गुजरात के चुनाव परिणामों ने जहां भारतीय जनता पार्टी के कान खड़े कर दिए हैं, वहीं बर्फीले प्रदेश हिमाचल में कांग्रेस को बहुत बड़ा सबक दिया है। इन दोनों चुनावों के परिणामों के नेपथ्य से कुल मिलाकर यह संदेश तो प्रवाहित हो रहा है कि कांग्रेस धीरे-धीरे ही सही, परंतु सत्ता मुक्त पार्टी की ओर कदम बढ़ा रही है। वर्तमान में कांग्रेस के पास देश के चार ही राज्य ऐसे हैं, जहां उसकी सरकार है। इतना बड़ा देश और केवल चार राज्य। यह कांग्रेस के लिए आत्म मंथन का विषय हो सकता है। वैसे कांग्रेस गुजरात में अपनी बढ़ती हुई ताकत को देखकर आत्म मुग्ध हो रही है। वह अपनी हार को भी जीत मानने की भूल कर रही है। हालांकि यह सत्य है कि जो हारकर भी जीत जाए, उसे बाजीगर कहते हैं, लेकिन लोकतंत्र में यह कहानी अतिरेक की श्रेणी में आती है। लोकतंत्र में केवल सीटों की संख्या का गणित ही लगाया जाता है, पहले से कितनी सीट ज्यादा आई, इसका कोई महत्व नहीं है। गुजरात चुनाव के परिणामों ने यह बात तो जाहिर कर दी है कि भाजपा जैसी जीत चाहती थी, वैसी नहीं मिली। इसके विपरीत कांग्रेस को भी जैसे प्रदर्शन की उम्मीद थी, वैसा भी नहीं हुआ। भाजपा की पहले के मुकाबले कमजोर सरकार और कांग्रेस की प्रभावशाली हार ने दोनों ही दलों के कार्यकर्ताओं को उछलने कूदने का अवसर प्रदान किया है। गुजरात के परिणाम भाजपा के लिए खतरों भरा आमंत्रण है, वहीं कांग्रेस के लिए एक बहुत बड़ा सबक है। सबक इसलिए माना जा सकता है कि क्योंकि यह सिद्ध हो चुका है कि आज की राहुल गांधी वाली कांग्रेस में उतनी ताकत नहीं है, जो अकेले रहकर भाजपा का मुकाबला कर सके। इसलिए यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस अपाहिज जैसी अवस्था को प्राप्त करने की ओर हो रही है। आगे कांग्रेस की अवसथ क्या होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है, लेकिन बाहरी राजनीतिक जगत और अंदरखाने में कांग्रेस की इतिश्री की अवस्था को प्राप्त करने जैसी खबरें भी सुनाई देने लगी हैं। अभी हाल ही में वरिष्ठ राजनीतिज्ञ अमर सिंह ने कहा भी है कि नरेन्द्र मोदी न तो कभी हारे हैं और न ही हारेंगे। उनका आशय संभवत: यही निकाला जा सकता है कि कांग्रेस में अब उतनी ताकत नहीं है कि वह भाजपा को पराजित कर सकें। इसी प्रकार कांग्रेस तो चुनाव से पूर्व ही निराशा के स्वर प्रस्फुटित हो चुके हैं। गुजरात के चुनाव परिणामों ने भाजपा को गहरे सबक से साक्षात्कार कराया है। गुजरात की जनता ने भाजपा का भय से सामना कराया है। एक ऐसा भय जो आगामी चुनावों के लिए आत्म मंथन के लिए विवश करेगा। दूसरी सबसे बड़ी बात यह भी है कि जिस कांग्रेस के पास अपने कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों को देने के लिए पैसे नहीं थे, उसके पास चुनावों के लिए धन कहां से आ गया। हम यह भी जानते हैं कि देश ही नहीं, बल्कि विदेश में कई संस्थाएं ऐसी हैं जो नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक प्रभाव को कमजोर करने का प्रयास कर रही हैं। हो सकता है कि कांग्रेस को ऐसे ही लोगों ने धन उपलब्ध कराया हो, लेकिन हम तो यही कहेंगे कि यह सारा मामला जांच ऐजेंसियों का विषय है, इसका गणित भी जांच एजेंसियां ही लगा तो अच्छा रहेगा। परंतु जांच का विषय तो है ही। दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए अपशकुन ही कहे जा सकते हैं, क्योंकि उनके अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद ही उनकी ऐसी परीक्षा हुई कि दोनों राज्यों में असफल हो गए। शुरुआत में ही पराजय मिलना अध्यक्षी की मीठी खुशी में कड़वाहट पैदा कर गई।
गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनावों के जो परिणाम आए हैं, उससे भारतीय जनता पार्टी को सत्ता मिल गई है। इन चुनाव परिणामों में खास बात यह है कि गुजरात में सत्ता विरोधी लहर बिलकुल भी दिखाई नहीं दी, इसके अलावा हिमाचल में सत्ता विरोधी लहर के चलते कांग्रेस को सत्ता छोड़नी पड़ी है। इससे यह साफ हो जाता है कि दोनों राज्यों में भाजपा की ही लहर दिखाई दी। गुजरात के चुनाव परिणाम का अध्ययन करने से यह प्रमाणित होता है कि वहां वास्तव में कांग्रेस के नाम पर कोई जादू नहीं था, कांग्रेस को जो भी सफलता मिली है, उसमें उन तीन नए नेताओं का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है, जिन्होंने कांग्रेस का साथ दिया था। अब विचार किया जाए कि इन तीन नेताओं का साथ कांग्रेस को नहीं मिला होता तो कांग्रेस की स्थिति क्या होती। इसी प्रकार भाजपा की बात की जाए तो यह स्वाभाविक रुप से दिखाई देता है कि गुजरात में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट प्रतिशत का अंतर भी कम हुआ है। जो प्रतिशत पिछले चुनाव लगभग नौ था, अब वह मात्र सात प्रतिशत के आसपास दिखाई देता है। इससे स्वाभाविक रुप से यह सवाल आता है कि भाजपा की व्यापक लोकप्रियता में गिरावट भी आई है। भाजपा की सीटों की संख्या पिछले चुनाव परिणाम की तुलना में कम हुई हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के गणित के हिसाब से देखा जाए तो यही सामने आता है कि अगर कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नीच नहीं कहा जाता तब भाजपा की क्या स्थिति होती, इतना ही नहीं कांग्रेस के कपिल सिब्बल ने भी कांग्रेस के वोट कम करने में अपना योगदान दिया है। इसलिए यह भी कहा जाने लगा है कि गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान इस प्रकार की बयानबाजी ने ही कांग्रेस को कमजोर किया है। अगर ऐसा नहीं होता तो हो सकता था कि गुजरात में कांग्रेस और ज्यादा अच्छी स्थिति में होती। दोनों राज्यों के वुनाव परिणाम की समीक्षा की जाए तो यह स्वाभाविक रुप से दिखाई देता है कि कांग्रेस अपनी ओर से किसी प्रकार का प्रभाव नहीं छोड़ पाई है। दूसरी तरफ कांग्रेस के नए नवेले राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के खाते में यह दो असफलताएं और जुड़ गर्इं। गुजरात में कांग्रेस की अच्छी स्थिति की दुहाई देकर भले ही कांग्रेस अपना बचाव करे, लेकिन लोकतंत्र में सीटों की संख्या और बहुमत का खेल होता है, जो आज कांग्रेस के पास नहीं है। इसी प्रकार हम यह भी जानते हैं कि गुजरात में भाजपा को हराने के लिए चारों तरफ से अभिमन्यु जैसा चक्रव्यूह बनाने का प्रयास किया गया। ऐसे प्रयासों के बाद भी भाजपा ने सत्ता बचाने में सफलता प्राप्त की है। इस चुनाव में एक और खास बात यह दिखाई दी, वह यह है कि कांग्रेस की ओर से जातिवाद का खेल खेला गया। इस जातिवाद के सहारे ही कांग्रेस की सीटों में बढ़ोत्तरी हुई है। खैर जो भी हो, परिणाम आ चुके हैं और दोनों राज्यों में भाजपा की सत्ता आ चुकी है। यहां सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि जो सत्ता विरोधी रुख हिमाचल में दिखाई दिया, वह गुजरात में नहीं था। सवाल यह भी है कि जिस प्रकार के कांग्रेस के राजनीतिक प्रभाव बढ़ने के बयान आ रहे हैं, वह सही नहीं कहे जा सकते, क्योंकि अगर कांग्रेस का राजनीतिक प्रभाव बढ़ा है तो फिर कांग्रेस हिमाचल में क्यों हार गई। कांगे्रस को सच्चाई का भी सामना करना चाहिए।
सुरेश हिन्दुस्थानी
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं
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