भारत और अमरीका – आओ दोस्त दोस्त खेलें
भारत और अमरीका विश्व के दो सबसे बड़े लोकतन्त्र हैं। ऐसे में अमरीकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा या भारत के प्रधानमन्त्री का अमरीका दौरा स्वाभाविक रूप से सुर्ख़ियों में आ जाता है और महत्त्वपूर्ण बन जाता है, या यूँ कहें कि किसी त्योहार का रूप ले लेता है। त्योहार की अंतिम परिणति दोनों देशों के नेताओं के संयुक्त बयान में होती है जिसमें आलंकारिक भाषा का इस्तेमाल होता है और आपसी मित्रता को एक नई ऊँचाई तक ले जाने के परस्पर वायदे किए जाते हैं।
भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का हाल ही में संपन्न अमरीकी दौरा अपने चाक्षुष स्वरूप में किसी त्योहार की तरह ही था। उन्होंने अमरीकी संसद और पत्रकार सम्मेलन को तो संबोधित किया ही, भारतीय मूल के अमरीकी नागरिकों से भी उनकी मुलाकात हुई। साथ ही वे अमरीकी संसद को दूसरी बार संबोधित करने वाले पहले भारतीय प्रधानमन्त्री बन गए। दौरे की समाप्ति पर जो संयुक्त बयान जारी हुआ उसकी शब्दावली में अलंकरण का अच्छा खासा पुट था। इस संयुक्त बयान की भूमिका में कहा गया कि यह दो लोकतन्त्र की आपसी साझेदारी है जो विश्व की प्रगाढ़तम साझेदारियों में गिनी जा सकती है। यह साझेदारी 21वीं सदी को आशा, महात्वाकांक्षा, और आत्म- विश्वास के साथ देख रही है। इस साझेदारी की नींव परस्पर विश्वास और आपसी समझदारी की एक नई ऊँचाई पर अवस्थित है और दोनों देशों के पारिवारिक तथा मैत्रीपूर्ण संबंध इसे शक्ति प्रदान करते हैं। हम साथ मिलकर इस रिश्ते को और भी सशक्त और वैविध्यपूर्ण बनाएंगे। यह रिश्ता दोनों देशों के नागरिकों की उज्जवल और संपन्न भविष्य की कामनाओं को पूरा करने के लिए तो काम करेगा ही, मानवाधिकारों का सम्मान और लोकतन्त्र, स्वतन्त्रता एवं कानून का शासन जैसे साझे मूल्यों को भी अपने में समेटेगा। हम मिलजुल कर विश्व कल्याण के लिए काम करेंगे और क्वाड सहित सभी वैश्विक और क्षेत्रीय संगठनों के सहयोग से हिन्द-प्रशांत क्षेत्र को स्वतन्त्र, स्वच्छंद, सर्वस्वीकार्य और नमनीय बनाएंगे। हम दो महान देशों की इस साझेदारी से मानव उपक्रम का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहेगा और सागर से सितारों तक को स्वयं में समाहित करेगा।
लेकिन यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस बार का संयुक्त बयान मात्र शाब्दिक अलंकरण और कोरी लफ्फाजी है। जब हम 58 पैराग्राफ वाले इस संयुक्त प्रतिवेदन को पूरी गंभीरता से पढ़ते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों देश अपनी आपसी मित्रता को बहुत ऊँचे धरातल पर ले जाना चाहते हैं। इस बयान में आपसी सहयोग का दायरा अप्रत्याशित और अभूतपूर्व रूप से विस्तृत है। इसमें अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में परस्पर सहयोग के साथ-साथ सेमीकन्डक्टर, 5 जी तथा 6 जी टेक्नोलोजी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम टेक्नोलॉजी जैसे आधुनिक विज्ञान के अत्यंत महत्वपूर्ण, संवेदनशील और उभरते क्षेत्रों में सहयोग की बात कही गई है। इस प्रकार का सहयोग केवल सरकारों के बीच ही सीमित नहीं रहेगा बल्कि दोनों देशों के उद्योगों और विश्वविद्यालयों को भी अपनी परिधि में समाहित करेगा।
दोनों देशों के बीच की इस साझेदारी में स्वच्छ उर्जा की दिशा में कदम बढ़ाने के प्रति प्रतिबद्धता और इस क्षेत्र में परस्पर सहयोग का भी जिक्र है। इस सिलसिले में दोनों देशों ने हरित हाइड्रोजन के उत्पादन और प्रयोग को बढ़ावा देने और परिवहन के क्षेत्र में कार्बन के उत्सर्जन को कम करते जाने के लिए काम करने पर भी जोर दिया है।
संयुक्त बयान का एक महत्वपूर्ण पक्ष है रक्षा के क्षेत्र में परस्पर सहयोग। इसके अंतर्गत एक बड़ी बात यह है कि सैनिक विमानों में प्रयुक्त होने वाले जेट इंजन, अमरीकी सहयोग से भारत में ही बनेंगे और अमरीका इस प्रकार के इन्जिन के निर्माण की तकनीक भारत को हस्तानांतरित कर देगा। साथ ही अमरीकी नौसैनिक पोतों की मरम्मत और रखरखाव के लिए भारत में एक केन्द्र की स्थापना भी होगी।
संयुक्त बयान में यह भी वादा किया गया है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के मौजूदा गठन में सुधार के लिए साथ-साथ काम तो होगा ही, भारत की स्थायी सदस्यता को भी अमरीका अपना समर्थन देगा।संयुक्त बयान में क्वाड को और सशक्त बनाने के साथ-साथ हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में नियमों पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बहाल रखने पर ज़ोर दिया गया है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो इस क्षेत्र में चीन की निरंतर बढ़ती दादागिरी पर अंकुश लगाने तथा समुद्र से जुड़े विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का हर देश द्वारा पालन करने की बात कही गई है ताकि इस क्षेत्र से गुज़रने वाले व्यापारिक पोतों को किसी रुकावट या असुविधा का सामना न करना पड़े। संयुक्त बयान में आतंकवाद की भी कड़े शब्दों में निन्दा की गई है।
संयुक्त बयान की शब्दावली से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों देशों ने अपने रिश्तों को मज़बूत बनाने और एक लंबे समय तक चलने वाली अत्यंत विस्तृत रणनीतिक साझेदारी के लिए प्रतिबद्ध होने का निर्णय किया है। यानी दोनों देशों के आपसी रिश्ते घनिष्ठता की उस सीमा तक पहुँच गए हैं जहाँ से पीछे मुड़ कर देखना निकट भविष्य में संभव नहीं हो पाएगा। स्पष्ट है कि दोनों देशों के नेताओं और राजनयिक अधिकारियों ने बहुत सोच-विचार कर ही इस प्रकार का निर्णय लिया होगा।
सोच-विचार की ज़रूरत इसलिए भी पड़ी होगी क्योंकि एक दूसरे को संदेह की नज़र से देखने के दोनों देशों के पास पर्याप्त कारण हैं। अनेक भारतवासी अमरीका को एक विश्वसनीय मित्र के रूप में नहीं देख पाते। 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान अमरीकी सहानुभूति पाकिस्तान के लिए थी। सन् 1971 में तो अमरीका ने हार का सामना करती पाकिस्तानी सेना की सहायता के लिए अपना जहाज़ी बेड़ा ही भेज दिया था। पाकिस्तान द्वारा निरंतर चलाए जा रहे आतंकवादी अभियान की जड़ में भी अमरीका को ही माना जाता है क्योंकि अफगानिस्तान में रूस के विरुद्ध संघर्ष के दौरान मुजाहिदीन को दी गई सामरिक मदद के सहारे से ही भारत के विरुद्ध पाकिस्तानी आतंकवादी अभियान पनपा और फलाफूला था। वहीं दूसरी ओर भारत में रूस को एक ऐसे विश्वस्त मित्र के रूप में देखा जाता है जिसने लंबे समय से साथ निभाया है और गाढ़े समय में हमारे काम आता रहा है। क्या अमरीका से दोस्ती के चक्कर में ऐसे विश्वस्त मित्र का परित्याग कर देना चाहिए?
अमरीका के पास भी भारत को संदेह की नज़र से देखने के कई कारण हैं। अमरीका रूस को एक शत्रु देश के रूप में देखता रहा है। उसे रूस के साथ भारत की मित्रता रास नहीं आ सकती। यूक्रेन युद्द में भी अमरीकी दबाव के बावजूद भारत ने यूक्रेन का खुलकर पक्ष लेने और रूस का विरोध करने से परहेज किया। साथ ही अमरीका और पश्चिम योरोपीय देशों की नाराजगी के बावजूद भारत ने यूक्रेन युद्ध के दौरान रूस से तेल खरीदना जारी रखा।
लेकिन उपर्युक्त विसंगतियों के बावजूद अमरीका के साथ भारत की मित्रता के ठोस आधार हैं। दोनों ही देश लोकतन्त्र में विश्वास रखते हैं। साथ ही अमरीका भारतीय मूल की एक अच्छी खासी आबादी है जो समय के साथ वहाँ अत्यंत प्रभावशाली हो चुकी है और जो वहाँ की सरकार के भीतर भारत के लिए एक मित्रतापूर्ण माहौल बनाने में सक्षम है।
हाल के वर्षों में अमरीका और भारत के बीच निरंतर प्रगाढ़ होती मित्रता का सबसे बड़ा कारण चीन है। चीन एक तेज़ी से उभरती हुई महाशक्ति है और इस अर्थ में अमरीका उसको अपने सबसे बड़े प्रतिद्वन्दी के रूप में देखता है। चीन भी अपनी इस नई हैसियत का प्रदर्शन करने से बाज़ नहीं आता। वह एशिया के साथ-साथ पूरे विश्व में अमरीका को पीछे ढकेल कर अपना वर्चस्व दिखाना चाहता है।
हिन्द प्रशांत क्षेत्र में हाल तक अमरीका की तूती बोलती रही है लेकिन अब इस इलाके में चीन ने अमरीकी प्रभुत्व को चुनौती देनी शुरु कर दी है। ताइवान को अपने अधिकार में लेने का संकल्प भी चीन ने हाल के वर्षों में लगातार रूप से दुहराया है। ऐसे में विश्वशक्ति के रूप में अपनी साख बचाने के लिए अमरीका के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह चीन पर लगाम लगाए।
अमरीका इस सिलसिले में भारत को अत्यंत उपयुक्त पाता है। भारत के चीन के साथ संबंध ऐतिहासिक रूप से शत्रुतापूर्ण रहे हैं। हाल के कुछ वर्षों से चीन भारत को आतंकित करने की पुरजोर कोशिश करता रहा है। डोकलाम और गलवान घाटी इसके उदाहरण हैं। भारत-चीन सीमा पर चीन का सैनिक जमाव निरंतर बढ़ रहा है। भारत और चीन की आपसी शत्रुता के पीछे केवल सीमा विवाद ही कारण नहीं है। चीन एशिया पर अपना संपूर्ण वर्चस्व चाहता है और इस महात्वाकांक्षा में भारत को वह एक बड़े अड़चन के रूप में देखता है। मौजूदा दौर में चीन और रूस के आपसी संबंध अत्यंत मधुर हो चुके हैं और ऐसे में चीन के साथ युद्ध की स्थिति में रूस भारत की शायद ही अधिक मदद कर पाए। इस दृष्टि से अमरीका और भारत की घनिष्ठता विश्व राजनीति के मौजूदा दौर में अत्यंत स्वाभाविक लगती है।