- अनिल कुमार राय
लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है. जो अभी सत्ता में हैं, वे और जो सत्ता पाना चाहते हैं, वे भी अपने-अपने गुटों और समर्थकों की सेनाएँ सजाकर मुद्दों और मुहावरों के गोले-गोलियों की बौछार एक-दूसरे पर कर रहे हैं. महाबली राजनीतिक दलों की आपसी प्रतिस्पर्धा तो सत्ता-प्राप्ति के लिए होती है, और सता-प्राप्ति की इसी लालसा में वे हजारों कष्टों के कीचड़ में धंसे आम अवाम को कभी कुछ प्रलोभनों के चकमक दिखाकर, कभी उत्तेजना का आसव पिलाकर और कभी तो आँखों में धूल ही झोंककर, अपनी ओर आकर्षित करते हैं.
किसी भी सरकार की, चाहे वह लोकतांत्रिक न भी हो, मुख्य भूमिका अपने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की होती है, जिससे उसके नागरिक खुशहाल हो सकें और वैश्विक स्तर पर उसकी साख बन सके. यद्यपि जीडीपी नागरिकों की खुशहाली का पैमाना नहीं है और अनेक बार यह हेरफेर करने के विवाद में फंसती रही है, फिर भी सरकार के प्रारम्भिक वर्षों के बाद इसमें ह्रास ही देखा जा रहा है. सेंट्रल स्टेटिस्टिक्स ऑफिस के द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास दर वर्ष 2015-16 में जहाँ 8.2 फीसदी था, वहीँ वित्त वर्ष 2016-17 में वह घटकर 7.1 फीसदी हो गया और वर्ष 2017-18 में तो 6.7 फीसदी ही रह गया. अनेक तरह से समझाया जा रहा है कि भारतीय अर्तव्यवस्था ने फ़्रांस की अर्थव्यवस्था को पछाड़ दिया और अनेक आश्वासन दिये जा रहे हैं कि शीघ्र ही चीन के विकास दर को पीछे छोड़ देंगे, लेकिन फिलहाल तो यही हालत है.
वहीँ निर्यात से होने वाली आय के मुकाबले आयत से होने वाले खर्च में बढ़ोत्तरी हुई है. फाइनेंसियल एक्सप्रेस (14 अप्रैल, 2018) की खबर के मुताबिक़ 2017-18 में देश का निर्यात पिछले साल के मुकाबले 0.66 प्रतिशत घटकर 29.30 अरब डॉलर के मुकाबले 29.11 अरब डॉलर ही रहा. वहीँ आयात में इन्हीं वर्षों के दौरान 7.15 प्रतिशत की वृद्धि हुई. और इस तरह भारत का व्यापार घटा 2017 के 10.65 अरब डॉलर से बढ़कर 2018 में 13.69 अरब डॉलर हो गया.
अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया लगातार अपनी साख खोता जा रहा है. वर्ष 2014 में एक अमेरिकी डॉलर का मूल्य जहाँ 58 रुपये के लगभग था, वहीँ आज वह 70 रुपये के लगभग है (दिनांक 22 मार्च 2019 को 68.95 रुपया). आतंरिक रोजगार सृजित करने में भी सरकार बुरी तरह असफल रही है. इसी वर्ष जारी नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बेरोजगारी की दर विगत 45 वर्षों में सर्वोच्च शिखर पर है. मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के चीफ मैनेजिंग डायरेक्टर महेश व्यास स्वीकार करते हैं कि विमुद्रीकरण के बाद बेरोजगारी में बढ़ोत्तरी हुई है और लेबर फ़ोर्स के पार्टिसिपेशन रेट में कमी आयी है. (द हिन्दू, 31 जनवरी, 2019). वर्किंग पीपल चार्टर के कोर्डिनेटर चन्दन कुमार के मुताबिक पहले दैनिक मजदूर महीने के 20 दिन काम पाते थे, लेकिन विमुद्रीकरण के बाद महज 10 दिन ही काम मिलता है. रोजगार के बिगड़ते हुए इन हालातों को सँभालने में असमर्थ सरकार के मंत्री पकौड़ा तलने और पान की दूकान खोलने की गैरजिम्मेदाराना सतही सलाह देते हैं.
वर्ष 2013 में कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स जहाँ 13.7 प्रतिशत था, 2016 में वह 5-5.5 प्रतिशत रह गया और 2017-18 में तो वह 1.3 प्रतिशत और नीचे आ गया. होलसेल प्राइस इंडेक्स का भी यही सच है. न्यूनतम समर्थन मूल्य में डेढ़ गुना मूल्य की बात तो की गयी, परन्तु उसमें लागत श्रम को नहीं जोड़ा गया और मुद्रास्फीति के हिसाब से कृषि उत्पादों की मूल्य-वृद्धि नहीं की गयी. परिणाम है कि आज जगह-जगह त्राहिमाम करते हुए किसान सड़कों पर उतर रहे हैं और किसानों की इस हालत पर इसी सरकार के वित्तमन्त्री ने गैरजिम्मेदाराना और अमानवीय बयान दिया था कि किसान भगवान पर भरोसा करें, सरकार पर नहीं. यद्यपि चुनाव में रेवड़ियाँ बाँटने के फ़ॉर्मूले पर अमल करते हुए सरकार ने किसान सम्मान योजना चलाकर 6000 रुपये वार्षिक देने का ऐलान तो कर दिया है, लेकिन कृषि समस्या के आतंरिक समाधान के प्रति उसने अपनी कोई चिंता नहीं जाहिर की है.
हजारों करोड़ का कर्ज ले-लेकर विदेश भाग गए विजय माल्या, नीरव मोदी, ललित मोदी आदि ने सरकार की किरकिरी तो करायी ही, इसके साथ ही वित्तमंत्री पीयूष गोयल द्वारा राज्यसभा में दिये गए लिखित बयां के मुताबिक़ 31 मार्च 2015 तक सरकारी बैंकों का एनपीए जहाँ 2 लाख, 79 हजार, 016 करोड़ रुपये था, वहीँ 30 सितंबर, 2018 तक वह 6 लाख, 84 हजार, 824 करोड़ रुपया हो जाना सरकार की कॉर्पोरेटपरस्ती को उजागर कर देता है (स्रोत : भाषा प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया, 5 फरवरी, 2019).
सरकार विदेशों में जमा धन लाने और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की बात तो करती रही है, परन्तु विदेशों में जमा धन का वह एक पाई भी नहीं ला सकी. उलटे उसने चर्चित पनामा पेपर लीक मामले के आरोपित अमिताभ बच्चन को मोदी सरकार के द्वितीय वार्षिक समारोह में मुख्य मेहमान के रूप में आमंत्रित भी किया और आलोचना होने पर अमिताभ बच्चन के पक्ष से खड़े होने का दुस्साहस भी किया. लोगों ने यद्यपि इसपर अधिक ध्यान नहीं दिया, परन्तु ऐसा किया जाना सरकार के द्वारा घोटालेबाजों के साथ संलग्नता का निर्भीक ऐलान था. यह बात भी विशेष चर्चित नहीं हुई कि वित्त विधेयक 2017 के अनुसार इलेक्शन बांड स्कीम के द्वारा, प्रकट किये बिना, कॉर्पोरेट के द्वारा राजनीतिक दलों को असीमित धन मुहैया कराया जा सकता है| भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की बात करने वाली सरकार यह कैसे प्रमाणित कर सकती है कि यह विधेयक भ्रष्टाचार की रोकथाम करेगा.
वर्तमान सरकार के कार्यकाल के दौरान ही भारत में बढ़ती असमानता सारी हदों को पार कर गयी है. ओक्सफेम के द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक़ देश के महज शीर्ष 9 अरबपतियों के पास देश की कुल 50 प्रतिशत संपत्ति है और देश के 60 प्रतिशत लोग महज 4.8 प्रतिशत संपत्ति में गुजर-बसर करने को विवश हैं.इस दानवी असमानता को जाहिर करने वाली रिपोर्ट के जारी होने के बाद सरकार को पूँजीवादी किसी अन्य सबूत की आवश्यकता नहीं है. यह संविधान की प्रस्तावना और नीति निर्देशनों में समानता के सिद्धांतों के बिलकुल विरुद्ध है.
अर्थव्यवस्था के ध्वस्त होने और सरकार के पूँजीपतिपरस्त होने के इन चंद उदाहरणों के बाद सामाजिक सूचकांकों की और दृष्टिपात करते हैं. वर्तमान सरकार का पूरा कार्यकाल गाय, मांस, दलित, मुसलमान, पकिस्तान, देशद्रोह आदि के बेवजह विवादों और तनाव में फँसा रहा है. लगभग हर महीने कोई-न-कोई बेजरूरत बहस खड़ी होती रही है, मिडिया उसे हवा देती रही है और सारे लोग उसके पक्ष-विपक्ष में सम्मुख बहस या व्हाट्सएप-फेसबुक-ट्विटर पर पोस्ट-कमेंट करने में लगे रहे हैं. इतनी बेजरूरत बहसें इतिहास में कभी नहीं हुई होंगी. इसका इतना फायदा तो हुआ कि लोगों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी, लेकिन सामाजिक समरसता को बड़ी हानि पहुँची और देश की वैचारिक क्षमता, समय और श्रमशक्ति इसी में उलझे हुए रहे, जो उत्पादन में लगकर राष्ट्रीय आय की वृद्धि में योगदान कर सकते थे.
इस बीच देश में सुनियोजित ढंग से सांप्रदायिक बहसें खड़ी की गईं और बहुसंख्यक हिन्दुओं के मन में उग्र सांप्रदायिकता भरने की कोशिश की गई. उत्तरप्रदेश में गोमांस के नाम पर अख़लाक़ की ह्त्या के बाद तो गाय के नाम पर मॉबलिंचिंग का सिलसिला ही शुरू हो गया. इंडिया स्पेस के आंकड़ों के मुताबिक़ 2014 से 2018 के बिच देश में गाय से जुडी 125 हिंसक घटनाएँ घटीं, जिनमें 59 प्रतिशत घटनाएँ उन प्रदेशों में हुईं, जो भाजपा शासित हैं और इन घटनाओं में अल्पसंख्यक समुदाय के 57 प्रतिशत मुसलमानों के साथ ही 10 प्रतिशत दलित भी इसके शिकार हुए.
चुनाव से पहले सतारूढ़ दल ने तत्कालीन सरकार के विरुद्ध जिन मुद्दों को प्रमुखता से उठाया था, उसमें जवानों की शहादत और आतंकी घटनाएँ भी थीं. परन्तु भाजपा के पूरे कार्यकाल में न तो जवानों की शहादतें घटीं और न ही आतंकी वारदातों में कमी आयी, बल्कि ये घटनाएँ बढ़ ही गयीं. साऊथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के अनुसार 2014 में जहाँ 51 जवान शहीद हुए थे, वहीँ 2018 में 95 जवानों को शहादत देनी पड़ी और 2019 के अभी तीन ही महीने गुजरे हैं और 50 से अधिक जवान शहीद हो चुके हैं.उसी तरह मल्टी एजेंसी सेंटर के अनुसार इन पाँच वर्षों में 440 कश्मीरी युवक विभिन्न आतंकी संगठनों में शामिल हुए. 2014 में जहाँ 63 कश्मीरी युवक आतंकी संगठनों में शामिल हुए थे, वहीँ 2017 में 128 और 2018 के जून तक 82 युवक आतंकी बने. इसी तरह पाकिस्तान को सबक सिखाने के नाम पर राजनीति चलाने वाली पार्टी के शासनकाल में ही सीमावर्ती तनावों में भी बेतहाशा वृद्धि हुई. 2014 में जहाँ 543 बार सीजफायर का उल्लंघन हुआ था, साल-दर-साल बढ़ते-बढ़ते वह संख्या 2018 में 1432 तक पहुँच गई. अर्थात जवानों की शहादतें रोकने, आतंकी गतिविधियों को घटाने और पाकिस्तान को सबक सिखाने की अपनी ही बनायी हुई भावनात्मक राजनीती के मोर्चे पर भी सरकार बेतरह विफल रही है.
इधर सामाजिक सुरक्षा की हालत भी शर्मनाक स्तर तक चिंताजनक हुई. हाल ही में विश्व की 500 कामकाजी महिलाओं की प्रतिक्रिया के आधार पर थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन के सर्वे रिपोर्ट में महिलाओं के लिए भारत को दुनिया का सबसे खतरनाक देश कहा गया. लगातार बढती हुई जनसंख्या के बावजूद डायस की रिपोर्ट विद्यालयों में नामांकन की घटती हुई संख्या बताती है. स्वास्थ्य सेवाओं की यह हालत है कि ऑक्सिजन के अभाव में एक ही साथ 64 बच्चे मृत्यु के आगोश में समा जाते हैं और परिजनों को अस्पताल से लाशों को अपने कंधे पर ढोकर घर ले जाना पड़ता है.
विश्व भूख सूचकांक रिपोर्ट 2018 के अनुसार भारत 2014 में विश्व के 119 देशों में जहाँ 55वें पायदान पर था, वहीँ क्रमश: लुढ़कते-लुढ़कते 2018 में 103वें पायदान पर चला गया है, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश आदि से भी ख़राब हालत में. संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा 156 देशों की खुशहाली रिपोर्ट में भारत 2016 में जहाँ 118वें स्थान पर था, वहीँ 2018 में 140 वें स्थान पर पहुँच गया है.
2014 से अब तक प्रधानमन्त्री जन धन योजना, प्रधानमन्त्री सुकन्या समृद्धि योजना, प्रधानमन्त्री जीवन ज्योति योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, सांसद आदर्श ग्राम योजना, प्रधानमन्त्री गरीब कल्याण योजना, मेक इन इंडिया, डिजिटल भारत, बेटी बचाओ बेटी पढ़ो योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्या योजना, पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते योजना, तीर्थयात्रा कायाकल्प और आध्यात्मिक वृद्धि ड्राइव, नेशनल बाल स्वच्छता मिशन, स्मार्ट सिटी मिशन, स्टार्ट अप स्टैंड अप इंडिया, श्यामा प्रसाद मुखर्जी अर्बन मिशन, राष्ट्रीय गोकुल मिशन, नमामि गंगे प्रोजेक्ट, प्रधानमन्त्री उज्ज्वला योजना, राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान आदि 63 योजनाओं की शुरुआत प्रधानमन्त्री कर चुके हैं. लेकिन अधिकांश योजनाओं की उपलब्धि के नाम पर कुछ बताने वाला कोई नहीं है.
इन पाँच वर्षों की अवधि में सरकार के कई कारनामों ने लोकतंत्र के पायों को हिलाकर रख दिया है. रिज़र्व बैंक की बिना सलाह के, बह्शियाने अंदाज में, नोटबंदी क्यों कर दी गयी, इसका माकूल जवाब आज तक नहीं दिया जा सका है. कुछ ही दिन पहले सीबीआई के भीतर का अन्तर्विरोध और उसमें सरकार की भूमिका पर गहरे प्रश्नचिह्न खड़े हुए थे. न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेपों से घोर निराशा के शिकार सर्वोच्च न्यायलय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को प्रेस के सम्मुख आकर जनता से अपील करनी पड़ी कि लोकतंत्र खतरे में है. विगत सरकार के प्रधानमन्त्री की गंभीरता को ‘मौन मोहन सिंह’ कहकर जिस व्यक्ति के द्वारा उपहास उड़ाया गया था, स्वयं प्रधानमन्त्री बनने के बाद एक बार भी खुले प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल नहीं हुए. एकल प्रेस के जिन इक्का-दुक्का साक्षात्कार से वे गुजरे भी तो वे स्क्रिप्टेड इंटरव्यू थे. एक ओर तो हिंदूवादी संगठनों के द्वारा संविधान की प्रतियां खुलेआम जलाई गयी और उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई और दूसरी ओर सरकार के कार्यकलाप पर ऊंगली उठानेवालों को नक्सली और देशद्रोही घोषित कर मुकदमा चलाया गया. जेएनयू के कन्हैया कुमार के मामले में लंबे अरसे का बाद भी आरोप गठित करने में असमर्थ पुलिस को न्यायलय फटकार चुका है.
वर्तमान सरकार के पूरे कार्यकाल में मीडिया की भूमिका अत्यंत भर्त्सनीय रही है. सत्ता के चारणगान में संलिप्त मीडिया ने अपने नैतिक और सामाजिक दायित्वों को पूरी तरह धो-पोंछ लिया है. पिछले साल कोबरापोस्ट डॉट कॉम के स्टिंग ऑपरेशन में लगभग सारे प्रमुख मीडियामैन ने स्वीकार किया कि वह पैसे के लिए और सांप्रदायिकता के नाम पर कुछ भी खबर चला सकते हैं.
ये घटनाएँ नहीं हैं, प्रवृत्तियाँ हैं, जो स्वतंत्र भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास में पहली बार प्रकट हुई हैं, जो किसी भी तरह के लोकतंत्र के लिए किसी भी तरह से स्वस्थ संकेत नहीं है.
लेकिन इस सारे खेल में विपक्ष की क्या भूमिका रही है? अभी विपक्ष की मुख्य भूमिका में वही कांग्रेस है, जिस पर भ्रष्टाचार को नियन्त्रित करने में असफलता के आरोप मढ़कर भाजपा सत्ता में आयी थी. राफेल सौदे में भ्रष्टाचार के मुद्दे को उठाकर कांग्रेस ने जो पलटवार किया, उसने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया. भाजपा का राज्यसभा में जबतक बहुमत नहीं था, तब तक कांग्रेस ने कई जन विरोधी बिलों को पास होने से रोकने का प्रशंसनीय कार्य किया. इसमें सत्ता में आते ही भूमि अधिग्रहण बिल मुख्य है, जिसमें प्रावधान था कि रेलवे लाइन और नेशनल हाईवे के दोनों किनारे कहीं भी किसी कॉर्पोरेट के द्वारा पसंद की गयी जमीन का अधिग्रहण कर उसे सौंपना सरकार का काम था, विपक्ष के विरोध के चलते ही पास नहीं हो सका. कई बार के प्रयास के बावजूद गरीबों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करने वाली नई शिक्षा नीति को आने से रोकने में भी विपक्ष कामयाब रहा. किसानों के सवाल को भी विपक्ष ने मजबूती से उठाया और समर्थन दिया, जिसके कारण चुनाव के समय किसान सम्मान योजना लागू करने के लिए सरकार को विवश होना पड़ा|
कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर विपक्ष ने अपनी भूमिका का निर्वाह किया है और सरकार को जनविरोधी निर्णयों से पीछे हटने के लिए मजबूर किया है. लेकिन सांप्रदायिकता के भावनात्मक अखाड़े का भाजपा अकेला पहलवान है. जनता से जुड़े हुए किसी अन्य मुद्दे को भी वह सांप्रदायिकता और देशप्रेम के अखाड़े पर लाकर धूल चटा देता है. यह उसके पास वोट के ध्रुवीकरण की ऐसी कुंजी है, जिसके सामने सारे विपक्षी चित हो जाते हैं और प्रमुख विपक्षी नेता को भी टीका लगाकर, पीली धोती पहनकर और मंदिरों में पूजा करते हुए का फोटो खिंचवाकर अपने को हिन्दू समर्थक होने का प्रमाण देना पड़ता है. इस कुंजी की काट आज भी विपक्ष के पास नहीं है.
अब चुनाव के समरांगन में पक्ष और विपक्ष खड़े हो गए हैं. सब अपने-अपने तरीके से जनता को लुभाने और भ्रमित करने का कार्य करेंगे. ऐसे में लोकतंत्र को मजबूत बनाने, आपसी सौहार्द्र को सशक्त करने और नीतियों को अधिक जनपक्षी होने के लिए प्रबुद्ध जनों को सम्यक विवेचना करके जनता का मार्गदर्शन करने की जरुरत है.
लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता और ‘आसा’ के संयोजक हैं|
सम्पर्क- +919934036404, dranilkumarroy@gmail.com
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