शख्सियत

भूल-ग़लती: मुक्तिबोध: एक विश्लेषण

 

मुक्तिबोध ने छोटी कविताएं बहुत कम लिखी है; उनकी कविताएं अधिकतर प्रदीर्घ हैं। और जो छोटी कविताएं हैं भी उनको वे मूलतः अपूर्ण मानते हैं। कविताओं की प्रदीर्घता का कारण उनके अनुसार “यथार्थ के तत्व परस्पर गुम्फित होते हैं, साथ ही पूरा यथार्थ गतिशील होता है। अभिव्यक्ति का विषय बनकर जो यथार्थ प्रस्तुत होता है वह भी ऐसा ही गतिशील है, और उसके तत्व भी परस्पर गुम्फित हैं यही कारण हैं कि मैं छोटी कविताएं लिख नही पाता और जो छोटी होती ही वे वस्तुतः छोटी न होकर अधूरी होती हैं”। इस दृष्टि से ‘भूल-ग़लती’ मुक्तिबोध की नज़र में भले ‘अधूरी’ हो, मगर भावाभिव्यक्ति में इसमे पूर्णता है। यह कविता उनके संग्रह ‘चाँद का मुह टेढ़ा है(1964)’ में संग्रहित पहली कविता है। इस संग्रह की पांडुलिपि में संकलित कविताओं से सम्भवतः मुक्तिबोध परिचित थे, क्योकि संकलन में संकलित कविताओं के सम्बन्ध में उन्होंने कुछ निर्देश दिए थे।अतः संकलन में इस कविता का संकलित होना मुक्तिबोध की दृष्टि में भी इसकी महत्ता स्थापित करती है।

मुक्तिबोध की कविताओं में आत्मसंघर्ष और अंतर्द्वंद्व को रेखाँकित किया जाता रहा है।उनके यहां मध्यमवर्गीय व्यक्ति के वैचारिक उलझने विकट रूप में प्रकट हुई हैं।जाहिर है वैचारिक द्वंद्व उन्ही को होता है जो सम्वेदनशील हो, और अपनी स्थिति से सन्तुष्ट न हो।इसलिए यह द्वंद्व अमूमन सुविधाभोगी वर्ग में नही दिखाई देता क्योकि वे अपनी स्थिति से सन्तुष्ट होते हैं, और उसे बनाये रखना चाहते हैं।मध्यमवर्गीय जनपक्षधर सम्वेदनशील व्यक्ति में यह द्वंद्व अधिक होता है,क्योकि यह उसके लिए व्यक्तित्व के वर्गान्तरण से जुड़ा होता है।Image result for मुक्तिबोध

मुक्तिबोध की कविताओं में बिम्ब विधान, फैंटेसी और रूपक का अनूठा प्रयोग मिलता है। उनकी भाषायी कारीगरी काव्य-सम्वेदना को अतिरिक्त गहनता प्रदान करती है। प्रस्तुत काविता में भी,जिसकी पृष्टभूमि मध्यकालीन सामंती दरबार है,जो कि ‘दरबारे-आम’ से मुगलकालीन दरबार की पृष्टभूमि दर्शाता है; भाषा उर्दू-फ़ारसी से युक्त है।

कविता का प्रवाह अंदर से बाहर की ओर है। द्वंद्व व्यक्ति के भीतर है। सारे क्रिया-कलाप मानसिक स्तर पर घटित हो रहे हैं। ‘भूल-गलती’ हम सबसे होती है। मगर दिक्कत यह है कि यह अंदर घर कर जाती है ; “बैठी है जिरहबख्तर पहनकर तख़्त पर दिल के”। यानी भूल-गलती हमारे अंदर ही है। वह मजबूती से हमारे अंदर जमा है। एक शहंशाह की तरह, अपने तमाम लाव-लश्कर के साथ। उसके साथ उसके तमाम सिपहसालार, मनसबदार, शायर, सूफी, बौद्धिक वर्ग हैं।ये तमाम रूपकात्मकता ‘भूल-गलती’ के सुदृढ़ता को बताने के लिए हैं।

‘भूल-गलती’ का द्वंद्व ‘ईमान’ से होता है; यदि व्यक्ति का ईमान मरा न हो तो।’भूल-गलती’ शक्तिशाली है, उसके पक्ष में तमाम ताकतें और प्रलोभन हैं। ‘ईमान’ अक्सर बिक जाया करता है। मगर एक जनपक्षधर व्यक्ति का ‘ईमान’ जो इस कविता में चित्रित है; उसके भय और आतंक से अप्रभावित रहता है। इस ‘ईमान’ को झुकाने अत्यधिक प्रयत्न किया गया है; इसलिए उसका चेहरा “तिरछी लकीरों से कटा”, है और ” समूचे जिस्म पर लत्तर/झलकते लाल लंबे दाग/बहते खून के” हैं। उसे कैद किया गया है। ‘ईमान’ के सामने इस कैद से मुक्ति के लिए “शर्म सी शर्त” रखी जाती है जिसे वह नामंजूर कर देता है। यानी दृढ़ निश्चय और आत्म गरिमा बोध से ‘भूल-गलती’ को पराजित किया जा सकता है।

Image result for मुक्तिबोध

अपने आतंककारी तामझाम के बावजूद, यदि ‘ईमान’ मजबूत हो तो ‘भूल-गलती’ की हकीकत दिखने लगती है। दिल के किसी कोने से ही आवाज़ आने लगती है “सुल्तानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का/ वो- रेत का- सा ढेर-शाहंशाह”। दरअसल यह जिरहबख्तर कुछ और नही “मेरी आपकी कमज़ोरियों के स्याह लोहे” का है। वो “सचाई के आंखे निकालता है”, “सब बस्तियां दिल की उजाड़ता है”। इससे स्पष्ट है कि द्वंद्व व्यक्ति के अंदर घटित हो रहा है। वह उतना ताकतवर नही है, जितना दिखाई देता है; केवल हमने मान लिया है क्योंकि “हम सब कैद हैं उसके चमकते तामझाम में, शाही मुक़ाम में!!”।

उसके तामझाम का आतंक,जो मूलतः हमारी ही कमजोरी है, टूटता भी है “हमीं में से/ अजीब कराह-सा कोई निकल भागा,/ भरे दरबारे-आम में मैं भी सँभल जागा!!”। व्यक्ति का ईमान जागता है तो ‘भूल-गलती’ के पराजय के दिन क़रीब आ जाते हैं, और मन(हृदय) की तमाम नकारात्मक प्रवृत्तियां, बुज़ुर्गीयत सहमकर रह जाते हैं।

यह भी पढ़ें – निराला की साहित्य साधना: एक युगद्रष्टा व्यक्तित्व का स्मरण

यह हमारी संकल्पशक्ति ही है जो ‘दरबारे-आम’ से भाग कर ‘बेमालूम दर्रों के इलाक़े’ में जाकर ‘हमारी हार का बदला चुकाने आएगा’। यह बेमालूम दर्रा भी आखिर ‘सचाई के सुनहले तेज अक्सों का धुंधलका’ है। हमारी ‘संकल्प-धर्मा का रक्तप्लावित स्वर’ ही जो ‘हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर’ है ‘प्रकट होकर विकट हो जाएगा!!” यानी हमारी संकल्पशक्ति, हमारी दृढ़ता ही ,हमारे हृदय में जागृत होने पर ‘भूल-गलती’ को परास्त कर सकता है, जो हमारी ही कमजोरी है।

हमने शुरू में कहा है इस कविता की यात्रा अंदर से बाहर की ओर है। इस कविता का रूप विधान इस तरह का है कि प्रथम दृष्टया यह मानसिक द्वंद्व न होकर बाह्य यथार्थ प्रतीत होता है। कविता में ‘काव्य नायक’ की उपस्थिति “भरे दरबारे-आम में मैं भी सँभल जागा!!” भी इस ओर इशारा करते हैं, मगर कविता के अधिकतर संकेत मानसिक हैं, इसलिए इसका कथ्य मानसिक द्वंद्व ही प्रतीत होता है। मगर यह द्वंद्व व्यक्ति विशेष का न होकर एक वर्ग का है, क्योकि यहां बात ‘मैं’ कि नही ‘हम’ की अधिक है।

.

Show More

अजय चन्द्रवंशी

लेखक ‌कवर्धा (छ.ग.) में सहायक ब्लॉक शिक्षा अधिकारी हैं। सम्पर्क +91989372832, ajay.kwd9@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
2
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x