आजाद भारत के असली सितारे-17
आधुनिक भारत के निर्माता पं. जवाहरलाल नेहरू
देश की आजादी के समय भारत के पहले प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू (14.11.1889 – 27.5.1964) के नाम कुल संपत्ति 200 करोड़ रूपए की थी। उस समय देश गुलामी और बंटवारे को लेकर बुरी तरह टूट चुका था। पं. नेहरू ने अपनी संपत्ति का 98 फीसदी हिस्सा अर्थात 196 करोड़, राष्ट्र निर्माण के लिए देश के नाम दान कर दिया। उस समय देश के किसी दूसरे नेता ने इतनी बड़ी संपत्ति दान नहीं की थी।
20 साल तक उनके निजी सचिव रहे ओ.एम.मथाई ने अपनी पुस्तक ‘रेमिनिसेंसेस ऑफ द नेहरू एज’ में लिखा है कि प्रधान मन्त्री बनने के बाद उनकी जेब में 200 रूपए से ज्यादा नहीं रखे जाते थे क्योंकि जेब में रखे गए रूपयों को वे बंटवारे के दौरान दंगापीड़ितों पर खर्च कर देते थे। जरूरतमंदों की सहायता करने के लिए अमूमन वे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से उधार भी ले लेते थे। एक बार उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित शिमला गईं और वहाँ के एक मंहगे सर्किट हाउस में ठहरीं मगर बिल चुकाए बगैर लौट आईं। तब नेहरू ने उनका बिल पाँच किस्तों में चुकाई। इसी तरह उनकी इसी बहन ने अमेरिका में राजदूत होते हुए काफी बड़ा निजी खर्च कर डाला जिसकी अदायगी सरकारी फंड से करनी पड़ी। पं. नेहरू को पता चला तो उन्होंने गुपचुप तरीके से उसकी जाँच कराई। मामला सही था और विजयलक्ष्मी पंडित को वह रकम टुकड़ों में वापस करनी पड़ी।
पं. जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर 1889 को इलाहाबाद में हुआ था। वे पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूपरानी नेहरू के इकलौते बेटे थे। उनकी दो छोटी बहनें थीं। एक विजयलक्ष्मी पंडित और दूसरी कृष्णा हठीसिंग। विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं और कृष्णा हठीसिंग एक प्रतिष्ठित लेखिका।
जवाहरलाल नेहरू की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। 1905 में उनका प्रवेश इंग्लैंड के हैरो स्कूल में करा दिया गया। वह दुनिया के बेहतरीन स्कूलों में गिना जाता था। इसके बाद की शिक्षा के लिए वे कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गये उन्होंने कानून की पढ़ाई कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से की। वे इंग्लैंड में शिक्षा के लिए सात साल रहे और 1912 में भारत लौटे। इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी। लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। देश की गुलामी उन्हें हर क्षण कचोटती रहती थी। वे सियासी कार्यक्रमों में शिरकत करने लगे। उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया। 8 फ़रवरी 1916 को कमला नेहरू से उनका विवाह हुआ। 19 नवम्बर 1917 को उनके यहाँ बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमन्त्री बनीं।
1917 में नेहरू होम रूल लीग में शामिल हुए। राजनीति में उनकी असली दीक्षा 1919 में हुई जब उनका संपर्क महात्मा गाँधी से हुआ। उस समय महात्मा गाँधी ने रौलट ऐक्ट के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था। गाँधीजी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने नेहरू को बहुत आकर्षित किया। उन्होंने गाँधी जी के अनुसार अपने और अपने परिवार को भी ढाल लिया। अपने पिता मोतीलाल नेहरू के साथ उन्होंने पश्चिमी कपड़ों की होली जलाई और अपनी रईसी का त्याग कर दिया। वे अब एक खादी कुर्ता और गाँधी टोपी पहनने लगे। 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। 1920-1922 में उन्होंने असहयोग आन्दोलन में हिस्सा लिया और पहली बार गिरफ्तार किए गये 1922 में पहली बार जेल जाने और 1945 में आखिरी बार रिहा होने के बीच वे कुल नौ बार जेल गये सबसे कम 12 दिनों के लिए और सबसे ज्यादा 1041 दिनों के लिए। स्मरणीय है कि वह अंग्रेजों की जेल थी और उनकी सजा में सश्रम कारावास भी था। ऐसे संपन्न परिवार के वारिस के लिए अंग्रेजों की जेल की सजा काटना आसान नहीं था। 1923 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए जिसमें गाँधी जी की प्रमुख भूमिका थी। इसके बाद 1927 में भी वे दो साल के लिए कांग्रेस के महासचिव बनाए गये 1924 में पं. नेहरू इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो वर्ष तक सेवा की। 1926 में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों के असहयोग का हवाला देकर त्यागपत्र दे दिया।
1926 में उन्होंने इटली, स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड, जर्मनी, बेल्जियम और सोवियत संघ जैसे देशों का दौरा किया। वे 1927 में अक्टूबर समाजवादी क्रांति की दसवीं वर्षगांठ समारोह में भाग लेने मास्को गये इस यात्रा का उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा और उनका झुकाव मार्क्सवाद की ओर होने लगा। 1928 में लखनऊ में उन्होंने साइमन कमीशन के खिलाफ एक जुलूस का नेतृत्व किया जिसमें लाठी चार्ज हुआ और उन्हें हल्की चोट भी आई। 29 अगस्त 1928 को उन्होंने सर्वदलीय सम्मेलन में भाग लिया और वे उनलोगों में से एक थे जिन्होंने भारतीय संवैधानिक सुधार की नेहरू रिपोर्ट पर अपने हस्ताक्षर किये थे। ध्यान रहे, इस रिपोर्ट का नाम उनके पिता पं. मोतीलाल नेहरू के नाम पर रखा गया था। उसी वर्ष उन्होंने ‘भारतीय स्वतन्त्रता लीग’ की स्थापना की एवं इसके महासचिव बने। इस लीग का मूल उद्देश्य भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्णतः अलग करना था।
दिसम्बर 1929 में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में आयोजित हुआ जिसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गये कांग्रेस की यह अध्यक्षता सीधे पिता से पुत्र को मिली। पं. मोतीलाल नेहरु की जगह जवाहरलाल नेहरु को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का फ़ैसला गाँधी जी ने किया था। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें ‘पूर्ण स्वराज्य’ की मांग की गयी। महात्मा गाँधी ने जब 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का आह्वान किया तो पं. नेहरू ने उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। आन्दोलन खासा सफल रहा और इसने प्रमुख राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार करने के लिए ब्रिटिश सरकार को विवश कर दिया।
वर्ष 1930-35 के दौरान नमक सत्याग्रह एवं कांग्रेस के अन्य आन्दोलनों के कारण नेहरू को कई बार जेल जाना पड़ा था। रिहाई के बाद वे अपनी बीमार पत्नी को देखने के लिए स्विट्जरलैंड गये इसके कुछ ही समय बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी का निधन हो गया। फरवरी-मार्च, 1936 में उन्होंने लंदन का दौरा किया। उन्होंने जुलाई 1938 में स्पेन का भी दौरा किया जब वहाँ गृह युद्ध चल रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से कुछ समय पहले वे चीन के दौरे पर भी गये
पं. नेहरू ने भारत को युद्ध में भाग लेने के लिए मजबूर करने का विरोध करते हुए व्यक्तिगत सत्याग्रह किया, जिसके कारण 31 अक्टूबर 1940 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें दिसंबर 1941 में अन्य नेताओं के साथ जेल से मुक्त कर दिया गया। 7 अगस्त 1942 को मुंबई में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में पंडित नेहरू ने ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन आरम्भ करने का प्रस्ताव रखा जो पारित हुआ। 9 अगस्त 1942 को उन्हें अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। यह उनकी अन्तिम और सबसे अधिक अवधि की जेलयात्रा थी। जनवरी 1945 में अपनी रिहाई के बाद उन्होंने राजद्रोह का आरोप झेल रहे आई.एन.ए. के अधिकारियों एवं व्यक्तियों का कानूनी बचाव किया। मार्च 1946 में पंडित नेहरू ने दक्षिण-पूर्व एशिया का दौरा किया। 6 जुलाई 1946 को वे चौथी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और फिर 1951 से 1954 तक और तीन बार वे इस पद के लिए चुने गये
15 अगस्त सन् 1947 को देश आजाद हुआ तो पं. नेहरू भारत के पहले प्रधानमन्त्री बने। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद आर्थिक रूप से ख़स्ताहाल और 565 रियासतों में बंटे हुए भारत का नवनिर्माण करना आसान काम नहीं था, लेकिन पंडित नेहरू ने सरदार वल्लभभाई पटेल के सहयोग तथा अपनी दूरदृष्टि, सूझबूझ और संकल्प से जो पंचवर्षीय योजनाएँ बनाईं उसके नतीजे वर्षों बाद सामने आए जो बेहद फलदाई थे।
नेहरू ने विकास की जो योजनाएं बनाईं उसमें गरीबों, दलितों, पिछड़ों, किसानों और मजदूरों का खास ख्याल रखा और लोक-कल्याणकारी राज्य की संकल्पना की। उनकी दृष्टि में लोक-कल्याण भी जरूरी था और उद्योगों का संरक्षण भी। इसलिए उन्होंने बड़ी-बड़ी सरकारी कंपनियां यानी पीएसयू की स्थापना की। उन्होंने आई.आई.टी, आई.आई.एम. खोले, देशभर में विश्वविद्यालय खोले, बड़ी- बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ खोलीं। बड़े बांध, सिंचाई की योजनाएं, अधिक अन्न उपजाओ, वन महोत्सव, सामुदायिक विकास, राष्ट्रीय विस्तार कार्यक्रम, पंचवर्षीय योजना, भारी उद्योग, लोहे और बिजली और खाद के कारखाने, पंचायत स्तर तक हजारों स्कूल, यूपीएससी आदि माध्यमों से लाखों सरकारी नौकरियों का सृजन, छुआछूत-उन्मूलन और इस सबके द्वारा समाजवादी समाज की संरचना आदि सबकुछ जिस उत्साह से शुरू हुआ वह अभूतपूर्व था।
उस समय देश में बिजली, पानी, सड़क, खनन जैसे सभी सेक्टर में भारी पूँजी लगाने की जरूरत थी और तब निजी क्षेत्र इतना विकसित नहीं था कि उसे यह काम सौंपा जा सके। सबके लिए सस्ती और गुणवत्तायुक्त शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं सुलभ हों, इसका भी भली-भांति ख्याल रखना था। इसके लिए उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य को सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत रखना उचित समझा। इसी का परिणाम है कि निजीकरण की इस आँधी में भी गरीबों को इलाज के लिए कुछ सरकारी अस्पताल और शिक्षा के लिए कुछ सरकारी शिक्षण संस्थाएं उपलब्ध हैं।
इतना ही नहीं, अपने सत्रह साल के प्रधानमंत्रित्व काल में पं. नेहरू ने भारत की जो नींव रखी, उसकी जड़ें इतनी मजबूत और गहरी थीं कि आज भी इस मुल्क में लोकतन्त्र सुरक्षित है जबकि बगल के हमारे पड़ोसी तमाम उतार-चढ़ाव से गुजर चुके हैं।
पं. नेहरू का एक अहम फ़ैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था। इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून-1956 पास किया गया। आज़ादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ यह सबसे बड़ा बदलाव था। इसके तहत 14 राज्यों और छह केन्द्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई। इसी क़ानून के तहत केरल और मुंबई को राज्य का दर्जा मिला। संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया, जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा हासिल करने का अधिकार मिला।
उन्ही दिनों दक्षिण भारत में अलग देश की भी मांग उठी। ‘द्रविड़ कड़गम’ पहली ग़ैर राजनीतिक पार्टी थी जिसने द्रविड़नाडु (द्रविड़ों का देश) बनाने की मांग रखी। द्रविड़नाडु के लिए आन्दोलन शुरू हो गया। नेहरू ने देश की अंखडता को बनाए रखने के लिए 5 अक्टूबर 1963 को संविधान का 16वां संशोधन पेश कर दिया। इस संशोधन के माध्यम से देश की संप्रभुता एवं अखण्डता के हित में मूल अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाने के प्रावधान रखे गए साथ ही तीसरी अनुसूची में भी परिवर्तन कर शपथ ग्रहण के अन्तर्गत ‘मैं भारत की स्वतन्त्रता एवं अखण्डता को बनाए रखूंगा’ जोड़ा गया। संविधान के इस संशोधन के बाद द्रविड़ कड़गम को द्रविड़नाडु की मांग हमेशा के लिए भूलना पड़ा।
पं. नेहरू ने विज्ञान के विकास के लिए 1947 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की। देश के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केन्द्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं। खेलों में भी नेहरू की रुचि थी। उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास के लिए ज़रूरी बताया। उन्होंने 1951 में दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन कराया।
पं. नेहरू प्रेस की स्वतन्त्रता के पूर्ण समर्थक थे। मीडिया द्वारा अपना विरोध करने के बारे में उन्होंने कहा था, ’’हो सकता है, प्रेस गलती करे, हो सकता है, प्रेस ऐसी बात लिख दे, जो मुझे पसन्द न हो। प्रेस का गला घोंटने की बजाय मैं यह पसन्द करूंगा कि प्रेस गलती करे और गलती से सीखे, मगर देश में प्रेस की स्वतन्त्रता बरकरार रहे।“ वे कहा करते थे कि लोकतन्त्र में प्रेस चाहे जितना ग़ैर-ज़िम्मेदार हो जाए मैं उसपर अंकुश लगाए जाने का समर्थन नहीं कर सकता।
जितना समय पंडित नेहरू संसद की बहसों में दिया करते थे और बैठकर विपक्षी सदस्यों की बात सुनते थे उस रिकॉर्ड को अभी तक कोई प्रधानमन्त्री नहीं तोड़ पाया है। अब तो प्रधानमंत्रियों द्वारा संसद की बहसों में भाग लेने की परम्परा दिन प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है। प्रधानमंत्रियों द्वारा की गयी प्रेस वार्ताएं भी दुर्लभ होती जा रही है।
विदेश मंत्रालय को नेहरू ने अपने पास ही रखा था। इस दौरान उन्होने मार्शल टीटो, कर्नल नासिर और सुकार्णो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की नींव रखी। इससे भारत की भी दुनिया में स्वतन्त्र पहचान बनी। गुटनिरपेक्षता का मतलब है कि भारत किसी भी गुट की नीतियों का समर्थन नहीं करेगा और अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति बरकरार रखेगा। वे विश्व में भारत की एक स्वतन्त्र पहचान निर्मित करना चाहते थे। वे चाहते थे कि भारत किसी भी देश के दबाव में न आए। उनके पंचशील के सिद्धांत में राष्ट्रीय संप्रभुता के साथ दूसरे राष्ट्र के मामलों में भी दखल न देने जैसे शांति-सिद्धांत शामिल थे। वे कोरियाई युद्ध का अन्त करने, स्वेज नहर विवाद सुलझाने और कांगो समझौते को मूर्तरूप देने जैसे मामलों में मध्यस्थ की भूमिका में रहे।
मगर चीन के साथ दोस्ती पं. नेहरू के लिए महंगीं साबित हुई। हालांकि चीन के साथ दोस्ती की पहल उन्होंने काफ़ी ईमानदारी से की थी और पंचशील के सिद्धांत के साथ-साथ ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया। लेकिन 1962 में चीन द्वारा भारत पर हमला करने से पंडित नेहरू को बहुत आघात लगा। कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि उनकी मौत का कारण इसका सदमा ही था। इसी तरह पाकिस्तान से भी कश्मीर मसले के चलते कभी अच्छे सम्बन्ध नहीं बन पाए।
नेहरू बहुत निडर किस्म के इन्सान थे। बंटवारे के समय कई बार वे निहत्थे और बिना किसी सुरक्षा के दंगाइयों के बीच पहुँच जाते थे और दंगे रोकने के लिए अपनी जान की परवाह नहीं करते थे। दिल्ली के कनॉट प्लेस में एक दंगे की खबर सुनकर वे वहाँ निहत्थे पहुँच गये दंगाइयों को डांटते हुए वे वहाँ अपना सिर पीट-पीटकर रोने लगे और उसके बाद एक पुलिस की लाठी छीनकर ख़ुद भीड़ को तितर-बितर करने के लिए दौड़ा लिए।
नेहरू जब धर्मनिरपेक्षता की चर्चा करते थे, तब वे भविष्य के भारत में एक नए इंसान को जन्म लेते देखना चाहते थे। एक ऐसा इन्सान जो सर्वधर्म समभाव को अपना जीवनमूल्य माने और सिर्फ मानवता को ही परम धर्म मानने वाला हो। गाँधीजी भी इसी तरह का सपना देख रहे थे। हमारे भीतर आज जितनी मनुष्यता बची हुई है उसका श्रेय गाँधी और नेहरू के प्रयासों को ही जाता है।
प्रख्यात पत्रकार राजेन्द्र माथुर ने लिखा है, “बीसवीं सदी में गाँधी के बाद यदि किसी एक हिन्दुस्तानी का इस देश की याद्दाश्त पर सबसे ज्यादा हक और कर्ज है, तो वह शख्स जवाहरलाल नेहरू ही है। नेहरू यदि आजादी के आन्दोलन के दिनों में गाँधी के सिपाही नहीं होते, तो हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन का नक्शा अलग होता। और यदि आजादी के बाद के 17 वर्षों में वे भारत के प्रधानमन्त्री नहीं होते, तो आज भारत का सामाजिक और राजनीतिक भूगोल वह नहीं होता जो आज है। तब इस देश की राजनीति के नदी, पहाड़ और जंगल सब अलग हो जाते।”
वे आगे लिखते हैं, “जवाहरलाल नेहरू जैसा सिपाही यदि गाँधी को आजादी के आन्दोलन में नहीं मिलता, तो 1927-28 के बाद भारत के नौजवानों को अपनी नाराज और बगावती अदा के बल पर गाँधी के सत्याग्रही खेमे में खींचकर लाने वाला और कौन था? नेहरू ने उन सारे नौजवानों को अपने साथ लिया जो गाँधी के तौर-तरीकों से नाराज थे और बार-बार उन्होंने लिखकर, बोलकर, अपनी असहमति का इजहार किया। उन्होंने तीस की उस पीढ़ी को जबान दी जो बोलशेविक क्रांति से प्रभावित होकर कांग्रेस के बेजुबान लोगों को लड़ाकू हथियार बनाना चाहती थी। लेकिन यह सारा काम उन्होंने कांग्रेस की केमिस्ट्री के दायरे में किया और उसका सम्मान करते हुए किया।”
वे लिखते हैं, “नेहरू के बिना क्या भारत वैसा लोकतांत्रिक देश बन पाता, जैसा कि वह आज है? आपको 1947 के किस नेता में लोकतन्त्र की बुनियादी आजादियों के प्रति वह सम्मान नजर आता है जो नेहरू में था? …..भारत के आर्थिक विकास के बारे में क्या किसी और नेता के पास दृष्टि थी? भारत की सारी विविधताओं को इतना स्नेह क्या किसी और नेता ने दिया? नेहरू नहीं होते तो विभाजन के तुरंत बाद क्या भारत हिंदू राष्ट्र बनने से बच पाता?”
लोकतन्त्र में नेहरू की आस्था और उनकी ईमानदारी का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने पूरे प्रधानमंत्रित्व काल में जितने भी राज्यपालों की नियुक्ति की, सम्बंधित प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के परामर्श और उनकी सहमति से की। इतना ही नहीं, वे अमूमन देश के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों, लेखकों आदि को राज्यपाल नियुक्त करते थे ताकि इस पद की गरिमा बनी रहे और सरकार चलाने में किसी मुख्यमन्त्री को किसी तरह की बाधा न पड़े जबकि आज केन्द्र सरकारें अपने अनुभवी राजनेताओं को राज्यपालों के पद पर नियुक्त करती हैं ताकि अपने विरोधी पार्टियों की सरकारों को परेशान करने और उन्हें गिराने में उनका इस्तेमाल किया जा सके।
भिन्न विचार के लोग नेहरू के बारे में यदा- कदा दुष्प्रचार भी करते रहते हैं। वैसे भी सार्वजनिक जीवन में रहने वाले किसी भी नायक में सिर्फ गुण ही गुण नहीं होते। उसके अपने अन्तर्विरोध भी होते हैं। अन्तर्विरोधों से लड़ते हुए ही वह महान बनता है। हमारा फर्ज है कि हम उसके द्वारा किए गए जनहित के कार्यों, उसके नैतिक और सामाजिक मूल्यों का आकलन करें और उसकी कमजोरियों को रेखांकित करते हुए उसे यथोचित सम्मान दें और उससे सबक लें।
कहा जाता है कि अनुच्छेद 370 पंडित नेहरू की वजह से ही लागू हुआ और सरदार पटेल इसके विरोधी थे। लेकिन यह बात पूरी तरह सच नहीं है। सच तो यह है कि जब संविधान सभा में अनुच्छेद -370 पर बहस हो रही थी, तो उस समय पं. नेहरू अमेरिका में थे और कश्मीर सम्बन्धी मसौदे को पं. नेहरू के निर्देश पर गोपालस्वामी आयंगर ने शेख अब्दुल्ला तथा मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों से सलाह मशविरा करके तैयार किया था। कश्मीर सम्बन्धी मामलों के जानकार होने के कारण नेहरू ने उन्हें यह काम सौंपा था। किन्तु, सरदार पटेल इससे पूरी तरह सहमत नहीं थे। इस संबंध में सरदार पटेल की उपेक्षा निश्चित रूप से नेहरू की भूल थी।
इसी तरह पं. नेहरू पर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने खुद अपना नाम ‘भारत रत्न’ के लिए प्रस्तावित किया था। यह भी एक मिथ्या प्रचार है। वास्तव में यह प्रस्ताव तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में खुद रखा था और कहा था, “मुझे असंवैधानिक कहा जा सकता है, क्योंकि मैं बिना किसी सिफारिश के या फिर बिना अपने प्रधानमन्त्री की सलाह से खुद से ही प्रधानमन्त्री नेहरू का नाम ‘भारत रत्न’ के लिए प्रस्तावित करता हूँ। लेकिन मैं जानता हूं कि इसे लोग बेहद उत्साह के साथ स्वीकार करेंगे।” (डॉ. राजेन्द्र प्रसाद : करेसपोंडेंस एंड सेलेक्टेड डॉक्यूमेंट्स, वाल्यूम -17, पेज-456)
हकीकत यह है कि पं. नेहरू ने भारत रत्न को अपने राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का आदेश मानकर भारी मन से स्वीकार किया था। वे सम्मान के लोभी बिलकुल नहीं थे। जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती देवी, जिनका नेहरू की पत्नी कमला नेहरू से घनिष्ठ मित्रता थी, लड़कियों की शिक्षा के लिए कमला नेहरू के नाम पर एक स्कूल खोलना चाहती थीं। उन्होंने इसके उद्धघाटन के लिए पं. नेहरू से आग्रह किया। इसपर नेहरू ने लड़कियों के नाम पर स्कूल खोलने की प्रशंसा तो की किन्तु प्रभावती देवी को लिखा कि उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि उनके पिता या पत्नी की याद में कोई भी संस्था, परियोजना या कार्यक्रम का आयोजन होगा तो उसके उद्घाटन में वे भाग नहीं लेंगे।
पंडित नेहरू अद्भुत अध्येता और लेखक थे। उनके पास वैज्ञानिक इतिहास- दृष्टि थी। ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ और ‘ग्लिम्पसेस ऑफ़ द वर्ल्ड हिस्ट्री’ उनकी ऐसी किताबें हैं जिन्हें हर भारतीय नागरिक को पढ़नी चाहिए। जेल में रहते हुए बिना किसी संदर्भ के उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को जो पत्र लिखे और जो बाद में पुस्तक रुप में प्रकाशित हुआ, अदभुत कृति है। दुनिया के पाँच हज़ार साल के इतिहास को जिस सलीक़े से उन्होंने लिपिबद्ध किया है उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती।
नेहरू के व्यस्त राजनीतिक जीवन को देखते हुए सहज विश्वास ही नहीं होता कि उन्होंने कैसे इतना अध्ययन किया और कब किताबें लिखीं। उनकी अधिकांश किताबें जेल में ही लिखी गयीं। उनके लेखन में एक साहित्यकार का हृदय और इतिहासकार की शोध-दृष्टि दोनो का आदर्श रूप दिखाई देता है।
उनकी आत्मकथा ‘ऐन ऑटो बायोग्राफी’ के बारे में सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन का मानना है कि वह हमारे युग की सबसे अधिक उल्लेखनीय पुस्तकों में से एक है। इसे भी उन्होंने अल्मोड़ा जेल में पूरा किया था।
इन पुस्तकों के अतिरिक्त पं. नेहरू के असंख्य व्याख्यान, लेख और पत्र हैं जिन्हें ‘जवाहरलाल नेहरू वांग्मय’ के नाम से सस्ता साहित्य मंडल ने 11 खंडों में प्रकाशित किया है।
पं. नेहरू को ‘गुलाब का फूल’ बहुत पसन्द था, जिसे वे अपनी शेरवानी में लगाकर रखते थे। बच्चों से भी उनका बहुत लगाव था। बच्चे उन्हें ‘चाचा नेहरू’ कहकर पुकारते थे। इसी प्रेम के कारण इनका जन्मदिन (14 नवम्बर) ‘बाल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
27 मई 1964 को दिल का दौरा पड़ने से इस महामानव का स्वर्गवास हो गया।
पंडित नेहरू ने अपनी वसीयत में लिखा था, “मैं चाहता हूं कि मेरी मुट्ठीभर राख प्रयाग के संगम में बहा दी जाए जो हिन्दुस्तान के दामन को चूमते हुए समंदर में जा मिले, लेकिन मेरी राख का ज्यादा हिस्सा हवाई जहाज से ऊपर ले जाकर खेतों में बिखरा दिया जाए, वे खेत जहाँ हजारों मेहनतकश इंसान काम में लगे हैं, ताकि मेरे वजूद का हर जर्रा वतन की खाक में मिलकर एक हो जाए…”
पं. नेहरू के नाम पर देश मे अनेक विश्वविद्यालय, संस्थान, सड़कें, अस्पताल आदि बने हुए हैं। 1955 में ही नेहरु को देश का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत-रत्न’ से नवाज़ा गया। किन्तु इन सबसे अलग पं नेहरू आज भी भारत की करोड़ो ईमानदार जनता के दिलों में मौजूद हैं।
हम पं. नेहरू के जन्मदिन पर उनके द्वारा राष्ट्रहित में किए गए महान कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हे श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
इस अवसर पर हम अपने देश के बच्चों को भी प्यार और शुभकामनाएं देते हैं।
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