शख्सियत

जातिविहीन समाज की आम्बेडकरवादी अवधारणा

 

  भारतीय समाज में जाति एक कोढ़ की बीमारी की तरह फैली हुई है। इसका इलाज किए बगैर हम स्वस्थ, स्वाधीन समाज की कल्पना नहीं कर सकते। जाति भारतीय समाज का मूलभूत ढाँचा है। मनुस्मृति में जाति-प्रथा का समर्थन किया गया है। मनुस्मृति के रचयिता मनु ने जाति-संस्था को सैद्धांतिक रूप देने में अपनी भूमिका निभाई है। इस जाति व्यवस्था ने भारत के एक बड़े समुदाय का जीना हराम करके रखा था और आज भी ऐसी घटनाएँ आए दिन सुनने को मिलती है। जातिवादी शोषण के कई अस्त्र रहे है जिसके जरिए जाति-प्रथा निम्न जाति का निर्मम शोषण करती है। इस जाति व्यवस्था का उन्मूलन करने में डॉ. बाबासाहब आम्बेडकर ने अपना सारा सामर्थ्य लगा दिया था। वे खुद इस अमानवी प्रथा के भुक्तभोगी थे।

इसीलिए उन्होंने जाति-व्यवस्था का जड़ से उन्मूलन करने हेतु, वह ‘की-नोट’ हमारे सामने प्रस्तुत किया है जिसे हम पथदर्शक ‘एक्शन प्लान’ कह सकते हैं। लाहौर के ‘जातपात तोड़क मण्डल’ के समक्ष जो भाषण उन्हे करना था, जो हो न सका; वह भाषण बाद मे लिखित रूप मे ‘जातिप्रथा का उन्मूलन’ (एनिहिलेशन ऑफ कास्ट) के नाम से उपलब्ध है, इस से भारत में जातिविहीन समाज के निर्माण में आम्बेडकरवाद की अवधारणा स्पष्ट होती है। साथ ही उन्होने स्त्रियों की उन्नति के लिए जो कार्य किया, वर्ग संकल्पना का जो विश्लेषण किया वह भी इस अवधारणा को पुख्ता करने में मददगार साबित होता है। आम्बेडकरवाद मे केवल जातिविहीन समाज की ही नहीं बल्कि जाति, वर्ग और स्त्रीदासता विहीन समाज तक की अवधारणा निहित है।

      जातिप्रथा के कारण होनेवाले सामाजिक, मानसिक, एवं आर्थिक शोषण से निजात पाने के लिए भारतीय समाज शुरुआती दौर से प्रयत्नशील रहा है। बुद्ध पूर्व काल से मक्खली गोसाल, अजित केसकम्बली, संजय बेलपट्ठीपुत्त, इ. श्रमण जैसे संस्कृति के समर्थकों के साथ साथ तथागत बुद्ध ने भी जाति-वर्ण विहीन समाज के निर्माण मे अपना योगदान दिया है। ‘जातियाँ मनुष्येतर प्राणियों मे हो सकती है, मनुष्य में नहीं’ ऐसा कहकर जातियों का धिक्कार किया है। डॉ. आम्बेडकर के विचारों पर बुद्ध का प्रभाव हम सब जानते है। इसीलिए यह कहना उचित होगा कि जातिविहीन समाज की अवधारणा में तथागत बुद्ध डॉ. आम्बेडकर के पूर्ववर्ती थे। जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे डॉ. आम्बेडकर का मानना था कि “जाति-संस्था का निर्माण उपदेश मात्र से नहीं हुआ है और न ही उसे केवल उपदेशों से समाप्त किया जा सकता है।” जब तक आर्थिक सम्बन्ध नहीं बदलते, उत्पादन के साधनों पर पारम्परिक स्वामित्व का अन्त नहीं होता तब तक जाति-संरचना में आधारभूत परिवर्तन सम्भव नहीं लगता।

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      जाति-व्यवस्था केवल एक सामाजिक परिघटना नहीं, एक आर्थिक परिघटना भी है। यह निम्न जातियों के शोषण की व्यवस्था है। भारत के विकास को रोकने में इसकी नकारात्मक भूमिका है। जाति-प्रथा ने निम्न जाति के उत्पादन की क्षमता के विकास पर भी रोक लगाया है। आम्बेडकरवाद जाति-प्रथा के केवल भौतिक पहलुओं या उत्पीड़न और शोषण के विरोध तक सीमित नहीं है, बल्कि इसने इस प्रथा के वैचारिक पहलुओं पर जिसे ब्राम्हणवाद कहा जाता है, की भी चिकित्सा की है।  

      जाति-व्यवस्था पर विचार के क्रम में पहला सवाल उसके उत्पत्ति को लेकर रखा जाता है। जाति-जाति मे विवाह, पैतृक व्यवसाय को अपनाना, दो अलग अलग जाति समुदायों के बीच सहभोज का न होना, जन्म के आधार पर समुदाय की सदस्यता का निर्धारण होना आदि को डॉ. आम्बेडकर जाति के आधारभूत लक्षण मानते है। उनके अनुसार सजातीय विवाह ही जातिप्रथा के प्रचलन में सबसे महत्वपूर्ण कारण रहा है। डॉ. आम्बेडकर का प्रतिपादन है कि ब्राम्हणों ने अपने स्वार्थ के लिए सजातीय विवाह का प्रचलन शुरू किया। उन्होंने ही सबसे पहले सजातीय विवाह की प्रथा अपनाई और उनकी देखा-देखी अन्य वर्णों ने उसे अपनाया। परिणामतः वर्ण की जगह जातिप्रथा ने ली। (कलेक्टेड वर्क्स, डॉ. बी. आर. आम्बेडकर, संपा. वसंत मून, पहिला संस्करण, महाराष्ट्र शासन खण्ड- I, पृ.18) 

       ‘जातिप्रथा का उन्मूलन’ (एनिहिलेशन ऑफ कास्ट) निबन्ध में डॉ. आम्बेडकर लिखते है, “यदि आप जाति आधारित समाज नहीं चाहते तो आपका आदर्श समाज क्या होगा?यह सवाल अवश्य पूछा जाएगा। यदि आप मुझसे पूछें तो मैं कहूँगा कि मेरा आदर्श ऐसा समाज है जो स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित हो।” डॉ. आम्बेडकर के इस आदर्श समाज की अवधारणा बौद्ध धम्म में दिखाई पड़ती है। और इसपर उन्होने बौद्ध धम्म को अपनाकर खुद भी अमल किया है। डॉ. आम्बेडकर द्वारा बौद्ध धम्म प्रवर्तन की कृति जाति प्रथा के उन्मूलनार्थ भारत की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिघटना थी।

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      जातिविहीन समाज की आम्बेडकरवादी अवधारणा केवल जाति विनाश की ही नहीं, बल्कि जाति के विध्वंसन की भी है। समानता, बन्धुत्व और स्वतन्त्रता इन मानवी प्रगति के लिए पोषक लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली की प्रस्थापना करने हेतु जाति-प्रथा का नष्ट होना या उसका उन्मूलन करना आम्बेडकरवाद मे अनिवार्य है। जब तक जाति-प्रथा का प्रचलन है, तब तक राष्ट्रवाद की भावना लोगों में पनप नहीं सकती। जाति-प्रथा का प्रचलन कायम रखकर हम राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। जाति-प्रथा में संशोधन करना भी बेमानी है। जाति-प्रथा का उन्मूलन करने के लिए धर्मशास्त्र और धर्मग्रंथों का आधिपत्य, प्रामाण्य और पावित्र्य खत्म करना अनिवार्य है। प्राचीन महाकाव्य, ग्रंथ, पुराणकथा, दंतकथा, धार्मिक उत्सव आदि को खारिज करने की माँग आम्बेडकरवाद करता है,जिससे जाति-प्रथा के उन्मूलन की दिशा मे कदम बढ़ाए जा सके। आम्बेडकरवाद के नजरिए से जाति-प्रथा शोषण-शासन की सुसंघटित व्यवस्था है।

      जाति-प्रथा के उन्मूलन के लिए संतोषजनक उपाय डॉ. आम्बेडकर के विचारों मे पाये जाते है। डॉ. आम्बेडकर द्वारा लिखे ग्रंथों, दिये हुए भाषणों मे जाति-प्रथा के उन्मूलनार्थ कई उपाय बारबार सुझाए गये हैं। भारतीय समाज को गतिशील बनाने के लिए इस समाज की जो संरचना बनी है, जो जाति तन्त्र से अनुकूलित है, उसे ध्वस्त करना होगा। अगर भारत में सही मायने में जातिविहीन समाज स्थापित करना है तो हमे आम्बेडकरवाद को अपनाना होगा। आम्बेडकरवाद को अपनाने से भारत में जातिविहीन समाज स्थापित तो होगा ही, उसके साथ-साथ वर्गविहीन समाज और सामाजिक लोकतन्त्र भी स्थापित होगा, जो हमे स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूल्यों की समृद्धि देगा।

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बुद्ध के अनुभववादी ज्ञान उपागम की भूमि पर खड़े होकर आम्बेडकरवाद जाति-प्रथा का खण्डन करता है, साथ में साम्राज्यवाद और पूँजीवाद का भी खण्डन करता है। आम्बेडकरवादी दृष्टि से बुद्ध धम्म ही जाति-प्रथा का विकल्प हो सकता है। आम्बेडकरवाद जाति, वर्ग और जेण्डर की पूरी चिन्ता करता है। आम्बेडकरवाद का सरल अर्थ ही यह है कि वह वर्ण या जाति, वर्ग और जेण्डर तीनों मानदण्डों के प्रति संवेदनशील सामाजिक दृष्टि रखता है। जाति खत्म करने की दिशा में आम्बेडकरवाद निश्चित ही क्रांतिकारी भूमिका अदा करता है।

      डॉ. आम्बेडकर की अपेक्षा थी कि, संवैधानिक उपायों से और धर्म परिवर्तन के माध्यम से जाति-प्रथा का उन्मूलन होगा। आज भी जाति का जटिल प्रपंच समकालीन संदर्भो से काट कर नहीं देखा जा सकता है। लेकिन आज भी समाज में हमें जातिवाद की मौजूदगी दिखाई पड़ती है। इसका मतलब अभी भी हमारे दिलों-दिमाग में प्रचलित धर्म ध धँसा हुआ है। इसीलिए आम्बेडकरवाद के अनुरूप जातिवाद की मौजूदगी खत्म करने के लिए हमे धर्मग्रन्थ और स्मृतिग्रन्थ की शरण मे जाने की जगह बुद्ध की शरण मे जाने की और किसी धर्मग्रन्थ में बताए गये रास्ते पर न चलकर भारतीय संविधान के रास्ते चलने की आवश्यकता है।

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अरविंद सुरवाड़े

लेखक आम्बेडकरवादी मराठी चिन्तक, आलोचक, अनुवादक एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं। सम्पर्क +919869921603, satdhamma@gmail.com
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