आक्रोश का दर्शन
यह लेख आक्रोश के मायने, उसकी आवश्यकता और नये मानव के निर्माण में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को उजागर करता है| दुनिया भर में, दक्षिणपन्थ के उभार के बाद और उसके तदुपरान्त पारम्परिक दलों के द्वारा उनके खिलफ संघर्ष में हुई भारी कमी के कारण जनान्दोलनों ने ‘आक्रोश’ को अपनी तरह से व्यक्त करते हुए इसको परिभाषित किया है| ‘आक्रोश’ को लेकर दुनिया भर के विद्वान इस बात पर तो सहमत हैं कि यह जनता का प्रतिनिधित्व करता है| लेकिन इस बात को लेकर अभी सहमति बननी है कि सिर्फ आक्रोश की राजनीति से क्या वैकल्पिक राजनीति खड़ी की जा सकती है? क्या आक्रोश की भी विचारधारा होती है? यह प्रश्न अमेरिका से लेकर भारत तक के समाजशास्त्रियों को परेशान करता रहा है|
आक्रोश के मायने को राजनीति-आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों के अन्तर्गत ही समझा जा सकता है| आक्रोश हमारी भौतिक परिस्थितयों का द्योतक है| इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि समाज में बदलाव और गैर-बदलाव के द्वन्द को समझने में यह सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है| आक्रोश एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसमें बदलाव की जिद जैसे परिवर्तन के आयाम बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं| आक्रोश और बदलाव शायद एक-दुसरे से गुथे हुए हैं| इसमें कुछ प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाते हैं: क्या आक्रोश बदलाव लाने की जिद हैं या बदलाव नहीं आने के कारण उत्पन्न होता है? सिद्धान्तः व्यवस्था में वदलाव बिना आक्रोश के सम्भव नहीं होता है इसलिए आक्रोश को व्यवस्था में वदलाव लाने और वदलाव नहीं हो पाने दोनों को द्योतक समझा जाना चाहिए|
लोकतन्त्र में राजनीतिक समानता को लेकर चल रही निश्चितता को बहुसंख्यकवादी राजनीति के वैश्विक दक्षिणपंथी राजनीति के उभारने गहरा धक्का पहुचाया है| उदारवादी लोकतन्त्र अचानक दोहरे मोड़ पर आ खड़ा हुआ प्रतीत होता है जहाँ पर अल्पसंख्यकों (धार्मिक, भाषाई, स्थानीय, एथनिक) को वोट देने का अधिकार तो रहता है लेकिन संसदों में चुने जाने का अवसर लगातार कम होता जाता है| दुनिया भर के तमाम सर्वेक्षणों में यह पाया गया है कि उदारवादी लोकतन्त्रो में अल्पसंख्यको का चुना जाना लगातार कम ही नहीं हुआ हैं बल्कि उनके खिलाफ ध्रुवीकरण की राजनीति बहुत ही व्यापक स्तर पर फैली हुई है|
इस सन्दर्भ में ‘आक्रोश’ को समझना और भी जरुरी हो जाता है| इस सन्दर्भ में आक्रोश सकारात्मक प्रक्रिया के उभार को दर्शाता हैं| सकारात्मक इस सन्दर्भ में कि यह उदारवादी लोकतन्त्र की ‘कमजोर कड़ी’ को चुनौती देता है| आक्रोश को लेकर संस्थावादी विचारक हमेशा से ही परेशान रहे हैं| उनका यह मानना कि आक्रोश एक नकारात्मक परिघटना है, सही प्रतीत नहीं होता है| लोकतन्त्र में आक्रोश भी एक तरह से लोगों का स्वाभाविक प्रतिनिधित्व करता है| इसमें लोगो के विचार और उनकी सामूहिक सहभागिता महत्वपूर्ण कारक होते हैं|
इसी सन्दर्भ में यह जानना जरुरी हो जाता हैं कि लोकतन्त्र को सिर्फ संस्थागत माध्यमों से नहीं समझा जा सकता है| और उसी तरह आक्रोश को सिर्फ नकारात्मक तरीके से नहीं समझा जा सकता है| आक्रोश को नए राजनीतिक मानव के निर्माण से भी समझा जाना चाहिए| नए राजनीतिक मानव के निर्माण आन्दोलनों और आक्रोशों के अभिव्यक्ति के जरिये ही होता हैं| नए राजनीतिक मानव के निर्माण का अर्थ नए तरीके से सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सोचने और वैकल्पिक राजनीति के ढाँचे को खड़े करने से समझा जाना चाहिए| प्रायः इस तरह के बहुत ही कम अवसर आते है जिसमें नए राजनीतिक मानव की कल्पना की जाती है| लोकतन्त्र को बढ़ाने के लिए और इसको सारगर्भित बनने के लिए इस तरह की परिकल्पना को बारम्बार जिन्दा किया जाना चाहिए|
लोकतन्त्र के तीन आयाम (प्रक्रिया, समावेशी और उत्तोरतर नयी परिकल्पना) को आक्रोश के आयाम, उपयोगिता और नए राजनीतिक मानव के निर्माण से असीमित फायदा होता रहा है और होता रहेगा| लोकतन्त्र की प्रक्रिया सिर्फ पाँच सालों तक सीमित नहीं की जा सकती है| ‘आक्रोश’ इसको लगातार और सतत चलने वाली प्रक्रिया बनाता है| इसके सतत प्रक्रिया से लोकतन्त्र समावेशी बनता है| लोकतन्त्र की प्रतिदिन की प्रक्रिया प्रश्नों को जन्म देने के साथ साथ, समावेशी बनने की दिशा में भी महत्वपूर्ण हो जाती है| आक्रोश लोकतन्त्र में सदैव नयी परिकल्पना को जन्म देता है जिससे नए परिस्थितियों को समझने और परिवर्तन के लिए परिस्थितियाँ तैयार की जाती हैं|
नवउदारवादी, बहुसंख्यकवादी और वैश्विक दक्षिणपंथी उभार के दौर में, आक्रोश और इसके दर्शन का महत्व और भी बढ़ जाता है| इसके दो सबसे महत्वपूर्ण कारण हैं| पहला, यह समाजों को और भी लोकतान्त्रिक बनाने के लिए एक दुसरे से जोड़ता है| इसमें किसी भी खास समुदाय के महत्वपूर्ण होने की जगह, सारे समुदाय महत्वपूर्ण हो जाते हैं| सारे समुदाय एक दूसरे के हक़ के लिए संघर्ष के तुरन्त तैयार हो जाते हैं| दूसरा, सत्ता आधारित राजनीति ही जनवादी लोकतन्त्र की ‘परिभाषा’ नहीं निर्धारित करती है बल्कि यह काम लोगों के द्वारा लोक संघर्ष से तैयार किया जाता हैं| इस तरह के लोकतन्त्र की कल्पना जनान्दोलन करते ही रहे हैं और यही आक्रोश की विचारधारा है।