समाजस्त्रीकाल

पंख वाली औरतें

 

दिल्ली में वैसे तो कई मशहूर जगहें हैं, लेकिन इन मशहूर जगहों के अलावा बड़ी संख्या में महिलाएँ मंदिरों का भी रुख किया करती हैं| महिलाओं का यह धार्मिक रुख क्यों इतना है इस पर अलग से चर्चा की जा सकती है पर अभी विषय कुछ और है| जब नवरात्र के दिन आते हैं तब लड़कियाँ और महिलाएँ भारी संख्या में दक्षिणी दिल्ली में स्थित एक मंदिर का रुख करती हैं| इस दौरान बसों और अन्य साधनों का महिलाओं द्वारा बहुत इस्तेमाल होता है| मेट्रो का भी बहुत ज़्यादा| इन दिनों दिल्ली शहर ज़्यादा औरताना लगने लगता है| साल के उंगली पर गिन लेने वाले दिन ही महिलाओं के होते हैं जब वे किसी न किसी बहाने घर से बाहर निकलती हैं| उस पर हाल यह कि गोद में बच्चा उठाए वे साड़ी में लिपटी पति से दस क़दम पीछे रह जाती हैं| पति ग़ुस्से में यह भी कहता है- ‘जल्दी-जल्दी चलो, कितना टाइम लगा रही हो!’

एक बार किसी बस के ड्राइवर को यह कहते हुए पाया- “नवरात्र में ये औरतें उलटी कर के बस गन्दा कर देती हैं| अभी-अभी बस को डिपो से धुलवाकर आ रहा हूँ| सांस भी नहीं ली जा रही थी|” बस वास्तव में गीली थी और महक भी रही थी| लेकिन उस बस वाले ने कभी इस बात को समझने पर ज़ोर नहीं डाला कि आख़िर इन दिनों वे ऐसा क्यों कर देती हैं? पूरी तरह से अपने भाई, पति और पिता पर निर्भर यह दूसरा जेंडर बाहर की दुनिया में ऐसे क्यों बर्ताव करने लगता है, ऐसा सोचने और समझने की ताक़त बहुत से पुरुषों ने अभी तक विकसित नहीं की है| इनमें पढ़े लिखे लोग भी शामिल हैं जो नहीं जानते कि महिलाओं का क्यों बाहर की तरफ रुख करना बेहद ज़रूरी है|

वे लड़कियाँ और महिलाएँ जो नयी-नयी शहर में आती हैं, उनकी मुलाक़ात बस से ही होती है| सड़कों से लेकर आसमान तक धुआँ ऐसा कि दम घुटता है और उलटी शुरू हो जाती है| महिलाओं के लिए आज भी सफ़र एक ‘सफर’ होता है| कभी छोटे बच्चे को गोद में ली हुई औरत का चेहरा देखिए कि वह कभी भी खिड़की से बाहर की दुनिया नहीं देखती और न ही मज़ा ले पाती है| बल्कि मन में उस डर और दर्द को सहती है कि कहीं उलटी न हो जाए| बच्चों के साथ सफ़र करना तो और भी चुनौती भरा हो जाता है| कितनी ही महिलाएँ जब दिल्ली परिवहन की बस में चढ़ती हैं तब ख़ुद से जाकर टिकट ले भी नहीं पातीं, कारण गोद में बच्चा और सेकंडों में लगते ब्रेक और धक्के|

बताइए तो इतिहास में कितनी घूमने वाली औरतों के ज़िक्र आपने पढ़े हैं? आज के माहौल में कोई घूमने वाली महिला मिल जाए तो आँखें चौड़ी हो जाती हैं| पर कभी ये मौक़े और भरपूर मौक़े औरतों को नहीं मिले| उन पर नियंत्रण का यह हाल है कि उनके लिखे हुए में दुःख और आपबीती ज़्यादा नज़र आने लगती है| कभी दिमाग लगाकर इतिहास के महान क़िरदार का औरताना रूप सोचिए, आपको अच्छा लगेगा| सिकन्दर का सिकन्दरी कर दीजिए या इब्न बतूता का इब्न बतूती कर दीजिए| आप चकरा जाएँगे| इतिहास का जेंडर भी मिनट में समझ आ जाएगा| आपको अफ़सोस होगा कि पिछला ज़माना हो या अब का ज़माना कितना एक तरफ़ा रहा है|

श्री धरन साहब की चिट्ठी में कुछ खोट है| भारत में अभी भी महिलाओं को वे भरपूर मौक़े नहीं मिल पाएँ जिससे वे अपना योगदान देश और उसकी अर्थव्यवस्था में दे पाएँ| काम के लिए घर से बाहर की आवाजाही बढ़ेगी| मेट्रो सफ़र के लिहाज़ से बहुत सुरक्षित और आरामदेह है| सोचिए उन महिलाओं के बारे में जो बेहद कम रुपए कमाती हैं और रुपए बचाने के चलते बसों में या पैदल घर लौटकर खाना बनाती हैं| क्या मेट्रो का मुफ़्त होना उनके जीवन में कुछ गुणवत्ता नहीं लाएगा? महिलाओं को वे मौक़े मुहैया करवाइए कि वे ज़्यादा से ज़्यादा बाहर निकले| अपनी फिक्स छवियों को तोडें, न कि उनको मेट्रो की तीन बोगियाँ दीजिए| आधी आबादी की ख़िलाफ़त की बात मतलब आधी आवाम की ख़िलाफ़त| वैसे ही महिलाओं के काफ़ी क़र्ज़ पहले से मौज़ूद हैं| कहीं से तो उतारने काम शुरू कीजिए या करने दीजिए| अगर दिल्ली सरकार द्वारा यह क़दम पूरा किया जा सकता है तब यह निश्चित है कि बाहर की दुनिया में ढेरों पंख वाली औरतें दिखना शुरू हो जाएँगी|

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ज्योति प्रसाद

लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो हैं। सम्पर्क-  jyotijprasad@gmail.com
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