बातचीत

दर्शकों की उम्मीदों पर खरी उतरेगी ‘ओभ्येश’…?

 

‘बिक्रम शिखर रॉय’ बंगाल में रहते हैं। अभिनेता के रूप में कई थिएटर समूहों के साथ कई साल तक काम कर चुके हैं। टीवी धारावाहिकों में भी अभिनय किया है। स्टूडेंट लाइफ में उनकी एक शॉर्ट फिल्म को ‘ऊटी फिल्म महोत्सव’ द्वारा सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार के रूप में सम्मानित किया गया है। इसके अलावा विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समारोहों द्वारा उसे दिखाया गया था। बिक्रम ने एनएफटीएस (यूनाइटेड किंगडम) से फिल्म निर्माण का तथा यूईए से स्क्रीन राइटिंग भी अध्ययन किया है। ‘ओभ्येश’ उनकी अब पहली बार ऑफिशियल डेब्यू डायरेक्टिंग फ़िल्म आ रही है जल्द ही। जिसमें ‘सौमेंद्र भट्टाचार्य’, ‘तीस्ता रॉय बर्मन’ प्रमुख भूमिका में होंगे। इसी सिलसिले में उनसे ‘सबलोग‘ के लिए लंबी बातचीत हुई। उस अंतरंग बातचीत के कुछ अंश आपके सम्मुख प्रस्तुत है।

सौमेंद्र भट्टाचार्य और तीस्ता रॉय बर्मन (स्टार कास्ट)

सवाल – फ़िल्म ओभ्येश क्या है?

जवाब – ओभ्येश एक बंगाली फिल्म है। जिसका मतलब होता है हैबिट। जिसे हम हिंदी में आदत कहते हैं। यह एक साइकोलॉजिकल फिल्म है। इस फिल्म की कहानी उत्तरी कोलकाता में सेट की गई है। वहां रहने वाला एक 28 साल का लड़का जो बेरोजगार है, घरवालों के दिए गए पैसों से गुजर बसर कर रहा है। उसके पापा, गर्लफ्रेंड, दोस्त आदि के साथ उसके संबंध कैसे हैं? यह सब इस फिल्म में दिखाया गया है। कुछ राजनीतिक अड़चनें भी है। इसके अलावा वह एक तरह का मानसिक तनाव भी झेल रहा है। वह ठीक से सोना चाहता है लेकिन सो नहीं पाता है। तरह-तरह के विचार उसके मन में आते हैं। उसके बाद फिल्म के अंत में दिन होता है और उसे नींद आ जाती है। इस बीच एक सवाल भी यह फिल्म छोड़ जाती है। फिल्म सपनों को लेकर एक साथ बात करती है।

हमारे जीवन में मानसिक विकलांगता के साथ-साथ एक फेकनेस की जो परत चढ़ चुकी है। वह भी इसमें दर्शकों को नजर आएगी। भागदौड़ भरी जिंदगी वाले जीवन को जो हम जी रहे हैं। वह इस लड़के के माध्यम से दर्शक देख सकेंगे। इस लड़के में भावनाएं भी हैं, कलात्मकता भी है। उसके भीतर का एक कलाकार भी दर्शकों को नजर आएगा। हम आजकल एक तरह से बड़े-बड़े शहरों में पिंजड़े जैसे मकानों में जी रहे हैं। अपने आस-पड़ोस का हमें पता नहीं है। हम उनसे बात नहीं करते उस पिंजड़े से बाहर निकलने की कहानी इस फिल्म में इसकी सिनेमैटोग्राफी के माध्यम से नजर आएगी दर्शकों को। हमारे जीवन के कष्टों से निकलने का एकमात्र तरीका भी यह फिल्म बताने का प्रयास करती है। यह फ़िल्म आम दर्शक को ही नहीं बल्कि फ़िल्म समीक्षकों की उम्मीदों पर भी खरी उतरेगी मुझे अपने पर और अपनी फिल्म पर पूरा भरोसा है।

सवाल – फिल्म ही क्यों कोई दूसरा पैशन क्यों नहीं?

जवाब – जी आप और हम देखते हैं कि सब अपनी-अपनी रुचि के प्रोफेशन में लगे हुए हैं। कुछ उन्हें पूरा कर पाते हैं कुछ नहीं। जो कोई डॉक्टर होना चाहता है तो वह उसके लिए एमबीबीएस पढ़ रहा है। लेकिन साथ ही एक ग्रुप बनाकर दोस्तों का मान लो उसने फैसला किया एक फिल्म बनाने का या ऐसे ही कोई इंजीनियर बनने के लिए इंजीनियरिंग कर रहा है। हुआ नहीं हुआ वह अलग बात है। लेकिन बावजूद इसके करना सभी चाहते हैं ज्यादातर। मेरा मकसद फिल्म की दुनिया में आने और शॉर्ट फिल्म बनाने का मेरा ऐसा कोई उत्तरदायित्व के भार जैसा मैं महसूस नहीं करता। साथ ही ऐसा नहीं कि बस फिल्म किया उसके हिट-फ्लॉप की तरह उसे देखा। मैं ये सब नहीं देखता सोचता। मैं किसी तरह की रिले रेस में नहीं जुड़ना चाहता हूँ। आज बनाया है, आगे बनाऊंगा।

फिल्म का सीन

लेकिन जब मुझे जरूरी लगेगा। यह करने में मुझे मजा आता है। और इंडिपेंडेंट फिल्म जब बनता है तो है कुछ हटकर ही होता है। मैं किसी तरह के स्टूडियो सिस्टम के खिलाफ भी हूं ऐसा भी नहीं है। बंगाली धारावाहिकों में मैं एक्टिंग कर चुका हूं और डायरेक्टिंग में भी मैंने असिस्ट किया है। लेकिन स्टूडियो सिस्टम की प्रक्रिया मुझे खास अच्छी नहीं लगती। वहां कोई सोचने का समय नहीं लेता। जबकि इंडिपेंडेंट में मजा कुछ अलग ही होता है। मेरे पापा और हमारा परिवार मिडल क्लास फैमिली है। हालांकि पिताजी सरकारी नौकरी में है। तो वह भी यही चाहते थे कि मैं सरकारी नौकरी में ही अपना बेहतर कल बनाऊं। लेकिन मैं कुछ अलग करना चाहता हूं। मैं पढ़ने का शौक रखने के अलावा गाने भी सुनता हूं। मेरी सोचने की प्रक्रिया थोड़ी अलग है। इसलिए मुझे लगता है कि यही मेरा पैशन हो सकता है।

सवाल – एक्टिंग और डायरेक्टिंग?

जवाब – सबसे पहले तो फिल्म मेकिंग। डायरेक्टिंग मुझे बहुत अच्छा लगता है। लिखना, बनाना, एडिट करना। हालांकि एडिटिंग मैंने अभी शुरू नहीं किया है। मैं मेहनत में विश्वास रखता हूं। एक्टिंग में मैं पहले तो यूं तो काम कर चुका हूं। टीवी सीरियल में एक्टिंग की है। एफटीआईआई के अलावा थिएटर में भी काम किया लंबे समय तक मैंने। मुझे अच्छा लगता है। लेकिन ‘दैट इज़ नोट कप ऑफ माइ टी।’ हां फिल्म मेकिंग मुझे पसंद है। लिखना, डायरेक्ट करना, एडिट करना पोस्टर या फिल्म डिजाइन करना। यह सब ज्यादा पसंद है। मैं स्क्रीन राइटिंग एसोसिएशन का मेंबर भी हूं। स्क्रीन राइटिंग का कोर्स यू. ई. ए से किया है लंदन के एन एफ टी एस से। लिहाजा मैं मानता हूं कि एक्टर को समझने के लिए डायरेक्टर को भी एक्टिंग आनी चाहिए। या कम से कम उस की अच्छी समझ होनी चाहिए उसके सोच ने विचारने की प्रक्रिया के बारे में भी उसे अच्छे से मालूम होना चाहिए।

सवाल – आपके पसंदीदा कलाकार और मेकर्स थियेटर और सिनेमा से जुड़े हुए?

जवाब – मैं यहां एक से ज्यादा लोगों का नाम लेना चाहूंगा। सबसे पहले तो बंगाली सिनेमा के रित्विक चक्रवर्ती का नाम लेना चाहूंगा। वे बहुत बढ़िया अभिनय करते हैं। उनके साथ काम करने का सपना है। ऋत्विक चक्रवर्ती थियेटर और फिल्म दोनों में काम करते हैं। काफी जाना माना नाम है उनका। उसके अलावा हिंदी फिल्मों और थिएटर कि अगर मैं बात करूं तो संजय मिश्रा, राजकुमार राव, नसीरुद्दीन शाह इसके साथ-साथ बंगाली सिनेमा के एक और कलाकार सोमेंद्र का भी नाम ले लेना चाहूंगा। जो जमीन से जुड़े हुए लगते हैं। उनके साथ काम करने में भी आनंद आया। बाकी सोहिनी सरकार, पंकज त्रिपाठी, नवाज़ुद्दीन सिद्धकी, इरफान खान, स्मिता पाटिल, नीना गुप्ता, वासवदत्ता चटर्जी आदि मेकर्स के मामले में मणि कॉल, कमल स्वरूप, जॉन अब्राहम, विक्रमादित्य मोटवानी, अनुराग कश्यप, दिबाकर बैनर्जी, सुजीत सरकार, सुजॉय घोष, एकता मित्तल, प्रदीप्ता भट्टाचार्य, प्रतीक वत्स आदि हैं। वहीं अगर मैं विश्व सिनेमा की बात करूं तो चार्ली चैपलिन और सॉनबेल्स अब्बास, ओरसन वेल्स, अब्बास कियारोस्तामी, जफर पनाही, एंड्री तारकोवस्की, माजिद मजीदी, असगर फरहाद, तासी-मिंग-लियांग, किम किडूक
आदि काफी सारे लोग मेरे पसंदीदा कलाकार और मेकर्स हैं जो थिएटर के साथ-साथ सिनेमा में किसी न किसी रूप से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा भी कई सारे ऐसे नाम हैं जिनका नाम मैं अभी भूल रहा हूं।

सवाल – फ़िल्म की कास्टिंग, फिल्म लिखने की प्रक्रिया, डायरेक्टिंग ये सब कैसे सम्भव हो पाया?

जवाब – सबसे पहली बात तो ये कि यह कोई पहले से सोची समझी नहीं थी, मेरे लिए कि मैं फलां साल में इस कहानी से अपना डायरेक्टिंग डेब्यू करूंगा या कुछ ऐसा। ऐसा कुछ नहीं था। जो आर्ट सिनेमा होता है। इंडिपेंडेंट फिल्म जो होता है, जो थोड़ा सा एक्सपेरिमेंटल होता है। बस उसी के माफ़िक है। ये साइकोलॉजिकल एक्सपेरिमेंटल फ़िल्म है। समानांतर सिनेमा के माध्यम से जो लोगों ने बताया दिखाया है, या दिखा रहे हैं। उसमें खास तौर से युवा पीढ़ी शामिल है। ये लोग जिस सिनेमा की भाषा में बात कर रहे हैं, सिनेमैटिक तरीके से बात कर रहे हैं। मैं उसके साथ पाता हूं खुद को। मैंने ऐसा कुछ नहीं सोचा था कि 2022 तक मैं ‘ओभ्येश’ (Obhyesh) के नाम से फिल्म बनाऊंगा। ऐसा कुछ नहीं सोचा था। 

शूटिंग के दौरान एक दृष्य

मेरे सोचने की प्रक्रिया चलती ही रहती है। मैं डायरी भी लिखता हूं। वे सब विचार जो मेरे जागृत होते हैं। वह उस में लिखे हुए हैं। उसे एक कहानी का रूप देता हूं। कुछ लोगों को सुनाता भी हूं। ऐसे ही ‘ओभएश’ बनी है। रही बात कास्टिंग की तो मैं जो देख सकता था कहानी के हिसाब से उसी के हिसाब से स्टोरीबोर्ड भी बनाया। मैं चित्रकला भी जानता हूं। तो सबसे पहले अपने किरदारों को उसमें देखा, बनाया, परखा कि किसका अभिनय कौन करेगा? कैसे करेगा? और फिल्म में डायलॉग्स भी ना के बराबर है। तो लिहाजा सबसे बड़ी भूमिका फिल्म में एक्टिंग के साथ-साथ उसके साउंड की है। मानसिकता के नजरिए से, भावनात्मकता के नजरिये से यह फ़िल्म दर्शकों को टारगेट अवश्य करेगी। और जब इसकी कास्टिंग के लिए बात हुई तो मैं खुद भी सोच रहा था। कैरेक्टर कैसे लिया जाए? कहां से लिया जाए?

तो मुझे उस क्षेत्र में भी छोटे-छोटे डिटेल्स चाहिए थे। जिसकी उम्र, रंग-रूप, कद, काठी सब उस पात्र जैसा हो जिसे देखकर दर्शकों को लगे कि यह तो हमारे नजदीक का ही करैक्टर है। जैसे कमर्शियल फिल्मों में होते हैं हीरो वैसा नहीं है फिल्म में। डायलॉग हो या ना हो ऐसी फिल्मों में लेकिन वे कुछ अलग जरूर होनी चाहिए। इस फिल्म में भी डायलॉग ना के बराबर है। मेरे द्वारा फ़िल्म की कास्टिंग प्रक्रिया में सोमेंद्र मिले, उनके साथ मीटिंग हुई। मैं पहले भी कुछ फिल्मों में काम करते हुए उसे देख चुका हूँ। इस तरह उन्हें लेने का मन बनाया। मेरी फिल्म के लिए सोमेंद्र ही परफेक्ट एक्टर थे, ऐसा मैं कह सकता हूं। इस फ़िल्म में मेरे एक मेंटर की भूमिका भी अहम रही। उन्होंने मुझे पढ़ाया भी है। तीस्ता रॉय बर्मन ने इस फिल्म में नायिका का रोल किया है। कास्टिंग में भी मेरे मेंटर ने मदद की। तीस्ता और सोमेंद्र की केमिस्ट्री भी दर्शकों को अच्छी लगेगी।

सवाल – बतौर इंडिपेंडेंट डायरेक्टर आपका क्या प्रयास रहेगा? अपनी फिल्म को लोगों तक पहुंचाने में। जैसे आज के हालात हैं इंडिपेंडेंट डायरेक्टर्स के साथ। तो आपको अपनी फिल्म के साथ किस तरह संतुष्टि प्राप्त होगी?

जवाब – जी यह सवाल प्रत्येक इंडिपेंडेंट फिल्म मेकर्स के लिए एक ज्वलंत मुद्दा रहा है, अभी भी है। मैं बहुत लोगों को नहीं जानता। मेरा पहला ही यह फिल्म है। कैसे चलेगा? कैसे लोग देख पाएंगे? यह मेरे दिमाग में भी हर दिन चलता है। मेरा एक ही मकसद है- जैसे ‘संतुष्टि’ शब्द इस्तेमाल किया आपने। तो वही इंडिपेंडेंट डायरेक्टर्स और उनके नाते, मैं भी यही सोचता समझता हूं कि जब खूब सारे लोगों द्वारा फिल्म देखी जाएगी। पसंद आए ना आए वह तो बाद की बात है, जो आलोचनात्मक प्रतिक्रियाएं होंगी। वह भी मैं स्वीकार करने के लिए तैयार हूं। यह फिल्म मेरे लिए बहुत व्यक्तिगत है। इसमें छोटे-छोटे जो मेरे परिप्रेक्ष्य है, नजरिया है।

फिल्म का सीन

उस फिल्म को मैं कुछ अलग लैंस से देखूँगा, तो कोई दूसरा उसे अलग लैंस से देखेगा। जब कई लोग एक साथ इसे देखेंगे तो एक साझा सोच बाहर आएगी। बाकी लोगों तक पहुंचने की बात रही तो मैं इसे लेकर बहुत दूर का तो नहीं सोच रहा, मैं जो सोच रहा हूं उसमें एक दो साल तो इसे फेस्टिवल्स में भेजने का विचार है। बहुत से लोगों से बात भी कर रहा हूं। ताकि उनकी कुछ मदद से यह फेस्टिवल तक पहुंच सके। कुछ नहीं हुआ तो मैं खुद इसके लिए कोशिश करूंगा। अवार्ड मिले ना मिले लेकिन अगर मेरी फिल्म फेस्टिवल में सेलेक्ट हुई, इसका प्रीमियर हुआ तो एक किस्म का माहौल तो मिलेगा ही। फिर उसके बाद देश के तमाम बड़े फेस्टिवल्स में इसे भेजा जाएगा इसे। अलग से इसकी स्क्रीनिंग भी करेंगे नहीं कुछ हुआ तो। लोगों की मदद से, कुछ अपना मिलाकर गांव-गांव तक फिल्म लेकर जाऊंगा, लोगों को दिखाने। यही मेरा मकसद है। इसके बाद कुछ ओटीटी सेलेक्ट कर चुका हूं जहां बात बनेगी देखा जाएगा। हमारी टीम भी इस बारे में भी आपस में बात कर रही है।

सवाल – फेस्टिवल्स के बारे में सवाल आते हैं कि वहां पक्षपात रहता है। लिहाजा फेस्टिवल्स को लेकर आपकी क्या राय है?

जवाब – फेस्टिवल्स को लेकर मेरे राय बहुत ही सकारात्मक है। खास करके इंडिपेंडेंट फिल्म मेकर्स जो होते हैं उनके लिए फेस्टिवल ही एक ‘ओनली वे टो गो’ यानी एकल मार्गीय रास्ता है, कमर्शियल सिनेमा के मुकाबले। डायरेक्टर्स फेस्टिवल्स में फिल्में ले जाता है। आलोचनाएं, प्रतिक्रियाएं मिलती हैं। न्यूज़पेपर में आता है। उनकी फिल्म को लेकर तभी लोग बात करना शुरू करते हैं। इन सबको देखते हुए भी मेरा नजरिया सकारात्मक एवं बेहतर ही रहेगा। कुछ-कुछ मैंने भी सुना-पढ़ा। लॉबिंग करना, पक्षपात, फेवरेटिज्म के चलते बेस्ट फिल्म जैसे अवार्ड भी दे दिए जाते हैं। हालांकि इन सब को लेकर मेरा व्यक्तिगत कोई अनुभव नहीं है, इसलिए मैं ज्यादा कुछ नहीं कह सकता। ‘ओभ्येश’ के बाद ही पता चलेगा। बहुत सारे फेस्टिवल एकदम निष्पक्ष भी होते हैं। जो अवार्ड देते हैं या सिलेक्ट करते हैं प्रीमियर के लिए, वैश्विक नजरिया से देखें तो। ‘बुसान’, ‘कांस’ , ‘बर्लिन’ , ‘वेनिस’ जैसे पहले नाम मैंने बताए। थोड़ा बहुत तो होता ही है, इसमें कोई दो राय नहीं। जब मेरी पहली बार स्टूडेंट लाइफ में फिल्म आई थी, तो मेरी उसे लेकर ज्यादा अपेक्षा नहीं थी। ज्यादा कुछ किया भी नहीं था उसे लेकर। लेकिन फिर एक दो जगह भेजी थीं। जिनमें ऊटी में जो फिल्म फेस्टिवल होता है ‘ऊटी फिल्म फेस्टिवल’ उसके पहले ऑडिशन 2017 में उसे बेस्ट फिल्म अवार्ड मिला। इसके साथ उस स्टूडेंट फिल्म को बांग्लादेश (ढाका) में होने वाले ‘इंटरनेशनल इंटर यूनिवर्सिटी फिल्म फेस्टिवल’ में भी ऑफिशियल सिलेक्शन हुआ था, मैं किसी को नहीं पहचानता था तब। लेकिन फिर वही बात आ जाती है कि मैं न्यू कमर हूं, नया हूं तो इसलिए भी ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता इस बारे में।

सवाल – आपकी पसंदीदा फिल्म बताएं और इंडिपेंडेंट फिल्म मेकर के लिए कुछ कहना चाहे तो?

जवाब – यूं तो बहुत सारी फिल्में पसंद है लेकिन एकता मित्तल एक डायरेक्टर हैं। उनकी फिल्म ‘बिरहा’ काफी फेस्टिवल में दिखाई गई थी। कविता/पोएट्री की शक्ल में, उसके काफी नजदीक बनी वह फिल्म बेहतरीन है। ऐसी फिल्में मुझे बहुत पसंद हैं। वे फिल्में जो थोड़ा अलग सोचने पर मजबूर करें। जो विचारों को समृद्ध करें। आपके मस्तिष्क की नसों को खोले, ऐसी फिल्में पसंद हैं। इसके अलावा ईरानी फिल्में बहुत पसंद है, उनके साथ विशेष लगाव है। बाकी तो मैं फिल्में कम देखता हूँ। जैसे इंडियन फिल्मों की बात करूं तो ‘प्रतीक वत्स’ की फ़िल्म ‘ईब आले ऊ’ थी। उनकी तो खैर हर फिल्म का इंतजार रहता है मुझे। ‘आदित्य विक्रम सेनगुप्ता’ की ‘आशा जोर माझे’ (Asha Jaoar Majhe) जिसका इंग्लिश में नाम (Labour of Love) है वो। केवन करीमी (Keywan Karimi) की ‘द एडवेंचर ऑफ अ मैरिड कपल’ (The Adventure of a married couple) , इसके अलावा ईराकी फ़िल्म ‘बहमन घोबाडी’ (Bahman Ghobadi) की ‘टर्टल्स कैन फ्लाई’ (Turtles can fly) जो साल 2004 में आई थी। ये कुछ फिल्में मेरी पसंदीदा हैं।

रही बात फ़िल्म मेकर्स के लिए कुछ कहने की तो इंडिपेंडेंट मेकर्स को मैं क्या कहूँ। यह मेरा खुद का पहला फ़िल्म है। बस सभी को शुभकामनाएं देना चाहता हूं। आपकी सोच, इच्छाशक्ति, लग्न प्रबल एवं तीव्र होनी चाहिए। कहते हैं कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। तो हम सबको ही अपने जीवन में अपने सपनों को पूरा करने की अच्छी कोशिश करते रहना चाहिए

.

Show More

तेजस पूनियां

लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
5 4 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x