‘रेखा’ एक खुली क़िताब जिसे पढ़ना बाकी है
अधूरी शाम का अधूरा किस्सा हूँ मैं, जो पढ़ा न गया वो किताब हूँ मैं जाने क्यों मुझे लगता रहा है कि अभिनेत्री रेखा का जीवन एक खुली किताब है, बिल्कुल उनके नाम की तरह, सीधी स्पष्ट रेखा। पर जैसे-जैसे उनके जीवन से जुड़े वक्तव्यों, साक्षात्कारों का अनुभव मिला, ख़ुद रेखा के महत्वपूर्ण वक्तव्य देखे तो समझ में आने लगा कि यह ‘रेखा’ उतनी भी सरल और सीधी नहीं, तिस पर अफवाहों की हलचल, विवादों के झंझावत और नियति के सागर के बीच उनके जीवन के विविध उतार-चढ़ाव, जानने-समझने के लिए बहुत धैर्य चाहिये था। वे कहतीं हैं“मेरी भावनाएं कभी मेरी अभियक्ति में नहीं झलकती आवाज़ से भी नहीं कि भीतर क्या चल रहा है, मैंने लोगों से कभी अपने भावों को व्यक्त किया भी नहीं, और आज भी नहीं कर पाती” पर उनकी इच्छा ज़रूर रही होगी कि कोई तो बिन कहे उनका मन समझ ले! मैंने महसूस किया कि अपने साक्षात्कारों में वे दिल से बोलतीं है- एक संवेदनशील मन, मजबूत विनम्र व्यक्तित्व, आँखों में सिमटा दर्द आपको भीतर तक भिगोता जाता है, हो सकता है आप कहें वो भी अभिनय ही है तो मैं कहूँगी कि आप फ़िल्मों से सिर्फ मसाला और चटपटा मनोरंजन ही चाहतें हैं आपकी संवेदना फ़िल्मी कलाकार के ‘मनुष्य से’ नहीं जुड़ पाती। रेखा के लिए अभिनय उनका बच्चा है, ‘मैं माँ नहीं बनी लेकिन सृजन को समझती हूँ, फ़िल्मों में हम अपने निजी इमोशन भी व्यक्त करतें हैं, इस माध्यम के ज़रिये हम अपनी थोड़ी खुशियाँ और आँसू बाँट लेते हैं’ फेवरेट किरदार पर जब वे कहतीं हैं, माँ को उसका हर बच्चा प्यारा होता है, तो माँ न बनने की कसक झलक ही जाती है, भले ही वे कितना छिपा लें। इसी प्रकार उमराव जान में सर्वश्रेष्ठ अभिनय के सन्दर्भ में कहतीं हैं ‘जिन मरहमों से निजी जिन्दगी में गुज़र रही होती हूँ वो मेरी पर्फोर्मेंसस में रिफ्लेक्ट करता है’ रेखा ने हर किरदार को प्रसाद समझ कर लिया बस एक बार को वो क्लिक करना चाहिए कि हाँ, इसमें कुछ बात है! जिस प्रकार कहानी के संवाद कथानक, देशकाल और चरित्र आदि को विश्लेषित करने में सहायक होते हैं उसी प्रकार मैंने रेखा के साक्षात्कारों के माध्यम से रेखा को समझने का प्रयास किया है। ‘घर’ उनके जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकल्पना है, जिसे वे परिपूर्ण न कर पाई बावजूद इसके उनका जीवन अपने आप में पूर्ण है।
मीरा-सी साधिका या राधिका
बात करें पितृसत्ता से संचालित समाज की तो ‘घर’ आज भी स्त्री के लिए चार दीवारी ही है, जिसमें उसकी इच्छाओं की उन्मुक्त उड़ान सम्भव नहीं, सशक्त-सबल-स्वतंत्र होती स्त्री के लिए भी नहीं। फिर भी उसके सुखों को जिस सीमा में परिभाषित किया गया उसने सहज स्वीकार किया और पारिवारिक संबंधों पत्नी, माँ, बहु आदि डोर से बंधी वह बंधन में भी सुख का अनुभव करती आई है। आज जबकि ‘विवाह-संस्था’ प्रश्नांकित हैं, परिवार के नाम पर गिने-चुने सदस्य हैं तो ‘घर’ का अस्तित्व भी प्रश्नों के घेरे में हैं। यद्यपि प्रेमी-युगल के लिए ‘घर’ आज भी सबसे ख़ूबसूरत सपना है, फिल्मों ने तो इसे हमेशा रोमानियत के साथ ‘हैंडल विद केयर’ प्रस्तुत किया है। फ़िल्मी हस्तियों में जब माँग में सिन्दूर सजाये ‘लिविंग लीजेंड’ रेखा की बात आती है तो उनके जीवन और व्यक्तित्व के कई विरोधी पक्ष पितृसत्ता को मुँह चिढ़ाते नज़र आते हैं, इस सदा सुहागन की माँग का सिन्दूर, भले ही उनके अनुसार श्रृंगार का एक हिस्सा है पर यह उनकी हसरतों को भी रेखांकित करता है। ऐसे में प्रश्न आता है कि हर लड़की की तरह ख़ूबसूरत रेखा ने भी तो सपनों का ‘घर’ सजाया ही होगा! लेकिन एक प्रलय में सब कुछ बह गया और बची रह गई मीरा-सी साधिका या राधिका रेखा जिसके ह्रदय में प्रेम-अमृत्व और आँखों में खारा समुद्र समाया है जो न छलकता है, न झलकता है चाहे कितना ही आलोड़ित हो ।
रेखा एक परिचय
रेखा का परिचय विवादों के साथ ही मिलता है जो उनके जन्म से पूर्व ही शुरू हो जाता है पितृसत्तात्मक समाज और नैतिक मर्यादाओं को तोड़, वे बिन ब्याही माँ की सन्तान के रूप में जन्म लेतीं हैं ‘बिन ब्याहे पुरुष की संतान’ तो कोई कहता भी नहीं। तथाकथित पिता जैमिनी गणेशन के उपनाम और घर के लिए उनकी माँ पुष्पवल्ली अंत तक तरसती रहीं, माँ के दर्द और घर की कसक को देखते-समझते-महसूसते रेखा बड़ी हुई। आर्थिक तंगी के कारण मात्र 3 वर्ष की आयु से भानुरेखा ने फिल्मों में काम करना आरम्भ कर दिया वे संतान कम बाल-श्रमिक हो चुकी थी। दक्षिण के सुपर स्टारों की यह लड़की महज़ 13 साल आयु में बॉलीवुड में प्रवेश करती है पर उन्हें आज के सन्दर्भों में नेपोटिज्म या नेपो-किड-स्टार नहीं कह सकतें, वे एक्ट्रेस नहीं बल्कि पढ़ना चाहती थी ‘मुझे तो मार-मार कर हिरोइन बनाया गया है’। हालाँकि वे ओवर नाईट स्टार बन गई। ‘जबरदस्ती किस-सीन’ को जब लोकप्रियता मिली तो उन्होंने गॉसिप, विवाद या अफवाहों का सकारात्मक प्रयोग जाना-समझा तभी शशि कपूर या सावन भादों में उनके के हीरो नवीन निश्चल द्वारा उन्हें मोटी, काली, भद्दी, फूहड़ कहने पर उन्होंने कोई प्रतिरोध नहीं किया, उस अपमान के दर्द को अपने भीतर जज़्ब कर लिया और ‘घर’ फिल्म की सफलता के बाद वे जान गई थी ‘मुझे स्टार नहीं कलाकार बनना है’।
परिवार और कैरियर का संघर्ष
जीवन और फ़िल्म दोनों ही क्षेत्रों में रेखा ने स्टीरियोटाइप्ड परम्परागत रूढ़ियों को तोड़ने की हिम्मत दिखाई, हिन्दी फिल्मों में गोरी, पतली-दुबली नायिकाओं की छवि के विपरीत गहरे रंग और 33 इंच कमर के साथ शुरुआत की और धूम मचा दी। हिन्दी नहीं आती थी, पर संवाद रट कर पूरे हाव-भाव के साथ उन्हें अभिनय में व्यक्त करती थी। पहली फ़िल्म की शूटिंग के दौरान टीम के लोग उनके रंग-रूप आकार का उपहास बनाते जिसे आज हम बॉडी शेमिंग के रूप में जानतें हैं, उन्हें लेकर अश्लील बातें करतें, रेखा बताती हैं भले ही उस समय भाषा न समझ आती हो लेकिन उनके हाव-भाव खूब पढ़ लिया करती कि वे मेरे लिए बहुत गलत सोच रखते थे, इंडस्ट्री में एक स्त्री के रूप में अपने सम्मान को बनाए रखने का उनका संघर्ष कम नहीं था। जैमिनी गणेशन यद्यपि परिवार को आर्थिक मदद दिया करते थे, पुष्पावल्ली को भी अपने प्रेमी से कोई शिकायत न थी, रेखा के अनुसार वे उनके प्रेम में पागल-सी थी उन्हें दुनियां की परवाह नहीं थी लेकिन जब जैमिनी ने सावित्री से दूसरी शादी की तो पुष्पावल्ली का दिल टूट गया, इसी दर्दनाक पृष्ठभूमि ने रेखा के जीवन की दिशा निर्धारित की, एक संकोची, सीधी, सरल रेखा को समय और परिस्थितयों ने अत्यंत जटिल बना दिया । जैमिनी गणेशन ने उनकी माँ का विश्वास तोड़ा, पिता-स्नेह की छत्र छाया से वंचित रखा, पिता शब्द से जुड़े प्रेम या पिता के एहसास पर वो कहती है कि ‘मुझे उसका अर्थ नहीं पता जब तक आप खुद कोई चीज टेस्ट नहीं करते, (अस्वाद नहीं लेते) अंतर नहीं समझ सकते’ स्कूल के दिनों को याद करते हुए वे भावुक होकर कहतीं हैं, एक पिता और तीन माओं के दर्ज़न भर बच्चे एक ही स्कूल में जाया करते थे, वो कभी-कभी अपने बच्चों को छोड़ने आया करते थे तब वे देखा करती थी अच्छा ये पापा है , पर उन्होंने कभी रेखा को स्कूल नहीं छोड़ा , क्योंकि ‘आई डोंट हैव अ चॉइस’ मुझे कभी यह मौका नही मिला कि वे मुझे स्कूल छोड़ने आते’, जैसा वे अन्य परिवारों में भी देखतीं रही पर अपनी माँ को पति के बिना स्वयं को पिता बिना देखा, इसलिए भानुरेखा का सपना था कि एक ‘घर’ होगा जिसमें ‘पति’ और ढेर सारे बच्चे होंगें, वे शबाना आज़मी का उदाहरण देती है कि ‘उन्हें एक सुरक्षित पारिवारिक माहौल मिला और वे जिस तरह पुरुषों से आत्मविश्वास से बात करतीं हैं, मैं हैरान होती हूँ, उन्हें फर्क नहीं पड़ता, आदमी है या औरत पर मैं सेल्फ कॉन्शियस हो जाती हूँ क्योंकि पिता के अभाव ने मुझे पुरुषों के प्रति सहज नहीं रहने दिया’ उनके अनुसार ‘पिता के बिना जीवन की यात्रा ऐसी है कि बिना नक़्शे के यात्रा करना’ एक पिता के माध्यम से आप पुरुष के मंतव्य को समझते हैं आप पुरुषों से डील करना सीखतें हैं पर ‘पिता यानी फादर का मेरे लिए अर्थ था चर्च वाले फादर’ पिता के लिए एक शब्द भी गलत बोले बिना अपने खालीपन को खूबसूरती से छिपा जाती हैं। पर उन्होंने पिता के उपनाम को त्याग दिया वे ‘अकेली’ रेखा रह गई और अपने परिवार, जिसमें उनकी माँ के अतिरिक्त उनके भाई बहन थे उनके लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया उनकी एक फ़िल्म ‘जीवन धारा’ उनके ममतामयी रूप को व्यक्त करने वाली महत्वपूर्ण फिल्म है जिसमें नायिका विवाह नहीं करती वहाँ ‘घर बसाने की कसक’ साफ़ दिखाई देती है। जब रेखा का विवाह नहीं हुआ था तब भी और पति की मृत्यु के भी बाद उन्होंने अपनी माँग को हमेशा सिन्दूर से सजाया जो किसी ‘व्यक्ति विशेष’ के नाम की मोहताज़ नहीं थी, विवाह पूर्व एक दफे नीतूसिंह ऋषि कपूर की शादी में वे सिन्दूर लगा कर पहुँची तो सभी को चकित कर दिया लेकिन रेखा ने कोई भी स्पष्टीकरण देना जरूरी नहीं समझा सभी अटकलें लगातें रहे और रेखा को कभी इस बात की परवाह नहीं थी कि लोग क्या कहेंगे? अपने एक इंटरव्यू में वे कहतीं हैं कि ‘उनकी मांग में किसी के नाम का सिन्दूर नहीं, बस मेरी माँग में सिंदूर जँचता है इसलिए लगाती हूँ’। यानी फ़िल्मी हस्ती होते हुए भी ‘सजना है मुझे सजना के लिए’ की धारणा को वे झटका देतीं हैं।
‘घर’ की तलाश में ‘सदा सुहागन’ ‘ख़ूबसूरत’ ‘उमराव जान’
‘घर’ को वे अपनी पसंदीदा फिल्मों में मानती है, इसके पूर्व अमिताभ के साथ ‘दो अनजाने’ के दौरान उनकी कार्यशैली और अनुशासन से वे प्रभावित हो चुकी थी उनके व्यक्तित्व में भी गंभीरता आई। ‘घर’ फ़िल्म का कथानक जिसमें एक स्त्री का दर्द कहीं न कही उन्हें बैचैन कर गया था उन्होंने माना कि ‘पहली बार लगा कि फिल्में मनोरंजन के अतिरिक्त समाज को सन्देश देने का उपयुक्त माध्यम है इसका सदुपयोग करना चाहिए’ सिम्मी ग्रेवाल अपने शो में एक 20 साल पहले के इन्टरव्यू की झलक दिखातीं हैं जहाँ वे उनसे पूछ रहीं है कि ‘20 साल बाद आप ख़ुद को कहाँ और कैसा देखती हैं? वो बिना सोचे बिंदास बोलतीं हैं ‘फैट!’ यानी एक मोटी महिला, यानी शादी के बाद एक भारी शरीर लिए वे अपने घर-परिवार की देखभाल कर रहीं होंगी। फ़िल्म ‘घर’ घर-परिवार की इस तलाश की बैचैनी को बहुत संजीदगी से दिखातीं हैं। फिल्म में नव दम्पत्ति के लिए घर सिर्फ़ एक चार दीवारों की छत भर नहीं है, फ़िल्म में दोनों का प्रेम, स्नेह, समर्पण अंत तक बांधें रखता है लेकिन बलात्कार के बाद नैतिकता की जंजीरों से बंधी सामाजिक सोच इस सुंदर, सुदृढ़ ‘घर’ की नींव हिला देती है, 70 के दशक के रोमानियत भरे माहौल में यह एक यथार्थवादी फ़िल्म है, जो बलात्कार के बाद लड़की के मनोविज्ञान के साथ-साथ उसके पति की मानसिक यन्त्रणा, बिखरे हुए घर को समेटने की जद्दोजहद, जिस आघात से नायिका जूझ रही है तो नायक भी उस दर्द से गुजर रहा है; उसे तथा समाज मनोविज्ञान को स्पष्ट करती है। फिल्म में बलात्कार का दृश्य किसी भी फ़िल्मी दृश्य की तरह उत्तेजित नहीं करता बल्कि करुणा का भाव उपजाता है। विनोद मेहरा और रेखा ने इस फिल्म के बाद शादी कर ली थी पर विनोद की माँ ने इस रिश्ते को स्वीकार नहीं किया कारण रेखा की पारिवारिक पृष्ठभूमि।लेकिन सिमी के शो में वे पहली बार इस बात का खंडन करते हुए कहती हैं कि ‘वे एक बहुत अच्छे मित्र थे’। आज उनका कहना है कि ‘अब तो उन्होंने अपने काम से ही विवाह कर लिया है’, उनका यह वक्तव्य भी पितृसमाज से टक्कर लेता है।उनके जीवन की विडम्बना को उनके आइटम सॉंग जो उन्होंने ‘परीणिता’ फ़िल्म में परफॉर्म किया से जोड़ा जा सकता है- नई नहीं ये बातें, ये बातें हैं पुरानी…कैसी पहेली है ये, कैसी पहेली जिंदगानी… थामा, हाँ रोका इसको, किसने हाँ, ये तो है बहता पानी …पल में हँसाएँ पल में रुलाये ये कहानी… कैसी पहेली है ये जिंदगानी ये है बहता पानी।’ इस बहते पानी को एक घर की चार दीवारी में कैसे बाँधा जा सकता है!
सौन्दर्य और शक्ति का ‘खबूसूरत’ मिलन
‘खूबसूरत’ (1980) फ़िल्म में रेखा एक ‘टॉम बॉय छवि’ के नये रूप के साथ अवतरित होतीं हैं, रेखा कहती है ‘वह रोल मेरे व्यक्तित्व के बहुत करीब था मैं वैसे ही थी, अपने घर-परिवार में बिंदास, बेफालतू में बोलने वाली, सभी से सभी तरह बेझिझक बात कर लिया करती थी लेकिन सामने वाला मेरे इस खुलेपन या अंग्रेजी में कहें फ्रैंक व्यवहार को गलत अर्थ में लेकर मेरे लिए गलत भी सोचते, शुरू में तो फर्क नहीं पड़ता पर धीरे-धीरे समझ आया कि अपने इस व्यवहार को रिज़र्व करना होगा’ फ़िल्म की नायिका जो सारे नियम तोड़, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाती है, खिलखिला कर हँसती है, पूरे परिवार यहाँ तक कि होने वाली सास के भी विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन करती है लेकिन चंचल, बिंदास हाजिर जवाब नायिका का पर्यवसान ‘एक अच्छी बहु बनाने’ की प्रक्रिया के साथ ही होता है, फिल्म का लक्ष्य ही था कि लड़कों की तरह खुली बिंदास लड़कियां घर भी संभाल सकती हैं! ‘घर’ जहाँ वह सबकी सेवा सुश्रुषा करे लेकिन वास्तव में यह रेखा का भी सपना रहा है कि अपने घर में वे किसी भी समर्पित भारतीय नारी की तरह एक सुंदर सफल जीवन का निर्वाह कर सकें। इसलिए 1986 में ‘सदा सुहागन’ की कर्तव्य परायण, त्याग, बलिदान की प्रतिमूर्ति गृहलक्ष्मी का महिमामंडन करने वाली रेखा नजर आई है, जो सुबह उठकर पति के पैर छूती है, शेविंग किट से लेकर टूथ ब्रश जूते पॉलिश सभी करती है, बच्चों को तैयार करके प्रसन्नचित्त गीत गाती है ‘मेरा घर स्वर्ग जैसा है और मेरे पति मेरे स्वामी हैं’ मुझे लगता है यह यह रेखा के सपनों का घर था।
उमराव जान
आँखों में शराब दिखी सबको, आकाश नहीं देखा कोई, सावन भादों तो दिखे मगर, क्या दर्द नहीं देखा कोई (गुलज़ार) उमराव जान की मस्त आँखों के हजारों मस्ताने हैं उनकी एक-एक अदा पर फ़िदा भी हजारों लाखों होंगे, लेकिन उमराव की जुस्तुजू से कौन वाबस्त है, ये आँखे किसे खोज रहीं हैं इस फ़िल्म में भी वे ‘घर की कसक लिए’ जी रही है। फिल्म में वे अपनी बचपन की साथी को वे कहती हैं कि यदि मेरा रंग तुमसे साफ़ होता तो आज तुम्हारी जगह मैं विवाहित होती। जब संयोग से वापस अपने घर लौटती हैं तो उमराव का भाई कहता है, तुम मर क्यों न गई और तब वे गीत में अपना दरद बयान करतीं है – ‘ये क्या जगह है दोस्तों ये कौन सा दयार है ..तमाम उम्र का हिसाब मांगती है जिन्दगी …ये मेरा दिल कहे तो क्या, ये खुद से शर्मशार है…न जिसकी शक्ल है कोई, न जिसका नाम है कोई इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इंतज़ार है’ । ‘उमराव जान फ़िल्म किसी भी स्त्री के जीवन की आकांक्षाओं और उसके दमन की व्यथा, दर्द और जीवन की विडम्बनाओं को संवेदनशीलता से पर्दे पर उतारती है जिसमें रेखा सर्वोपरि हैं तो अतिशयोक्ति न होगा, उनके अनुसार फ़िल्म में उन्होंने ‘अपने उस समय के अच्छे बुरे-दौर से गुजरने वाले अनुभवों को ही इस्तेमाल किया है, उनके व्यक्तिगत अनुभव प्रतिकूल समय-परिस्थितियाँ, सामाजिक मनोविज्ञान अथवा उनकी निजी अभिव्यक्ति और अपने जीवन से जुडी त्रासदियों को अपनी आँखों के माध्यम से उड़ेल कर रख दिया’ इस सन्दर्भ में जब फ़िल्म निर्देशक मुजफ्फर अली पूछा गया कि स्मिता पाटिल जैसी बेहतरीन अभिनेत्री के होते हुए रेखा क्यों तो उनका जवाब था कि ‘उसकी आँखे टूट जाने और फिर खुद को एक साथ खींच लेने के अनुभव बताती हैं, उसके पास वह ताकत और आकर्षण है जो उसे अपने अतीत के अनुभवों से मिले हैं’।
गठबंधन के बदसूरत निशान
घर बसाने की उनकी तीव्र इच्छा पूर्ण हुई भी पर उसमें ग्रहण लग गया। जब उनका विवाह हुआ तो उन्हें जल्द ही समझ आ गया कि स्वार्थ से बंधा यह संबंध टिक नहीं सकता साक्षात्कारों से अप्रत्यक्षतः समझ आया कि उनके पति उन्हें अपने बिजनेस से जोड़ना चाहते थे लेकिन रेखा तो मूलत: ‘घरेलू प्रवृति’ की हैं बस बिंदास लड़की का सुरक्षा कवच ओढ़े रहतीं हैं, उनके इनकार ने उनके पति को कमजोर कर दिया। जब मुकेश अग्रवाल ने आत्महत्या की तो रेखा सभी की दृष्टि में एकाएक खलनायिका बन गई जबकि हम जानते हैं आज भी घरेलु हिंसा के चलते सबसे ज्यादा महिलायें आत्महत्या करती हैं, जिन पर समाज बात नहीं करता, मुकेश की माँ ने कहा कि ‘वो डायन मेरे बेटे को खा गई’ पर यह लांछन तो हर उस बहू को सुनना पड़ता है जिसका पति उसके पहले मर जाता है ‘सदा सुहागन’ के आशीर्वाद का क्या अर्थ है बताने की जरूरत नहीं। फ़िल्मी हस्तियों ने भी रेखा के व्यक्तित्व पर नकारात्मक टिप्पणियाँ की किसी ने कहा कि रेखा ने एक ऐसे व्यक्ति को खोया है जिसने उसे उसके अतीत के साथ स्वीकार किया जो उसे सबसे ज्यादा प्यार करता था जैसा पहले कभी किसी ने नहीं किया जबकि मुकेश का कहना था उनके जीवन में भी एक एबी(AB) है। पति की आत्महत्या के बाद रेखा के जीवन और फ़िल्मी करियर दोनों को झटका लगा पर रेखा के अनुसार ‘उस समयावधि में मेरे मित्रों, अपनों, सभी ने इस सम्बन्ध पर जो प्रतिक्रियाएं दी उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा, मैंने बहुत कुछ अपने भीतर जज़्ब कर लिया, उन क्षणों ने मुझे और भी मजबूत बनाया आज मुझे खुद पर गर्व है कि मैं अपना वजूद बना पाई’ बड़ी मार्मिकता से कह उठती हैं “पति शब्द मेरे लिए पिता के समान पराया है” जबकि वे सदा सुहागन बनाना चाहती थी।
असीमित प्रेम की रेखा ‘जज्बात कहते हैं खामोशी से बसर हो जाए दर्द की जिद है कि दुनिया को खबर हो जाए’ अनेक रोमांटिक फ़िल्म करने वाली फिल्मों में रेखा को ‘सिलसिला’ पसंद है।आर्ट फिल्मों के यथार्थ पर वे त्वरित टिप्पणी करती हैं कि ‘इस तरह सिलसिला भी आर्ट फिल्म है क्योंकि यह एक रियलिस्टक फिल्म है’ इस फ़िल्म में उन्होंने अपने यथार्थ को उतारने का जोखिम उठाया ये जानते हुए कि पुरुष प्रधान समाज में बदनाम स्त्री ही होगी, विवाहेतर सम्बन्ध और पूर्व प्रेमिका की कसक से दर्शकों को बैचैन किया तभी दर्शक फिल्म के अंत से सहमत न हुए कि यह तो फ़िल्म थी इसमें दोनों का मिलन होना चाहिए था, शायद इसलिए फ़िल्म नहीं चली। सिमी ग्रेवाल के शो में रेखा ने अपने प्रेम से जुड़े कई पहलुओं पर खुलकर बात की इस बात का सिमी ने अतिरिक्त लाभ लिया इसलिए एक वक्त पर रेखा को कहना पड़ा कि ‘बाई द वे यह शो मेरे बारे में है या मिस्टर बच्चन का’ और जब ये कहा उनके बैठने का अंदाज़ बिलकुल अमिताभ की तरह था और यही सवाल जब सिमी ने अमिताभ से किया तो उन्होंने कहा ये अफवाहें जिस मीडिया ने फैलाई है आपको उन्हीं से पूछना चाहिए जबकि रेखा ने बहुत ईमानदारी से जवाब दिया वे कहतीं हैं ‘यह प्रश्न ही मूर्खता पूर्ण है’ इस तरह का प्रश्न किसी के भी जीवन का अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है जबकि हमारे लिए, यह गपशप, और मसालेदार खबर है। रेखा के अनुसार ‘ये तो कोई दूसरे ही तरह का प्रेम है माँ का, बहन का प्रेम, दुनियां भर के प्रेम रूपों को आप ले लीजिये और भी उसमें कुछ और प्यार मिला दे वह प्रेम उनके प्रति है दिल की गहराइयों से’ कुछ और प्यार ही बहुत कुछ कह जाता है।
अदर वीमेन का कलंक
वे अपनी माँ की तरह ‘अदर वीमन’ नहीं होना चाहती थी न ही किसी का ‘घर’ तोड़ना चाहती थी वे उदाहरण देती है ‘रोज़ यानी गुलाब अगर मैं गुलाब से प्यार करती हूँ तो वो जिस डाली पर है वहीँ करूगीं उसे तोड़ थोड़ी दूँगी’ फिर कहतीं हैं जैसे धर्म का आवरण है, कोई हिन्दू है मुसलमान है, (आप जोड़ सकते हैं जैसे कोई विवाहित हैं) तो सिर्फ इसलिए आप उसे प्यार करना नहीं छोड़ देंगे न! वह एक इंसान पहले है। ‘माइंड हार्ट एंड सोल’ से आप किसी व्यक्ति से जुड़ जातें हैं, मिलना ही जरूरी नहीं, सब चुनाव पर निर्भर करता है आप जो चुनते हैं वही आपके जीवन की दिशा निर्धारित करता है शायद यही कारण है उन्हें फिल्मों की मीरा भी कहा जाता हैं जिसने घर बार त्याग कर अपनी ही धुन में कृष्ण से टूट कर प्रेम किया। वैसे भी इस समाज में प्रेम के दो ही रूप स्वीकार्य है या तो दाम्पत्य प्रेम अथवा सूफियाना अथवा मीरा का-सा प्रेम। दाम्पत्य प्रेम में वे दोनों बार असफल रही।
सिंगल वीमेन का सम्मानजनक जीवन
यह सोचना कि रेखा उदास, त्रासद, दर्द में है क्योंकि वह सिंगल है? क्योंकि उनके बच्चे नहीं हैं? तो क्या एक महिला के लिए शादी और बच्चे सबसे महत्वपूर्ण चीज है? नहीं वह एक बेहद सफल, बहुत प्रतिभाशाली सफ़ल व्यक्तित्व हैं। आज रेखा भले ही एकाकी जीवन जीती है लेकिन उसमें अकेलापन नहीं है, जब जब जीवन में भूकंप आया हर बार मजबूत क़दमों के साथ नया सफ़र आरम्भ किया घर की संकल्पना पर वो कहती है “मैंने खुद से शादी की, अपने प्रोफेशन से शादी की, लड़के से नहीं, ये जरूरी भी नहीं है…मैं अकेली नहीं हूँ अकेलापन नहीं फील करती, अपनी मर्जी से स्वतंत्र जीवन बिता रही हूँ जहाँ जाना होता है, जाती हूँ जहाँ नहीं जाना होता नहीं जाती’ और ‘ये बस होता गया अगर एक भी मित्र है तो आप लकी हो माँ कहती थी’ शायद फरजाना वह एकमात्र उनकी मित्र है जो 1986 से उनके साथ है जिसके पास रेखा खुद को सबसे अधिक सहज, सुरक्षित और स्वच्छन्द महसूस कर पातीं हैं । बीबीसी पर वे एक गज़ल से अपना साक्षात्कार आरम्भ करती हैं जिसे मैं लेख का अंत करना चाहती हूँ ‘मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे ना जाने मुझे क्यों यक़ीं हो चला है मेरे प्यार को तुम मिटा ना सकोगे’ ये अडिग रेखा कभी भी मिट नहीं सकती।