नेताजी सुभाषचंद्र के प्रेरणापुरुष थे स्वामी विवेकानंद
भारतीय स्वाधीनता के विराट यज्ञ में जिन महान विभूतियों ने अपना तन-मन-धन न्योछावर कर दिया, नेताजी सुभाषचंद्र बोस ऐसे अग्रगण्य लोगों में अग्रणी थे। आज भी देश की उन्नत्ति तथा अग्रगति के लिए ऐसे असंख्य युवकों की आवश्यकता है, जो पूर्ण नि:स्वार्थ भाव से राष्ट्र-हित में अपना सर्वस्व बलिदान करने को प्रस्तुत हों। नेताजी का जीवन औऱ व्यक्तित्व आज भी देश के नवयुवकों के समक्ष एक आलोक स्तम्भ की भाँति दंडायमान होकर अजेय और प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस एक ऐसे सर्वकालिक नेता थे, जिनकी जरूरत कल भी थी, आज भी है और आने वाले कल को भी रहेगी। वह ऐसे वीर सैनिक थे, जिनकी गाथा सदा भारतीय इतिहास के अमर पन्नों में गाया जाता रहेगा। उनके विचार,कर्म और आदर्श युवा पीढ़ी के लिए सदा प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे। वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अमर सेनानी और भारत माँ के सच्चे सपूत थे।
नेताजी स्वाधीनता संग्राम के उन योद्धाओं में सुमार है जिनके जीवन से प्रेरणा लेकर आज भी करोड़ों देशवासी मातृभूमि के लिए समर्पित हो जाना चाहते हैं। उनमे नेतृव के चमत्कारिक गुण थे। जिनके बल पर उन्होंने आजाद हिंद फौज की कमान संभाल कर अंग्रेज़ों को भारत से निकाल बाहर करने में सशक्त भूमिका अदा की।
यह बहुत कम लोग जानते हैं कि नेताजी को “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” अपना सम्पूर्ण जीवन होम कर देने की प्रेरणा स्वामी विवेकानंद से मिली थी।
बड़े विस्मय की बात है कि जिन दिनों स्वामी विवेकानंद राष्ट्र के पुनर्गठन हेतु नवयुवकों का आह्वान कर रहे थे और नारा दिया था *-हमारा देश ही हमारा जागृत देवता है। इसकी सुरक्षा हमारा सर्योपरी दायित्व है।*
उन्ही दिनों 23 जनवरी 1897 ई को कटक (उड़ीसा) में सुभाषचंद बोस का जन्म हुआ था। उनके पिता जानकीनाथ और माता का नाम प्रभावती देवी था।
नेताजी जब पंद्रह वर्ष के थे उसी समय स्वामी विवेकानंद ने उनके जीवन में प्रवेश किया। उसके पश्चात नेताजी के भीतर उथल-पुथल मच गयी। एक क्रांति घटित हुई। वैसे तो स्वामी जी को समझने में उन्हें काफी समय लगा। परन्तु कुछ बातों की छाप उनके मन में शुरू से ही ऐसी पड़ी कि कभी मिटाए न मिट सकी। नेताजी को स्वामीजी की कृतियों में उस अनेक प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर मिल गए जो उनके मन और मष्तिस्क में उस समय घुमड़ रहे थे। उसके पश्चात वे स्वामी जी के बताये मार्ग पर विचार करना आरंभ कर दिया। इसके पश्चात स्वामीजी से सम्बन्धित अनेकों साहित्य का उन्होंने अध्ययन किया। जिससे उनके सोचने समझने का तौर तरीका बिल्कुल बदल गया। उनके चिंतन में उन दिनों आये परिवर्तन की स्पष्ट छाप और ईश्वर तथा राष्ट्र के लिए जीवन उत्सर्ग कर देने की अदम्य लालसा की झलक उनके अंदर दिखाई पड़ने लगे थे।
इन्हीं दिनों कटक से सुभाष बाबू ने अपनी माता जी को 8-9 पत्र लिखे थे। जिनमे उनके चिंतन में आये परिवर्तन की झलक दिखती है। एक स्थान पर वे लिखते हैं- “ईश्वर का अनुग्रह कम नहीं है। देखो तो जीवन में हर क्षण उनके अनुग्रह का परिचय मिलता है। ….विपत्ति में लोग ईश्वर का स्मरण करते हैं पर जैसे ही विपत्ति समाप्त होती है और सुख के दिन आते हैं, हम ईश्वर का स्मरण करना भूल जाते हैं। उसी कारण कुंती ने भगवान से कहा था कि हे ईश्वर तुम मुझे सदैव विपत्ति में रखना, तब मैं सच्चे हृदय से तुम्हे स्मरण करूँगी। सुख ;वैभव में तुमको भूल जाउंगी, इसिलए मुझे सुख मत देना।”
ऐसे कई उदाहरण हैं जिससे स्पष्ट होता है कि वे अधिकांशतः स्वामी विवेकानंद की ही वाणी को अपने शब्दों में दुहरा रहें हैं। इसके पश्चात उनका जीवन ही बदल गया। जब उनमे इस परिवर्तन को उनके माता पिता ने गौर किया तो वे डर गए और किशोर सुभाष को डांटा-फटकारा। परन्तु दृढ़ निश्चयी सुभाष को उनके चुने पथ से डिगा पाना भला किसके बस की बात थी। अब वे ध्यान, योग और ब्रह्मचर्य आदि से सम्बन्धित विषयों का अध्ययन और साधनायें करने लगे। गुरु अथवा पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता का बोध होने के कारण वे नगर में आने-जाने वाले साधु-सन्यासियों से मेल-जोल बढ़ाने लगे। इसके पश्चात उन्होंने अपने चित्तशुद्धि हेतु अपना ध्यान सेवाकार्य की ओर ले गए। क्योंकि उन्हें समझ में आने लगा था कि आध्यात्मिक विकास के लिए समाज सेवा जरूरी है। यह भाव सम्भवत: विवेकानंद के अध्ययन से ही पनपा था।
सुभाष बाबू ने वर्ष 1913 ई. में मैट्रिक की परीक्षा में पूरे बोर्ड में द्वितीय स्थान प्राप्त किया था। उसके बाद उच्च शिक्षा हेतु उन्हें कोलकाता भेजा गया। जहाँ प्रेसिडेंसी कॉलेज के नाम से विख्यात कोलकाता के सर्वश्रेष्ट महाविद्यालय में सुभाष को दाखिला मिला। 1919 में उन्होंनें बीए और 1920 में आइ.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी।
वर्ष 1920 में वे राष्ट्रीय युवा काँग्रेस के उग्र नेता कहलाने लगे। 1921 में वे उच्च पदस्थ सरकारी नौकरी से त्याग पत्र देकर राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। इसके बाद 1927 में इन्हें औऱ पंडित जवाहरलाल नेहरु को काँग्रेस के महासचिव के रूप में चुना गया। तत्पशचात बोस को 1938 और 1939 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। परन्तु 1939 में उन्हें महात्मा गांधी से विवाद के कारण अपने पद को छोड़ना पड़ा। लेकिन 1940 में भारत छोड़ने से पहले ही उन्हें ब्रिटिश ने अपने गिरफ्त में ले लिया था। अप्रैल 1941 में बोस को जर्मनी ले जाया गया। वहाँ भी उन्होंने अपनी बहादुरी का परचम लहराना जारी रखा।
जर्मनी में उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता अभियान की बागडोर संभाली और भारत को आजादी दिलाने के लिए लोगों को एकजुट करने लगे। जर्मनी में रहकर उन्होंने नवम्बर 1941 में जर्मन पैसों से ही बर्लिन में इंडिया सेंटर की स्थापना की और कुछ ही दिनों बाद फ्री इंडिया रेडियो की स्थापना भी कि जिसपर रोज रात को बोस अपना कार्यक्रम किया करते थे। बाद में जापानियों के आहयोग से बोस ने इंडियन नेशनल आर्मी का गठन किया। जिसमें ब्रिटिश इंडियन आर्मी के भारतीय सैनिक भी शामिल थे। जिन्होंने सिंगापुर के युद्ध में अपनी अदम्य साहस का परिचय दिया। उन्होंने लोगों से गुजारिश की थी कि “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।”
सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु के इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी रहस्य बना हुआ है। नेताजी की मृत्यु हवाई दुर्घटना में मानी जाती है। समय गुजरने के साथ ही भारत में भी अधिकांश लोग ये मनाते हैं कि नेताजी की मौत ताइपे में विमान हादसे में हुई। कहा जाता है कि 18 अगस्त 1945 को एक विमान से टोकियो जाने के लिए निकले, वह विमान ताइहोकू द्वीप के हवाई अड्डे के पास दुर्घटना हो गयी। इस दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु हो गई।