सप्रेस फीचर्स

भारत की ओर लौटने का वक्त

 

  •  सुरेन्द्रसिंह शेखावत

 

कोरोना महामारी के दौर में भारतीय लोक-जीवन की अनेक बातें फिर से याद आने लगी हैं। कहा जाने लगा है कि भारतीय ग्रामीण जीवन पद्धति कोरोना जैसी व्याधियों से बचाने, मुक्त करवाने में कारगर हो सकती हैं। प्रस्तुत है, इसी विषय पर प्रकाश डालता सुरेन्द्रसिंह शेखावत का यह लेख।

कोरोना महामारी के दौरान लम्बे समय तक चले लॉकडाउन से जन-जीवन थम-सा गया है। हमारी भागम-भाग भरी जिन्दगी में यह आश्चर्यजनक वक्त है जब हमारे पास समय-ही-समय है। हमारे पास परिवार के लिए, बच्चों के लिए, प्रकृति के लिए, संगीत सुनने के लिए, आसमान में तारे देखने के लिए, किताबें पढ़ने के लिए, विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने के लिए और अपनी-अपनी रूचि के अनुसार काम करने के लिए समय- ही-समय है। कोरोना-काल में हुई तालाबन्दी ने हमें नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर कर दिया है।

पिछले 50- 60 सालों से और खासकर उदारीकरण और वैश्वीकरण का दौर शुरू होने के बाद से, हम भारतीयों ने पश्चिम का अन्धानुकरण किया है। हमारा खान-पान, पहनावा, सोच-विचार, रहन-सहन, यहाँ तक कि संस्कृति भी पश्चिम की अन्धाधुंध नकल की तरफ अग्रसर है। हमने भारतीयता से लगभग मुँह मोड़ लिया है। अन्धाधुंध उत्पादन और अधिकतम उपयोग की शोषण आधारित पश्चिमी संस्कृति हमने अपना ली है। प्रकृति के अधिकतम दोहन का यह युग अत्यन्त ही अमानवीय है। ऐसे समय में जब हम भारत के लोग भारतीयता को छोड़कर पूरी तरह से पश्चिम के अनुगामी हो गये थे, प्रकृति ने हमें भारत की ओर लौटने का एक अवसर दिया है।

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कोरोना महामारी के समय पूरी दुनिया में इम्यूनिटी अर्थात ‘रोग प्रतिरोधक क्षमता’ पर महत्वपूर्ण विमर्श हो रहा है। ऐसे में औसत भारतीय लोगों की मजबूत ‘रोग प्रतिरोधक क्षमता’ का लोहा दुनिया ने माना है। दुनिया के समृद्ध देश इस बात को लेकर अचरज में है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में पिछड़ा भारत कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त कर रहा है। विश्व में स्वास्थ्य सेवाओं और स्वच्छता में अग्रणी अमेरिकी और यूरोपीय देशों के मुकाबले हमारी मजबूत इम्यूनिटी के पीछे हमारी रसोई का महत्वपूर्ण योगदान है। उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक पूरे भारत में प्रत्येक रसोई में मसालों का भरपूर प्रयोग होता है।

हमारे भोजन के रोजाना के प्रयोग में उपयोग किए जाने वाले हल्दी, धना, अदरक, काली मिर्च, दालचीनी, जीरा, मेथी, अजवाइन, सौंफ इत्यादि अनेकानेक मसाले अपने आप में इम्युनिटी को बढ़ाने के प्राकृतिक स्त्रोत हैं। इसके साथ ही बहुत से भारतीय परिवारों में परम्परागत रूप से उपयोग में लिए जाने वाले तुलसी, गिलोय, सहजन आदि भी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। भारतीय परम्परा का भोजन जिसमें मोटे अनाज और मसालों का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है, सुपाच्य एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है। पश्चिमी देशों में प्रयोग किए जाने वाले पैकेज्ड फूड और बॉयल्ड फूड के मुकाबले भारतीय भोजन अधिक पौष्टिक और स्वास्थ्य-वर्धक होता है।

भारतीय मूल की चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में भी किसी भी बीमारी के मूल कारण को जानने की प्रक्रिया है। ऐसे में हमारी आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाकर ही किसी बीमारी को खत्म करने का आधार माना जाता है। यद्यपि इस कोरोना-काल में सरकारी स्तर पर एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के मुकाबले आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की उपेक्षा की गयी, परन्तु फिर भी ‘रोग प्रतिरोधक क्षमता’ बढ़ाने के मामले में एलोपैथिक सहित अन्य चिकित्सा पद्धतियों के मुकाबले आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति अपने आप में समृद्ध है।

मानव और प्रकृति दोनों के मध्य सामंजस्य रखते हुए समन्वित विकास की अवधारणा मूल रूप से भारतीय विचार है। पश्चिम की ’शैतानी सभ्यता’ प्रकृति के शोषण और दोहन पर आधारित व्यवस्था है। कोरोना-काल में एक बार फिर से हमने प्रकृति के महत्व और उसकी जरूरत को समझा है। ऐसे में प्रकृति और मानव के मध्य सामंजस्य के साथ समन्वित विकास के भारतीय मॉडल को अपनाए जाने की जरूरत भी महसूस हुई है।

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हमने कोरोना-काल में इस बात पर भी गौर किया है कि यह बीमारी अधिकतर पश्चिम के समृद्ध इलाकों और मेट्रो सिटी में ही फैली है। गाँव-देहात में रहने वाले लोग और पूर्वोत्तर के लोग जो प्रकृति के ज्यादा नजदीक रहते हैं, उन पर यह बीमारी लगभग बेअसर रही है। जाहिर है, भारतीय विचार जो प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करता है उस पर फिर से एक बार इस महामारी के समय स्वीकृति की मोहर लगी है। सादगी सरलता और सहजता से जीवन जीने की पद्धति को इस महामारी के समय में हम लोगों ने उचित पाया है। महानगरों में रहने वाले लोग भी इस महामारी के समय गाँव देहात में लौटे हैं और कुछ लोग तो खासतौर से खेतों और फार्म हाउस में रह रहे हैं। यह प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करने का एक प्रयास ही है।

सन् 1830 में एक अंग्रेज अधिकारी सर चाल्र्स मेटकाफ ने भारतीय गाँव का विवरण देते हुए लिखा था कि ग्रामीण समुदाय छोटे गणराज्य की तरह हैं जहाँ उनकी आवश्यकता की लगभग हर वस्तु उपलब्ध है और बाहरी दुनिया से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। वे चिरस्थाई प्रतीत होते हैं जहाँ कोई भी चीज, कभी समाप्त नहीं होती। ग्रामीण समुदायों का यह संघ हर गाँव की खुशहाली में सहायक है जिसमें प्रत्येक गाँव एक छोटे राज्य की तरह है और यह सभी गाँव स्वाधीन एवं स्वतन्त्रता का आनन्द लेते हैं। विश्व बाजार में परिवर्तन और नव पूँजीवाद ने भारतीय ग्रामीण प्रणाली की इस आत्मनिर्भरता को नष्ट कर दिया है।

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ऐसे में ग्राम आधारित स्वराज के मॉडल की तरफ फिर से लौटने की भी आवश्यकता इस महामारी में महसूस की गयी है। इतनी बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन अपने-अपने गांवों की तरफ हुआ है और यह नहीं लगता कि ये मजदूर जल्द ही अपने कार्यक्षेत्र की तरफ लौटेंगे। ऐसे में योजनाबद्ध रूप से कृषि और कृषि आधारित अन्य लघु उद्योगों की स्थापना करके भारतीय ग्राम स्वराज के मॉडल को फिर से जिन्दा किया जा सकता है जो हमारी अर्थव्यवस्था का मजबूत आधार बन सकता है।

इस महामारी काल में हमने यह बात भी गौर की है कि जिन जरूरी सेवाओं को नव-उदारीकरण के दौर में हमने निजीकरण की तरफ बढ़ावा दिया था, वह इस काल में पूरी तरह से विफल रहे हैं। ऐसे में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम ही आवश्यक सेवाओं को उपलब्ध करवाने में सफल हुए हैं और इससे भारतीय सहकार के भाव को बढ़ावा ही मिला है। प्रकृति ने इस महामारी-काल में हमें एक अवसर दिया है जिसमें हम रहन- सहन, आचार-विचार, पहनावा, खान-पान और संस्कृति में भारतीयता के विचार की तरफ लौट सकते हैं। इस महामारी के समय इस मजबूरी को अवसर में बदलते हुए हम भारत की तरफ लौटेंगे तो सबका भला होगा। (सप्रेस)

श्री सुरेन्द्रसिंह शेखावत स्वतन्त्र लेखक हैं।

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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