गल्प नहीं है कविता है यह!
छोटी कविताओं का शिल्प आसान नहीं है। उसमें किसी अनुभव तक पहुँचने की यात्रा का विस्तार सम्भव नहीं है, लेकिन उसमें किसी अर्जित अनुभव को कविता की रोशनी में जाँच-परख सकने का सामर्थ्य है, किसी अनुभूत सत्य को एक कौंध के साथ रख देने का करिश्मा है। एक करिश्मा तब सम्भव होता है जब कोई उस्ताद लेखक एक लम्बी परिक्रमा के बाद वहाँ तक पहुँचता है जहाँ उसे अपना सत्य मिलता है। इसके बिना छोटी कविताओं को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश कविता को गंवा देने तक जा सकती है ।
‘कविता घर’ में हमने कविता से बड़ी कविताओं की बात की थी। क्या कविता से छोटी कविताएं भी होती हैं? जाहिर है, संकेत उन बहुत छोटी कविताओं की ओर है जिनकी अपनी धार होती है। ‘पटकथा’ जैसी लम्बी कविता लिखने वाले धूमिल ने बहुत छोटी भी कविताएं लिखीं जिनका अपना विलक्षण प्रभाव था। उनके निधन के बाद प्रकाशित उनके काव्य संग्रह ‘कल सुनना मुझे’ में शामिल यह कविता हिन्दी की शायद सबसे जानी-पहचानी कविताओं में एक है- ‘एक आदमी रोटी बेलता है / एक आदमी रोटी खाता है / एक तीसरा आदमी भी है/ जो न रोटी बेलता है न रोटी खाता है / वह रोटी से खेलता है / मैं पूछता हूं/ यह तीसरा आदमी कौन है? / मेरे देश की संसद मौन है।‘
इस छोटी सी कविता में कम से कम तीन कोण ऐसे हैं जो हमारा ध्यान खींचते हैं- पहला, रोटी खाने और रोटी बेलने वालों के बीच का अंतर, दूसरा इस बात की पहचान कि इन दोनों के अलावा एक और शख्स है जो रोटी से खेलता है, और तीसरा वह राजनीतिक बेबसी है जिसमें देश की संसद मौन है।
यह कविता इस बात का उदाहरण है कि कैसे बहुत कम पंक्तियों में कई बातें पिरोई जा सकती हैं। गागर में सागर वाली यह मुद्रा उस दूसरे कवि के यहाँ भी मिलती है जिसने कविता से बड़ी कविता के नाम से संग्रह ही तैयार किया। विनोद कुमार शुक्ल की एक छोटी कविता है- ‘हताशा’। कविता कुछ इस तरह है- ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था / व्यक्ति को मैं नहीं जानता था / हताशा को जानता था / इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया / मैंने हाथ बढ़ाया / मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ / मुझे वह नहीं जानता था / मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था / हम दोनों साथ चले / दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे / साथ चलने को जानते थे।‘
यह एक बड़ी कविता है- अपनी कल्पना में, अपनी गढ़न में, अपने संदेश में और अपने संपूर्ण प्रभाव में। कवि जो कह गया है, उससे ज़्यादा कुछ भी कहे जाने की ज़रूरत नहीं है। इसे आकार में बड़ा बनाने की कोशिश इसे प्रभाव में छोटा कर देती।
लेकिन छोटी कविताएं लिखना जितना आसान लगता है, उतना है नहीं। छोटी कविताएं लिखने के जोखिम बहुत सारे हैं। कई बार हमारे जाने बिना कविता सूक्तियों में बदल जाती है, कई बार व्यंग्य में- वह अपने प्रभाव में कविता नहीं रहती। बेशक सम्भव है कि अपनी अकाव्यात्मकता के बावजूद वह कविता अपने चुटीले व्यंग्य या अपनी सूक्तिपरकता के चलते हमें याद रह जाए, लेकिन वह बड़ी कविता नहीं होती। यह सच है कि हम सब जब कविता लिखना शुरू करते हैं तो छोटी कविताओं से ही यह शुरुआत करते हैं। लेकिन शुरू में हम भी कविता कम करते हैं, आदर्श और भावुकता से भरी पक्तियां ज़्यादा लिखते हैं। व्यंग्य करना भी आसान होता है।
कई बार बड़े कवि भी छोटी कविताओं के नाम पर व्यंग्य करते देखे जाते हैं। अज्ञेय की कविता है – ‘सांप’। कविता कुछ इस तरह है- ‘साँप ! / तुम सभ्य तो हुए नहीं / नगर में बसना / भी तुम्हें नहीं आया / एक बात पूछूँ–(उत्तर दोगे?) / तब कैसे सीखा डँसना— / विष कहाँ पाया?’
यह बहुत चर्चित कविता है- लेकिन क्या यह अच्छी कविता भी है? एक तरह की वक्रता इसमें काव्यात्मकता का आभास पैदा करती है लेकिन सांपों और शहरों- दोनों के ज़हरीलेपन को लेकर कवि के पूर्वग्रह ही कविता में दिखाई पड़ते हैं। बेशक शहरों में लोगों के व्यवहार को लेकर यह एक आम टिप्पणी है जिसे कविवर ने कविता में ढालने की कोशिश की है। ऐसा व्यंग्य भाव उनकी एक और कविता ‘पुल’ में भी दिखाई पड़ता है। वे लिखते हैं- ‘जो पुल बनाएंगे / वे अनिवार्यत: / पीछे रह जाएंगे। सेनाएं हो जाएँगी पार / मारे जाएंगे रावण / जयी होंगे राम / जो निर्माता रहे / इतिहास में /बन्दर कहलाएंगे’।’
निस्यसंदेह यह भी अज्ञेय की बहुत उद्धृत की जाने वाली कविताओं में से एक है। लेकिन अज्ञेय ने जितनी गहरी कविताएं लिखी हैं, उनके बीच यह कविता कहीं नहीं ठहरती।
वैसे छोटी कविताओं के कुछ बहुत अच्छे प्रयोग श्रीकांत वर्मा के यहाँ मिलते हैं। खासकर उनके संग्रह ‘मगध’ में इतिहास के आईने में राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक परिसर के शोर और सन्नाटे बहुत मार्मिकता और संयम के साथ दर्ज हुए हैं। दिलचस्प यह है कि इसके पहले ‘जलसाघर’ तक श्रीकांत वर्मा की कई कविताएं खासी लम्बी रही हैं। युद्ध को लेकर कुछ बहुत अच्छी कविताएं उनके ‘जलसाघर’ में मिलती हैं। लेकिन ‘मगध’ तक आते-आते जैसे घुड़सवार युद्ध की व्यर्थता पहचान चुका है, वह राजनीति और भूगोल को नए सिरे से जानने का जतन कर रहा है और इस जतन में चुप्पी और मितकथन उसके सबसे विश्वसनीय सहयोगी हैं।
और तो और, अपनी लम्बी कविताओं के लिए जाने जाने वाले मुक्तिबोध के पास भी कुछ बहुत छोटी और मुलायम कविताएं हैं। कई बार लगता है कि इन कविताओं में एक विहंसता हुआ मुक्तिबोध है- एक युवा और प्रेमिल मुक्तिबोध जो उसे होना था लेकिन जो समय ने होने नहीं दिया। जैसे उनकी एक कविता है ‘बहुत दिनों से’- इस कविता का सुर बिल्कुल अमुक्तिबोधीय है। वे लिखते हैं- ‘मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से / बहुत–बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना / और कि साथ यों साथ–साथ / फिर बहना बहना बहना / मेघों की आवाज़ों से / कुहरे की भाषाओं से / रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना–कोना / है बोल रहा धरती से / जी खोल रहा धरती से / त्यों चाह रहा कहना / उपमा संकेतों से /
रूपक से, मौन प्रतीकों से / मैं बहुत दिनों से बहुत–बहुत–सी बातें / तुमसे चाह रहा था कहना!/ जैसे मैदानों को /आसमान, / कुहरे की मेघों की भाषा त्याग / बिचारा आसमान कुछ / रूप बदलकर रंग बदलकर कहे।‘
सवाल है, लम्बी कविताओं में अपनी वेदना को बहुत गहराई से व्यक्त करने वाले मुक्तिबोध अचानक अपनी छोटी कविताओं में प्रसन्नता के किस परिसर में प्रवेश कर जाते हैं? बेशक उनकी कविता ‘अंधेरे में’ ही डूबी नहीं है, उनमें कई जगहों पर बहुत रोशनी भी मिलती है, सिर्फ उदासी नहीं, हंसी भी मिलती है, लेकिन यह सबसे सुंदर ढंग से मुक्तिबोध की छोटी कविताओं में ही व्यक्त हुई है।
लेकिन फिर कहना होगा, छोटी कविताओं का शिल्प आसान नहीं है। उसमें किसी अनुभव तक पहुँचने की यात्रा का विस्तार सम्भव नहीं है, लेकिन उसमें किसी अर्जित अनुभव को कविता की रोशनी में जाँच-परख सकने का सामर्थ्य है, किसी अनुभूत सत्य को एक कौंध के साथ रख देने का करिश्मा है। एक करिश्मा तब सम्भव होता है जब कोई उस्ताद लेखक एक लम्बी परिक्रमा के बाद वहाँ तक पहुँचता है जहाँ उसे अपना सत्य मिलता है। इसके बिना छोटी कविताओं को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश कविता को गंवा देने तक जा सकती है और इस कोशिश में उस्ताद कवि भी फिसल सकते हैं, यह हम देख चुके हैं।
बहरहाल, छोटी कविता कितनी छोटी हो सकती है? कई कवियों ने बिल्कुल दो-तीन पंक्तियों की कविताएं लिखी हैं। क्या क्या वे कविताएं वांछित प्रभाव छोड़ पाती हैं? या वे शब्दों का खेल रह जाती हैं? क्या एक पंक्ति में भी पूरी कविता सम्भव है? कह सकते हैं कि कुछ पंक्तियां काव्यात्मक होती हैं, कई बार उनकी मार्फत एक बड़ी सच्चाई भी खुलती है, लेकिन क्या उन्हें कविता कहा जा सकता है? यह सवाल कुछ संशय में डालता है। कवि शैलेंद्र की एक पंक्ति ‘हर ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ अपने आप में ऐतिहासिक पंक्ति है लेकिन इसे पूरी कविता मानने में सहज संकोच हो सकता है। उर्दू के कई अशआर ऐसे हैं जिनकी एक बहर ही ऐतिहासिक हो चुकी है, जैसे- ‘लमहों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई’ या फिर ‘खूब गुज़रेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो’, लेकिन कविता का शिल्प इन्हें कविता कहे जाने की इजाज़त नहीं देता।
इस टिप्पणी के अंत में एक छोटी सी कविता एक और उस्ताद कवि की लगाने की इच्छा हो रही है। वीरेन डंगवाल हिन्दी के सम्भवतः सबसे खिलंदड़े कवियों में रहे और सहज उल्लास के साथ उस वेधक यथार्थ को प्रस्तुत करते रहे जिससे हमारी ज़िंदगी बनती-बिगड़ती रही है। उनकी एक छोटी सी कविता है- ‘कविता है यह’। वे लिखते हैं- ‘ज़रा सम्भल कर / धीरज से पढ़ / बार–बार पढ़ / ठहर–ठहर कर / आंख मूंद कर / आंख खोल कर / गल्प नहीं है / कविता है यह।‘ क्या यह कहने की ज़रूरत है कि इस छोटी सी कविता में वीरेन डंगवाल पाठ का वास्तविक ढंग बता रहे हैं- कविताओं को बार-बार, आंख खोल कर और मूंद कर पढ़ना पड़ता है। तब उनके अर्थ खुलते हैं, उनमें नए अर्थ मिलते हैं। कवि के बाद पाठक भी रच डालता है वह कविता।
और जहाँ तक बहुत छोटी कविताओं का सवाल है- वीरेन डंगवाल की महज दो पंक्तियों की कविता भी कमाल है- ‘अपनी ही देह मजा देवे / अपना ही जिस्म सताता है।‘ इन दो पंक्तियों के साथ कविता ख़त्म हो जाती है। लेकिन जीवन में देह की केंद्रीयता को लेकर इतने संक्षिप्त ठाठ के साथ दूसरी कोई कविता याद नहीं आती।
छोटी कविताएं सुई का काम करती हैं- बहुत हल्की चुभन के साथ देर तक टीस बनी रहती है- याद दिलाती हुई कि कुछ गड़ा है, कहीं गड़ा है- बल्कि लगातार चुभन के एक सिलसिले के साथ दुख का एक परिधान भी तैयार होता चलता है। मुश्किल बस इतनी है कि इस सुई में कविता का धागा बहुत मुश्किल से पड़ता है। वह न पड़े तो दर्द बेमानी रह जाता है, कविता अधूरी छूट जाती है।