आजाद भारत के असली सितारे – 20
संविधान के अप्रतिम शिल्पी : बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर
भारत के पहले कानून व न्याय मन्त्री, भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष, असाधारण विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद, दार्शनिक, लेखक, पत्रकार, समाजशास्त्री, इतिहासविद्, मानवविज्ञानी, समाजसुधारक और दलित समाज के उद्धारक, भारत रत्न बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर (14.4.1891-6.12.1956) का जन्म मध्य प्रदेश के महू नगर में हुआ था। उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था। वे अपने माता- पिता की चौदहवीं संतान थे। उनका परिवार कबीरपंथ को मानने वाला मराठी मूल का तथा हिन्दू महार जाति का था जिसे उस समय अछूत माना जाता था।
भीमराव अम्बेडकर के पिता ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना में सूबेदार थे। सतारा के गवर्नमेंट हाई स्कूल से भीमराव की शिक्षा प्रारम्भ हुई। किन्तु कुछ वर्ष बाद ही 1897 में भीमराव के माता पिता मुंबई आ गये। भीमराव जब लगभग 15 वर्ष के थे और पाँचवीं में पढ़ रहे थे तो 9 साल की लड़की रमाबाई से उनकी शादी हो गयी। 1907 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और अगले वर्ष बंबई (मुंबई) विश्वविद्यालय से संबद्ध एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश लिया। उस समय इस स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने वाले अपने समुदाय के वे पहले व्यक्ति थे। 1912 में उन्होंने बी.ए. किया और बड़ौदा राज्य में नौकरी करने लगे। वर्ष 1913 में जब वे 22 वर्ष के थे तो बड़ौदा के राजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय के द्वारा प्राप्त छात्रवृत्ति से तीन साल के लिए अमेरिका चले गये और वहाँ कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क से उन्होंने स्नातकोत्तर किया। वहीं से 1916 में वे लंदन चले गये।
इंग्लैंड में उन्होंने ‘ग्रेज इनलॉ कॉलेज’ में बैरिस्टर कोर्स के लिए प्रवेश लिया और साथ ही ‘लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ में पी-एच.डी. के लिए भी प्रवेश लिया। किन्तु 1917 में बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति समाप्त हो जाने के कारणउन्हें अपनी शिक्षा अधूरी छोड़कर भारत लौट आना पड़ा। बाद में कोल्हापुर के शाहू महाराज के सहयोग तथा स्वयं किए गये कुछ बचत के सहारे वे दोबारा 1920 में लंदन गये और वहाँ से अपना अधूरा शोध कार्य भी पूरा किया। भीमराव अम्बेडकर को 1922 में ‘ग्रेज इन’ से बैरिस्टर-एट-लॉज की डिग्री मिली। 1923 में उन्होंने अर्थशास्त्र में डी.एस-सी. ( डॉक्टर ऑफ साइंस) की उपाधि प्राप्त की। लंदन का अध्ययन पूर्ण कर भारत लौटते हुए अम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में अध्ययन के उद्देश्य से रुके। बाद में कई विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधियां भी दीं।
1917 में भारत लौटने पर अम्बेडकर बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करने लगे। किन्तु कुछ दिन बाद ही उन्हें वहाँ सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ा। इससे परेशान होकर उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी और निजी ट्यूटर तथा एक लेखाकार के रूप में काम करने लगे। 1918 में वे मुंबई में सिडेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में पोलिटिकल इकोनॉमी के प्रोफेसर बने किन्तु वहाँ भी उन्हें अन्य प्रोफेसरों के साथ बर्तन साझा करने को लेकर भेदभाव का सामना करना पड़ा।
अब तेजी उनका झुकाव सामाजिक कार्यों की ओर हो रहा था। 1920 में जिनदिनों गाँधीजी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी, अम्बेडकर ने सामाजिक असमानता के खिलाफ कारगर लड़ाई लड़ने के लिए मुंबई से ‘मूकनायक’ का प्रकाशन शुरू किया। इस पत्र की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी। इसी दौरान बाम्बे हाईकोर्ट में प्रेक्टिस करते हुए उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य शिक्षा और सामाजिक आर्थिक सुधार के साथ ही दलित समुदाय का कल्याण था। 1925 में जब साइमन कमीशन भारत आया और पूरे देश में उसके खिलाफ ‘साइमन गो बैक’ के नारे लग रहे थे, उस समय अम्बेडकर ने साइमन कमीशन को अलग से भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिए सिफारिश लिखकर भेजी।
इसी तरह द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के अंतर्गत 1 जनवरी 1818 को हुई कोरेगांव की लड़ाई के दौरान मारे गये भारतीय महार जाति के सैनिकों के सम्मान में अम्बेडकर ने 1 जनवरी 1927 को ‘कोरेगांव विजय स्मारक’ (जय स्तम्भ) में एक बड़ा समारोह आयोजित किया जहाँ उन्होंने महार समुदाय से सम्बन्धित सैनिकों के नाम, संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाए और इस तरह कोरेगांव को दलित स्वाभिमान का प्रतीक बना दिया।
अब तक डॉ॰ अम्बेडकर ने छुआछूत के विरुद्ध एक व्यापक जनान्दोलन आरम्भ कर दिया था। वे पेयजल के सार्वजनिक संसाधनों को सभी वर्गों के लिए खुलवाने, मंदिरों में सबको प्रवेश का अधिकार दिलाने आदि के लिए सत्याग्रह और जुलूस निकालने लगे। उन्होंने महाड़ शहर में अछूत समुदाय को भी शहर की चवदार तालाब से पानी लेने का अधिकार दिलाने के लिये सत्याग्रह चलाया। ‘मनुस्मृति’ की सार्वजनिक रूप से निंदा कीऔर हजारों अनुयायियों के नेतृत्व में उसकी प्रतियाँ जलायीँ। 1930 मेंअम्बेडकर ने तीन महीने की तैयारी के बाद कालाराम मन्दिर सत्याग्रह शुरू किया। इस आन्दोलन में लगभग 15,000 स्वयंसेवक इकट्ठे हुए थे। अबतक अम्बेडकर दलितों के लिए सबसे बड़ी हस्ती बन चुके थे।
अम्बेडकर जब पश्चिम से लौटे तो यहाँ आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी। किन्तु वे इस लड़ाई का हिस्सा नहीं बने। इसकी वजह थी। वे सोचते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद सवर्ण हिन्दुओं का दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार और बढ़ जाएगा। जब गाँधी से अम्बेडकर की पहली मुलाकात हुई तो उन्होंने जानना चाहा कि जिस तरह कांग्रेस के सदस्यों के लिए चरखा कातना अनिवार्य किया गया है उसी तरह उनके छुआछूत न मानने को अनिवार्य क्यों नहीं किया गया? उस दौरानगाँधी का अछूतोद्धार कार्यक्रम चल रहा था, किन्तु अम्बेडकर की नजर में वह नाकाफी था। गाँधी दक्षिणपन्थी, वामपन्थी, आस्तिक, नास्तिक, हिन्दू, मुसलमान आदि सबको साथ लेकर चलना चाहते थे। वे आजादी के आन्दोलन को व्यापक बना रहे थे, जबकि अम्बेडकर का मुख्य एजेंडा जाति व्यवस्था का पूर्ण विनाश था।
निश्चित रूप से भारत के बार-बार पराजित और कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण यहाँ की जाति व्यवस्था है। मनुष्यों में छूआछूत और ऊंच-नीच का जैसा वीभत्स रूप भारत में है वैसा दुनिया में कहीं नहीं है। इसीलिए बुद्ध, कबीर, दयानंद, विवेकानंद, गाँधी आदि सभी ने इसपर चोट की, किन्तु वे सब दलित जाति से नहीं थे। लेकिन जब अम्बेडकर ने चोट किया तो उसका अभिप्राय बदल गया।क्योंकि वे उनके अपने समाज के थे, आधुनिक थे, अमेरिका और इंग्लैंड से सबसे ऊंची डिग्रियां लेकर लौटे थे।
किन्तु इसके बावजूद यहाँ की जाति- व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी और उलझी हुई हैं कि अम्बेडकर भी अंत में हार मान गये। उन्होंने देखा कि एक परतबद्ध जाति -व्यवस्था दलितों के बीच भी मौजूद है। अस्पृश्य भी विभाजित इकाई हैं। उनके भीतर भी अनेक जातियाँ हैं। वे लिखते हैं, ”अस्पृश्यों के बीच जाति- व्यवस्था ने परस्पर प्रतिद्वन्द्विता और ईर्ष्या को जन्म दिया है। इसने साझा कार्यवाहियों को असंभव बना दिया है।” उन्होंने देखा कि महाराष्ट्र में ‘महार’, ‘मांग’ और ‘चम्भर’ जो तीन मुख्य अस्पृश्य जातियाँ है वे भी आपस में शादी सम्बन्ध नहीं करतीं। गैर महार दलित जातियों के लोग अम्बेडकर को उस हद तक अपना नेता नहीं मानते थे जिस हद तक उन्हें उम्मीद थी। वे इस परतबद्ध जाति- व्यवस्था को समाप्त करना चाहते थे। लेकिन यह आसान काम नही था। उन्होंने महसूस किया कि इस परतबद्ध असमानता के कारण कुलीन वर्ग के खिलाफ विद्रोह कठिन है। बाद में थक हार कर वे हिन्दू धर्म से मुक्त होने में ही अपना मुक्ति-मार्ग देखने लगे।
महात्मा गाँधी को अम्बेडकर सिर्फ हिन्दुओं का नेता कहते थे, जबकि गाँधी अपने को सभी हिन्दुस्तानियों का नेता मानते थे। वे अपनी ओर से पहल करके अम्बेडकर से संवाद की कोशिश करते रहे औरउन्हें अपनी सोच से अवगत कराते रहे। गाँधी लगातार अम्बेडकर की सोच को समझने की कोशिश भी करते रहे। अस्पृश्यता के विरुद्ध गाँधी भी थे और अम्बेडकर भी, लेकिन एक द्रष्टा था दूसरा भोक्ता। दोनों के अनुभव अलग-अलग समाजों के थे। किन्तु इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि जो शोषित वर्ग का नही है वह शोषितों की लड़ाई नहीं लड़ सकता। इसलिए, मेरी दृष्टि में अस्पृश्यता के खिलाफ गाँधी की लड़ाई को संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। किन्तु जैसा कि पहले भी कहा है, अम्बेडकर दलितों के अपने थे और अपने समुदाय पर अम्बेडकर का जो असर था वह गाँधी का नहीं हो सकता था। अम्बेडकर के महत्व को गाँधी भली-भांति समझते थे। 1934 में करांची में छात्रों को संबोधित करते हुए गाँधी ने कहा था, “डॉ. अम्बेडकर का बलिदान अद्वितीय है। वे अपने काम में पूरी तरह डूबे हुए हैं। वे एक सरल जीवन जीते हैं। वे चाहें तो माहवार एक से दो हजार रूपए कमा सकते हैं। वे चाहें तो कभी भी यूरोप जाकर बस सकते हैं मगर वे वहाँ नहीं रहना चाहते। वे सिर्फ हरिजनों के कल्याण के लिए फिक्रमंद हैं।“
अम्बेडकर दलितों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल चाहते थे। 8 अगस्त 1930 को प्रथम गोलमेज सम्मेलन के दौरान अम्बेडकर ने दलित समुदाय को लेकर अपना दृष्टिकोण दुनिया के सामने रखा था जिसके अनुसार शोषित वर्ग का हित, सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतन्त्र होने में है। उन्होंने गाँधी पर अछूत समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। वे ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे। ऐसी दशा में उन्होंने अछूत समुदाय के लिए एक ऐसी अलग राजनीतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार दोनों की कोई दखल न हो। अम्बेडकर को 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भी आमंत्रित किया गया। वहाँ उन्होंने अछूतों के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल देने की मांग की।
दूसरी ओर, गाँधी अलग निर्वाचक मण्डल के विरुद्ध थे। वे अस्पृश्यों को किसी भी तरह हिन्दू समाज सेअलग मानने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने अलग निर्वाचक मण्डल के मुद्दे पर जेल में ही अनशन आरम्भ कर दिया। उन्हें लग रहा था कि अलग निर्वाचक मण्डल के कारण हिन्दू समाज में अलगाव की नींव पड़ेगी। पाकिस्तान की माँग के रूप में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल का परिणाम गाँधी को स्पष्ट दिखायी दे रहा था। फलत: भारी जन दबाव के आगे अम्बेडकर को झुकना पड़ा। 24 सितम्बर 1932 को अम्बेडकर यरवडा जेल में अनशन कर रहे गाँधी के पास गये और गाँधी से समझौता हुआ। अम्बेडकर को अपनी माँग छोड़नी पड़ी। इसे ही पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है।
दरअसल गाँधी और अम्बेडकर का लक्ष्य एक ही था, रास्ते थोड़े भिन्न थे। 13 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा में समाजवाद पर बोलते हुए अम्बेडकर ने कहा था कि, “स्वतन्त्र भारत में सामाजिक और आर्थिक न्याय हो, इसके लिए उद्योग धंधों और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा। जब तक अर्थतन्त्र समाजवादी अर्थतन्त्र न हो तब तक मैं नहीं समझता कि कोई भावी सरकार जो सामाजिक- आर्थिक और राजनीतिक न्याय करना चाहती है, वह ऐसा कर सकती है।“ (उद्धृत, गाँधी, अम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं, रामविलास शर्मा, पृष्ठ-595) और गाँधीजी भी यही चाहते थे। उन्होंने लिखा है, “भारत की जरूरत यह नहीं है कि चंद लोगों के हाथों में बहुत सारी पूँजी जमा हो जाय। पूँजी का ऐसा वितरण होना चाहिए कि वह इस 1900 मील लम्बे और 1500 मील चौड़े विशाल देश को बनाने वाले साढ़े सात लाख गाँवों को आसानी से उपलब्ध हो सके।“ (गाँधीजी : मेरे सपनों का भारत, पृष्ठ-812)
1926 में बम्बई के गवर्नर ने अम्बेडकर को बाम्बे विधान परिषद के सदस्य के रूप में मनोनीत किया। वे 1936 तक इस परिषद के सदस्य रहे। 13 अक्टूबर 1935 को अम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्राचार्य नियुक्त किया गया। इस पद पर भी उन्होंने दो वर्ष तक काम किया।
1936 में अम्बेडकर ने स्वतन्त्र मजदूर पार्टी की स्थापना की। 1937 के केन्द्रीय विधान सभा चुनाव में उनकी पार्टी 15 सीटों पर विजयी हुई थी। 1942 में उन्होंने अपनी इस पार्टी को ‘आल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ में बदल दिया। इसी वर्ष उन्होंने ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ नामक मशहूर पुस्तक लिखी। उन्होंने कांग्रेस के लोगों तथा गाँधी द्वारा अछूत समुदाय को ‘हरिजन’ पुकारे जाने पर एतराज जताया।
अम्बेडकर ने मुस्लिम समाज में प्रचलित बुराइयों की भी सख्त आलोचना की। उनके यहाँ बहुविवाह, तीन तलाक, मुस्लिम महिलाओं में प्रचलित पर्दा प्रथा आदि की अम्बेडकर ने कटु आलोचना की है। उन्होंने 1942 से 1946 तक रक्षा सलाहकार समिति और वायसराय की कार्यकारी परिषद् में श्रम मन्त्री के रूप में भी कार्य किया।
15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतन्त्रता के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में जब नई सरकार अस्तित्व में आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहला कानून व न्याय मन्त्री के रूप में सेवा देने के लिए आमंत्रित किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। उन्हें संविधान की मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया। इस समिति में सात सदस्य थे किन्तु अम्बेडकर ने संविधान को अन्तिम रूप देने में जो श्रम किया उसके सम्बन्ध में मसौदा समिति के एक सदस्य टी.टी कृष्णामाचारी का कथन प्रमाण हैं। उन्होंने नवम्बर 1948 में संविधान सभा के सामने कहा था,“सम्भवत: सदन इस बात से अवगत है कि आपने (ड्राफ्टिंग कमेटी में) में जिन सात सदस्यों को नामांकित किया है, उनमें एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया है और उनकी जगह अन्य सदस्य आ चुके हैं। एक सदस्य की इसी बीच मृत्यु हो चुकी है और उनकी जगह कोई नए सदस्य नहीं आए हैं। एक सदस्य अमेरिका में थे और उनका स्थान भरा नहीं गया। एक अन्य व्यक्ति सरकारी मामलों में उलझे हुए थे और वह अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे थे। एक-दो व्यक्ति दिल्ली से बहुत दूर थे और सम्भवत: स्वास्थ्य की वजहों से कमेटी की कार्यवाहियों में हिस्सा नहीं ले पाए। सो कुल मिलाकर यही हुआ है कि इस संविधान को लिखने का भार डॉ. अम्बेडकर के ऊपर ही आ पड़ा है। मुझे इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि हम सब को उनका आभारी होना चाहिए कि उन्होंने इस जिम्मेदारी को इतने सराहनीय ढंग से अंजाम दिया है।” (संविधान सभा की बहस, खंड- 7, पृष्ठ- 231)
संविधान पूरा करने के बाद डॉ. अम्बेडकर ने 26 नवम्बर 1949 को कहा था, “ मैं महसूस करता हूँ कि संविधान साध्य है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मजबूत भी है कि देश को शान्ति और युद्ध दोनो के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो उसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।“
अम्बेडकर समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे और कश्मीर मामले में धारा 370 के विरोधी थे। संविधान सभा में बहस के दौरान अम्बेडकर ने समान नागरिक संहिता की वकालत की थी। किन्तु संविधान सभा तो बहुमत से चलने वाली सभा थी और बहुमत इसके पक्ष में नहीं था।
1952 में अम्बेडकर राज्य सभा के सदस्य चुने गये। इसके बाद 1956 में वे दोबारा राज्य सभा के लिए चुने गये। 30 सितम्बर 1856 को अम्बेडकर ने ‘आल इंडिया शैड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ को समाप्त करके ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया’ की स्थापना की घोषणा की लेकिन गठन से पहले ही उनका निधन हो गया। बाद में उनके सहयोगियों ने 3 अक्टूबर 1957 को पार्टी का गठन किया और एन.शिवराज को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया।
1950 तक आते- आते अम्बेडकर को लगने लगा था कि हिन्दू धर्म में सुधार संभव नहीं है और उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़ने का निर्णय लिया। वे बौद्ध भिक्षुओं और विद्वानों के एक संम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गये। 1955 में उन्होंने ‘बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया’ की स्थापना की। उन्होंने बौद्ध धर्म चुना और अपनी मृत्यु के लगभग एक माह पहले 14 अक्टूबर 1956 को अपने लाखों अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। उन्होंने कहा कि, “यह धर्म मुझे तमाम इंसानों के लिए, उनकी खुशियों के लिए, सबके प्रति प्रेम के लिए प्रेरित करता है। “उन्होंने कहा कि, “असमानता और उत्पीड़न के प्रतीक, अपने प्राचीन धर्म को त्यागकर मेरा पुनर्जन्म हुआ है।…. बौद्ध धर्म ही सच्चा धर्म है और मैं ज्ञान, सन्मार्ग और करुणा तीन सिद्धांतों के प्रकाश में जीवन यापन करूँगा। “किन्तु बौद्ध धर्म को भी उन्होंने संशोधित रूप में ही ग्रहण किया। उदाहरणार्थ चार आर्य सत्यों को बौद्ध धर्म की मूल स्थापनाओं के विपरीत मानकर उन्होंने अस्वीकार कर दिया। “धम्मं शरणम् गच्छामि” नहीं कहा। कहना न होगा, बौद्ध दर्शन एक नास्तिक दर्शन है। इसलिए अम्बेडकर भी नास्तिक कहे जा सकते हैं। अम्बेडकर के साथ जो हजारों लोगों ने बौद्ध धर्म में दीक्षा ली थी उन्हे अम्बेडकर ने 22 प्रतिज्ञाएं कराई थीं जिनमें हिन्दू देवी- देवताओं और अवतारों को न मानने की बात भी शामिल थी।
अम्बेडकर को कुछ लोग संविधान निर्माता कहते हैं तो कुछ लोग संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमैन। तकनीकी रूप से सही है कि वे ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे और यह भी सही है कि कमेटी के दूसरे सदस्य भी कम काबिल नहीं थे। किन्तु संविधान निर्माण में रात-दिन एक करके जिस निष्ठा से अम्बेडकर लगे रहे उसे देखते हुएउन्हें संविधान निर्माता का सम्मान देना उचित ही है।
अम्बेडकर मधुमेह के रोगी थे। वे लगातार कमजोर हो रहे थे किन्तु उनका काम जारी रहा। अपनी अन्तिम पुस्तक ‘भगवान बुद्ध और उनका धम्म’ को पूरा करने के तीन दिन बाद 6 दिसम्बर 1956 को 64 वर्ष 7 महीने की उम्र में इस महामानव का दिल्ली में निधन हो गया। दिल्ली से विशेष विमान द्वारा उनका पार्थिव शरीर मुंबई के उनके आवास राजगृह लाया गया जहाँ 7 दिसम्बर को समुद्र तट पर बौद्ध धर्म के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार किया गया।
अम्बेडकर की पहली पत्नी रमाबाई की लम्बी बीमारी के बाद 1935 में ही निधन हो गया था। अम्बेडकर ने दूसरी शादी डॉ. शारदा कबीर से 15 अप्रैल 1948 को की थी। शादी के बाद डॉ. शारदा कबीर ने अपना नाम बदल कर सविता अम्बेडकर रख लिया। सविता अम्बेडकर का निधन 29 मई 2003 को 93 वर्ष की आयु में हुआ।
अम्बेडकर की प्रगतिशील विचारधारा को उनके कुछ उद्धरणों से समझा जा सकता है। उन्होंने कहा है, “पति- पत्नी के बीच का सम्बन्ध घनिष्ठ मित्रों के सम्बन्ध के समान होना चाहिए।“ हिन्दू धर्म में विवेक और स्वतन्त्र सोच के विकास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। “मैं किसी समुदाय की प्रगति, महिलाओं ने जो प्रगति हासिल की है, उससे मापता हूँ।“ लोग और उनके धर्म सामाजिक मानकों द्वारा; सामाजिक नैतिकता के आधार पर परखे जाने चाहिए। अगर धर्म को लोगो के भले के लिए आवश्यक मान लिया जायेगा तो और किसी मानक का मतलब नहीं होगा। “हमारे पास यह स्वतन्त्रता किसलिए है? हमारे पास यह स्वतन्त्रता इसलिए है ताकि हम अपने सामाजिक व्यवस्था, जो असमानता, भेद-भाव और अन्य चीजों से भरी है, जो हमारे मौलिक अधिकारों से टकराव में है को सुधार सकें।“ सागर में मिलकर अपनी पहचान खो देने वाली पानी की एक बूँद के विपरीत, इंसान जिस समाज में रहता है वहाँ अपनी पहचान नहीं खोता। इंसान का जीवन स्वतन्त्र है। वो सिर्फ समाज के विकास के लिए नहीं पैदा हुआ है, बल्कि स्वयं के विकास के लिए पैदा हुआ है। “शिक्षा शेरनी का दूध है, इसे जो पिएगा वह शेर की तरह जरूर दहाड़ेगा।“ इतिहास बताता है कि जहाँ नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है वहाँ जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है। “और उनका मशहूर नारा “ शिक्षित बनो! संगठित रहो! संघर्ष करो!” आदि।
अम्बेडकर को 1990 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया। 14 अप्रैल को अम्बेडकर जयंती के नाम से उनका जन्मदिन पूरे भारत में एक पर्व की तरह मनाया जाता है। भारत के संसद भवनमें उनका एक बड़ा तैलचित्र लगा हुआ है। उनके नाम पर एक दर्जन से अधिक विश्वविद्यालय, प्रौद्योगिक संस्थान, एअरपोर्ट आदि हैं। भारत के अलावा ब्रिटेन, जापान आदि देशों में भी उनकी मूर्तियां स्थापित हैं। अम्बेडकर के अनुयायियों ने ‘जय भीम’ के रूप में अभिवादन की एक शैली ही विकसित कर ली है। उनके जीवन पर विभिन्न भाषाओं में अनेक फिल्में बन चुकी हैं और टीवी धारावाहिक प्रसारित हो चुके हैं।
अम्बेडकर ने ‘मूकनायक’, ‘जनता’, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘समता’, एवं ‘प्रबुद्ध भारत’ शीर्षक से पाँच पत्रिकाओं का संपादन किया। उनकी चर्चित पुस्तकों में ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’, ‘दि प्राब्लम ऑफ दि रूपी : इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन’, ‘ह्वाट कांग्रेस एंड गाँधी हैव डन टू द अनटचेबल्स’, ‘हू वेयर द शूद्राज’, ‘स्टेट एंड माइनारिटीज’, ‘महाराष्ट्र एज लिंग्विस्टिक प्रोविन्स स्टेट’, ‘द बुद्धा एंड हिज धम्मा’, ‘वेटिंग फॉर ए वीजा’, ‘इंडिया एंड कम्युनिज्म’, ‘बुद्धा एंड कार्ल मार्क्स’ आदि प्रमुख हैं। उनकी संपूर्ण रचनाएं ‘डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज’ नाम से 22 खण्डों में अंग्रेजी में प्रकाशित है जो लगभग 15 हजार पृष्ठों में है।
बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर सामाजिक असमानता के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई लड़ने वाले तथा दलितों के भीतर स्वाभिमान का भाव जगाने वाले आधुनिक भारत के सबसे बड़े नायक हैं। उनकी पुण्यतिथि पर हम उन्हें नमन करते हैं और श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।