मोदी से कहाँ चूक हुई?
- दीपक भास्कर
2014 के आम चुनाव में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने महज 60 महीने मतलब पांच साल के लिए वोट मांगे लेकिन चुनाव परिणाम से जाहिर था कि जनता ने उन्हें 10 साल के लिए अपना मत दिया हो। भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के आम चुनाव में ऐतिहासिक प्रदर्शन किया और सालों बाद एक पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। मोदी जनमानस में “एकाकी” नेता के तौर पर उभरे। शुरुआती सालों में ऐसा लग रहा था कि मोदी को सत्ता से बेदखल करने की सोचना ही बेमानी है। विपक्षी पार्टियों के पास मुद्दे तो थे लेकिन मोदी के सामने उनके मुद्दे चल ही नहीं पा रहे थे। कुछ ही विपक्षी पार्टियां रहीं जिन्होंने शिद्दत से मोदी का विरोध किया बाकी मोदी के साथ नहीं तो विरोध में भी लगभग नहीं ही रह गए थे। भारत के राजनीतिक इतिहास में किसी भी सरकार के पांच साल इतनी जल्दी नहीं गुजरे होंगे, 2014 से 2019 की दूरी, पांच साल की दूरी तो कतई नहीं थी, इसकी वजह राजनीति में टेक्नोलॉजी(प्रौद्योगिकी) का आगमन था। प्रौद्योगिकी ने समय की गति को बढ़ा दिया था।
बहरहाल, अब 2019 का आम चुनाव सामने हैं, मोदी जिन्हें जनता ने दस साल का जनमत दिया था, उनके “एकाकी” नेता होने की छवि वहां पहुंच गई है जहां खुद भारतीय जनता पार्टी एवम उसके सहयोगी दल ये मानते हैं उनकी सीटें कम हो रही हैं, शायद उन्हें सरकार बनाने के लिए जोड़तोड़ करना पड़ जाय या फिर सरकार न भी बनें। कौन हारेगा और कौन जीतेगा इसकी भविष्यवाणी करना प्रौद्योगिकी के दौर में उचित नहीं।
खैर, पूर्ण बहुमत से जोड़तोड़ की राजनीति तक पहुंचना ही मोदी जैसे एकाकी नेता की हार जैसा है। लेकिन सवाल यह है कि ऐसा क्या हुआ जिसने मोदी के “एकाकी नेता” की छवि को तोड़ दिया है। इसके कारणों को विश्लेषण आवश्यक हैं।
पहली बात है कि मोदी कह रहे हैं कि सारी विपक्षी पार्टियां मिलकर उन्हें हराना चाहती है। अब इसमें दो बातें महत्वपूर्ण हैं। या तो मोदी यह मान रहे हैं कि विपक्ष के बिखराव का फायदा उन्हें 2014 के चुनाव में मिला था। इसका मतलब उनकी छवि का असर कम ही था, दूसरी कि वो विपक्ष के बिखराव को बरकरार नहीं रख पाए। राजनीति में यह महत्वपूर्ण है कि आपका विपक्ष भी एक दूसरे के विपक्ष में हो। मोदी ने विपक्ष को आपस में लड़ने-भिड़ने के बजाय उसे एक जगह लाकर खड़ा कर दिया। “कांग्रेस-मुक्त” का नारा कांग्रेस तक सीमित नहीं रह पाया, यह डर उसने लगभग सभी विपक्षी पार्टियों में भर दिया फलस्वरूप, विपक्ष के पास आपसी मतभेद को छोड़, एक होने की वजह मिल गयी।
दूसरी महत्वपूर्ण भूल यह हुई कि मोदी ने विरोध की आवाज को लोकतंत्र की आवश्यक विधा मानने के बजाय, खुद के खिलाफ समझा। मोदी की इस “अ-लोकतांत्रिक” समझदारी ने उसका सबसे ज्यादा नुकसान किया। अब मोदी की छवि ‘एकाकी’ नेता के तौर पर नहीं बल्कि “निरंकुश” नेता के तौर पर गढ़ी जाने लगी। मोदी यह समझ नहीं पाए कि भारत का लोकतंत्र बहुत नीचे गहराई तक जा पहुंचा है वो इसलिए भी क्योंकि भारत की बड़ी जनसंख्या हजारों सालों से सामाजिक एवं राजनैतिक व्ययवस्था से दूर रखे गए थे, लोकतंत्र में उन्हें वो भागीदारी मिल रही थी और मिलने की संभावना तो थी ही। संसदीय लोकतंत्र की गरिमा पक्ष और विपक्ष दोनों को मिलकर गढ़ी गई थी मोदी इसमें से विरोध के स्वर हटा रहे थे।
तीसरी भूल थी, भावनाओं की राजनीति का। मोदी ने बड़े-बड़े वादों को करके लोगों की भावनाओं का विद्युतीकरण तो किया लेकिन भावनाओं को लंबे समय तक जिंदा रखना ही सबसे कठीन कार्य है। भावनाएं क्षद्म होती हैं इसका कुछ ही समय में खत्म हो जाना ही इसकी नियति है। मोदी भावनाओं को तर्क तक ले जा नहीं पाए। भावना और तर्क में विसंगति ने मोदी की उद्वेलित भाषणों कों भी कमजोर कर दिया। मोदी, उन तर्कों को सहारा लेने लगे जो जनता के तर्क को कमजोर कर पाने में सक्षम नहीं रह गए थे।
चौथी बड़ी भूल थी, विश्विद्यालयों में हलचल। दुनिया के किसी भी देश में विश्वविद्यालय बिल्कुल अलग ढंग से चलते रहे हैं। ज्यादा जरूरी यह होता है कि विश्वविद्यालय को उसके वैश्विक चरित्र के साथ ही रहने दिया जाए, उसके चरित्र का राष्ट्रीयकरण करना सबसे बड़ी गलती होती है। स्कूल में ऐसा किया जा सकता है लेकिन विश्विद्यालय में यह सोचना ही खतरे को दावत देना है। विश्विद्यालय, राजनीति के नरेटिव को बनाने और बिगाड़ने का काम कर सकते हैं। मोदी ने पुराने शासकों से शायद यह सबक नहीं ली नतीजतन विरोध के लिए अब पार्टी की जरूरत ही नहीं थी बल्कि पूरा विश्विद्यालय ही विरोध में खड़ा था।
पांचवी बड़ी भूल थी, न्याय की अनदेखी। मोदी किसी खास आइडेंटिटी की राजनीति बखूबी कर, चुनाव जीत चुके थे, इसलिए उन्होंने “आइडेंटिटी” को ही राजनीति बना दिया। यह सबसे बड़ी भूल थी, आइडेंटिटी सत्ता तक पहुंचने के लिए फायदेमंद हो सकती है लेकिन सत्ता में पहुंचते ही, आइडेंटिटी को “न्याय” की सरंचना में मिलाना जरूरी होता है क्योंकि राज्य, न्याय से चलता है आइडेंटिटी से नहीं। मोदी ने न्याय के साथ समझौता करना शुरू कर दिया था इसलिए एकाकी नेता होने की छवि भी भरभरा कर गिरने लगी। शायद, मोदी ने इतिहास यह नहीं सीखा की इतने बड़े जननेता श्री लालू प्रसाद यादव अथवा मुलायम सिंह यादव की अवनति कैसे हुई। अगर मोदी सीखते तो “न्याय” के साथ खड़े होते और उनकी ये दुर्गति शायद ही होती।
मोदी न्याय की अवधारणा को ही नहीं समझ पाए। अगर समझते तो इसके शासन काल में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के साथ जो अन्याय हुआ वह नहीं होता और मोदी का दस साल, महज पांच साल में परिवर्तित न होता। “न्याय” शासन का मूल होता है इसकी अनदेखी ही, सत्ता से बेदखल होने की पहली निशानी होती है।
#सत्यमेवजयते
डॉ दीपक भास्कर, दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति पढ़ाते हैं।
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