मुद्दा

महामारी, जन-स्वास्थ्य और जवाहरलाल नेहरू

 

भारत आज कोरोना वायरस से उपजे स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है। पिछले कुछ महीनों में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की खामियाँ और स्वास्थ्य सम्बन्धी बुनियादी सुविधाओं के अभाव की समस्या उभरकर हमारे सामने आई हैं। लॉकडाउन ने गरीब तबक़े के साथ-साथ आम लोगों की भी दुश्वारियाँ बढ़ाईं हैं। महाराष्ट्र और गुजरात समेत दूसरे राज्यों से उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिक अपने गाँवों को लौटने को विवश हुए।

जब मौजूदा स्वास्थ्य संकट पर हम नज़र डालते हैं, तब भारत के पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा आम भारतीयों के लिए स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं को सुनिश्चित करने की दिशा में उठाए गये क़दमों की याद आना स्वाभाविक ही है। आज़ादी के ठीक बाद के वर्षों में विषम परिस्थितियों और सीमित आर्थिक संसाधनों के बावजूद जवाहरलाल नेहरू ने स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में बुनियादी सुधारों की जो नींव रखी। वह नेहरू की राजनीतिक प्रतिबद्धता और उनके सामाजिक सरोकारों की एक मिसाल है।

ध्यान देने की बात है कि नेहरू ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में इन सुधारों की पहल तब की थी, जब हिन्दुस्तान विभाजन की त्रासदी से उबरने की कोशिश कर रहा था। आज़ादी से चार वर्ष पूर्व वर्ष 1943 के भयावह अकाल में बंगाल में लाखों लोग काल कवलित हो गये थे। बाल मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर और महामारियों की समस्या से भारत जूझ रहा था। अकारण नहीं कि नेहरू ने स्वाधीन भारत में जन-स्वास्थ्य को वरीयता दी। वर्ष 1948 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के दक्षिण-पूर्वी एशियाई क्षेत्रीय समिति की पहली बैठक में भाग लेते हुए जवाहरलाल नेहरू ने वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य-सुविधाओं की उपलब्धता में व्याप्त असमानता को रेखांकित किया था। बता दें कि अक्तूबर 1948 में दिल्ली में हुई इस बैठक में भारत के साथ अफ़गानिस्तान, श्रीलंका, बर्मा, नेपाल, थाईलैंड के प्रतिनिधि भी शामिल हुए थे। साथ ही, इसमें अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन, संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन, यूनेस्को और रेड क्रॉस सोसाइटी ने भी हिस्सा लिया था।आम जनता के बीच लोकप्रियता के शिखर पर ...

इस बैठक को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने कहा था कि विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे वैश्विक संगठन अक्सर अपनी सारी गतिविधियाँ यूरोप और अमेरिका की समस्याओं पर ही केन्द्रित रखते हैं। लेकिन अब समय आ गया है कि इन वैश्विक संगठनों का ध्यान एशिया और अफ्रीका के देशों पर भी जाए। इसी बैठक में महामारियों की व्यापकता की ओर इशारा करते हुए नेहरू ने कहा कि ‘आज हम सभी इस बात से वाक़िफ़ हैं कि दुनिया के किसी भी हिस्से को दूसरे हिस्सों से अलग करके नहीं रखा जा सकता। ऐसा नहीं हो सकता कि दुनिया के एक हिस्से को हम नीरोग और स्वस्थ बना दें और दूसरा हिस्सा बीमारियों से जूझता रहे क्योंकि ऐसा होने पर भी संक्रमण का प्रसार तो होगा ही। इसलिए हमें पूरी दुनिया को एक समग्र इकाई के रूप में देखना होगा। और ऐसा करते हुए हमें उन इलाक़ों पर पहले ध्यान देना होगा, जो स्वास्थ्य-सम्बन्धी सुविधाओं के मामले में पिछड़े हुए हैं।’

राष्ट्रीय योजना समिति और जन-स्वास्थ्य

वर्ष 1948 में हुई विश्व स्वास्थ्य संगठन की बैठक से दस साल पहले भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस द्वारा 1938 में गठित ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ ने भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य के मुद्दे पर गम्भीरता से विचार किया था। बता दें कि तब काँग्रेस के सभापति रहे सुभाष चन्द्र बोस ने अक्तूबर 1938 में राष्ट्रीय योजना समिति के गठन की पहल की थी। सुभाष चन्द्र बोस के आग्रह पर ही जवाहरलाल नेहरू इस समिति के अध्यक्ष बने। नेहरू की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय योजना समिति के अन्तर्गत 29 उप-समितियाँ थीं, जिनकी रिपोर्टों ने आज़ाद हिन्दुस्तान के विकास और पुनर्निर्माण की योजना का खाका तैयार किया। इसमें एक उप-समिति राष्ट्रीय स्वास्थ्य से भी जुड़ी थी। उस समिति के अध्यक्ष थे : कर्नल साहिब सिंह सोखी और डॉ. जेएस नेरुरकर।

उक्त स्वास्थ्य समिति ने अपनी रिपोर्ट में गरीबी, बीमारी और अक्षमता के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा के निर्माण, हरेक भारतीय को समुचित चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराने का सुझाव दिया था। शिशुओं और मातृत्व की उचित देखभाल की वकालत करने के साथ ही समिति ने स्वास्थ्य को हरेक व्यक्ति के बुनियादी अधिकार के रूप में पारिभाषित किया। इतिहासकार सुनील अमृत ने उक्त स्वास्थ्य समिति की रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि यह रिपोर्ट ब्रिटिश भारत में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे पर औपनिवेशिक दृष्टि की सीमाओं से परे जाकर सोचने का अनूठा उदाहरण पेश करती है। इस रिपोर्ट की ख़ास बात ये भी थी कि इसमें भारत की विविधता को किसी समस्या के रूप में नहीं बल्कि भारत की शक्ति के रूप में देखा गया।

स्वस्थ भारत की संकल्पना और नेहरू

आज़ादी के बाद के वर्षों में चिकित्सकों के संगठनों और स्वास्थ्य सम्बन्धी मसलों पर होने वाली अहम बैठकों में भी लगातार भागीदारी करते हुए नेहरू ने हिन्दुस्तान के जन-स्वास्थ्य सम्बन्धी सरोकारों को उपस्थित चिकित्सकों, विशेषज्ञों और आम लोगों के सामने रखा। 1948 में हुई विश्व स्वास्थ्य संगठन की दक्षिण-पूर्वी एशियाई क्षेत्रीय समिति की बैठक के छह वर्ष बाद सितम्बर 1954 में हुई उसकी सातवीं वार्षिक बैठक में नेहरू ने भाग लिया था। उस बैठक में नेहरू ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों ही पर समुचित ध्यान देने पर बल दिया था। नेहरू ने कहा कि मलेरिया, चेचक और हैजा जैसी बीमारियों के उन्मूलन के साथ ही बाल-कल्याण और मातृत्व की उचित देखभाल पर भी भारत सरकार ध्यान दे रही है। नेहरू का कहना था कि ‘बच्चे हमारी प्राथमिकता हैं क्योंकि हिन्दुस्तान के बच्चे ही हिन्दुस्तान का भविष्य हैं। और उनके समुचित विकास और उन्नति के हरसंभव अवसर उन्हें उपलब्ध कराना हमारी प्राथमिकता होगी।’Essay on Pandit Jawaharlal Nehru in Hindi - पंडित ...

जवाहरलाल नेहरू ने यह भी सुनिश्चित किया कि ज़रूरी दवाओं के निर्माण में भी भारत आत्म-निर्भर बने। फरवरी 1951 में लखनऊ में केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान (सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट) का उद्घाटन करते हुए नेहरू ने जो वक्तव्य दिया, वह इसका प्रमाण है। नेहरू ने कहा कि भारत में ज़रूरी दवाओं के निर्माण हेतु औषधि सम्बन्धी अनुसंधान को बढ़ावा देना उनकी प्राथमिकता है। भारत में इन औषधियों का निर्माण न सिर्फ़ औषधि के क्षेत्र में दूसरे देशों पर भारत की निर्भरता को कम करता, बल्कि मलेरिया, हैजा जैसी बीमारियों के उन्मूलन कार्यक्रम को भी इससे मज़बूती मिलती। नेहरू ने स्पष्ट कहा कि ऐसी ज़रूरी दवाओं के निर्माण की इकाई पर या तो राज्य का नियन्त्रण होना चाहिए या उसका पूरा स्वामित्व। तभी जाकर  जन की स्वास्थ्य सम्बन्धी बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकेंगी।

उल्लेखनीय है कि पचास के दशक में नेहरू ने भारत में पेनिसिलिन और एँटी-बायोटिक दवाओं के निर्माण को बढ़ावा देने में अहम भूमिका अदा की। इसका एक उदाहरण है पुणे के पिंपरी स्थित हिन्दुस्तान एँटीबायोटिक्स लिमिटेड, जिसका उद्घाटन मार्च 1954 में नेहरू ने ही किया था। हिन्दुस्तान एँटीबायोटिक्स की स्थापना कम क़ीमत पर दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से हुई थी। इसके निर्माण में भारत सरकार को विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ़ का सहयोग भी मिला था। अगस्त 1956 में हिन्दुस्तान एँटीबायोटिक्स में दिए अपने भाषण में नेहरू ने कहा कि ‘हमारे सामने दो ही रास्ते थे। पहला, भारतीय राज्य ख़ुद ज़रूरी दवाओं के निर्माण की पहल करे। दूसरा, हम किसी विदेशी कंपनी को भारत के लिए ज़रूरी दवाएँ बनाने की ज़िम्मेदारी देते और उस पर निर्भर हो जाते। हमने पहले रास्ते को चुना, जो चुनौतियों से भरा था। लेकिन हमने उन चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना किया है।’ नेहरू ने इस कामयाबी को संभव बनाने में विशेष रूप से महिला वैज्ञानिकों और युवा वैज्ञानिकों के योगदान को सराहा। नेहरू का कहना था कि मुनाफ़ा कमाना हिन्दुस्तान एँटीबायोटिक्स का उद्देश्य नहीं, बल्कि उसका उद्देश्य है – हिन्दुस्तान के गरीबों को ज़रूरी दवाएँ कम से कम क़ीमत पर मुहैया कराना।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर बल

भारतीय चिकित्सकों और वैज्ञानिकों से रूबरू होते हुए जवाहरलाल नेहरू ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार पर बल दिया। जीवन की समस्याओं के निदान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की महत्ता को नेहरू ने बारम्बार रेखांकित किया। फरवरी 1947 में दिल्ली में चिकित्सकों के संगठन द्वारा आयोजित एक बैठक को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने अन्धविश्वास और नीमहकीमी से निजात दिलाने और आम लोगों के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार हेतु भारतीय चिकित्सकों का आह्वान किया। नेहरू का यही आग्रह वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं से भी था कि वे जीवन की समस्याओं के प्रति लोगों में तर्कसंगत और विवेकसम्मत दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक हों। नेहरू की प्रामाणिक जीवनी लिखने वाले इतिहासकार सर्वपल्ली गोपाल ने लिखा है कि नेहरू के लिए भारत में समाजवाद को बढ़ावा देने और औद्योगीकरण की प्रक्रिया को गति देने में विज्ञान एक महत्त्वपूर्ण साधन था।भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद भर्ती MCI ...

वर्ष 1959 में भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) की वार्षिक बैठक को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने अपने व्याख्यान में चिकित्सकों से कहा कि वे सिर्फ़ अपने मरीजों के लिए ही नहीं बल्कि अपने पास-पड़ोस के लोगों के लिए भी स्वास्थ्य सम्बन्धी सही-सटीक सूचनाओं का माध्यम बनें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार और स्वास्थ्य सम्बन्धी सही जानकारियाँ आम लोगों तक पहुँचाने के संदर्भ में, नेहरू ने स्कूलों की महत्ता पर भी ज़ोर दिया। नेहरू का मानना था कि अगर हम स्कूली बच्चों को स्वास्थ्य, सफ़ाई और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जुड़ी बुनियादी जानकारियाँ दे सकें, तो वे बच्चे निश्चय ही अपने-अपने परिवारों में स्वास्थ्य सम्बन्धी जागरूकता पैदा करने में अहम भूमिका अदा करेंगे। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार को लेकर नेहरू की प्रतिबद्धता भारतीय विज्ञान काँग्रेस के मंच से दिए गये नेहरू के भाषणों में भी दिखाई पड़ती है। इतिहासकार रविंदर कुमार ने बिलकुल ठीक लिखा है कि नेहरू के मन में विकसित समाज को लेकर जो दृष्टि थी, उसमें विज्ञान केन्द्रीय भूमिका में था।

जन-स्वास्थ्य, चिकित्सक और राज्य की भूमिका

अगस्त 1950 में भारत के स्वास्थ्य मंत्रियों की एक बैठक को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने ज़ोर देकर कहा कि देश के हरेक नागरिक को स्वास्थ्य सम्बन्धी बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराना भारतीय राज्य की ज़िम्मेदारी है। नेहरू ने जनता और राज्य के परस्पर सहयोग पर आधारित जन-स्वास्थ्य की पुरजोर वकालत की और कहा कि इस संदर्भ में हमारी उपलब्धियों और सफलता-असफलता का सही मूल्यांकन हिन्दुस्तान की जनता ही करेगी। ध्यान देने की बात है कि वर्ष 1956 में नयी दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की स्थापना में नेहरू की बड़ी भूमिका रही। नेहरू के प्रधानमन्त्री रहते हुए ही पुणे में राष्ट्रीय विषाणुविज्ञान संस्थान (1952), बेंगलुरु में राष्ट्रीय क्षयरोग संस्थान (1959) और दिल्ली में मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज (1959) और गोविंद वल्लभ पंत हॉस्पिटल की स्थापना हुई।

जन-स्वास्थ्य के बाबत नेहरू का कहना था कि जन-स्वास्थ्य केवल चिकित्सा या औषधियों की उपलब्धता तक सीमित नहीं है। बल्कि जन-स्वास्थ्य के अन्तर्गत खाद्यान्न की उपलब्धता, आवास और रहने योग्य सुविधाओं की मौजूदगी, सभी को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने जैसी चीजें भी शामिल हैं। बाढ़, अकाल, भूकंप, विभाजन और द्वितीय विश्व युद्ध की त्रासदी से जूझ रहे हिन्दुस्तान के लोगों के जीवट की नेहरू ने खुलकर प्रशंसा की। और कहा कि बीमारी, भुखमरी, कुपोषण, अल्पपोषण की रोकथाम उनकी सरकार की प्राथमिकता है। नेहरू का विश्वास था कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य को सुनिश्चित कर ही हम प्रगति और आर्थिक पुनर्निर्माण की राह पर आगे बढ़ सकेंगे। पचास के दशक के आख़िरी वर्षों में नेहरू ने भारत सरकार द्वारा जनसंख्या नियन्त्रण के सम्बन्ध में नीति बनाने और परिवार नियोजन को प्राथमिकता देने में भी अहम भूमिका निभाई।

1959 में भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद की बैठक में नेहरू ने ग्रामीण भारत और छोटे शहरों में चिकित्सा सम्बन्धी बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराने पर ख़ास ज़ोर दिया। नेहरू ने परिषद को ऐसा प्रावधान बनाने के लिए भी कहा कि जिसके अन्तर्गत हरेक चिकित्सक के लिए कुछेक वर्षों तक हिन्दुस्तान के देहातों में चिकित्सा-सेवा देना ज़रूरी हो। चिकित्सा सम्बन्धी अनुसंधान की बात करते हुए नेहरू ने शोध की गुणवत्ता बढ़ाने और उसे विश्वस्तरीय बनाने पर ज़ोर दिया। इस संदर्भ में, नेहरू ने विशेष रूप से युवाओं और महिला वैज्ञानिकों का आह्वान किया।

देशज चिकित्सा पद्धतियाँ Essay on jawaharlal nehru in hindi, article, paragraph ...

नेहरू ने भारत की देशज चिकित्सा पद्धतियों मसलन, आयुर्वेद, यूनानी आदि को वैज्ञानिक मानकों के अनुरूप बनाने और उनके आधुनिकीकरण पर भी ज़ोर दिया। जून 1956 में बंबई में चिकित्सकों और शल्य-चिकित्सकों की सभा को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने कहा कि आधुनिक वैज्ञानिक पद्धतियों के अनुरूप देशज चिकित्सा पद्धतियों में सार्थक बदलाव लाने की ज़रूरत है। इसके लिए नेहरू ने वैज्ञानिक प्रयोग और अनुसंधान से प्राप्त होने वाले नतीजों पर ही भरोसा करने की बात कही। नेहरू ने यह भी कहा कि अक्सर लोग आधुनिक चिकित्सा पद्धति को ‘पश्चिमी चिकित्सा पद्धति’ कह देते हैं, जोकि गलत है। क्योंकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति में भारत, अरब और ग्रीक की चिकित्सा पद्धतियों और उनकी ज्ञान-परम्परा का भी समावेश हुआ है।

नेहरू देशज चिकित्सा पद्धतियों की सीमा से अवगत थे। उन्होंने कहा भी कि एक समय उन्नत रहीं ये चिकित्सा पद्धतियाँ समय के साथ विकास और परिवर्तन न होने की वजह से पुरानी और अप्रभावी होती चली गयीं। इसीलिए उनके आधुनिकीकरण पर नेहरू ने विशेष बल दिया। प्रासंगिक है कि वर्ष 1958 में देशज चिकित्सा पद्धतियों के पुनरुत्थान हेतु प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. केएन उडुप्पा की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की गयी थी। इस समिति में, डॉ. उडुप्पा के अलावा वैद्य के. परमेश्वरन पिल्लै और आर. नरसिंहन भी थे। इस समिति ने देशज चिकित्सा पद्धति के विकास और उसकी उच्च शिक्षा व शोध सम्बन्धी अपनी रिपोर्ट अप्रैल 1959 में भारत सरकार को सौंपी। इस रिपोर्ट में दिए गये सुझावों और परामर्श ने भारत में आयुर्वेद व अन्य देशज चिकित्सा पद्धतियों के आधुनिकीकरण, शोध व विस्तार में अहम भूमिका निभाई।

इस तरह जवाहरलाल नेहरू ने आज़ादी के बाद के वर्षों में भारत में स्वास्थ्य सम्बन्धी बुनियादी सुविधाओं को मुहैया कराने, गरीबी व बीमारी के दुष्चक्र को तोड़ने में अहम भूमिका निभाई। साथ ही, नेहरू ने चिकित्सा सम्बन्धी अनुसंधान, एम्स जैसे चिकित्सा संस्थानों की स्थापना और भारत में औषधियों के निर्माण, देशज चिकित्सा पद्धतियों के आधुनिकीकरण में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

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शुभनीत कौशिक

लेखक सतीश चंद्र कॉलेज, बलिया में इतिहास के शिक्षक हैं तथा इतिहास और साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। kaushikshubhneet@gmail.com
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