अदम्य ज्योति और हम
गहरी वेदना से गुजर कर काँपती कलम से ही यह अनुभव लिखना संभव हो पा रहा है। वेदना है सपनों और हौसलों से भरी एक सुन्दर, मासूम लड़की के अथाह, अंतहीन दर्द से गुजरने की। साथ ही शर्म भी है ऐसे समाज का हिस्सा होने की जहाँ ऐसी जघन्य हिंसा सरेआम की जा सकती है और अपराधी के जीवन पर, उसकी दैनिक चर्या या सामाजिक हैसियत पर कोई खरोंच तक नहीं आती। वह पहले की तरह दफ्तर आता जाता, सहकर्मियों और पड़ोसियों से मौसम और देश-समाज पर चर्चा करता है, घर पहुँचने पर बच्चों को गोद में उठा कर थकान मिटाता है। मित्रों के बीच वह कोमल मानवीय भावनाओं के पक्ष में रटे रटाये वाक्य दुहराता हो तो भी आश्चर्य नहीं। दूसरी ओर अपराध की शिकार पीड़िता बेपनाह दर्द से छटपटाते हुए सड़क पर घंटों पड़ी रहती है। जहाँ हर पल कीमती है, साँसें दर्द में डूब रही हैं, शरीर के हिस्से सुन्न होते हुए साथ छोड़ रहे हैं, न प्रशासन आगे आता है न राहगीर। पुलिस वाले उदासीन बने रहते हैं और डाक्टरों के चेहरे बेगाने और सपाट।
2 फरवरी 2008 को नोएडा में अल्मोड़ा की अठारह साल की कविता बिष्ट पर एक बर्बर मानसिकता के शख्स ने एसिड फेंक दिया। इलाज मिलने में देरी के चलते उसे इतना कुछ खो देना पड़ा कि उसके बाद जीना ही अपने आप में एक अंतहीन संघर्ष बन गया। उन्हें दोनों आँखें, आधी नाक और एक कान का आधा हिस्सा खोना पड़ा, अन्य हिस्सों पर जो अमिट दाग लगे, वे अलग। खूबसूरत चेहरा बिगड़ गया। मन पर, आत्मा पर जो जख्म लगे, उनका लेखा जोखा तो मुमकिन ही नहीं। जीवन भर उसे इन जख्मों के साथ ही जीना है। सड़क से उठा कर अस्पताल पहुंचाए जाने, इलाज या संवेदनशील व्यवहार मिलने, पुलिस में शिकायत दर्ज होने आदि प्रक्रियाओं में आम नागरिक और प्रशासन की जितनी कड़ियाँ जुड़ती हैं, किसी ने भी अपना कर्त्तव्य निभाना तो छोड़ें, न्यूनतम मनुष्यता भी नहीं दिखाई। कोई कलेजा उसकी चीखों से छलनी नहीं हुआ। दिलों पर दर्द की दस्तकें नाकाम रहीं।
तमाशबीनों में से कुछ में शायद करुणा उमड़ी हो पर इतनी और ऐसी नहीं कि ‘कर्म’ में तब्दील हो सके। फिर भी कुछ सहारा देने वाले हाथ और उसकी यातना में, और बाद में उसके इरादों की यात्रा में, कुछ हमकदम मिले वर्ना आँखें गँवा चुकी कविता दूसरों की रोशनी कैसे बनती? इन्हीं कुछ लोगों के बारे में देख-सुन कर उम्मीद बँधती है कि निरंतर कोशिशों से शायद कभी ऐसा समाज बने जहाँ ऐसी हिंसा आम न हो और कभी कोई हादसे का शिकार हो तो भी उसका दर्द सबका दर्द हो। पता नहीं यह चेतना समाज में कब आएगी कि कोई भी अपराध हो, वह समाज के प्रति होता है और यह पूरे समाज का सरोकार होना चाहिए कि अपराधी को यथोचित दंड और पीड़ितों को समुचित इलाज और त्वरित न्याय मिले। ऐसा होता तो ऐसी हिंसक वारदातों पर अंकुश लगता और कई मासूस जिंदगानियाँ बच सकतीं। अब भी हम सजग हो सकें तो ऐसी वारदातों पर विराम लग सकता है। पीड़ितों के लिए सुगम, गरिमामय जीवन के रास्ते खुल सकते हैं।
मुंबई के सैंट जेवियर कॉलेज के राजनीति विज्ञान की विभागाध्यक्ष और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. प्रतिभा नैथानी एसिड अटैक पीड़ितों के लिए काम करने वाली संस्था ‘रिकंस्ट्रक्टिव सर्जरी फाउंडेशन’ से सम्बद्ध हैं। उनके मुताबिक अगर कविता को समय से इलाज मिलता तो वे बेहतर स्थिति में होतीं और शायद आँखें न गंवानी पडतीं। 2008 में एसिड अटैक संबंधी कानून ऐसा लचर था कि न अपराधी को सजा हुई और न कविता को कोई मुआवजा मिला। अब जरुर कुछ चेतनासंपन्न लोगों द्वारा इस दिशा में किए गए सक्रिय प्रयासों से अपराधी को सजा दिलाने के लिए कठोर कानून बने हैं और उनमें पीड़ितों को मुआवजा दिए जाने का भी प्रावधान है। मगर उनकी पीड़ा के सामने यह राहत नाकाफी है।
वर्तमान में अपनी अदम्य जीवनी-शक्ति के बल पर कविता बिष्ट आत्मविश्वास से भरी ऐसी स्वाभिमानी स्त्री के रूप में हमारे सामने हैं, जो न केवल आत्मनिर्भर हैं बल्कि अन्य कई जिंदगियों का संबल भी। वे हल्द्वानी में स्त्रियों के लिए ‘कविता होम’ चलाती हैं। दिव्यांग बच्चों को पढ़ाती हैं, उनका मार्गदर्शन करती हैं। 2015 में नारी सशक्तीकरण के लिए उत्तराखंड की ‘ब्रांड अम्बेसडर’ बनी कविता बिष्ट अनेक पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं। विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए समाज में चेतना फैलाने का काम करती हैं।
जैसे दो दिन पहले ही ‘विदुज बैटन’ के साथ अपनी लाइव बातचीत में उन्होंने संदेश दिया कि किसी से दुर्वचन न बोलें, अगर सहयोग न कर सकें तो भी नकारात्मक शब्दों से किसी का मनोबल न तोड़ें, आचरण और भाषा में इतनी क्रूरता न बरतें कि किसी का दिल छलनी हो जाए। मन पर कुबोलों या कुशब्दों का असर एसिड से भी घातक होता है। एसिड के प्राणघातक प्रहार को वे बरदाश्त कर सकीं लेकिन अन्यों के या उनके स्टाफ के सामने बोले गए अपमानमूलक शब्द कहीं अधिक तकलीफदेह साबित हुए। नतीजे में अवसाद की जद में आकर उन्होंने एक बार आत्मघाती कदम तक उठा लिया।
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कविता बिष्ट जिंदादिल मिजाज की खुशदिल जुझारू महिला हैं, और सर्वानुमति की परवाह न करके सामाजिक सरोकार के कामों में मुस्तैदी से लगी रहती हैं। लोगों की फब्तियों या फिकरों से वे न आत्मविश्वास खोती हैं, न कर्त्तव्य से डिगती हैं। जानती हैं कि लगातार किए जाते शाब्दिक, मानसिक आघातों के सामने वे कमज़ोर पडीं तो दर्द से बाहर आकर खुद को बटोरने और समेटने का पूरा सफ़र और इस सफ़र में हमसफ़र रहे लोगों के प्रयास निरर्थक हो जाएंगे।
ऐसा दर्द, जो किसी पैमाने में न समाये और जिसका कोई अंत नज़र न आये – उस दर्द से कोई जीवट का व्यक्ति ही साबुत इंसान की तरह बाहर आ सकता है। इस दर्द से लड़ने के लिए अपने ही भीतर से हासिल की गई उनकी संकल्पशक्ति ही उनका संबल है। इसी कारण वे दूसरों और अपने बारे में अच्छा सोचती हैं। कहती हैं “मुझे अपना काम और चेहरा बहुत पसन्द है। इसीलिए फेसबुक में भी कभी पोस्ट डालती हूँ तो सबसे पहले खुद ही लाइक कर देती हूँ। हम खुद को पसन्द करते हैं, तभी बाकी लोग भी हमें पसन्द करते हैं। मैं खुद को क्यों न पसन्द करूँ जब मेरे चेहरे में आत्मविश्वास और संकल्पशक्ति की चमक है।” फिर भी कभी-कभी कुछ बातें मन को भीतर तक छील जाती हैं। वह जोर देकर कहती हैं कि भाषा की हिंसा किसी भी अन्य हिंसा से बड़ी होती है।
अन्य पीड़ितों और वंचितों को संरक्षण देने वाली ऐसी बहादुर स्त्री को, जिसने अपने जीवन को सार्वजनिक सरोकारों के साथ एकाकार कर लिया है, समाज के रवैये से निबटने में इतनी ऊर्जा क्यों व्यय करनी पड़ती है? व्यवस्था ने उनके जज्बे का संज्ञान लिया है, उन्हें सम्मानित किया है – फिर भी दुर्व्यवहारों का सिलसिला नहीं रुकता। इसकी जड़ में हमारे समाज में गहरे व्याप्त ‘विषमता की हिंसा’ है। वर्ग, वर्ण, धर्म, जेंडर के नाम पर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों का ही शासन चलता है।
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वर्चस्वशाली वर्ग अपने मातहतों को अपने विकास के लिए माध्यम भर समझता है। विडम्बना यह है कि लोगों को माहौल में धूल के कणों की तरह सर्वदा, सर्वत्र व्याप्त इस हिंसा का एहसास ही नहीं है। यह न हिंसा करने वाले को दिखाई देती है न सहने वाले को। बीच-बीच में जब विषमता का यह रोग भीषण हो कर फूटता है, तभी लोगों का ध्यान इस पर जाता है। एक विषमतामूलक समाज में आम आदमी का समय और संसाधन सहज स्वाभाविक दीखती प्रक्रियाओं में अन्यों द्वारा हड़पे जाते रहते हैं तो बड़ी दुर्घटनाओं में भी न्याय कम ही मिल पाता है। हिंसा के मूल कारणों की समझ जनता की बने, इसके लिए जितने प्रयासों की जरूरत थी, नहीं हुए। सूचना विस्फोट के इस युग में मध्यवर्ग के लिए यह भूमिका निभाना सुविधाजनक था, लेकिन इस वर्ग की चेतना प्रचंड उपभोक्तावाद के द्वारा लील ली गयी। सामंतवाद के साथ पूँजीवाद के अनूठे गठजोड़ ने ऐसा समाज बना डाला है कि कभी-कभी लगता है कि जितने घर या संस्थाएं हैं उतने ही राज्य हैं और उतने ही महामहिम।
मैं पढ़े-लिखे परिवार की उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्री हूँ, फिर भी साढ़े तीन दशकों तक विषमता के ढाँचे का एहसास नहीं कर सकी। इसके बाद भी ‘पितृसत्ता’ एक दूरस्थ चीज थी, जिसका सम्बन्ध किसी दूसरे लोक की स्त्रियों से था। अपने भीतर बाहर और चारों ओर उसे महसूस करने में चार दशक निकल गए। जिन लोगों के साथ कच्ची उम्र में या घर-परिवार की सीमित चौहद्दी में रहते हुए इतने भीषण हादसे हो जाते हैं और जिनकी सारी ऊर्जा सामान्य दिनचर्या को जीने में ही खर्च हो जाती है – उनमें से कविता जैसे कुछ ही होते हैं जो सामाजिक कार्यों में अपनी पीड़ा और आकांक्षाओं को घुला देते हैं। इस समय विकलांगों को दी जाने वाली 1000 रुपये की मासिक पेंशन ही उनकी आय है।
लिहाजा ‘कविता होम’ चलाना और अपना भरण-पोषण ही बहुत मुश्किल से हो पा रहा है। बेशक जिंदगी की बुनियादी जरूरतें ही प्राथमिक हैं और सबसे पहले समाधान मांगती हैं – लेकिन दूसरी ओर यह भी सच है कि समाज के ढांचे में रची बसी ‘विषमता की हिंसा’ के बोध और उसकी सही समझ के बिना न अपने को बनाए रखना संभव है न समाज तक व्यापक पहुँच बनाना। पता ही नहीं चलता कि आखिर नौका बीच भंवर में क्यों डूबी, या सफ़र किसी निर्जन द्वीप में क्यों ख़त्म हुआ। इसलिए ऐसे संस्थानों में वैज्ञानिक चेतना, संविधान, इतिहास, जाति और जेंडर के शिकंजों का बोध विकसित करना बहुत जरूरी है। फिक्र ‘कविता होम’ के भौतिक संसाधनों की भी है मगर इस खोज में भी हूँ कि यह चेतना विकसित करने का क्या तरीका हो सकता है। आपके पास सुझाव हों तो बताएँ ……