सादगी और संघर्ष के मानक कर्पूरी ठाकुर
जिस बिहार में अस्सी के दशक की शुरुआत में भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन ने, आज़ादी बाद पहली बार भारत में कांग्रेस की सरकारों को केंद्र से लेकर भारत के विभिन्न राज्यों में आपदस्थ करने का सुत्रपात शुरू किया गया था। उसी बिहार के समस्तीपुर जिले के जिस गाँव में कर्पूरी ठाकुर का जन्म हुआ था वह अब कर्पूरी ग्राम कहा जाता है।
कुल मिलाकर उन्हें सिर्फ 64 साल का समय अपनी जीवन यात्रा के लिए मिला है। शुरू के 24 सालों को कम कर दें, क्योंकि वह उनके शिक्षा-दीक्षा में गए होंगे। लेकिन बचे हुए चालीस सालों के दौरान, वह अठारह बार (आजादी के पहले दो बार और बाकी आजादी के बाद) जेल में गए और एक बार उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रहे हैं। डॉ. राममनोहर लोहिया के अनुयायियों में से कुजात लोहियावादी थे। और डॉक्टर साहब के भारतीय सामाजिक जीवन तथा राजनीतिक जीवन में भी जो विषमता हजारों वर्ष से चली आ रही, उसे बदलने को लेकर “सौ में पावे पिछड़ा साठ” के सिद्धांत का बिहार की राजनीति में जागृत उदाहरण थे, कर्पूरी ठाकुर। भारत की आजादी के बाद पहले चुनाव से अपनी मृत्यु के समय तक, वह चुनाव की राजनीति में लगातार चुनाव जीतकर आते रहे। लेकिन मरने के समय उनके घर की परिस्थिति वैसी ही थी, जैसे उनके जन्म के समय में थी। यह भारतीय राजनीति का अनूठा उदाहरण है। अन्यथा दिन में दसियों बार कपड़े बदलने वाले और महंगा से महंगा हवाई जहाज खुद के मौजमस्ती के लिए खरीदने वाले, और अपने जीवन में चाय बेचने का राजनीतिक केपिटल करने वाले जुमलेबाज सत्ताधारियों के रोजमर्रे के खर्च और अपने दाढ़ी के एक-एक बाल को संवारने के लिए कर्पूरी ठाकुर जैसे नाई के व्यवसाइयों के सालाना आय के बराबर, या हमारे देश के गांव के सालाना बजट के बराबर खर्च करने वाले पाखंडियों की तुलना में, ऐसे समय में कर्पूरी ठाकुर का जीवन एक किंवदंती जैसा लग सकता है।
मुझे उनसे मिलने का मौका जीवन में एक ही बार, और वह भी मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में हुई थी। शायद 1971 – 72 के दौरान बांग्लादेश बनने के समय, तब वह बिहार के मुख्यमंत्री थे। मैं राष्ट्र सेवा दल के काम के लिए सविता वाजपेयी जी के प्रोफेसर कॉलोनी के मकान में ठहरा हुआ था। तो पता चला कि आज भोपाल के एमएलए गेस्ट हाऊस में बिहार के मुख्यमंत्री श्री कर्पूरी ठाकुर की प्रेस कांफ्रेंस है। तो मैं प्रोफेसर कॉलोनी से पैदल ही टहलता हुआ चला गया। और उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में जैसे ही समय मिला। तो मैंने भी उन्हें एक प्रश्न पुछा, कि “बांग्लादेश की मुक्तिवाहिनी में आप किशनगंज की तरफ से लुंगी-बनियान पहनाकर कुछ जवानों को बन्दूकों के साथ भेज रहे हैं। क्या यह सही खबर है?” कर्पूरी जी ने तपाक से कहा कि, ” बिल्कुल सही खबर है। क्योंकि पाकिस्तान की सेना पूर्व पाकिस्तानी लोगों के साथ अत्याचार कर रही है। और मैं कैसे चुपचाप देख सकता हूँ? क्योंकि हमारे भी प्रदेश में कई शरणार्थियों ने आश्रय लिया है। तो मैं अपनी तरफ से बांग्लादेश की मुक्ति के लिए जो भी कुछ बन सकता है, मैं वह कर रहा हूँ।” और यही खबर दूसरे दिन भोपाल के अखबारों में प्रथम पृष्ठों पर छपी भी।
उनकी सादगी का एक उदाहरण मैंने चम्पारण सत्याग्रह के शताब्दी के दौरान अपने खुद के अनुभव से देखा है। 2017 में राष्ट्र सेवा दल की तरफ से आयोजित, चम्पारण से पटना की यात्रा के दौरान, समस्तीपुर जिले के एक छोटे से गांव में, एक झुग्गीनुमा मकान-मालिक के यहाँ पर चाय के लिए ठहरे थे। तो उन्होंने कहा कि “आप जिस जगह पर बैठे हैं। उसी जगह पर कर्पूरी ठाकुर भी इस रास्ते से जाते हुए हमेशा ही ठहरकर चाय चूड़ा खाते थे।” कहने वाले सज्जन के शरीर पर सिर्फ कमर तक गमछा और ऊपर के शरीर का हिस्सा खुला था। उस एक महीने की यात्रा में, हम सैकड़ों जगहों पर रुके और चाय नास्ता तथा खाना खाते हुए, ठहरने के भी अनेक अनुभव हैं। लेकिन समस्तीपुर जिले के उस गांव की उस ‘दरिद्रनारायण’ के घर की यह बात मुझे लगता है, अभी-अभी घटी है।
बोधगया महंत के हजारों एकड़ जमीन को भूमिहीन खेत मजदूरों में बाँटने के लिए ‘छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ का बोधगया भूमिमुक्ति आन्दोलन जोरों पर था। उसी मांग को लेकर पटना विधानसभा के बाहर कुछ दूरी पर स्थित, पंडाल में हमलोगों का धरना जारी था। और रात के समय धोती–कुरता और मुँह पर मुछ वाले एक आदमी हमारे पंडाल में आकर बैठ गया। हमारे ध्यान में आया कि यह तो मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर हैं। हम सभी के सभी हैरान रह गये। और फुसफुसाती आवाज में उन्होंने जो बात कही वह और भी अधिक हैरान करने वाली थी। उन्होंने कहा कि “आप लोगों की मांग के साथ मैं शतप्रतिशत सहमत हूँ। बिहार में सिलिंग कानून के बावजूद, बहुत सारे जमींदारों ने चालाकी करते हुए, अपने नाते रिश्तेदारों तथा नौकर-चाकर से लेकर कुत्ते-बिल्ली के नाम पर जमीन करते हुए, रेकॉर्ड बनाने की चालाकी की है। इसलिए आप लोगों ने बोधगया महंत के खिलाफ जो आन्दोलन की शुरूआत की है। उसे मेरा पूरा समर्थन है। लेकिन मैं भले मुख्यमंत्री पद पर हूँ, लेकिन विधानसभा के ज्यादातर सदस्यों को इन्हीं जमींदारों ने धन मुहैया कराकर उन्हें विधानसभा में चुनाव जिताकर भेजा है। इसलिए मैं खुद लाचार हूँ। आप लोग अपने आन्दोलन को और मजबूती से बढ़ाइये तो मैं विधानसभा में आन्दोलन का हवाला देते हुए जमीन अधिग्रहण कानून को बदलने का प्रयास कर सकूँ।
जवाहरलाल नेहरू की इच्छा थी कि “खेतिहर मजदूरों को जमीन का आवंटन किया जाए।” लेकिन उनके भी सामने कर्पूरी ठाकुर जैसा ही धर्मसंकट रहा है। और इसलिये साठ के दशक में आचार्य विनोबा भावे ने विश्व प्रसिद्ध भूदान आन्दोलन की शुरूआत की थी। तो उन्होंने आचार्य विनोबा भावे को पूरी तरह से मदद की है। भले ही डॉ. राममनोहर लोहिया ने उन्हें सरकारी संत कहते हुए उनकी आलोचना की है। लेकिन हमारे देश में पचास लाख एकड़ से अधिक जमीन भूदान आन्दोलन के दौरान बगैर जोर-जबरदस्ती करते हुए सिर्फ प्रार्थना और अपनी वाणी का प्रयोग करते हुए लेने का विश्वभर में एक मात्र उदाहरण है।
हमारे देश के अदालतों में सब से ज्यादा मुक़दमे जमीन जायदाद को लेकर ही चल रहे हैं। एक दिन कलकत्ता हाईकोर्ट के कॅरिडॉर से कुछ वकिल मित्रों के साथ चलते हुए, उन्होंने एक जूट के झोला लेकर जमीन पर बैठे हुए, फटेहाल आदमी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि “यह शायद आजादी के भी पहले से ही अपनी जमीन जायदाद को लेकर कोर्ट में आया हुआ है। आज देखिये किस दयनीय स्थिति में है।”
कर्पूरी ठाकुर ने अपने खुद के पुश्तैनी पेशा नाई के कामों से ही अपने जीवन को सवारा है। वह मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके रिश्तेदारों में से कोई उनके पास पहुंच कर सरकारी नौकरी दिलाने के लिए उन्हें विनती की तो उन्होंने अपनी जेब से सौ रुपए का नोट निकाल कर उसे देते हुए कहा कि “उस्तरा, कैची कंधी लेकर अपना पुश्तैनी काम करो। यहाँ हमारे राज्य के सभी लोगों को नौकरी देने की स्थिति नहीं है।” इस तरह के राजनेता कितने हैं?
लेकिन बिहार को जातिवादी-सामंतवादी प्रदेश के रुप में काफी बदनाम किया जाता है। लेकिन डॉ. राम मनोहर लोहिया के अगड़े-पिछड़े सिद्धांत की वजह से, आजादी के बाद इसी बिहार में भोला पासवान शास्त्री, राम सुंदर दास, जीतनराम मांझी जैसे दलितों से लेकर कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद यादव से लेकर आधा दर्जन से अधिक दलितों और पिछड़ी जाति तथा अब्दुल गप्फूर जैसे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को मुख्यमंत्री या बिहार की राजनीति में महाराष्ट्र के मराठी भाषी मधू लिमये, तथा कानडी क्रिस्टियन जॉर्ज फर्नाडिस को लोकसभा में भेजने वाले लोगों को कौन जातिवादी या भाषाओं के आधार पर राजनीति करने वाले बोलेंगे?
लेकिन मुझे विश्वास है, कि बिहार उसके लिए अपवाद है। बिहार के 1974 के आन्दोलन ने ही भारत की राजनीति में बदलाव किया है। और आने वाले समय में उसी बिहार से हमारे देश की छाती पर घोर सांप्रदायिक और पूंजीपतियों की समर्थक फासिस्ट केंद्र सरकार को बेदखल करने का ऐतिहासिक काम, हमारे देश के सबसे पिछड़े, लेकिन सबसे राजनीतिक सोच-समझ रखने वाले जयप्रकाश तथा कर्पूरी ठाकुर के बिहार से ही सूत्रपात होगा और कर्पूरी ठाकुर की शताब्दी में, इससे बढ़कर कोई दूसरी आदरांजलि उन्हें हो ही नहीं सकती।