किन्नरों के जीवन का सच – सुशील कुमार
- सुशील कुमार
स्त्री और पुरूष के अतिरिक्त हमारे समाज में एक और लिंग के लोग रहते हैं जिन्हें समाज में छक्का, हिजड़ा, किन्नर, मामू, बायक्का, थर्ड जेंडर, तृतीयलिंगी, उभयलिंगी, आदि के नामों से जाना जाता है। यह तृतीय लिंगी समाज हाशिये पर जीवन जीते हुए अपनी अस्मिता और जीवन दोनों को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है। हिन्दी साहित्य में पिछले कई वर्षों से हाशिये पर जीवनयापन कर रहे किन्नर समाज पर लिखा जा रहा है। इक्कीसवीं सदी में तो किन्नर समाज को केन्द्र में रखकर बहुत अधिक साहित्य लिखा गया है और लगातार लिखा जा रहा है। इन सारे साहित्य को यदि परखा जाए तो इनमें हमें किन्नरों के जीवन के सामाजिक यथार्थ की छवि साफ नजर आएगी। समाज में हाशिये पर जीवन व्यतीत करने वाले इन उभयलिंगी लोगों को साहित्य में पहचान मिली ही साथ ही आज कुछ हद तक इन्हें समाज में भी सम्मान मिला है, फिर भी इनका जीवन आज भी संघर्षों से घिरा हुआ नजर आता है। जहाँ एक ओर सड़कों, बस स्टॉपों, ट्रेनों आदि में भीख माँगते हुए इनके संघर्ष को देखा जा सकता है वही दूसरी ओर एक टोली बनाकर नाच-गाने के रूप में घर-घर जाकर बधाई माँगते हुए भी उन्हें पाया जा सकता है। यह तृतीय लिंगी समुदाय आज न केवल हाशिये पर जीवन व्यतीत कर रहा है बल्कि एक मनुष्य होने के वाबजूद दोयम दर्जे का जीवन जीने को मजबूर है।
किन्नर समाज के लोग अपनी अलिंगी देह को लेकर जन्म से मृत्यु तक अपमानित, तिरस्कृत औऱ संघर्षमयी जीवन व्यतीत करते हैं तथा आजीवन अपनी अस्मिता की तलाश में ठोकरें खाते हैं। हिन्दी साहित्य में लिखी आत्मकथाओं में देखने पर सहज ही ज्ञात होता है कि इन किन्नरों का जीवन कितना कठिन और संघर्ष से भरा है। ‘मैं पायल’ उपन्यास में यह गीत किन्नरों के सामाजिक यथार्थ को दर्शाने की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है – ‘अधूरी देह क्यों मुझको बनाया/ बता ईश्वर तुझे ये क्या सुहाया/ किसी का प्यार हूँ न वास्ता हूँ/ न तो मंजिल हूँ मैं न रास्ता हूँ/ कि अनुभव पूर्णता का हो न पाया/ अजब खेल यह रह-रह धूप छाया’| किन्नर जीवन पर केन्द्रित इस गीत में उनके मर्म की पीड़ा का बयान साफ दिखाई देता है। किन्नर गुरु पायल सिंह के वास्तविक जीवन और उनके द्वारा किये गए संघर्ष पर आधारित इस उपन्यास में पूरे किन्नर समाज के यथार्थ को साफ देखा जा सकता है। उपन्यास में पायल तीखा सवाल उठाते हुए साफ कहती है ‘हमें किन्नर नहीं, इंसान समझा जाए’|
बस उनकी इतनी सी माँग है कि वे मुख्यधारा से जुड़कर रहना चाहते हैं। वे समाज में अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं। देश के विकास में वे भी अपना योगदान सुनिश्चित करना चाहते हैं। लेकिन मुख्यधारा का समाज ऐसा होने देना नहीं चाहता। समाज में इनके लिए जो धारणा बनी हुई है वह जस की तस विद्यमान है। तभी तो इनका यथार्थ अंधेरे से घिरा हुआ दिखाई देता है जिसे उजाले में लाने के लिए ये संघर्ष कर रहे हैं | ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ आत्मकथा किन्नरों के सामाजिक यथार्थ, उनके संघर्ष और उस संघर्ष के माध्यम से समाज में अपनी एक खास पहचान बना लेने की सच्ची कहानी है। इस आत्मकथा में लक्ष्मी के बचपन से अब तक के सफर के यथार्थ को रखा गया है। बुलंदी तक पहुँचने से पहले उसने जो संघर्ष किया, पीड़ा व दर्द सहा वह किन्नरों के वर्तमान सामाजिक यथार्थ को समझने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। छोटे होने पर अगर स्टेज पर नाचता था तो लोग उसे छक्का, मामू, बायक्का कहकर चिढ़ाते थे| स्कूल में जाने पर बच्चों द्वारा उससे गलत तरीके से छेड़ना व तंग करना, मानसिक तौर पर उसे नीचा दिखाना आदि बातें साक्ष्य हैं कि किन्नर का जीवन कैसे बीतता है।
किन्नरों के समक्ष पैसा कमाने के दो ही जरिये बचे हैं या तो भीख माँगना या फिर देह व्यापार। घर पर नाच गाने के लिए जाना और वहाँ पहुँच कर घर वालों से बधाई माँगना आसान नहीं है| साथ ही घर-परिवार के लोग इन्हें अपने घर में नहीं आने देना चाहते| इसका कारण है समाज का इनके प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण।
साथ ही पुलिस तन्त्र हिजड़ों को अलग परेशान करता है, उन्हें रातो-रात उठाकर ले जाता है, किन्नर अचानक कैसे गायब हो जाते हैं और काफी खोजबीन के बाद उसकी लाश मिलती है, हिजड़ों की जिन्दगी से जुड़ी इन तथ्यों को भी बारीकी से देखने की जरूरत है|
‘पुरुष तन में फंसा मेरा नारी मन’ आत्मकथा में सोमनाथ एक ऐसा पुरुष है जिसने जन्म तो एक पुरुष के रूप में लिया किन्तु उसका मन, भावनाएँ और इच्छाएँ स्त्री जैसी हैं। इसी से उसे अपने जीवन में हिजड़ा, लौंडा, बृहन्नला आदि उपहासास्पद शब्दों का सामना करना पड़ता है। स्कूल में सहपाठियों द्वारा उसे चिढ़ाना, उसके बाद कॉलेज और नौकरी में भी इसी तरह का व्यवहार इनके सामाजिक यथार्थ के परिचायक हैं। ए रेवती की ‘हमारी कहानियाँ हमारी बातें’ किन्नर समाज पर लिखा एक ऐसा ग्रन्थ है जो स्वयं एक किन्नर की जुबानी हमारे समक्ष पहुँचाता है। किन्नर के रूप में रेवती का दर्द, उसकी पीड़ा, समाज में उसका उपहास और सामाजिक त्याज्य केवल उसकी ही नहीं बल्कि पूरे किन्नर समाज की स्थिति को रेखांकित करता है। स्कूल, कॉलेज, बस स्टैंड, कार्य स्थल, घर, समाज बल्कि यों कहें कि प्रत्येक जगह पर उनके जीवन के साथ साथ उनका संघर्ष चलता है।
इन आत्मकथाओं के अतिरिक्त हिन्दी में उपन्यासों के माध्यम से भी किन्नरों के सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति मिली है। भगवंत अनमोल कृत जिन्दगी 50-50, प्रदीप सौरभ कृत तीसरी ताली, निर्मला भुराड़िया कृत गुलाम मंडी, चित्रा मुदगल कृत नाला सोपारा, महेन्द भीष्म कृत किन्नर कथा, आदि कई उपन्यासों में किन्नर जीवन के दर्द, पीड़ा के साथ ही उनके प्रति सहानुभूति दोनो की अभिव्यक्ति हुई है। इन सभी लेखकों ने अपनी लेखनी के माध्यम से उनके लिए सामाजिक न्याय की माँग की है ताकि ये किन्नर लोग भी मुख्यधारा की तरह ही एक सम्माननीय जीवन व्यतीत कर सके।
वर्तमान समय में अगर गौर से किन्नरों के समाज मे जाकर देखा जाए या फिर किन्नरों के जीवन पर नज़र दौड़ायी जाए तो साफ नजर आएगा कि इनकी अस्मिता संदिग्धों के घेरे में है। हालाँकि 21वीं सदी में इनको कुछ संवैधानिक अधिकार मिलें है जैसे थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता, समलैंगिक विवाह की मान्यता, आदि फिर भी इनका शोषण, सामाजिक तिरस्कार और उसके बाद जीवन के लिए की जा रही जद्दोजहद और संघर्ष कम होने का नाम नहीं ले रहा है। डा. एम फिरोज खान संपादित पुस्तक ‘थर्ड जेंडर आत्मकथा और जीवन संघर्ष’ की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं ‘ हिजड़ों की न आवाज है, ना नाम, ना परिवार, ना इतिहास, ना प्यार, ना सोच, ना खुशी, ना गम, ना हक, ना व्यक्तित्व। हिजड़े अदृश्य हैं, न केवल हमारे मुख्यधारा के समाज में बल्कि समाज के मन-मस्तिष्क के भीतर भी।‘
वैसे आज हिजड़ों के प्रति व्यक्तिगत स्तर पर, मोहल्लों में, दफ्तरों में, सरकार की नीतियों में, और समाज के नज़रिए में भी धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। जैसे तानिलनाडु की सरकार ने अब हर सरकारी पहचान पत्र चाहे वह राशन कार्ड हो या मतदान पत्र दोनों पर मर्द और औरत के साथ ही ‘अन्य’ लिखने का मौका दिया है| ऐसा ही अन्य राज्यों की सरकारों को करने की आवश्यकता है।
कुल मिलाकर समाज के मन-मस्तिष्क में इन तृतीयलिंगियों के प्रति जो धारणा बनी हुई है उसे बदलने की आवश्यकता है| यह महसूस करने की आवश्यकता है कि ये भी इंसान हैं| हिजड़ा या छक्का आदि सम्बोधनों पुकारा जाना भी एक तरह से इनका उपहास है| इनको भी इंसान समझा जाए। इनको मुख्य धारा मेँ जगह और प्रत्येक स्तर पर अधिकार मिले ,सरकार की तरफ से इसका सटीक प्रयास होना चाहिए| समाज इनके जीवन संघर्ष, इनकी पीड़ा, दर्द, कराह, जद्दोजहद आदि को समझे और कम करने मेँ योगदान दे| प्रत्येक नागरिक मेँ संवेदना होनी चाहिए कि वह उन्हें एक मनुष्य की तरह सम्मान दे, उन्हें प्यार दे।
लेखक जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू, हिन्दी विभाग में शोधार्थी हैं|
सम्पर्क- +919596654568, susheel25991@gmail.com
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