नाटक : एकल का वृहद संसार
अब एकल कोई अंजान शब्द नहीं रहा। आये दिन नगरों-महानगरों व राजधानियों में एकल मंचित होते रहते हैं। पिछले कुछ नाट्य महोत्सवों में तो एकल प्रस्तुतियों की भरमार रही । अब तो इसका एक क्रेज़ सा बन गया है। हर महत्वपूर्ण कलाकार कोई न कोई एकल ज़रूर करना चाहता है, जैसे बिना एकल उसका रंग जीवन अधूरा सा है। फ़िल्मों के नामी-गिरामी अभिनेता भी इसकी लोकप्रियता से बचे नहीं हैं। अपने व्यस्ततम स्केड्यूल से वक़्त निकालकर आये दिन कोई न कोई एकल करके स्वयं को सिद्ध अभिनेता साबित करते रहते हैं।
एकल की एक लम्बी परंपरा है पर इस विधा पर केन्द्रित होकर कार्य न हो पाने के कारण पिछले कुछ सालों से मुख्य धारा से ये विधा दूर कटी रही। अभी भी इसके संबंध में जो अवधारणायें हैं वो धुँधली हैं तथा तरह-तरह के भ्रम से भरी हुई हैं। कई पुराने रंगकर्मियों को ये कहते सुना है कि एकल की कोई परम्परा नहीं है। ये आयातित है या एकल कोई नाटक ही नहीं है। महज एक प्रयोग भर है जो औरों की तरह कुछेक वर्षों तक चलने के बाद ठंडा पड़ जायेगा। कुछेक समीक्षकों ने तो कहा कि दिनांदिन बढ़ते ख़र्चे के चलते कुछ निर्देशक इसे आसान रास्ता मानते है। पर ये विधा कोई लम्बा सफ़र तय कर पायेगी या अपने लिये कोई विशेष स्थान बना पायेगी, ऐसा नहीं लगता। अर्थात् अभी भी कइयों के लिए एकल एक ग़ैरपारंपरिक व कोई आधुनिक प्रयोगवादी विधा है जबकि वास्तविकता कुछ और ही है।
एकल विधा कोई हाल-फ़िलहाल की उत्पत्ति नहीं है। अपने देश या विदेशों में ढूँढें तो इसकी जड़ें काफ़ी गहरी व पुरानी मिलेंगी। जब भी ऐसे सवाल उठते हैं तो 534 ई.पू. उस अभिनेता का प्रस्तुत अभिनय दृश्य आँखों के सामने ऐसे उभर आता है मानों पुनः वो दृश्य दोहराया जा रहा हो। प्रस्तुति देखने के लिए चारों तरफ़ दर्शक खड़े हैं। उनके सामने है कोरस दल। कोरस के मध्य किसी गाड़ी पर प्रथम ग्रीक अभिनेता थेसपिस खड़ा है। वो ऊँचाई पर है जिससे वो कोरस से बिल्कुल पृथक नज़र आ रहा है। दूर-दूर तक दर्शकों को स्पष्ट दीख रहा है तथा बेहतर रूप से आवाज़ पहुँचा पाने की सुविधा महसूस कर रहा है। तभी कोरस दल का नेता थेसपिस की ओर मुड़ता है। उसकी थेसपिस से कुछ बात होती है और उसी मुहूर्त नाटक का जन्म होता है।
रंगमंच की शुरुआत ही एकल से हुई है। इसका उदाहरण है ग्रीक अभिनेता थेसपिस की प्रस्तुति प्रक्रिया। वो एक घुमन्तू कलाकार था। एक बैलगाड़ी या भैंसागाड़ी जैसे वाहन पर अपना सारा सामन लादकर एक शहर से दूसरे शहरों तक निरंतर नाट्य यात्रा करता रहता था। चौराहों, बाज़ारों और धार्मिक स्थलों के बाहर जहाँ काफ़ी तादाद में लोगों का हुज़ूम होता था, वहाँ वो अपने वाहन पर खड़ा होकर अभिनय करने लग जाता था। वो अकेला प्रदर्शन के दौरान कई भूमिकाओं का अभिनय करता था। इसलिए पात्रों के बीच भिन्नता लाने के लिए वो तरह-तरह के मुखौटों का इस्तेमाल किया करता था या अन्य किसी सामग्री के सहारे चरित्रों को जीने प्रयास करता था। लेकिन थेसपिस अभिनय स्थल पर होता अकेला ही था। बाद के दिनां में भी यूनानी रंगमंच जब विकसित हुआ तब भी अभिनेताओं की संख्या में अधिक वृद्धि नहीं हुई। कुछेक अभिनेताओं के द्वारा ही पूरा नाटक मंचित हो जाता था। भले ही कोरस की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई हो, पचास-पन्द्रह या बारह …
क़िस्सा-कहानी शुरू से ही लोगों को भाता रहा है। इसी को कहने के लिए कोई उपन्यास का सहारा लेता है तो कोई महाकाव्य या फिर पूर्णकालिक नाटक का। एकल का मूल आधार प्रारंभ से ही कोई न कोई धार्मिक-ऐतिहासिक व सामाजिक घटना व कहानी रहा हैं कथा कहने व दिखाने की परम्परा हमारे यहाँ बहुत पुरानी है। देश की अधिकतर जो प्राचीन लोक शैलियाँ हैं, सब कहीं न कहीं कथा के उद्गार का माध्यम हैं। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड के 94वें सर्ग में वर्णित लव और कुश का काव्यगान एकल परम्परा का उत्कृष्ट उदाहरण है। लव और कुश राजा रामचन्द्र के दरबार में वाल्मीकि की रचना को गायन और वाचन द्वारा ऐसी कुशलता से प्रस्तुत करते हैं कि उपस्थित लोगों के सामने कथा सारे दृश्य उपस्थित हो जाते हैं। संस्कृत के महान् नाटककार भवभूति ने अपनी कालजयी रचना ‘उत्तररामचरित’ में इसी प्रसंग को इतना जीवंत रूप से लिखा है कि राम अपने ही पात्र का अभिनय देखते-देखते भावना के सागर में इस तरह बह जाते हैं कि मूर्च्छित हो जाते हैं।
तात्पर्य ये कि जो लोग एकल को एक आयातित नाट्य विधा मानकर यहाँ की जड़ों से काटना चाहते हैं उन्हें ज़रा परिश्रम करके यहाँ की समृद्ध परम्पराओं के अंदर झाँकने की आवश्यकता है। बिहार व उ0प्र0 के गाँवों में बहुरूपिया खेल न जाने कितने वर्षों से आज भी किसी न किसी रूप में ज़िंदा है। मध्यप्रदेश की पंडवानी शैली में अभिनय करने वाला कलाकार अकेला ही होता है। केवल हाथ में कोई पारंपरिक वाद्ययंत्र और पीछे पंक्तिबद्ध बैठे कोरस के गायन-वादन के सहारे महाभारत, रामायण या दूसरे धार्मिक आख्यानों को गा-गाकर बीच-बीच में संवाद बोलकर तो कभी आंगिक अभिनय कर हज़ारों दर्शकों के बीच इतने प्रभावशाली ढंग से रखता है कि दर्शक कई दिनों तक, रात में लगातार सुनते रहते हैं। ऐसी ही परंपरा राजस्थान की बातपोश, पाबूजी की पड़, गुजरात की आख्यान शैली और बुन्देलखण्ड की लोकप्रिय वाचन और गायन शैली आल्हा ऊदल है।
और एकल अभिनय की परंपरा केवल कथा वाचन या गायन शैली वाले लोक नाटकों में ही नहीं, संस्कृत नाटकों में भी ख़ूब नज़र आती है। नाट्यशास्त्र में भाण का उल्लेख कई स्थानों पर है तथा इस शैली पर लिखे गये कई नाटक आज भी उपलब्ध हैं। केरल की परंपराशील नाट्य शैली कुडियाट्टम में कूत्त के नाम से एकल अभिनय की एक लंबी परंपरा बरसों से विद्यमान है। कुडियाट्टम का अर्थ है सामूहिक अभिनय और कूत्त एकल अभिनय का पर्याय है।
नाटकों के अंदर एकल अभिनय एक लम्बे अरसे से प्रयोग में है। स्वगत, कथोपकथन के रूप में कलाकार लंबे-लंबे संवाद बोलता है। संस्कृत नाटकों में कई ऐसे स्थल हैं जहाँ अभिनेता देर-देर तक अकेला अभिनय करता दिखता है। कालिदास के विक्रमोर्वशीयम् नाटक का चौथा अंक जिसमें नाटक के नायक पुरुरवा का पन्द्रह-बीस पृष्ठों में फैला मोनोलॉग है, इसी विधा की एक कड़ी है। शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम में भी ऐसा ही एक प्रसंग है, जब विदूषक चारुदत्त का संदेश लेकर वसंतसेना के घर जाता है और वहाँ के विभिन्न कक्षों एवं वहाँ की सज्जा का रोचक ढंग से एकल रूप में वर्णन करता है कि दर्शकों के सामने कोई मंच सज्जा न होते हुए भी होने का आभास हो जाता है। विशाखदत्त के मुद्राराक्षस में चाणक्य के कुछ स्थानों पर लम्बे-लम्बे स्वगत हैं जो एकल सदृश्य हैं। पश्चिम में शेक्सपियर के कई नाटकों में लम्बे-लम्बे सॉलीलोकी हैं जिन्हें देर-देर तक मंच पर कलाकार अकेला रहकर अपने अंदर के द्वन्द्व को अभिनय कर विभिन्न कलाओं से प्रकट करता है।
ऐसा नहीं है कि इस तरह के प्रयोग केवल प्राचीनकाल में होते रहे हैं। आज भी हो रहे हैं। छठे-सातवें दशक में मराठी के प्रसिद्ध नाटककार पु.ल. देशपांडे ने अपनी एकल प्रस्तुतियों से महाराष्ट्र तथा अगल-बग़ल के राज्यों में लोगों के बीच काफ़ी लोकप्रिय बनाया और विभिन्न प्रकार के प्रयोगों से इस परम्परा को समृद्ध किया। सातवें दशक में तृप्ति मिश्रा ने अपराजिता शीर्षक से एकल अभिनय की यादगार प्रस्तुति की। अभिनेत्री रोहिणी हट्टंगड़ी ने इसी नाटक को हिन्दी में देश के विभिन्न शहरों में किया। इसी क्रम में आशीष विद्यार्थी अपने बहुचर्चित एकल ‘दयाशंकर की डायरी’ और सरिता जोशी ‘सकूबाई’ को लेकर चर्चा का विषय बने हुए हैं। नसीरुद्दीन शाह और पीयूष मिश्रा पिछले कुछ वर्षों से लगातार हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा में एकल प्रस्तुतियाँ करके दर्शकों की एक बड़ी संख्या को प्रेक्षागृह तक खींचने में सफल रहे हैं और ये क्रम केवल स्थापित रंगकर्मियों द्वारा ही नहीं, छोटे शहर के शमीम आज़ाद, कृष्ण कुमार श्रीवास्तव और मनीष मुनि जैसे प्रतिबद्ध रंगकर्मियों द्वारा भी एक मुहिम के तहत जारी है।
कई कारणां से एकल का ज़ोर पकड़ रहा है। जिस तरह आजकल प्रेक्षागृह के किराये में वृद्धि हो रही है, नाटक के मंचन पर प्रशासनिक स्तर पर अड़चनें आ रही हैं, उसका परिणाम हमें स्पष्ट देखने को मिल रहा है। रंगमंच के कलाकारों का फ़िल्म व टेलीविज़न के धारावाहिकों की ओर पलायन हो रहा है या फिर सत्ता के गलियारे में चप्पलें घिसटते-घिसटते किसी राजनीतिक पार्टी का मोहरा बनते जा रहे हैं। एकल जिसको करने में नाटक की तुलना में ज़्यादा प्रबंधकीय कार्य की ज़रूरत नही होती, कम लागत और कम लोगों की सहायता से आसानी व सुक़ून से करना संभव है। लेकिन एकल को करने के पीछे यही तर्क सीमित नहीं है। समाज के प्रति ज़िम्मेदारी और चेतना के प्रसार में एक कारगर माध्यम भी एकल करने की एक ठोस वजह है। लेकिन एकल के माध्यम से कुछ करने का उद्देश्य अधिकतर कलाकारों के लिए महत्वपूर्ण नहीं होता है। आये दिन ऐसे कलाकर आते हैं जो कहते है कि कोई एकल तैयार करा दीजिए। नाटक तो बहुत कर लिया, अब एक एकल भी हो जाय।
एकल कोई चटनी नहीं है जिसे स्वाद बढ़ाने के लिए कभी-कभार कर लिया जाय। एकल करने वाले कलाकार जितना आसान समझते हैं, उतना है नहीं। इसके लिए कलाकार को एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना होगा। जिसके पास अभिनय का लंबा अनुभव न हो या प्रशिक्षण न हो (प्रशिक्षण से तात्पर्य कोई नाट्य अकादमी द्वारा किये गये कोर्स से नहीं है।) नाटक संबंधित विभिन्न पहलुओं की बारीक़ जानकारी न हो, उस कलाकार के लिए एकल करना आग से खेलने के बराबर है, दलदल को पार करने जैसा।
एकल में कलाकार अकेला अभिनय करता है पर अकेला का मतलब एकांगी कभी नहीं होता। उसके सम्मुख समाज होता है। समाज में घटने वाली घटनायें जिन्हें प्रस्तुत करने के लिए एकाग्रता की जितनी ज़रूरत है, उतनी ही ज़रूरत है प्रवाह, सम्प्रेषणीयता की, सराहना की, सहजता की। वरना प्रवाह के टूटने व बोझिल होने का भी ख़तरा रहता है। ये जितना प्रभावशाली व चुनौती भरा होता है, उतना ही दुरूह भी। क्योंकि एकल का दरिया कलाकार को स्वयं पार करना होता हैं उसे बचाने वाला और कोई नहीं होता है। उसे ही तैरकर, अपने अंदर ऊर्जा भरकर दरिया पार करना होता है। नाटक में तो कई कलाकार होते हैं, कभी किसी दृश्य का भार किसी कलाकार पर होता है, तो कभी किसी कलाकार पर बँटा होता है या फिर किसी पर अधिक होता है तो किसी पर कम या ये भी होता है कि अगर एक सँभाल नहीं पाता है तो दूसरा ज़िम्मा उठा लेता है। लेकिन एकल में सारा भार एक ही कलाकार पर होता है जो मंच पर होता है। दर्शकों की नज़र शुरू से अंत तक उसी पर टिकी होती है। कलाकार के एक-एक मूवमेंट का पीछा करती है। ऐसी अवस्था में किसी रंगकर्मी के लिए एकल करना आसान नहीं है। उसे अभिनय के हर भाग पर मज़बूती से कमांड होना ज़रूरी है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ये एकदम मुश्किल कार्य है। अगर हिम्मत हो और विचारों के प्रति प्रतिबद्धता, फिर कोई मुश्किल कार्य नहीं है। लेकिन जिन कलाकारों में इसका अभाव होता है, वे हर तरह से परफ़ेक्ट होते हुए भी एकल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। कई कलाकारों के साथ देखा गया है कि कुछ दिनों तक तो एकल का रिहर्सल करते हैं पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं, जोश व वैचारिक प्रतिबद्धता के अभाव में हताश होते जाते हैं। फिर एकदम से एकल बंद कर देते हैं। इसलिए मुझे लगता है।
एकल करने वाले कलाकार के सम्मुख जब तक जुनून नहीं होगा, चुनौतियों से टक्कर लेने का मज़बूत इरादा नहीं होगा, अकेले अँधेरे को चीर देने और अपनी बात को मज़बूती से रखने का तर्क नहीं होगा, एकल नहीं कर सकेगा।
एकल करना समुद्र में छलाँग लगाने जैसा है। सामने आँधी-तूफ़ान है पर निहत्थे भिड़ जाने जैसा है। ठीक है अकेले हैं तो क्या? अगर जज़्बा है तो सागर का कलेजा चीरकर पार कर जायेंगे। कभी-कभी बीच में पहुँचने पर सहसा लगता है, अरे यहाँ तो कोई नहीं है। चारों तरफ़ अँधेरा है, दूर-दूर तक कोई रोशनी नहीं है। एक बिन्दु पर आकर हिम्मत टूटने लगती है। हताशा भी होती है लेकिन जिसने हताशा के कोहरे को चीरा, उसे सामने का मंज़र साफ़, चटख दिखने लगता है।
राजेश कुमार