लॉक डाउन और असली चेहरे
मुझे शक हो रहा है कि यह कोरोना वाकई में कोई वायरस है या फिर कोई स्कूल इंस्पेक्टर? क्योंकि हमारे सरकारी स्कूल में जैसे ही खबर आती थी कि इंस्पेक्शन होने वाला है तो सारी चीजें एक झटके में सुधर जाती थीं। ऊँघते हुए मास्टर जी नींद से जागकर पढ़ाने लगते थे। अपने पिताजी की पुरानी कमीज पहनकर नाक सुड़कते हुए स्कूल आने वाले लड़के, कड़क यूनिफार्म पहनने लगते थे। एक दूसरे के बालों से जुएं निकालती हुई लड़कियाँ, किताब खोल कर पढ़ने लगती थीं। सारा स्कूल साफ-सुथरा और डिसीप्लीण्ड हो जाता था।
आजकल हमारे यहाँ भी ऐसा ही नजारा है। पुलिस बिना घूस लिए पेट्रोलिंग कर रही है। कचरे वाली गाड़ी हर दिन कचरा उठा रही है। लोग दो बार नहा रहे हैं और दो सौ बार हाथ धो रहे हैं। जो लोग किसी मजबूरी में ही लाइन में खड़े होते थे और इतनी घनिष्ठता के साथ खड़े होते थे कि अपनी नाक से अपने आगे खड़े व्यक्ति की गर्दन के पिछले हिस्से के पसीने को पोंछ सकते थे, वही लोग आज दो-दो फीट की दूरी पर शांत भाव से खड़े रहते हैं। अपनी बारी का इंतजार कर दुकान के अंदर जाते हैं, बिना मोल- भाव किए सामान खरीदते हैं और विजेता की तरह घर लौटते हैं।
शांत सड़कों और साफ हवा के साथ-साथ, जो मुझे भारत में विदेश के दर्शन करा रहा है वह है – हरा धनिया। आजकल इसे देखकर मुझे बार-बार विदेश की याद आ रही है जहाँ हम दो डॉलर यानी सौ-सवा सौ रुपये में एक गुच्छा हरा धनिया दिल पर पत्थर रखकर खरीदते थे और फिर एक महीने तक उसकी एक-एक टहनी का सदुपयोग करते थे। आज पत्नी को खुश करने के लिए गुलाब की जरूरत नहीं है, हरे धनिए का गुच्छा दे दीजिए फिर देखिए उनकी आंखों में खुशी के आंसू कैसे छलछला आते हैं।
शिकार हो के चले – नूपुर अशोक
पर यह खुशी और इससे उत्पन्न हुआ प्रेम, ज्यादा देर टिकने वाला नहीं। दरअसल अब जाकर भारतीय दंपतियों को पता चला है कि हिमेश रेशमिया किस से गुहार कर रहे थे – झलक दिखला जा… एक बार आ जा आ जा आ जा ….वह इसी प्रेम से रिक्वेस्ट कर रहे थे कि भैया झलक दिखला जा। ऐसे ही कुछ गिने चुने क्षण होते हैं जब इस प्रेम की झलक दिख पाती है, वही जैसे लॉक डाउन में जिरह बख्तर पहनकर किसी योद्धा की तरह घर से निकलने वाला पति जो धनिये का गुच्छा लेकर लौटा हो। तब क्षण भर को इस प्रेम की झलक दिखाई देती है।
कोरोना के आगमन से पहले भी भारतीय दंपतियों के बीच प्रेम की बस इतनी ही झलक कभी-कभी दिख जाती थी। बल्कि उनकी पहचान भी इसी से होती थी कि अगर एक महिला और पुरुष साथ बैठे हुए हैं और दो अलग दिशाओं में देख रहे हैं तो निश्चित रूप से पति-पत्नी हैं। एक दूसरे की ओर निहार रहे हैं तो ज़रूर इनका चक्कर चल रहा है। हमारे यहाँ तो फोटो खींचने वाले को भी हिदायत देनी पड़ती है -” सर, मैडम, जरा सटकर खड़े होइए, फ्रेम से बाहर जा रहे हैं आप लोग।” तब कहीं दोनों एक दूसरे के थोड़ा करीब आते हैं।
विदेशों में रहने वाले उनके बच्चे कहते हैं कि “मम्मी- पापा, आप दोनों इतनी दूर -दूर क्यों चलते हैं? देखिए यहाँ के लोग कैसे एक दूसरे का हाथ पकड़कर चलते हैं।’ इस पर भारतीय दंपति बड़े गर्व से कहते हैं -“बेटा, हम हिंदुस्तानी हैं! सात जन्म तक एक साथ रहते हैं! इन विदेशियों की तरह नहीं कि आज उसके साथ, कल उसके साथ।”
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सात जन्म का तो पता नहीं पर अधिकतर जोड़े एक जन्म तो खींच-खाँच कर निकाल ही लेते हैं। एक दूसरे को देखकर कभी स्माइल भी नहीं करते, पर डाइवोर्स भी नहीं देते।
इस लॉक डाउन ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत में डाइवोर्स रेट इतना कम क्यों है। इसके यानी लॉक डाउन के पहले, हर पति सुबह उठते ही घर से भागने के वास्तविक और काल्पनिक कारण तैयार कर लेता था। तेजी से तैयार होता था और निकल लेता था। कामकाजी महिलाएं भी ऐसा ही कुछ करती थीं। जो गृहिणियाँ थीं, उनके पास तरह-तरह की रेसिपी ट्राई करने और उसके बाद अपने घर वालों पर उसके एक्सपेरिमेंट करने का समय भी था और इनग्रेडिएंट्स भी। बच्चों को स्कूल, ट्यूशन, ये क्लास -वह क्लास से फुर्सत नहीं थी।
कई सालों पहले एक फिल्म आई थी ‘वो सात दिन’, जिसमें पति-पत्नी के मधुर संबंधों वाले सात दिन दिखाए गए थे। लेकिन कहाँ वे सात दिन और कहाँ ये सात दिन! पहली बार दोनों को पता चला है कि एक दिन में चौबीस घंटे होते हैं और एक घंटे में साठ मिनट और एक मिनट में साठ सेकंड। ऐसा इसलिए क्योंकि अभी एक-एक सेकंड दोनों को भारी पड़ रहा है।
“पति” में बसता “पत्नी” का “अभिमान”…
अगर आप सोच रहे हैं कि मैं घूम-फिर कर पति-पत्नी पर क्यों आ जाती हूँ तो वह इसलिए कि यही वह छोटा बैटलफील्ड या शतरंज की बिसात है, जहाँ बड़े-बड़े मुद्दों और युद्धों की तैयारी की जाती है। किस की गोटी कैसे और कब काटनी है, इसकी प्रारंभिक ट्रेनिंग यहीं मिलती है। गोटी काटो तो ऐसे काटो कि सामने वाले को पता भी ना चले। जिसने यहाँ पहली पारी में ही रानी का पत्ता साफ कर दिया वह राजनीति में आगे जाने के लिए फिट है बॉस! समझ गए ना!
लेकिन सभी तो इतने मंझे हुए खिलाड़ी होते नहीं लिहाजा इस जंग में घिसटते रहते हैं। भला हो उस सेल्फी के चलन का! इसके कारण ये कभी.कभी एक दूसरे के पास आ जाते हैं और एक साथ मुस्कुरा लेते हैं। वरना हमारी तो पुश्तें पति को ‘ये’ और पत्नी को ‘फैमिली’ या ‘मिसेज’ बोलकर ही काम चलाती रही हैं। यही तो है हमारी महान भारतीय संस्कृति!
स्त्रीवाद क्या और क्यों ?- सुधा सिंह
पर पहली बार चौबीसों घंटे एक साथ बिताने को मजबूर इन दम्पतियों को इन सात दिनों में ऐसा लगने लगा मानो सात जन्मों से एक दूसरे को झेल रहे हैं। अब तो आज़ादी चाहिये ही चाहिए। पर जब एक ही छत के नीचे रहना हो तो खुला युद्ध नहीं होता, गुरिल्ला नीति अपनाई जाती है। पति-पत्नी दोनों इस ताक में रहते हैं कि दूसरे को हल्की सी भी छींक या खांसी आए और वे उसे चादर में लपेटकर दूसरे कमरे में क्वारनटाइन कर डालें। यही तो सरकारी फरमान है। और इस लॉक डाउन में एक ही घर में बंदी पति-पत्नी के लिए यही मोक्ष प्राप्ति है।
आत्मकथ्य : स्त्री मन की अनकही कथा – गीता दुबे
वह तो माया थी जिसने आपको इस मोह जाल में बांध रखा था। इसी कन्या के लिए आपका प्रेम ओवरफ्लो करता रहता था और आप बेसब्री से वैलेंटाइन डे का इंतजार करते थे। अब तो आपको वैलेंटाइन से बेहतर यह क्वॉरेंटाइन लगता है, जिसके तहत किसी एक को एक कमरे में कैद कर दिया जा सकता है। फिर दोनों अपनी-अपनी आजादी का आनंद उठा सकते हैं। अंग्रेजों को हम बेकार ही विभाजन का दोष देते हैं। हम तो खुद ही इस चक्कर में रहते हैं कि कोई बहाना मिले और हम अपने बीच में एक लक्ष्मणरेखा खींच डालें। तुम उधर ही रहो, हमें इधर रहने दो। यही है असली आजादी!
अब जाकर समझ आया है कि बैठे-ठाले लोग आजादी, आजादी, छीन के लेंगे आजादी, का नारा क्यों लगाने लगते हैं? सभी को किसी ना किसी से आजादी चाहिए। अब इस लॉक डाउन में समझ में आया है कि उन दिनों यानी लॉक डाउन से पहले जो था, वही आजादी थी। कामकाजी लोग सुबह-सुबह घर से बाहर चले जाते थे। गृहिणियाँ कभी बाजार, कभी पार्लर, कभी मॉल, कभी किटी, कहीं ना कहीं चली जाती थी। सब बिजी थे और हम सबको भारतीय संस्कृति पर अपार गर्व था।
लॉक डाउन
यह लॉक डाउन क्या हुआ सब की असलियत सामने आ गई है। पार्लर दर्शन के अभाव में महिलाओं के मुख मंडल पर दाढ़ी- मूँछ निकल आई है। पुरुषों के बाल कंधों तक झूल रहे हैं। बच्चे बोरियत मिटाने को मम्मी की मूँछ और पापा के बाल खींच रहे हैं। पति-पत्नी कोर्ट खुलने का इंतजार कर रहे हैं ताकि डाइवोर्स ले सकें। इस बेकरारी का आलम यह है कि मुझे लगता है, किसी भी वैज्ञानिक से पहले कोई ना कोई भारतीय पति या पत्नी इसकी वैक्सीन जरूर इजाद कर लेगा। ये वो टास्क है जिसमें लोग स्वेच्छा से लगे हुए हैं। बल्कि कोई अगर इस कोरोना वायरस को बस इतना बता दे कि एक सौ तीस करोड़ भारतवासी ये संकल्प कर चुके हैं कि उसका तोड़ निकाल कर ही रहेंगे तो कसम ख़ुदा की, वह अभी दुम दबाकर भाग खड़ा होगा और ठान लेगा – तेरी गलियों में न रखेंगे क़दम ….
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