जनजाति वास्तव में भारत के आदिवासियों के लिए इस्ते`माल होने वाला एक वैधानिक पद है। भारत के संविधान में अनुसूचित जनजाति पद का प्रयोग हुआ है और इनके लिए विशेष प्रावधान लागू किये गए हैं। भारत की कुल जनगणना में आदिवासी 8.61% है। भारत में अनुसूचित जनजातियों से संबंधित कई प्रावधान हैं। मुख्यतः इन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है- सुरक्षा तथा विकास। अनुसूचित जनजातियों के विकास से संबंधित प्रावधान मुख्य रूप से अनुच्छेद 275(1) प्रथम उपबंध तथा 339(2) में निहित हैं। किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के आधार हैं- आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक पृथक्करण,समाज के एक बडे भाग से संपर्क में संकोच, पिछड़ापन।
निश्चित भौगोलिक सीमाओं में बसे इन कबीलों के अतिरिक्त नट, भाँटू, उचक्का, साँसी, बेड़िया, करवाल और कंजर आदि ऐसे खानाबदोश कबीले हैं। ब्रिटिश-काल से ही इन्हें कठोर नियंत्रण और कठिन नियमों का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करना पड़ रहा था हंलाकी अब इन्हें इन बंधनों से मुक्त कर दिया गया है। सभी श्रेणियों के इन कबीलों की कुल जनसंख्या लगभग तीन करोड़ है। अनेक कबीलों ने जातिनाम और जातिगत व्यवसाय अपना लिए हैं।
भारतीय जनजातियों का 19वीं सदी में भारत के ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य ने, कानून और व्यवस्था कायम करने के अपने उपक्रम में, कुछ जनजातियों, समूहों, जातियों और व्यक्तियों पर ‘अपराधी’ का लेबल लगा दिया था। सन् १९४७ में जब देश आजाद हुआ, उस समय लगभग 128 जनजातियों, जिनकी आबादी भारत की कुल जनसंख्या का एक प्रतिशत थी, पर ‘अपराधी’ का लेबल था। 12 अक्टूबर 1871 ई. में ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ के अंर्तगत अधिसूचित किया गया कि इन आपराधिक लेबल वाली जनजाति को ‘विमुक्त जनजाति’ के नाम से जाना जाए। यह अधिनियम सबसे पहले उत्तर भारत में लागू हुआ फिर 1876 ई. में बंगाल प्रेसीडेंसी में भी लागू किया गया। 1911 ई. में इसे मद्रास में भी लागू किया गया। आपराधिक जनजाति अधिनिय 1871 में कई बार परिवर्तन हुए हैं, परंतु उसके मूल तत्वों में कोई बदलाव नहीं आया है। यद्यपि इन जनजातियों का ‘कानूनी दर्जा’ बदल दिया गया है परंतु उनका ‘सामाजिक दर्जा’ आज भी वही है। वर्तमान में भी भारत में लगभग 198 विमुक्त जनजाति हैं और इनकी संख्या लगभग 10 करोड़ है।
विमुक्त जनजातियां सरकार की विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत नहीं आती और विशिष्ट सामाजिक,आर्थिक,शैक्षणिक सुविधाओं से वंचित हैं। यह समुदाय भारतीय संविधान द्वारा ठीक तरह से चिन्हित भी नहीं हैं और यही वजह है कि ये संवैधानिक लाभों का उपयोग भी नहीं कर पा रही है। भारतीय समाज का अभिन्न हिस्सा होते हुए भी विमुक्त जनजातियां समाज का सर्वाधिक उपेक्षित और शोषित वर्ग है। ये लोग भूमिहीन और अशिक्षित हैं तथा सामाजिक और आर्थिक विषमताओं से जूझ रहे हैं। सदियों से इस समुदाय के लोग रोजगार के बिना किसी प्रत्यक्ष आजीविका साधन के इधर-उधर घूम रहे हैं। सार्वजनिक जीवन में पिछले कुछ वर्षों से ही ये चर्चा में आएँ है। मीडिया द्वारा लगातार इनके मानवाधिकार को लेकर आवाज उठ रहा है पर, अभी-तक कोई ठोस विकल्प नजर नहीं आया है।
शुरूआती दौर के औपनिवेशिक अधिकारी समाज को ऊँची जातियों के चश्मे से देखते थे और उसी के आधार पर ‘कानून व्यवस्था’ का ढांचा खड़ा किया गया। जातिगत पहचान को सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्रों में तो महत्व दिया ही गया, आपराधिक प्रवृत्ति का निर्धारण करने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाने लगा। ‘आपराधिक प्रवृत्ति’ के ‘वैज्ञानिक’ निर्धारण को आधार बनाकर, कई जनजातियों के सदस्यों को गिरफ्तार किया जाने लगा और उन्हें जबरदस्ती दूसरे स्थानों पर बसने के लिए मजबूर भी किया गया। अनेक औपनिवेशिक विद्वानों ने उत्तर भारत में नस्ल, जाति और जनजाति के विमर्श के आधार पर आपराधिक समुदायों और समूहों को परिभाषित किया। ऐसा मान लिया गया कि कुछ समूहों और जातियों के लोग जन्मजात आपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं। दरअसल भारतीय समाज की सांस्कृतिक विविधता को अंग्रेज़ शासक समझ नहीं पाए। घुमंतू लोग उनकी नजर में समाज के लिए खतरा थे। अंग्रेज़ उन्हें असांस्कृतिक और असामाजिक तत्व समझते थे। तमाम घुमंतू समुदायों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और न ही इनका कोई निश्चित व्यवसाय ही था। इसलिए भी इन्हें ठग और डकैत समझा गया। एक और वजह यह भी थी कि ब्रिटिश सरकार जंगलों पर अधिकार जमाना चाहती थी। अत:, इन समुदायों का ब्रिटिश साम्राज्य से टकराना स्वाभाविक ही था। 1871 ई. में ‘अपराधी जनजाति अधिनियम’ बनाया गया ताकि इन समुदायों को कानून के दायरे में लाया जा सके।
इस अधिनियम के अंतर्गत जनजातियों के अलावा गिरोहों तथा व्यक्ति समूहों को भी अपराधी घोषित करने का प्रावधान था। अपराधी जनजातियों के उनकी निर्धारित सीमा से बाहर पाए जाने पर गिरफ्तारी से संबंधित इस अधिनियम की धाराएँ 1-20 तक पूरे ब्रिटिश भारत पर लागू थीं, परंतु अधिनियम की अन्य धाराएँ बंगाल, उत्तर पश्चिमी प्रदेशों तथा अवध पर ही लागू थीं। नियम यह था कि यदि एकबार कोई समुदाय अपराधी घोषित हो जाता तो उससे संबंध रखनेवाले अनेक समुदाय अपराधी जनजाति की सूची में शामिल कर लिए जाते थे । इस अधिनियम के प्रावधान बहुत ही कठोर थे। इस समुदाय के सदस्यों को स्थानीय पुलिस स्टेशन पर पंजीकृत होना पड़ता था और दिन में एक खास समय पर हाजिरी लगानी होती थी। अपनी मर्जी से ये आवास तक नहीं बदल सकते थे। शक के आधार पर स्थानीय पुलिस कभी भी किसी को भी गिरफ्तार कर सकती थी। अपराधी जनजाति अधिनियम घुमंतू लोगों, छोटे व्यापारियों, जंगली समूहों, विघटित सैनिक टुकड़ियों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया। भारत में अपराधी जनजातियों का तात्पर्य उन जनसमूहों से है जो जाति या सामाजिक संबंधों के आधार पर एक-दूसरे से बंधे हुए होते हैं और ‘समाज विरोधी कार्य’ जैसे, चोरी, ठगी,डकैती, ह्त्या, और दूसरों को शारीरिक चोट पहुंचाने का काम करते हैं। इन समुदाय को अपराधी घोषित करने के पीछे एक महत्वपूर्ण वजह यह भी रहा है कि 1857 ई. के संग्राम में इन यायावर समुदायों ने अपनी अस्मिता और राष्ट्रीयता के संरक्षण के सवाल पर अपने अस्तित्व को उजागर करने की सार्थक कोशिश की। इसी का परिणाम था कि ब्रिटिश-हुकूमत ने भारत के इन जुझारू समुदाय को ‘आपराधिक जनजाति’ घोषित कर दिया।
भारत के मूल निवासियों का वर्गीकरण और कुछ तबकों को अपराधी और डकैत घोषित करना, औपनिवेशिक राज्य द्वारा नस्लीय श्रेष्ठता स्थापित करने और अपनी पश्चिमी पहचान को विलग रखने के प्रयास का हिस्सा था। इस तरह के वर्गीकरण का एक लाभ यह था कि ऊँची जातियां स्वयं को अपने औपनिवेशिक शासकों से जोड़कर देखने लगती थीं और ‘अपराधी’ जनजातियों और जातियों को आधुनिकता व प्रगति से दूर रखना आसान हो जाता था।
सन् 1871 का आपराधिक जनजाति अधिनियम व ‘पहचान स्थापित करने और लोगों के संबंध में सूचनाएं एकत्रित करने के अन्य तरीकों’ जैसे जनगणना व अंगुलियों के निशान लेने की तकनीक का इस्तेमाल दमन करने, राजनैतिक गतिविधियों पर नजर रखने और घुमन्तु जातियों को एक स्थान पर बसाने के लिए किया जाने लगा। सन् 1871 के अधिनियम का घोषित लक्ष्य समाज के वंशानुगत आपराधिक तबकों का दमन करना था । 19वीं सदी के अंत तक जुर्म, जाति और जनगणना, ब्रिटिश भारत को परिभाषित करने वाले तत्व बन गए थे। आपराधिक जनजाति अधिनियम यह मानकर चलता है कि आपराधिक प्रवृत्ति वंशानुगत होती है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती है।
विमुक्त जनजातियों में शोषित वर्गों में एक बड़ा वर्ग महिलाओं का भी है। क्योंकि, इस समाज की संरचना ही अपने आप में अलग है. औरतें घर और बाहर दोनों जगह पर भागीदारी निभाती हैं। सरसरी तौर पर देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि इन समुदायों की औरतें निडर और उन्मुक्त हैं पर, वास्तविकता यह है कि वह ‘घर’ के बाहर उन्मुक्त दिखती हैं पर घर के अंदर उसकी स्थिति थोड़ी अलग होती है। कुछ समुदायों में विवाह के समय औरतों को खरीदा भी जाता है । फिर उसे संपत्ति या वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जाता है । समाज की मान मर्यादा का उल्लंघन करने पर क्रूर और अमानवीय सजा का प्रावधान है जैसे, जीभ को गर्म लोहे की छ्ड़ी से दागना, आग पर चलाना, सिर के बाल उतरवा देना, उबलते तेल की कटोरी में से सिक्का निकालना इत्यादि। इस तरह की सजाएँ ज्यदातर शादी से पहले गर्भ ठहर जाने की स्थिति में दी जाती है। सारे समुदाय में इस तरह का चलन नहीं है पर, पारधरी और वैदू समुदाय में यह चलन आम है। कुछ समुदाय की महिलाएं लोकनृत्य के साथ-साथ ‘देह-व्यापार’ तक करने को मजबूर हैं क्योंकि, यह पेशा अब उनका परंपरागत पेशा बन चुका है।
समाज में यदि देह-व्यापार आज भी जीवित है तो इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है की आज भी हमारे समाज में स्त्री को भोग्या के तौर पर देखने की प्रवृति जागृत है। विडम्बना यह है कि इस प्रवृति पर आवरण डालने के उद्देश्य से यह स्थापित कर दिया जाता है कि इस तरह के कृत्यों के लिए स्त्रियाँ खुद ही जिम्मेदार हैं क्योंकि, वो इसे अपने आजीविका के साधन के तौर इसका इस्तेमाल करती हैं और किसी भी पुरुष के लिए सहजता से ‘भोग्या’ बनना स्वीकार करती है। कहीं-न-कहीं इस तरह के पुरुषवादी मानसिकतायुक्त परिवेश भी वैसी स्त्रियॉं के जीवन के त्रासदी के लिए जिम्मेदार है जिन्हें अतीत में गणिकाएँ, देवदासियाँ, नगरवधू, कहा जाता था और आजकल काल गर्ल, बार डांसर, और सेक्स-वर्कर कहा जाता है। ग्रामीण परिवेश में ये नचनिया, पतुरिया, धंधेवाली इत्यादि कहा जाता है।
मध्यप्रदेश में निवास करने वाली एक अन्य विमुक्त जनजाति ‘बेड़िया’ की स्थिति कुछ और ही है। वैसे तो इस समुदाय का पारंपरिक व्यवसाय चोरी/डकैती रहा है पर, धीरे-धीरे इन्होंने राई नृत्य को अपना व्यवसाय बनाया जो कि नौटंकी का ही एक रूप है। इस नृत्य को बेड़िया समुदाय के स्त्री-पुरुष मिलकर किया करते थे। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इस नृत्य की आड़ में इस समुदाय की महिलाओं को देह-व्यापार भी करना पड़ता था। धीरे-धीरे इस समुदाय के पुरुष आलसी होते गए और अपनी घर की औरतों पर निर्भर होते चले गए और देह-व्यापार इन महिलाओं का मुख्य पेशा बन गया। घर लचाने की ज़िम्मेदारी घर की बेटियों की बन गई और बेटे शादी करके अपना घर बसाने लगे। जिन लड़कियों की शादी हो जाती वो बेड़नी अर्थात देह-व्यापार में नहीं जाती थी। उसे घर की चारदीवारी में ही रहकर घर संभालने ज़िम्मेदारी उठानी होती है। देह-व्यापार का स्वरूप इस समुदाय में थोड़ा अलग है। ‘सिर ढंकना’ नामक एक रस्म के जरीए औरतें देह-व्यापार में उतरती हैं इस रस्म को कोई जमींदार या समतुल्य व्यक्ति पूरा करता है और तब यह माना जाता है कि आज से उक्त औरत पर उसका अधिकार है । वह जैसे चाहे उस औरत का इस्तेमाल कर सकता है, उससे अन्य लोगों के साथ भी शारीरिक संबंध बनाने को बोल सकता है, उस औरत से बच्चे पैदा कर सकता है पर, बच्चे को अपना नाम देगा या नहीं देगा इसके लिए वह स्वतंत्र होता है औरत भी किसी अन्य व्यक्ति से संबंध बनाने और बच्चा पैदा करने के लिए स्वतंत्र होती है। इस तरह से इस समुदाय में बच्चों की पहचान माँ के नाम से भी हो जाती है या फिर पिता के रूप में किसी भी रूपक जैसे रूपया,पैसा, या कोई काल्पनिक नाम से भी देने का चलन है ।
बेड़ियों से जुड़ी कुछ कथाएँ प्रचलित हैं जिसमें उन्हें राजपूत का वंशज बताया जाता है। इस मिथक के अनुसार उस समय सतीप्रथा का प्रचनल था और जबरन युद्ध में मारे गए सैनिकों की विधवाओं को सती होने के लिए बाध्य किया जाता था। फिर धीरे-धीरे महिलाओं ने सती न होने और जीवन जीने का फैसला लिया पर, पुनर्विवाह संभव नहीं था इसलिए कुछ ने सन्यास का मार्ग चुना तो कुछ ने दूसरी जातियों के पुरुषों के साथ संबंध बनाए फलत:, इन स्त्रियों को जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। इन बहिष्कृत स्त्रियों के साथ अब एक बड़ी समस्या यह आई जो थी इनकी बेटियों के विवाह का । अपनी विधवा मां की स्थिति को देखते हुए इन लड़कियों ने खुद को किसी पुरुष के साथ बांधने से बेहतर, स्वतंत्र रखना ही समझा और यायावरी जिंदगी को अपनाया। आजीविका के लिए यह उच्चवर्ग के आर्थिक रूप से सम्पन्न पुरुषों को लोकनृत्य के माध्यम से आकर्षित कर धन कमाना प्रारंभ की धीरे-धीरे यह पेशा देह-व्यापार में तब्दील होता चला गया। इन लड़कियों की खासियत थी कि इन्हें अपने दायित्व का बोध था इसलिए ये अपने परिवार के साथ-साथ समुदाय का भी ध्यान रखती थी। इन लड़कियों ने खुद को ‘बेड़नी’ अथवा ‘नचनारी’ कहलाना स्वीकार किया । बिना किसी सामाजिक सबंध के आर्थिक आधार पर पुरुषों के साथ ‘संबंध’ स्वीकार किया। अविवाहित मातृत्व और अपने बच्चों को पालना भी स्वीकार किया । इनकी इस प्रवृति ने पुरुषों को आकर्षित किया । क्योंकि, आर्थिक रूप से सम्पन्न इन जमींदारों और ठाकुरों के लिए यह स्थिति इसलिए सुविधाजनक थी क्योंकि, वे इस बात से भयमुक्त थे कि संपर्क में आई स्त्री उनके गले पड़ जाएगी और किसी तरह का दावा पेश करेगी। इन स्त्रियों ने धार्मिक स्तर पर भी खुद को लचीला रखा अर्थात, जिस धर्म के संपर्क में ज्यादा रही उसे ही अपना लिया। इस समुदाय की एक खासियत यह भी है कि ‘देह-व्यापार’ से जुड़ी स्त्रियाँ अपने समाज और परिवार में अधिक प्रभावशाली और अधिकार-प्राप्त होती हैं। अपनी आय का अपने हिसाब से उपयोग करने के साथ-साथ पुरुषों को खुद पर आश्रित भी मानती हैं।
समाज सुधार आंदोलन के समय जब तमाम वर्ग की स्त्रियों के विषय में सोचा जा रहा था, उस समय भी इस समुदाय की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। उस समय भी ये महिलाएं देश के मध्यप्रांत में अपने और अपने समुदाय के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्षरत थी। ये तमाम चुनौतियों के विरुद्ध खुद को जीवित रखना चाहती थीं। इनके सहायक की भूमिका निभाने वाले लोग भी अंतत:, इनसे ‘दैहिक-सुख’ की अपेक्षा रखते थे। स्थितियाँ तब और भी सोचनीय हो जाती हैं, जब वही पुरुष जो कि इनकी जिम्मेदारी(सिर ढंकना-प्रथा) लेता था वही अपने घर के समारोह/उत्सव में राई नृत्य करवाता था। यह स्थिति किसी भी स्त्री के लिए कितनी दर्दनाक होती होगी इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है। उसके पतितुल्य व्यक्ति ही अपने परिवार और दोस्तों के बीच इन्हें अश्लील भाव के साथ नाचने को बाध्य करता था। यह भी एक वजह रही की जो बेडनी स्त्री राई नृत्य को अपना पेशा बनाती थीं, वो किसी की ‘पत्नी’ बनने का सपना ही छोड़ देती थीं । सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह का पेशा अपनाने के बबजूद भी ये स्त्रियाँ कभी उन औरतों के प्रति कभी ईर्ष्या भाव नहीं रखा जो कि इनके पतितुल्य व्यक्ति की ‘वैधानिक पत्नी’ थी और न ही इन पत्नियों ने कभी भी इन बेडनियों को घृणा भाव से देखा जैसा की वह ‘देह-व्यापार’ में संलग्न अन्य स्त्रियों को देखती थी। ग्रामीण क्षेत्रों में इन स्थितयों में आज भी बहुत बदलाव नहीं आया है।
इस समाज की एक खासियत और भी है कि, आज जबकि हमारे पारंपरिक समाज में बेटियों के जन्म पर अपेक्षाकृत उल्लास का माहौल कम होता वहीं, इस समुदाय में बेटियों के जन्म पर जश्न मनाने का प्रावधान है किन्तु, इसका यह अर्थ बिलकुल भी नहीं है कि ये बेटों के जन्म पर दुखी होती हैं और न ही उन्हें उपेक्षित अनुभव कराती हैं। ताकि, वह कभी भी खुद को किसी पर बोझ न मान बैठे। जैसा कि, पारंपरिक समाज में अक्सर बेटियों के साथ किया जाता है। बस इतना है कि ये स्त्रियाँ उनसे भविष्य में किसी तरह की उम्मीद नहीं रखतीं। बेटी के जन्म पर जश्न मनाने का मुख्य कारण यह है कि यह समुदाय बेटी को ही अपना भविष्य या वृद्धावस्था का सहारा मानते हैं, क्योंकि इस समुदाय के पुरुष आलसी एवं सुस्त प्रकृति के होते हैं और परजीवी की तरह जीने की चाह रखते हैं। न ही कोई स्थाई काम करना चाहते हैं और न हीं किसी तरह की पारिवारिक ज़िम्मेदारी लेना चाहते हैं। इसलिए इस समुदाय की जो लड़की अविवाहित रहकर ‘देह-व्यापार’ में उतरती है अथवा, ‘बेड़नी’ बनती है उसे अपनी भाई-भाभी, मां-बहन तथा उस परिवार से जुड़े अन्य सदस्यों का भरण-पोषण का दयितत्व लेना होता है। कभी-कभी कोई ऐसा व्यक्ति भी उसके परिवार से आ जुड़ता है जो न तो उनके परिवार से जुड़ा होता है और न ही समुदाय इत्यादि से ताल्लुक रखता पर, उस ‘बेडनी’ से आसक्ति रखने की वजह से उसके घर में ही पड़ा रहता है और वे बेडनी उसका भी भरण-पोषण करती है।
इस तरह से सतही तौर पर देखने में यही प्रतीत होता है कि इस समाज की महिलाओं सशक्त और उन्मुक्त है जबकि, वास्तविकता बिलकुल इसके उलट है। बेड़िया औरतें अपने घर के लिए पैसा कमाने वाली मशीन है और बाहर के लिए बेशर्म, व्यभिचारी और अपवित्र औरत। हालांकि, वर्तमान में हर समुदाय की भांति इस समुदाय में भी सामाजिक परिवर्तन हुए हैं। महिला-आंदोलन एवं सामाजिक संगठनों के लगातार कोशिश का परिणाम है कि अब इस समाज में भी जागरूकता आई है और खासतौर पर औरतें देह-व्यापार के विकल्प के तौर पर अन्य कार्य जैसे, खासतौर पर तमाम कुटीर उद्योग को देखती हैं और उससे जुड़ती भी हैं । हंलाकी इस उद्योग में तमाम तरह की अन्य समस्या भी हैं। बहुत सीमित संख्या में ही सही पर लड़कियों ने शिक्षा की तरफ भी रुझान किया है । इस तरह का परिवर्तन मुख्य तौर पर नवउदारवाद आने के बाद शुरू हुआ और अब यह परिवर्तन सीमित संख्या में ही सही पर दिखाई देने लगी है।