शख्सियत

‘सबको शिक्षा एक समान’ की जंग में समर्पित जीवन : अनिल सद्गोपाल

 

आजाद भारत के असली सितारे -43

 

18 फरवरी 2019 को दिल्ली में ‘अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच’ (ऑल इंडिया फोरम फॉर राइट टू एजूकेशन ) के बैनर के नीचे आयोजित होने वाली शिक्षा हुँकार रैली की स्मृतियाँ मेरे मानस पटल पर आज भी अंकित हैं। इस रैली में देश भर से आए सैकड़ों जनतांत्रिक विचारों वाले संगठनों के लगभग ढाई हजार लोग संसद मार्ग पर इकट्ठा हुए थे और वहाँ से जुलूस की शक्ल में चलते हुए अंबेडकर भवन के बाहर मैदान में एक बड़ी सभा का हिस्सा बन गए जिसे प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और कम्युनिस्ट नेत्री वृन्दा कारात सहित लगभग दो दर्जन वक्ताओं ने संबोधित किया था।

जुलूस में जो बैनर थे उनपर आमतौर पर लिखा हुआ था, “राष्ट्रपति हो या मजदूर की संतान : सबको शिक्षा एक समान”, “शिक्षा का व्यवसायीकरण बंद करो”, “सबको शिक्षा : मुफ्त शिक्षा”, “समान शिक्षा के लिए संघर्ष तेज करो” आदि। केजी से पीजी तक सबके लिए समान, मुफ्त और मातृभाषाओं में शिक्षा की माँग के लिए आयोजित इस पूरे जुलूस का मैं चश्मदीद गवाह था। मैने देखा था कि लगभग 80 साल की उम्र वाले प्रो. अनिल सद्गोपाल (जन्म-14.10.1940) सुबह से ही जुलूस का नेतृत्व और संचालन कर रहे थे। पता चला कि उनकी बाईपास सर्जरी भी हो चुकी है। वे स्वयं नारा लगाते हुए संसद मार्ग से अंबेडकर भवन तक जुलूस में शामिल थे और वहाँ पहुँचने के बाद सभा का भी संचालन उन्होंने ही किया।

अनिल सद्गोपाल का जन्म लाहौर में हुआ था। उनके पिता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में कैमिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर थे और उनकी माँ एक कुशल गृहिणी। अनिल सद्गोपाल की प्रारंभिक शिक्षा विड़ला विद्यामंदिर नैनीताल से हुई और उच्च शिक्षा आभिजात्य वर्ग के लिए मशहूर दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से। उन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली से 1962 में प्लांट फिजियॉलॉजी एवं बायोकेमिस्ट्री में एम.एस-सी. किया।

उसके बाद वे अमेरिका चले गए और कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से बॉयोकेमिस्ट्री एवं मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी में पी-एच.डी. पूरी करने के बाद 1968 ई. में भारत आए। भारत आने के बाद टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेन्टल रिसर्च, मुंबई में तीन साल तक शोध व अध्यापन करने के बाद मूलभूत बदलाव और समाजसेवा के लिए अनुकूल अवसर न पाने के कारण 31 वर्ष की आयु में 1971 में उन्होंने वहाँ से त्याग पत्र दे दिया। उन्होंने मध्य प्रदेश के हौशंगाबाद (बनखेड़ी प्रखण्ड) जिले के एक गाँव पालिया पिपरिया में ‘किशोर भारती’ नाम से एक एन.जी.ओ.की स्थापना की। इस संगठन का उद्देश्य गाँवो में स्वास्थ्य, कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन अर्थात ग्रामीण विकास व सामाजिक परिवर्तन के लिए काम करना था।

वर्ष 1971 से ही अनिल सद्गोपाल ने होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के माध्यम से स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काम करना शुरू किया। आरंभ में उनके विज्ञान शिक्षण का यह कार्यक्रम दर्जा 6 से 8 तक के सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों के लिए था जिसे पहले 16 ग्रामीण स्कूलों में शुरू किया गया। इसे ‘किशोर भारती’ तथा ‘फ्रेन्ड्स रूरल सेन्टर’ नामक एक अन्य गैर सरकारी संगठन के साथ मिलकर चलाया गया। प्रो. सद्गोपाल ने अपनी क्षमता का भरपूर सदुपयोग करते हुए टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेन्टल रिसर्च, दिल्ली विश्वविद्यालय तथा उच्च शिक्षा के अन्य दूसरे संस्थानों के वैज्ञानिकों को इससे जोड़ा। इस प्रोग्राम से प्रभावित होकर मध्य प्रदेश सरकार ने इस योजना से होशंगाबाद जिले के सभी सरकारी मिडिल स्कूलों को जोड़ दिया।

वर्ष 1982 में ‘एकलव्य’ की स्थापना के साथ होविशिका (होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम) एक नए दौर में प्रवेश कर गया। अनिल सद्गोपाल रात-दिन इस कार्यक्रम के प्रचार-प्रसार में लग गए और उन्होंने इस कार्यक्रम को मध्य प्रदेश के 14 जिलों तथा गुजरात एवं राजस्थान के करीब 750 मिडिल स्कूलों में फैलाया जहाँ लगभग 50000 विद्यार्थी खुद प्रयोग करके अपनी जिज्ञासा, अवलोकन व विश्लेषण क्षमताओं को विकसित करते हुए वैज्ञानिक पद्धति से विज्ञान सीखते थे। अनिल सद्गोपाल के ही शब्दों में, “होविशिका ने सरकारी स्कूल व्यवस्था की ऐतिहासिक संभावनाओं को उजागर किया। इसी वजह से 30 साल बाद सन् 2002 में विश्व बैंक के दबाव में राज्य सरकार द्वारा ‘होविशिका’ बंद किया गया।“

 इसी बीच 2 दिसंबर 1984 को भोपाल में कुख्यात गैस त्रासदी हुई थी जिसमें हजारों लोगों की जान गई। संवेदनशील हृदय प्रो. सद्गोपाल भला चुप कैसे बैठते? उन्होंने ‘जहरीली गैस काण्ड संघर्ष मोर्चा’ बनाकर गैस से प्रभावित लोगों को न्याय दिलाने के लिए आन्दोलन छेड़ दिया। इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 की समीक्षा के लिए सन् 1990 में जब आचार्य राममूर्ति कमेटी बनी तो उसमें प्रो. अनिल सद्गोपाल को एक सम्मानित सदस्य के रूप में शामिल किया गया लेकिन जल्दी ही उनका वहाँ से मोहभंग हो गया, जब उन्हें पता चला कि प्राथमिक शिक्षा को लेकर सरकार का दृष्टिकोण उनसे मेल नहीं खाता और वहाँ उनके सुक्षावों को कोई महत्व मिलने वाला नहीं है।

वर्ष 1992 में प्रो. सद्गोपाल दिल्ली आ गए। इस अवधि में उन्होंने प्रख्यात जन नेता शंकर गुहा नियोगी पर शोधपूर्ण पुस्तक लिखी। वर्ष 1994 से 2005 तक वे दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा विभाग में प्रोफेसर रहे और तीन साल तक शिक्षा संकायाध्यक्ष (डीन) भी रहे। वे नेहरू म्यूजियम और पुस्तकालय के सीनियर फेलो भी रहे। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1980 के बाद से ही प्रो. सद्गोपाल जन विज्ञान आन्दोलन से जुड़ गए थे और सन् 1993 से सन् 2002 तक वे ‘भारत जन विज्ञान जत्था’ के राष्ट्रीय संयोजक रहे।

वर्ष 2004 में प्रो. सद्गोपाल को ‘केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड’ का सदस्य मनोनीत किया गया था। वर्ष 2004-2005 के दौरान वे केन्द्रीय सलाहकार परिषद की उन तीन समितियों के भी सदस्य रहे, जिसने वर्ष 2005 में शिक्षा अधिकार बिल (आरटीई बिल-2005) का ड्राफ्ट तैयार किया था। जब वह ड्राफ्ट सीएबीई की पूरी कमेटी के सामने प्रस्तुत किया जा रहा था तो सद्गोपाल ने सभी सदस्यों के सामने अलग से अपना पक्ष लिखित रूप में वितरित किया और बताया कि बैठकों में बिल का जो ड्राफ्ट तैयार किया गया था, प्रस्तुत करते समय उसमें बड़ा बदलाव कर दिया गया है जिससे वे सहमत नहीं है। सरकार ने उनके इस प्रस्ताव को उनका व्यक्तिगत विचार मानकर खारिज कर दिया और प्रतिक्रियास्वरूप सद्गोपाल ने उस समिति से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद प्रो. सद्गोपाल शिक्षा अधिकार बिल में सुधार करवाने और सबके लिए सामान शिक्षा व्यवस्था के अधिकार के लिए संघर्ष करने लगे।

“सरकारी शैक्षिक समितियाँ – आयोग : लोकताँत्रिक सलाह-मशविरे का ढोंग” शीर्षक अपनी पुस्तिका की भूमिका में वे लिखते हैं, “ सन् 2004-05 के उक्त अनुभवों के बाद मैंने मन बना लिया कि अब सरकारी मंचों पर मैं अपना समय बर्बाद नहीं करूँगा। एकबार ‘आजादी बचाओ आन्दोलन’ के प्रणेता दिवंगत डॉ. बनवारीलाल शर्मा ने कहा था कि आप क्यों बार–बार साँप के बिल में हाथ डालते हैं और फिर हमको सुनाते हैं कि साँप ने किस प्रकार आप को डँस लिया।

उन्होंने स्पष्ट राय दी कि शिक्षा की लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए जनचेतना को लामबंद करना ही एकमात्र विकल्प है। मैं उनसे पूरी तरह सहमत था। लेकिन सन् 2006 में मैंने एकबार फिर भ्रम पाला, जब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने समान स्कूल प्रणाली आयोग का गठन किया और उसके मनोनीत सदस्य के आग्रह के चलते मैं उसका सदस्य बना। यह किसी सरकारी मंच का मेरा आखिरी अनुभव यहाँ पेश है।“ (भूमिका, पृष्ठ -8)

      वर्ष 2009 में प्रो. अनिल सद्गोपाल और उनके साथियों ने ‘अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच’ की स्थापना की और शिक्षा के बाजारीकरण को खत्म करने तथा सबके लिए समान स्कूल व्यवस्था के लिए आन्दोलन छेड़ दिया। इस विषय पर 30 जून से 1 जुलाई 2012 तक चेन्नई में राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें आगे के आन्दोलन की रूपरेखा तय की गई। इस सम्मेलन में जो निर्णय लिए गए उसे चेन्नई घोषणापत्र में संकलित किया गया है। इस सम्मेलन में शिक्षा अधिकार कानून 2009 का विरोध किया गया है क्योंकि,

  1. यह निजी स्कूलों के प्रबंधकों को मनमाने ढंग से फीस बढ़ाने की छूट देता है और इस तरह शिक्षा के बाजारीकरण की रफ्तार को तेज करता है।
  2. यह मुट्ठीभर कमजोर वर्ग के बच्चों की फीस प्रतिपूर्ति की स्कीम लागू करके स्कूली शिक्षा के बेलगाम बाजारीकरण के लिए दरवाजे खोल देता है।
  3. यह न केवल मौजूदा बहुपरती एवं गैरबराबर स्कूल व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाता है बल्कि साथ में शिक्षा के विभिन्न आयामों में गैर बराबरी और भेदभाव को भी और आगे बढ़ाता है।
  4. यह अंतत: सरकारी स्कूलों को बंद करने के रास्ते खोलता है और स्कूल व्यवस्था को जनता की चिर प्रतीक्षित समान स्कूल व्यवस्था से ठीक उल्टी दिशा में ढकेलता है।

प्रो. अनिल सद्गोपाल के अनुसार शिक्षा हमारा मौलिक अधिकार है, शिक्षा राष्ट्र के निर्माण का आधार है, लेकिन दुनिया की नज़र में यही शिक्षा व्यापार है। भारत की 125 करोड़ की आबादी दुनिया के लिए महज एक बाज़ार है। यहाँ के खेत, यहाँ के किसान, यहाँ की हर चीज दुनिया के लिए एक व्यापारिक वस्तु भर है। नतीजा यह कि पिछले 25 वर्षों में धीरे-धीरे सब कुछ वैश्विक बाज़ार के हाथों में चला गया। बाकी रह गई थी शिक्षा। उन्होंने आगाह किया कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज (गैट्स) के तहत शिक्षा को भी व्यापारिक सेवा के अंतर्गत शामिल कर लिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस तरह से दुनिया भर की कंपनियों के लिए भारत के खेत-खलिहानों के रास्ते खोल दिए गए थे, अब उसी तरह से भारत का उच्च शिक्षा क्षेत्र भी विदेशी कंपनियों को मुना़फा कमाने के लिए खोल दिया गया है।

विश्व व्यापार संगठन के तीन बहुपक्षीय समझौते हैं, जिनमें एक प्रमुख समझौता है, गैट्स। इसके तहत शिक्षा को भी एक सेवा माना गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि विश्व व्यापार संगठन में शामिल देश, एक-दूसरे के यहाँ शिक्षा का व्यापार कर सकते हैं, अपने कॉलेज-यूनिवर्सिटी खोल सकते हैं और अपने हिसाब से पाठ्यक्रम तय कर सकते हैं। वे यह तय कर सकते हैं कि इस देश के बच्चों को क्या पढ़ाना है और क्या नहीं पढ़ाना है।

प्रो. अनिल सद्गोपाल याद दिलाते हैं कि इस पूरी कहानी की शुरुआत वर्ष 2001 में कतर की राजधानी दोहा में आयोजित विश्व व्यापार संगठन के मंत्री स्तरीय सम्मेलन से हुई। इस सम्मेलन में उच्च शिक्षा के दरवाजे व्यापार करने के लिए खोलने पर बातचीत हुई। कहा गया कि इस चर्चा को हम आगे जारी रखेंगे और इस पर सहमति बनाने की कोशिश करेंगे कि विश्व व्यापार संगठन में शामिल देश अपने यहाँ उच्च शिक्षा में व्यापार की अनुमति दें। इस प्रस्ताव पर भारत समेत क़रीब साठ देश सहमति दे चुके हैं। जबकि यह प्रावधान है कि भारत या कोई भी देश, चाहे तो इस समझौते से बाहर रह सकता है। उल्लेखनीय है कि अफ्रीकन और यूरोपियन यूनियन ने सा़फ तौर पर इस समझौते को मानने से इनकार कर दिया और कहा कि हम अपने यहाँ की उच्च शिक्षा को विश्व व्यापार संगठन के हवाले नहीं करेंगे।

फिलहाल यह जानना ज़रूरी है कि भारत द्वारा गैट्स के प्रावधानों को मानने और अपनी उच्च शिक्षा विश्व व्यापार संगठन के हवाले करने का अर्थ क्या है? गैट्स के मुताबिक, जो भी देश अपने यहाँ शिक्षा में व्यापार की अनुमति देगा, उसे अपने यहाँ उच्च शिक्षा में निवेश करने वाले कॉरपोरेट घरानों (विदेशी निवेश समेत) को समतामूलक ज़मीन मुहैय्या करानी होगी।

इसका अर्थ यह हुआ कि यदि भारत में कोई विदेशी कंपनी अपना विश्वविद्यालय खोलती है, तो उसे भारत के अन्य विश्वविद्यालयों से प्रतियोगिता करने के लिए समान अवसर, समान धरातल मुहैय्या कराना होगा। इस बात को समझाते हुए अनिल सद्गोपाल बताते हैं कि आज अगर भारत में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, दिल्ली विश्वविद्यालय को सौ करोड़ रुपये का अनुदान, भवन बनाने, नया ढाँचा तैयार करने, रिसर्च और शिक्षा के लिए देता है, तो उसे निजी विश्वविद्यालयों को भी यह सुविधा देनी होगी। लेकिन चूँकि यह संभव नहीं है, इसलिए यूजीसी समान धरातल मुहैय्या कराने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय को भी यह सुविधा देना बंद कर देगा। अनिल सद्गोपाल बताते हैं कि आगे यह भी संभव है कि सरकारी कॉलेजों-विश्वविद्यालयों से अपना फंड खुद जुटाने के लिए कहा जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि उनके पास जो अतिरिक्त ज़मीन है, उसे बेचकर, फीस बढ़ाकर अपना खर्च जुटाएं, ताकि गैट्स समझौते के तहत सभी संस्थाओं को आपस में प्रतियोगिता करने के लिए समान धरातल मिल सके।

प्रो. अनिल सद्गोपाल ने वर्ष 2009 में जो संभावनाएं व्यक्त की थीं आज वह अक्षरश: सच साबित हो रही हैं। विश्वविद्यालयों के फंड में भारी कटौती की जा रही है और उन्हें खुद फंड जुटाने को कहा जा रहा है। विद्यार्थियों की फीस में बेतहासा बढ़ोत्तरी हो रही है और इस बढ़ोत्तरी के खिलाफ लड़ रहे विद्यार्थियों पर पुलिस और प्रशासन की ओर से बेतहासा जुल्म ढाए जा रहे हैं।

अब वह दिन दूर नहीं जब सरकारी कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को वेतन के भी लाले पड़ जाएंगे। यदि सरकारी संस्थाएं स्ववित्त पोषित हो जाती हैं, तो उनका पाठ्यक्रम भी बाज़ार नियंत्रित हो जाएगा। यानी, आने वाले समय में इन संस्थाओं को बाज़ार की माँग के अनुसार आपूर्ति करनी पड़ेगी। ज़ाहिर है, बाज़ार को कुशल या अर्धकुशल कामगार चाहिए, न कि विद्वान। ऐसे में इन उच्च सरकारी शिक्षण संस्थाओं में आज जो रिसर्च आदि का काम होता है, उसके उलट उन्हें स़िर्फ बाज़ार की ज़रूरत के हिसाब से मानसिक श्रमिकों की आपूर्ति करनी होगी। जैसे, बाज़ार को अंग्रेजी बोलने वाले लोग चाहिए, तो ये उच्च शिक्षण संस्थाएं अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने की जगह ऐसे विद्यार्थी तैयार करेंगी, जो स़िर्फ अंग्रेजी बोल सकें, न कि उन्हें अंग्रेजी साहित्य का ज्ञान हो।

उल्लेखनीय है कि पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में गठित नेशनल नॉलेज कमीशन (राष्ट्रीय ज्ञान आयोग) ने सुक्षाव दिया था कि भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारी निवेश यानी क़रीब 190 बिलियन अमेरिकी डॉलर की ज़रूरत है, ताकि लक्ष्य पूरा किया जा सके और इसके लिए कमीशन ने एफडीआई के ज़रिये धन जुटाने का सुझाव दिया था। ज़ाहिर है, इस सबका मकसद यह था कि सरकार धीरे-धीरे सबको समान शिक्षा देने के अपने दायित्व से मुक्त होती चली जाए और उसकी जगह देशी-विदेशी निजी कंपनियाँ शिक्षा का व्यापार कर सकें।

बहरहाल, सरकार और डब्ल्यूटीओ के इस प्रयास का भारत के अनेक जन संगठन आरंभ से ही विरोध कर रहे हैं। अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के बैनर के नीचे विभिन्न राज्यों के सैकड़ों संगठन उच्च शिक्षा को डब्ल्यूटीओ के हवाले करने का विरोध कर रहे थे। तेलंगाना से शुरू हुआ विरोध का स्वर दिसंबर 2018 में दिल्ली तक पहुँचा, जहाँ जंतर-मंतर पर देश भर से आए संगठनों ने सरकार से डब्ल्यूटीओ में उच्च शिक्षा के व्यापारीकरण के प्रति जताई गई अपनी प्रतिबद्धता तुरंत वापस लेने की माँग की। 18 फरवरी 2019 को दिल्ली में आयोजित शिक्षा हुंकार रैली उसी का एक हिस्सा थी।

अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच का मानना है कि यदि विदेशी विश्वविद्यालय यहाँ स़िर्फ ज्ञान के प्रसार या फिर आदान-प्रदान के लिए आते और उनका मकसद स़िर्फ आपस में शैक्षणिक-सांस्कृतिक संबंधों का विकास करना भर होता, तो किसी विरोध की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन इस समझौते के तहत जो विदेशी विश्वविद्यालय भारत आएंगे, वे स़िर्फ और स़िर्फ मुना़फा कमाने के लिए आएंगे, न कि समाज सेवा के लिए। ऐसे समझौते की आड़ में घटिया स्तर के विदेशी विश्वविद्यालय भी यहाँ अपनी शाखाएं खोलेंगे, मोटी फीस वसूलेंगे और मुना़फा कमाएंगे। 

      प्रो. अनिल सद्गोपाल हमें आगाह करते हुए शुरू से ही कहते रहे हैं कि यदि हमारे देश के उच्च शिक्षा क्षेत्र में यह समझौता लागू हो गया तो यह इतनी महँगी हो जाएगी कि इसका खर्च उठा पाना समाज के पिछड़े, ग़रीब एवं वंचित वर्ग के लिए और अधिक मुश्किल हो जाएगा। आज उनकी भविष्यवाणी सच होती जा रही है। कुछ ही दिनों में जब शिक्षा का पूर्ण व्यवसायीकरण और निजीकरण हो जाएगा तो उच्च शिक्षा उनकी हैसियत से पूरी तरह बाहर हो जाएगी। 

प्रो. अनिल सद्गोपाल कहते हैं कि 1966 में कोठारी आयोग बना तो उसने अनुमान लगाया कि देश में अच्छी शिक्षा व्यवस्था के लिए जीडीपी का अभी जो ढाई प्रतिशत खर्च हो रहा है उसे 1986 तक छह प्रतिशत तक ले जाना होगा। लेकिन 1986 में यह केवल साढ़े तीन प्रतिशत ही था। शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने से पहले 2006 में एक समिति बनाई गई और उस समिति ने भी अनुमान लगाया कि अगले दस सालों में शिक्षा का अधिकार देने के लिए जीडीपी का 10 प्रतिशत तक ले जाना होगा, लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट को गायब ही कर दिया। शिक्षा पर सरकार जीडीपी का केवल तीन प्रतिशत हिस्सा ही खर्च करती है। किन्तु आज तो उन तीन प्रतिशत के भी लाले पड़े हैं।

प्रो. अनिल सद्गोपाल आज भी ‘अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच’ की नेतृत्वकारी भूमिका में हैं। वे राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के मसौदे को गरीबों-वंचितों के लिए शिक्षा से बेदखली का घोषणा पत्र मानते है।

‘शिक्षा में बदलाव का सवाल’, ‘बदलाव की राजनीति और संघर्ष का दर्शन’, ‘सरकारी शैक्षिक समितियाँ-आयोग : लोकतांत्रिक सलाह–मशविरे का ढोंग’, ‘पोलिटिकल इकोनामी ऑफ एजूकेशन इन द एज ऑफ ग्लोबलाइजेशन : डी-मिस्टीफाइंग द नॉलेज एजेंडा’ आदि उनकी लगभग एक दर्जन पुस्तिकाएं प्रकाशित हैं।

प्रो. अनिल सद्गोपाल को वर्ष 2018 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेन्टल रिसर्च का होमी भाभा अवार्ड, 1980 में जमनालाल बजाज अवार्ड आदि मिल चुके हैं

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अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
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