अभी-अभी खत्म हुये संसद सत्र में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर तबके को भी आरक्षण की ज़द में लाने के लिए नाटकीय ढंग से संसद ने लगभग एकमत से संविधान (124वें संविधान संशोधन) विधेयक को पारित करके आठ लाख से कम आय वाले ‘गरीब’ सामान्य वर्ग को भी 10 प्रतिशत आरक्षण देने का रास्ता साफ कर दिया। राष्ट्रपति जी ने भी इस पर अपनी मुहर लगाकर इसे कानूनी रूप प्रदान कर दिया है। इस प्रस्तावित दस प्रतिशत आरक्षण का लाभ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग में आने वाला कोई व्यक्ति नहीं उठा पायेगा चाहे वह उपर्युक्त कसौटी पर गरीब ही क्यों न हो। सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों और सार्वजनिक एवं निजी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश हेतु अब ‘गरीब’ सामान्य वर्ग को भी दस प्रतिशत आरक्षण मिल पायेगा।
जो भाजपा घोषित-अघोषित रूप से जब-तब आरक्षण के खिलाफ रही है, उसी की सरकार द्वारा अब इसप्रकार का आरक्षण देना वास्तव में उसका चुनावी हथकंडा है। हाल ही में तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिली पराजय के बाद सवर्ण मतदाताओं की नाराजगी दूर करने वाले चुनावी कदम के रूप में वह इस दस प्रतिशत आरक्षण को भुनाना चाहती है। संसद में इस विधेयक को लेकर हुई बहस में डीएमके, एआईडीएमके और कुछ वामपंथी नेताओं को छोड़कर विपक्षी नेताओं ने सवर्ण मतदाताओं को ध्यान में रखकर इस विधेयक का खुलकर विरोध तो नहीं किया किंतु उन्होंने भी इसे लाने के समय पर जरूर आपत्ति उठाई। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में मिली पराजय के बाद अफरा-तफरी में अपने कार्यकाल के अंतिम चरण में भाजपा कें नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने सवर्ण हिंदू मतदाताओं के मद्देनज़र इसप्रकार का लोक-लुभावन कदम उठाया है। वैसे ध्यातव्य है कि इस दस प्रतिशत आरक्षण से मुसलिम और ईसाई समाजों का गरीब तबका भी लाभान्वित होगा।
इस विधेयक में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यह दस प्रतिशत विधेयक पहले से जारी आरक्षण की कुल सीमा से अतिरिक्त होगा जबकि नौ न्यायधीश वाली सर्वोच्च अदालत की पीठ इंदिरा साहनी वाले मामले में यह स्पष्ट कर चुकी है कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तक ही हो सकती है। स्पष्टत: इस बात की पूरी आशंका है कि संसद द्वारा ‘गरीब’ सवर्णों को दिये गये इस आरक्षण को अदालत द्वारा रद्द कर दिया जाये। इस आरक्षण के लिए संसद द्वारा संविधान के आधारभूत ढांचे में फेरबदल किया गया है जबकि अदालतें कई बार कह चुकी हैं कि संविधान के मूल ढांचे में संसद भी कोई बदलाव नहीं कर सकती। यूथ फॉर इक्वेलिटी द्वारा सर्वोच्च अदालत में इस संविधान संशोधन के खिलाफ याचिका भी डाल दी गई है।
पचास प्रतिशत की अधिकतम आरक्षण सीमा से परे जाकर दिया जाने वाला यह आरक्षण नागराज मंजुले वाले मामले में संविधान पीठ द्वारा सुनाये गये उस निर्णय के भी खिलाफ जाता है, जिसमें अदालत ने अवसरों की समानता और गुणवत्ता के पैमाने पर आरक्षण की अधिकतम सीमा पचास प्रतिशत निर्धारित की थी। दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले तथाकथित मेरिटधारियों का मेरिट वाला तर्क इस दस प्रतिशत आरक्षण से आने वाले कोटा धारकों की तथाकथित स्तरहीनता को लेकर अब क्योंकर नहीं उठ रहा है ॽ क्या समानता को संविधान की आधारभूत संरचना बता आरक्षण का विरोध करने वाले मनुवादी अब भी सरकार के इस कदम का विरोध करने की जहमत उठायेंगे ॽ
इस दस प्रतिशत आरक्षण के रास्ते में जहाँ कानूनी अड़चने हैं, वहीं इससे आरक्षण को लेकर एक नई बहस और आंदोलन का रास्ता भी खुल गया है। मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर अन्य पिछड़े वर्ग को प्राप्त आरक्षण की सीमा इस वर्ग की जनसंख्या के अनुपात में बढ़ाने की मांग पहले भी होती रही थी किंतु अदालतें और सरकारें हर बार पचास प्रतिशत की उच्चतम सीमा के हवाले से इसके खिलाफ खड़ी होती रही थीं। अब जब स्वयं संसद ने यह पचास प्रतिशत की सीमा संविधान संशोधन द्वारा खोल दी है तो अन्य पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ अनुसूचित जाति और जनजाति के परोकारों की तरफ उनकी जनसंख्या के अनुपात में उन्हें ज्यादा आरक्षण देने की बात पुरजोर ढंग से उठाई जायेगी और इसके लिए आंदोलन भी होंगे। उच्च शिक्षा में अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण का विरोध करने वाले मनुवादी संगठन यूथ फॉर इक्वेलिटी द्वारा ‘गरीब’ सवर्णों को मिलने वाले इस दस प्रतिशत आरक्षण के विरोध के मूल में उसका यही डर है कि अब सवर्णों को प्राप्त संख्या से अधिक प्रतिनिधित्व के खिलाफ दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियाँ लामबंद होकर भाजपा के लिए राजनीतिक भूचाल ला सकती हैं।
अनुसूचित जाति एवं जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को जो आरक्षण प्राप्त है, वह संविधान के अनुच्छेद 15 एवं 16 के अंतर्गत आता है। अनुच्छेद 15 की उपधारा (4) और (5) में कहा गया है कि राज्य सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिये या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष उपबन्ध कर सकता है, जैसे कि शिक्षण संस्थानों में इन्हें आरक्षण देना। सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ेपन के आधार के रूप में जाति को लेने पर अदालत की स्वीकृति रही है। अनुच्छेद 16 राज्य को यह छूट देता है कि पिछड़े हुये नागरिकों के किन्हीं वर्गों को वह अपेक्षित प्रतिनिधित्व न होने की दिशा में सरकारी नौकरियों में आरक्षण दे सकता है। स्पष्ट है कि ये दोनों ही अनुच्छेद आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार स्वीकार नहीं करते। इंदिरा साहनी वाले मामले में भी अदालत का निर्णय था कि आर्थिक पैमाना आरक्षण का एकमात्र आधार नहीं हो सकता।
‘गरीबी’ के आधार पर सवर्णों को दिये जाने वाले इस दस प्रतिशत आरक्षण को न्यायोचित ठहराने के लिए सरकार ने नीति निर्देशक तत्वों में से अनुच्छेद 46 की दलील दी। अनुच्छेद 346 राज्य को निर्देश देता है कि वह विशेष सावधानी के साथ समाज के कमजोर वर्गों विशेषत: अनुसूचित जाति एवं जनजाति की शैक्षिक एवं आर्थिक बेहतरी सुनिश्चित करे और सामाजिलक अन्याय और सभी प्रकार के सामाजिक शोषण से उनकी रक्षा करे। ‘गरीब’ सवर्णों को दिये जाने वाले इस दस प्रतिशत आरक्षण के पीछे केंद्र सरकार का तर्क है कि नागरिकों का आर्थिक रूप से कमजोर हिस्सा आरक्षण से लाभान्वित न था। सरकार अनुसार अनुच्छेद 46 में दिये गये निर्देश की पालना के लिए और आर्थिक रूप से कमजोर नागरिकों को उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों में समुचित अवसर प्रदान करने के लिए ही उसने संविधान में अपेक्षित संशोधन किया है।
अनुच्छेद 15 और 16 में नागरिकों के सामाजिक-सांस्कृतिक पिछड़ेपन की बात है जबकि अनुच्छेद 46 नागरिकों के कमजोर तबके की बात करता है जिसमें नागरिकों का अपेक्षाकृत कहीं व्यापक हिस्सा समाहित है। और यही कारण है कि अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक-सांस्कृतिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सीमित उपाय के रूप में आरक्षण का प्रावधान है जबकि अनुच्छेद 46 में नागरिकों के कमजोर हिस्से की चहुँमुखी बेहतरी और हर प्रकार के शोषण से उनकी मुक्ति के लिए व्यापक स्तरों पर अपेक्षित प्रावधानों की अनुशंसा की गई है। इंदिरा साहनी के मामले में इसीकारण यह निर्णय भी सुनाया गया था कि अनुचछेद 15 और 16 के तहत जिन्हें आरक्षण आदि का फायदा मिलता है, वे भी अनुच्छेद 46 के तहत उठाये जाने वाले कदमों से लाभांवित होने का अधिकार रखते हैं। स्पष्ट है कि अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के गरीब लोगों को ‘गरीब’ सवर्णों को दिये जाने वाले दस प्रतिशत आरक्षण के दायरे से बाहर रखना गैर कानूनी ही कहा जायेगा। वैसे भी यह आम धारणा है कि भारतीय परिवेश में सर्वहारा और दलित-आदिवासी एक दूसरे के पर्याय ही हैं।
‘गरीब’ सवर्णों को दिया गया यह दस प्रतिशत आरक्षण संविधान के मूल स्वरूप के साथ छेड़छाड़ तो है ही किंतु व्यावहारिक धरातल पर वास्तविक गरीब सवर्णों को कुछ मिलने वाला भी नहीं है। एक तो आठ लाख तक की आमदनी को गरीबी अंतर्गत रखने से देश की नब्बे प्रतिशत आबादी इसके दायरे में आ जायेगी और दूसरे सरकारी नौकरियाँ अब हैं ही कहाँ जो आप आरक्षण से रोजगार पा सकें। सरकारी और निजी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के स्तर पर इस दस प्रतिशत आरक्षण की बात है तो महँगी होती शिक्षा पहले ही आरक्षण के वास्तविक हकदारों को अंगूठा दिखाने का काम कर रही है।
इस दस प्रतिशत आरक्षण के लाभ हेतु आय की अधिकतम सीमा आठ लाख रखा जाना भी समस्याजनक है क्योंकि अभी आठ लाख रुपये सालाना से ज्यादा कमाने वाले अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग मलाईदार वर्ग में रखे जाते हैं और वे अन्य पिछड़ा वर्ग को मिलने वाले आरक्षण से बाहर हैं। स्पष्ट है कि आठ लाख से कम आय वाले अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग उसी प्रकार गरीब हैं जैसे कि सरकार के अनुसार सवर्ण ‘गरीब’ हैं। गरीब होने के साथ-साथ अन्य पिछड़ा वर्ग (और अनुसूचित जाति एवं जनजाति) के लोग सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से भी पिछड़ेपन के शिकार हैं। तो मुद्दा यह है कि ‘गरीब’ सवर्णों की तुलना में इन तीनों वर्गों के लोग कहीं ज्यादा शोषित-वंचित हैं किंतु फिर भी उन्हें आर्थिक पिछड़ेपन के लिए दिये जाने वाले इस दस प्रतिशत आरक्षण से बाहर रखा गया है जो केंद्र सरकार के मनुवादी रवैये का द्योतक है।
अंत में दस प्रतिशत आरक्षण की इस पूरी बहस में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से पिछड़े लोगों को उनका समुचित प्रतिनिधित्व दिलाने का माध्यम है, न कि गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम। सरकारी नौकरियों में जिन सवर्ण जातियों को उनकी संख्या से कहीं ज्यादा प्रतिनिधित्व पहले से मिला हुआ है, उन्हें अलग से और आरक्षण देना आरक्षण के मूल दर्शन के खिलाफ है। सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है जो यह दिखाता हो कि आर्थिक रूप से यह ‘गरीब’ सवर्ण समाज सरकारी नौकरियों में अपेक्षित प्रतिनिधित्व से वंचित है। और फिर भी अगर आज सरकार को लगता है कि सवर्ण भी गरीबी के कारण शिक्षा और रोजगार के समुचित अवसरों से वंचित हैं तो सरकार को मुफ्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया करानी चाहिए और रोजगारोन्मुख विकास परियोजनाओं पर कार्य करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गरीबी के बाद भी सवर्णों के पास परंपरा से जो सांस्कृतिक पूँजी है, उस सांस्कृतिक पूँजी से आरक्षण से किंचित लाभांवित होने वाला कथित मलाईदार तबका भी महरूम ही रह जाता है। संविधान निर्माताओं ने आरक्षण का प्रावधान ऐतिहासिक रूप से सदियों तक सामाजिक-सांस्कृतिक बहिष्कार झेलते आये तबकों के लिए तय किया था, न कि सांस्कृतिक पूँजी से लैस ‘गरीबों’ के लिए इसकी अनुशंसा की थी।
‘गरीब’ सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने वाला कानून बनाने में सरकार ने जो हड़बड़ी दिखाई और जिसप्रकार विपक्ष ने बिना किसी खास प्रतिरोध के सरकार का साथ दिया, उससे साबित हो जाता है कि मनुवादी ताकतें संसद में किस हद तक व्याप्त है। सवर्णों के आरक्षण के लिए लोकसभा में विधेयक प्रस्तुत करने की प्रक्रियागत औपचारिकता तक का निर्वाह समुचित ढंग से नहीं किया गया। इस दस प्रतिशत वाले आरक्षण विधेयक पर चर्चा-परिचर्चा करने के लिए सांसदों को समय ही नहीं दिया गया। लोकसभा में जिस दिन यह विधेयक सदन के पटल पर रखा गया, उस दिन सुबह तक इसकी प्रतियाँ सांसदों तक को नहीं दी गई थी। इसप्रकार के संविधान संशोधक विधेयक को संसद की स्थाई समिति को दिया जाना चाहिए था किंतु पक्ष और विपक्ष, दोनों को इतनी जल्दी थी कि उन्होंने बिना किसी गंभीर चर्चा-परिचर्चा के इस विधेयक को जबर्दस्त बहुमत से संसद के दोनों सदनों से पारित करवा दिया।
इसप्रकार की जल्दबाजी स्वयं में दलितों-पिछड़ों के खिलाफ एक षड्यंत्र की व्यंजक है। चुनावी जुमलेबाजी का एक और नमूना भी इसे कहा जा सकता है। बिना किसी आंकड़े और सर्वे के इतना महत्वपूर्ण निर्णय ले लेना मोदी सरकार की अदूर्दर्शिता भी कही जायेगी। स्पष्ट है कि सामाजिक न्याय के प्रति भाजपा का जो ढुलमुल रवैया रहा है, वह इस दस प्रतिशत आरक्षण वाले चुनावी हथकंडे के पीछे से भी झांकता देखा जा सकता है। उसे अच्छे से पता है कि यह दस प्रतिशत आरक्षण असंवैधानिक और अव्यावहारिक भी है। किंतु अपने चुनावी फायदे के लिए मोदी ने जो यह शिगूफा छोड़ा है, वह ‘जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का रास्ता साफ करके रहेगा। मेरिट की बात करने वाले अब जब खुद आरक्षण का झुनझुना बजा रहे हैं तो वे किस मुँह से अब आरक्षण मांगने वाले दलितों-पिछड़ों का रास्ता रोकेंगे ॽ