लिफ्ट में एक खिड़की रहती थी
अगर आप तीन गुना पाँच फुट के आसपास की एक तंग जगह में लगभग दो दिन दो रात फँसे रहें, जिसमें खिड़की-दरवाजे तो दूर, साँस लेने की हवा आने भर कोई सूराख न हो, कोई आपकी बात सुनने वाला न हो, आपके पास कुछ खाने को न हो, पीने का पानी भी न हो, कोई रोशनी न हो तो आप क्या करेंगे, किस तरह खुद को बचाए रखेंगे? इस सवाल का जवाब केरल के 59 साल के एक शख्स रवींद्रन नायर ने दिया। वे वाकई इस अनुभव से गुजरे थे। जुलाई के तीसरे हफ्ते एक शनिवार दोपहर दो बजे के आसपास वे तिरुवनंतपुरम मेडिकल कॉलेज अस्पताल की एक लिफ्ट में दाखिल हुए। लेकिन लिफ्ट बीच में खराब हो गयी। उन्होंने बहुत आवाज दी, कोई सुनने वाला नहीं था। वे लिफ्ट के दरवाजे पर हाथ मारते रहे, कुछ नहीं हुआ। उनके हाथ-पाँव निस्पन्द होते जा रहे थे। उनको लगा कि उनकी मौत सन्निकट है। उन्हें अपने बच्चों की पढ़ाई की फिक्र हुई। उन्होंने परिवार के लिए अन्तिम सन्देश लिखना शुरू कर दिया। लेकिन फिर भी वे बच गये। अँग्रेजी अखबार ‘द हिन्दू’ में छपी इस खबर में उनका एक वक्तव्य भी उद्धृत किया गया है। वे कहते हैं- ‘मेरे पास पीने को पानी नहीं था लेकिन मेरे बैग में कुछ कविताएँ थीं जो मैंने लिखी थीं। उन्होंने मेरा ध्यान भटकाने का काम किया।’ वे किस चीज से ध्यान भटकाने की बात कह रहे थे- सम्भवतः मृत्यु के भय से, सम्भवतः इस एहसास से कि उनकी आख़िरी घड़ियाँ आ गयी हैं।
कुछ रोमानी ढंग से कह सकते हैं कि उन्हें कविता ने बचाया। इस बुरी दुनिया में कविता हमें बचाए रखेगी- यह भोला भरोसा हमारे बहुत सारे कवियों ने दिखाया है। लेकिन जब कोई रवींद्रन नायर किसी लिफ्ट में फँस कर अपनी कविता को याद करता हुआ अपनी जिजीविषा को बचाए रखता है तो इस भोले भरोसे में थोड़ी सी आस्था बढ़ जाती है।
इन्हीं दिनों यह खबर भी चली कि मराठी कवि नारायण सुर्वे की बेटी के घर चोरी करने वाले एक चोर को जब पता चला कि उसने सुर्वे जैसे कवि के घर हाथ साफ किया है तो अगले दिन उसने सामान वापस पहुँचाया और एक माफी की चिट्ठी भी लिखी। यह घटना फिर बताती है कि कविता की जगह समाज में चाहे जितनी भी कम होती जा रही हो, कवि चाहे जितने अजनबी होते जा रहे हों, लेकिन वह फिर भी बहुत सारे दिलों में बची रहती है- चोरों के दिल में भी, जो कवि की मार्फत अपनी मनुष्यता का नए सिरे से सन्धान कर सकते हैं। बेशक, मराठी कवि अपने पाठकों के बीच शायद हिन्दी कवियों के मुकाबले ज़्यादा पहचाने जाते हैं, इसलिए भी यह सम्भव हुआ कि एक चोर एक कवि के कृत्य से परिचित निकला। लेकिन यह एक अपवाद जैसा ही मामला है जो हमेशा इसी तरह घटित नहीं हो सकता।
बहरहाल, ये दो प्रसंग बताते हैं कि कविता बहुत सारे काम चुपचाप करती है। वह अपने पाठक समुदाय के बीच लगभग अदृश्य ढंग से उपस्थित रहती है, वह उसके अवचेतन को कुरेदती रहती है, किसी अँधेरे में पड़ी रहती है और जब अँधेरा बहुत गहरा होता है तो कभी-कभी प्रकाशित होकर सामने आ जाती है।
ऐसा नहीं कि लोग कविता को शोभा की वस्तु की तरह इस्तेमाल नहीं करते। मगर कविता फिर भी ऐसे दिखावों से छिटक जाती है। उसके अपने अर्थ उद्भासित होते रहते हैं। मार्गरेट ऐटवुड के उपन्यास ‘द ब्लाइंड असासिन’ की एक ‘सोशलाइट’ जैसी किरदार कोलरिज की मशहूर कविता ‘कुब्ला खां’ पर आधारित एक प्रस्तुति करवाना चाहती है। कविता के अर्थ से उसका ज़्यादा वास्ता नहीं है, लेकिन वह कविता की प्रसिद्धि को इस्तेमाल करने की कोशिश में है। लेकिन उपन्यास की एक किशोर किरदार लॉरा इस कोशिश का खोखलापन समझती है, वह बताती है कि दरअसल यह कविता इन लोगों को डराती है चूँकि वह प्रसन्नता के चरम की कविता है।
तो कविता आपकी मदद ही नहीं करती, आपके हाथ से फिसल भी जाती है। हालाँकि इसके बावजूद नेता, लेखक या दूसरे कई लोग अपने भाषणों या वक्तव्यों में कविता का ‘इस्तेमाल’ करते हैं। पता चलता है कि ज़्यादातर मामलों में अगर वह दिखावे के लिए इस्तेमाल की गयी है तो उसके अर्थ वहीं मर जाते हैं, वह एक मुर्दा कविता हो जाती है जो पाठकों को स्पर्श तक नहीं कर पाती।
लेकिन फिर भी कविता की अन्दरूनी शक्ति को समझने वालों का संसार बहुत बड़ा और दिलचस्प भी है। वह तरह-तरह से अलग-अलग लोगों को प्रभावित करती है। ऑस्ट्रेलिया के पूर्व क्रिकेट कप्तान स्टीव वॉ अपनी क्रिकेट टीम की तैयारी में अभ्यास और प्रशिक्षण के अलावा कविता को भी शामिल करते थे। उन्होंने अपनी क्रिकेट डायरियाँ लिखी हैं जिनमें कई दिलचस्प प्रसंग हैं। इन डायरियों में ‘नो रिग्रेट्स’ भी है और ‘नेवर सैटिस्फ़ाइड’ भी। वे बताते हैं कि 1999 के क्रिकेट विश्व कप के दौरान हर मैच से पहले वे एक कविता पाठ कराते थे। यह बस प्रेरणा के लिए किसी बाहर के कवि द्वारा रचित कविता का पाठ नहीं होता था- स्टीव वॉ ने खुद उस समय कविताएँ लिखीं और अपने साथी खिलाड़ियों से भी लिखवायीं। उदाहरण के तौर पर जो कविता खुद उन्होंने लिखी, उसकी शुरुआती दो पंक्तियों का स्थूल अनुवाद कुछ इस तरह हो सकता है- ‘तो हम यहाँ हैं- डब्ल्यू जी ग्रेस के घर / हमने काफी कुछ ख़ास लगाया है- यहाँ पहुँचना था दुष्कर।’ आगे यह कविता मार्श और पॉन्टिंग के ज़िक्र तक जाती है और ऑस्ट्रेलियाई चरित्र और उसकी अपरिहार्य नियति की बात करती है।
लेकिन कविता से क्या स्टीव वॉ सिर्फ प्रेरणा जैसा कुछ हासिल करना चाहते रहे होंगे? ऐसे प्रेरणास्पद गीत उनको और भी मिल जाते। लेकिन कहीं उन्हें लगता होगा कि कविता शायद खिलाड़ियों के भीतर की उन गाँठों को खोलने में भी मददगार होती हो जो दिखाई तो नहीं पड़तीं, लेकिन व्यक्तित्व और प्रदर्शन पर चुपचाप असर डालती हों।
वैसे कविता के प्रभाव की सबसे मार्मिक दास्तान द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एक प्रसंग में मिलती है। यह वह दौर था जब हिटलर ने यहूदियों के लिए गैस चैंबर बनवाये थे और उनकी दुनिया को वाकई एक बन्द लिफ्ट जैसा ही बना दिया था। इस दुनिया में एक लड़की थी- गर्डा वाइजमैन। वह सिर्फ सत्रह साल की थी जब हिटलर के गेस्टापो उसे उठा ले गये थे। वह पोलिश यहूदी थी। उसे बिल्कुल अमानवीय स्थितियों में शून्य से नीचे के तापमान पर कई दिन चलाते हुए करीब पाँच सौ किलोमीटर दूर ले जाकर एक कारखाने में बन्द कर दिया गया था।
मौत के इस सफर में कई लोग उसके सामने दम तोड़ते रहे। वह तीन साल से ऊपर इस यातना शिविर में रही। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के करीब जब एक अमेरिकी टुकड़ी इस बन्द कारखाने तक पहुँची तो वह सिर्फ तीस किलो की एक कंकाल सी लड़की में बदल चुकी थी जिसके चारों तरफ मृत या मरणासन्न लोग थे। लेकिन इस कंकाल सी लड़की के भीतर एक कविता बची हुई थी- मनुष्य के विवेक पर आस्था रखने वाली एक कविता। वह देख रही थी कि अमेरिकी सैनिक वहाँ पहुँच रहे हैं। इनमें सबसे आगे कर्ट क्लाइन था। उसने उससे पूछा कि वह जर्मन या अँग्रेजी कुछ बोल सकती है? गर्डा बताती है कि वह ‘ज्यू’ है। कर्ट क्लाइन बताता है कि वह भी ‘ज्यू’ है। लेकिन उसे सबसे ज़्यादा यह बात हैरानी में डालती है कि इसके बाद गर्डा जर्मन कवि गेटे (या गोएथे?) की कविता ‘डिवाइन’ की एक पंक्ति बोलती है- ‘लेट मेन बी नोबेल, मर्सीफुल एँड गुड’।
यह बिल्कुल स्तब्ध छोड़ जाने वाला अनुभव है। भूख, अपमान, ग़लाजत और मृत्यु के भयावह संसार में तीन साल तड़प-तड़प कर जी रही एक लड़की अपने भीतर एक कवि की पंक्ति को बचाए रखती है। या यह पंक्ति है जिसने लड़की के भीतर जीवन और उम्मीद की लौ जलाए रखी?
वह लड़की गेटे को क्यों याद कर रही थी? शायद इसलिए कि कविता ने ही उसे यह आस्था दी थी कि मनुष्य भले-बुरे में भेद कर सकता है। जिस नरक में बहुत सी लड़कियाँ छटपटा कर मर गयीं वहाँ एक स्त्री एक कविता की डोर पकड़े जीती रही। और यह भी कम अचरज की बात नहीं कि हर तरफ मृत्यु के कारोबार के बीच, जान लेने और देने के काम में झोंक दिए गये किसी सैनिक को भी यह कविता मालूम थी और इसका मर्म भी मालूम था।
गर्डा और कर्ट की कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। दोनों ने शादी की, पचपन बरस से ज़्यादा साथ जिये। इस बीच गर्डा ने आत्मकथा भी लिखी- ‘ऑल बट माई लाइफ’, जिस पर बाद में फिल्म बनी- वन सर्वाइवर रिमेंबर्स।
2004 में कर्ट नहीं रहा। अप्रैल 2022 में गर्डा ने आख़िरी साँस ली। न कर्ट बचा न गर्डा। वह हिटलर भी नहीं बचा जो नस्ली श्रेष्ठता के खोखले दम्भ के साथ दुनिया जीतने निकला था और जो करोड़ों निरपराध लोगों की हत्या का गुनहगार था। लेकिन कहानी बची रही- और एक कविता भी। जिस समय हिटलर खुद को गोली मार रहा था, उसी समय उसके बनाए यातना शिविर में 21 साल की एक लड़की एक कवि को जीवित कर रही थी। गेटे ने ‘डिवाइन’ नाम की यह कविता 1789 में आधिकारिक तौर पर प्रकाशित होने दी थी। (यह फ्रांसीसी क्रान्ति का साल था)। यानी डेढ़ सौ साल से ज़्यादा समय बाद भी वह कविता एक युद्ध में जीवन, आस्था और रिश्तों का रसायन बना रही थी। क्या हम कह सकते हैं कि यह कविता की ताकत है?