उठा निज मान लागिया
दुनिया भर के जिन आदिवासी विद्वानों ने संयुक्त राष्ट्र संघ तक का ध्यान आदिवासी समुदाय की समस्याओं और चुनौतियों की तरफ आकृष्ट किया, उन्हीं में से एक थे अद्भुत व्यक्तित्व के धनी पद्मश्री डॉ. रामदयाल मुंडा। वह एक प्रतिबद्ध आदिवासी कार्यकर्ता व सिद्धांतकार, विश्व स्तरीय भाषाविद, पुरखा गीतों के संग्रहकर्ता, साहित्यकार, नृतत्वशास्त्री, संगीतज्ञ, आदि न जाने कितनी प्रतिभाओं से संपन्न थे। वे मानवीयता और ज्ञान की विनम्रता के जीते-जागते मिसाल थे, जिन्हें सच्चे अर्थों में विश्व नागरिक कहा जा सकता है। आज ही के दिन 23 अगस्त 1939 को छोटे से दिउड़ी गाँव (रांची से 60 किमी की दूरी पर स्थित) में जन्में रामदयाल मुंडा का बचपन में नृतत्वशास्त्रियों के लिए गाइड की भूमिका से शुरू हुआ सफर, फिर थमा नहीं। आगे चलकर पूरी दुनिया ने न सिर्फ उनसे आदिवासियों के बारे में जानना चाहा बल्कि आदिवासियों से सम्बन्धित नीतियाँ बनाने में भी उनकी मदद ली।
सन् 1981 में राँची विश्वविद्यालय में ‘जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग’ की स्थापना से पहले वे अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय से एम.ए. और पी.एच.डी. पूरी कर, वहीं अध्यापन का कार्य कर रहे थे। जिस ‘जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग’ की उन्होंने स्थापना की वह उस समय पूरे भारत का पहला ऐसा विभाग था । उनके नेतृत्व में इस विभाग ने न सिर्फ अध्य्यन और शोध को बढ़ावा दिया बल्कि आदिवासी भाषाओं और संस्कृति के संरक्षण और प्रोत्साहन में भी भरपूर भूमिका अदा की और आदिवासी विचारकों और कार्यकर्ताओं की एक नई पीढ़ी का निर्माण किया। सन् 1985 में वह उसी रांची विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए गये। रामदयाल मुंडा की पहचान और प्रतिष्ठा वैश्विक थी। आदिवसियों की समस्याओं को सयुंक्त राष्ट्र की चिंता में शामिल करने और आदिवासी दिवस की संकल्पना को अमली जामा पहनाने में दुनिया भर के प्रबुद्ध आदिवासी विद्वानों और कार्यकर्ताओं के साथ रामदयाल मुंडा का भी महत्त्वपूर्ण योगदान था।
आज रामदयाल मुंडा के 81वें जन्मदिन पर उनकी दो प्रमुख बातों पर शिद्दत से विचार करना जरूरी लगता है। उन्होंने आजीवन इन दो बातों का हर मंच, हर सभा में प्रमुखता से आह्वान किया। पहला, ‘नाची से बाँची’ (जो नाचेगा वो बचेगा) तथा दूसरा, ‘माय माटी और मान’ (धरती माँ, प्रदेश और सम्मान) की अवधारणा। इन दो सिद्धांतों को उन्होंने अपने जीवन में न सिर्फ बोलने के स्तर पर लागू किया बल्कि उसे अपने जीने का ढंग ही बना लिया। नाच या नाचने की अवधारणा आदिवासी समाज में ठीक वैसी ही नहीं है जैसा गैर आदिवासी समाज में होता है। नाचना यहाँ अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का परिचायक है। रामदयाल मुंडा के ‘नाची से बाँची’ का असल अभिप्राय आदिवासियों की जीवन पद्धति, संस्कृति और भाषा के संरक्षण से था।
आदिवासी गीतों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों के उत्सवधर्मी संरक्षण और विकास को उन्होंने हमेशा महत्व दिया। न सिर्फ कहा बल्कि सामने रहकर नेतृत्व किया। यह सभी जानते हैं कि रामदयाल मुंडा ने अपने अखड़ा के लोगों के साथ सोवियत रूस, अमेरिका, चीन, जापान, फिलीपींस आदि देशों की यात्राएं की। झारखण्ड के मुंडा पाइका नृत्य को उन्होंने दुनियाभर में प्रसिद्धि दिलाई। दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय आदिवासी महासभा का आयोजन उनकी ‘नाची से बाँची’ जीवन पद्धति का जीवन्त प्रमाण था, जिसके मंच पर वह कैंसर से हुई दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के ठीक 180 दिन पहले, 30 मार्च 2010 को, नगाड़ा बजाते हुए अपने साथियों के साथ झूम कर नाच गा रहे थे।
रामदयाल मुंडा दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों से जुड़े रहे। शिकागो और मिनेसोटा जैसे विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य किया। ऑस्ट्रेलियन यूनिवर्सिटी कैनबरा और न्यूयॉर्क के सिराक्यूज विश्वविद्यालय से विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर जुड़े। यूनाइटेड नेशन की विभिन्न समितियों में रहे। इसके बावजूद आदिवासियत को जीने वाले रामदयाल मुंडा का लोगों के प्रति अप्रतिम लगाव था। लगाव का ही परिणाम था कि वह अपने दोस्तों के साथ मोटरसाइकिल पर पूरे झारखण्ड की सैर पर निकल गये। यह यात्रा अपने लोगों को नजदीक से देखने-समझने के उनके जज्बे का परिणाम थी। बाद में उनके साहित्यकार मित्र और झारखण्ड आन्दोलन से जुड़े बिश्वेश्वर प्रसाद केशरी ने इस दिलचस्प यात्रा-संस्मरण को ‘मैं झारखण्ड में हूँ’ नाम से प्रकाशित कराया। झारखण्ड को बेहद नजदीक से जानने के कारण वह ‘हूल’ और ‘उलगुलान’ को एक ही परम्परा में देखने की वकालत करते थे। असल में वह सभी आदिवासी विद्रोहों को आदिवासी परम्परा से जोड़कर देखने की वकालत करते थे, जिसके अभाव में उन विद्रोहों को महज तारीख के तौर पर ही याद किया जाता रहा है।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी के ‘माँ माटी मानुष’ का राजनीतिक नारा बहुत प्रसिद्ध हुआ। जबकि उसके बहुत पहले से रामदयाल मुंडा अपने ‘माय माटी और मान’ के लिए उठ खड़ा होने का आह्वान कर रहे थे। हर प्रकार के मंच से वह साफगोई और मुखरता से अपनी बात कहते थे। 30 मार्च 2010 को दिल्ली में आयोजित आदिवासी महासभा के मंच से स्पष्ट कहा, ‘आज केंद्रीय जनजातीय मंत्रालय की स्थिति ‘पोस्ट ऑफिस’ की तरह हो गयी है जबकि इस विभाग को आदिवासी समुदायों के कल्याण से सम्बन्धित मुद्दों के लिए एक वास्तविक नोडल एजेंसी की तरह होना चाहिए।’ ध्यान रखिए तब वह तत्कालीन सरकार द्वारा ही राज्यसभा के लिए मनोनीत किए गये थे और सत्ताधारी पार्टी की अध्यक्षा में बनाए गये राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य भी थे। संयुक्त राष्ट्र की विश्व आदिवासी दिवस मनाने की सोच और प्रस्तावना को देखें तो वहाँ भी यही बात स्पष्टता से कही गयी है कि राज्य और उसकी एजेंसियों को आदिवासियों के अधिकारों को लागू करने में एक कड़ी की भूमिका अदा करनी चाहिए।
अलग झारखण्ड राज्य के निर्माण सम्बन्धी मसौदा तैयार करना, आदिवासी भाषा का एकेडमिक रूप से विकास करना और आदिवासी परम्पराओं का संरक्षण करना हो या ‘आदि धरम’ की अवधारणा को अमलीजामा देना हो, वहां माय, माटी के साथ मान का मुद्दा प्रमुख है। वह मानते थे कि यह एक दिन में नहीं होगा। इसके लिए लगातार संघर्ष करने की आवश्यकता है। हिन्दी में प्रकाशित उनकी ‘आदिवासी अस्तित्व तथा झारखंडी अस्मिता’ शीर्षक किताब और ‘कथन शालवन के अंतिम शाल’ जैसी अद्भूत कविता में यह देखा जा सकता है। ‘नाची से बाँची’ के सिद्धांत में यकीन करने और उसे जीवन में बरतने वाले रामदयाल मुंडा ने झारखण्ड और प्रकारांतर से देश की समस्त संघर्षशील जनता से अपने माँ,माटी और सम्मान के लिए, अपने अस्त्तित्व और अस्मिता लिए खड़ा होने का जीवन भर प्रेरणादायी तरीके से आह्वान किया। उनके एक गीत की पंक्तियाँ हैं, जो अनायास उन्हें याद करते हुए गूँजती सी प्रतीत होती है-
“जागुझारखण्डी जनता महान
जानु चिन्हूबुझू निज पहचान
उठा निज मायलागिया
उठा निज माटी लागिया
उठा निज मान लागिया”
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