्वती ने अपनी लड़की मनोरमा की शादी हरिजन लड़के अर्जुन राव से करके उदाहरण पेश किया। वे लगातार अन्तरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करती रहीं और एक जातिविहीन समाज के निर्माण के लिए निरन्तर प्रयास करती रहीं।
सरस्वती गोरा के पति का निधन 1975 में हो गया। उसके बाद सरस्वती ने नास्तिक केन्द्र का दायित्व खुद संभाला। पति द्वारा शुरू की गयी सभी परियोजनाएँ यथावत चलती रहीं। ‘वसव महिला मण्डल’ के द्वारा समस्या- ग्रस्त महिलाओं के लिए काम होता रहा, ‘आर्थिक समता मण्डल’ की ओर से आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को सहायता दी जाती रही, ‘संस्कार’ के द्वारा अपराधी किस्म के लोगों को मुख्य धारा में लाने का काम होता रहा और दक्षिण की कुप्रथा- ग्रस्त योगिनियों और देवदासियों का विवाह कराकर उन्हें मुख्य धारा में शामिल किया जाता रहा।
दयालु प्रकृति की मृदुभाषी सरस्वती गोरा अपनी वृद्धावस्था में भी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा की स्रोत थीं। उनकी नौ संतान थीं। अपने नौ बच्चों के साथ वे आजीवन सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन जीती रहीं और संघर्ष करती रहीं। अन्त तक उनके चेहरे पर किसी तरह की थकान नहीं थी। गोपाराजु रामचन्द्र राव और सरस्वती गोरा का यह जोड़ा अप्रतिम जोड़ा के रूप में स्मरण किया जाएगा।
मानवता के लिए किये गये उनके कार्यों के लिए उन्हें वर्ष 2000 में जी.डी. बिड़ला अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला तथा महिलाओं के कल्याण तथा गाँवों के उत्थान के लिए किये गये उनके कार्यों पर उन्हें 1999 में जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
सरस्वती गोरा की आत्मकथा ‘माई लाइफ विद गोरा’ तेलुगू में प्रकाशित है।
हम उनकी पुण्यतिथि पर उनके द्वारा समाज हित में किये गये असाधारण कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
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