(लालू प्रसाद की ‘भूमिहार’ राजनीति: प्रगतिशील भूमिहार का विरोध, प्रतिक्रियावादी भूमिहारों का समर्थन)
भाग- एक
बिहार के प्रभावी कम्युनिस्ट नेताओं को ‘भूमिहार’ साबित करने की राजनीति राजद व लालू प्रसाद की पुरानी राजनीति है। कन्हैया इसके अपवाद नहीं है। कुछ लोग कन्हैया को येन-केन प्रकारेण ‘भूमिहार’ पहचान में कैद व सीमित कर उसके बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने की कोशिश कर रहे हैं। इसकी जड़े पुरानी है। राजद व लालू प्रसाद के लिए 1990 के बाद से ही ‘भूमिहार विरोध’ उनकी राजनीति का केंद्रीय तत्व रहा है। ‘सामतंवादविरोध’ को ‘भूमिहारवाद’ में रिड्यूस करना पिछले दो-ढ़ाई दशकों की परिघटना है। लेकिन सबसे दिलचस्प तथ्य ये है कि लालू प्रसाद ने भूमिहारों का संपूर्ण विरोध कभी नहीं किया। ‘भूमिहारवाद’ का विरोध इस जाति से आने वाले प्रगतिशील, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष व वामपंथी तबके के लिए किया जाता रहा है। अन्यथा भूमिहार जाति से आने वाले जमींदार, लंपट, रिएक्षनरी तबके हमेशा लालू प्रसाद के साथ क्यों रहे? मोकामा के कुख्यात दिलीप सिंह, (जो उनके मंत्रीमंडल में शामिल थे) , अनंत सिंह, रामाश्रय सिंह, अखिलेश सिंह, राजो सिंह सहित किंग महेंद्र (इन्हें लालू प्रसाद ने राज्यसभा में भेजा) , राजदेव सिंह, श्यामदेव सिंह सहित ढ़ेरों उदाहरण महज बानगी है। ये लोग भूमिहारों के दबंग, उत्पीड़नकारी व अपने-अपने इलाके में पिछड़े दलितों का दमन करने वाले लोग थे। लालू प्रसाद ने सत्ता में आने के बाद कभी इनकी स्थानीय सत्ता से छेड़छाड़ का कभी प्रयास ही नहीं किया। लालू प्रसाद इस मामले में कुख्यात लार्ड कर्नवालिस की औपनिवेशिक नीति को अपना रहे थे यानी तुम अपने इलाके में जो चाहे करो मुझे सिर्फ इतना पैसा ‘ फिक्स’ दे दिया करो। लालू प्रसाद ने इसी मॉडल का अनुसरण करते हुए उनके समर्थन के बदले उन्हें अपने इलाके में खुलकर खेलने की छूट दे दी।
लालू प्रसाद का अभ्युदय की पृष्ठभूमि में सत्तर व अस्सी के दशक में चले सामंतवादविरोधी भूमि संघर्ष हैं। सी.पी.आई, सी.पी.एम और सी.पी.आई-माले ( लिबरेशन) सहित अन्य छोटे-छोटे वामपंथी समूहों, गैर संसदीय धारा के कम्युनिस्ट दलों ने भूमि संघर्षों की जैसे बाढ़ ला दी थी। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप सामंतो की निजी सेनायें आगे आ रही थी। इसमें सभी ताकतवर जातियों की निजी सेनायें थी। कुर्मी जमींदारों ने भूमि सेना, यादव जमींदारों ने लोरिक सेना, भूमिहार जमींदारों ने सवर्ण लिबरेशन फ्रंट सहित राजपूत जमींदारों ने भी अपनी सेना खड़ी की। सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध में बेलझी के नरसंहार को कुर्मी जमींदारों ने अंजाम दिया था। ताड़ के पत्तों जिसकी कीमत लगभग चार आने हुआ करती थी उससे गरीबों- दलितों को महरूम करने के लिए इस नरसंहार को किया गया। इसके बाद तो मध्य बिहार में नरसंहारों का सिलसिला ही आरंभ हुआ। चार आने के लिए शुरू हुई लड़ाई के लिए मध्यबिहार में चार हजार कत्ल किए गए। इसी बेलछी में इंदिरा गाँधी हाथी पर चढ़कर चुनाव में आयी थी जिसने उन्हें दुबारा सत्ता में पहुँचाया था। भूमि संघर्ष व नरसंहारों के सिलसिला से सामंतवाद को केंद्र में ला दिया। 1986 मे अरवल में पुलिस गोलियों से मारे गए खेत मजदूर इसी बानगी थे। 1990 में लालू प्रसाद इसी ‘एंटी फयूडल’ लहर पर सवार होकर सत्ता में आए। तब तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों के 39 (सी.पी.आई 26, सी.पी.एम 6 , लिबरेशन- 7) विधायक थे। लेकिन लालू प्रसाद ने इन दलों से आने वाले पिछड़ी जाति विशेषकर यादव जाति से आने वाले विधायकों को कम्युनिस्ट पार्टी से तोड़कर अपने में मिला लिया।
कम्युनिस्टों के सहयोग से जब लालू प्रसाद सत्ता में आए उस ऐसा माना जा रहा था कि लालू प्रसाद जिस ‘एंटी फयूडल’ प्लेटफॉर्म पर आए हैं उसे अब जमीन, गैमजरूआ, भूदान में मिले जमीनों पर कब्जे व दोवदारी को लेकर संघर्ष शुरू हुआ। सी.पी.आई ने लगभग एक लाख एकड , सी.पी.एम ने लगभग चालीस से पचास हजार एकड़ जमीन पर लोगों को बसाया। ऐसे ही हजारों एकड़ जमीन पर नक्सल समूहों – भाकपा-माले-लिबरेशन सहित – ने गरीबों को बसाया। ये कोई सामान्य बात नहीं है कि बगैर सत्ता में आए महज संघर्षों के बल पर वाम दलों न इतनी जमीनें वितरित की और आज तक उनपर कब्जा बरकरार है। इन बसे इलाकों का नाम कम्युनिस्ट नेताओं के नाम पर रखा जाने लगा जैसे राहुल नगर, सूरज नगर, सुनील नगर, प्रमोद दास गुप्ता नगर, मार्क्स नगर, लेनिन नगर। लेकिन वामपंथी पार्टियों को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। दलितों-पिछड़ों, किसानों-मजदूरों की लड़ाई लड़ने वाले वामपंथी की अगुआ कतारों की बड़े पैमाने पर कत्लेआम होना शुरू हो गया। भूमि संघर्ष के लगभग हर क्षेत्र में कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की बड़े पैमाने पर हत्यायें हुई। और ये सिलसिला आज तक भी जारी है। पूर्णिया के लोकप्रिय विधायक व जन संघर्षों के नायक अजीत सरकार, जे.एन.यू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर, माकपा राज्य सचिव मंडल के सदस्य व रामनाथ महतो जैसे नेतृत्वकारी लोग इसमें शामिल थे। हत्यारों में अधिकांश लालू प्रसाद की पार्टी या उनके समर्थकों के नाम आरोपित किए गए। कुछ हत्याओं और कुछ परिस्थितिवश कम्युनिस्ट पार्टियों को अपना आंदोलन वापस लेना पड़ा। लालू प्रसाद की सरकार ने यहां किसानों, मजदूरों, पिछड़े-दलितों के बदले सामंतो का पक्ष लेना शुरू कर दिया। सामंतवाद विरोधी प्लैंक को छोड़ लालू प्रसाद ने सामंती शक्तियों के साथ समझौता कर लिया। भूमिसुधार की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया जाना इसका स्पष्ट संकेत था।
लगभग इसी वक्त 1995 मार्च के ठीक पहले 1994 के सितंबर में भाकपा-माले को चुनावों में जीतने से रोकने के लिए रणवीर सेना का गठन किया गया ठीक वैसे ही जैसे बेगूसराय में सी.पीआई को चुनाव जीतने से रोकन के लिए कामदेव सिंह के नेतृत्व में सेना खड़ी की गयी थी। रणवीर सेना ने अगले पांच छह वर्षों तक नरसंहारों का सिलसिला बना दिया। बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे सहित कई बड़े नरसंहारों को अंजाम दिया जाने लगा। क्या ये विचित्र संयोग है कि सभी नरंसहार चुनावों के आसपास अंजाम दिए गए? 1995 से 2000 के पांच सालों के बीच लोकसभा व विधानसभा चुनावों के पांच बार चुनाव हुए। 1996 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले लालू प्रसाद पर चारा घोटाले के आरोप लगने लगे थे। बथानी टोला 1996 के लोकसभा चुनाव के आस-पास, लक्ष्मणपुर बाथे 1998 के लोकसभा के फरवरी चुनाव के ठीक एक महीने पूर्व दिसंबर 1997 में हुए। इन नरंसहारों ने बिहार में जातीय पहचान की खाई को चैड़ा किया। नरसंहार के भूमिहार बहुल गांवों – मसलन बारा, सेनारी – लालू प्रसाद वसचेत दूरी बनाए रखते। जबकि पिछड़े दलितों के नरसंहार वाले गांवों में जरूर जाते।
कहा जाता है कि लालू प्रसाद ने रणवीर सेना प्रमुख ब्रम्हेश्वर सिंह को कई निर्णायक मौकों पर उनका बचाव किया। उनके द्वारा किए गए नरसंहारों से वे भूमिहारविरोधी माहौल बनता व पिछड़े-दलितों की लालू प्रसाद के प्रति गोलबंदी होने में सहायता मिलती। भूमिहार विरोध सामंतविरोध का पर्याय बनने लगा। वर्ग के सथान पर जाति को लाया गया। इससे जाति के भीतर के वर्ग विभाजनों पर बड़ी चालाकी से पर्दा डाल दिया गया। बकौल बिहार के युवा पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक अमित कुमार ‘‘रणवीर सेना प्रमुख ब्रम्हेश्वर सिंह लालू प्रसाद के लिए ठीक वही थे जो नरेन्द्र मोदी के लिए असुददीन ओवेसी थे। ओवेसी के उन्मादी चेहरे को सामने रखकर हिदुओं की गोलबंदी जिस प्रकार नरेंद्र मोदी करते हैं लालू प्रसाद ने ठीक उसी प्रकार ब्रम्हेश्वर सिंह का इस्तेमाल किया। ’’ यह अकारण नहीं है रणवीर सेना के राजनीतिक दलों से संबंधों की जांच के लिए बनी ‘अमीरदास आयोग’ की रिपोर्ट सार्वजनिक करने के लिए लालू प्रसाद व राजद ने कभी आन्दोलन नहीं चलाया।
‘सामतंवाद’ को प्रतिस्थापित कर ‘भूमिहारवाद’ को अपनाने से इससे पिछड़ी जातियों के नवधनाढ्य व सामंती तबके से टकराने से बचने का रास्ता मिल गया। कम्युनिस्ट पार्टियों से दूरी बढ़ने लगी।
लालू प्रसाद द्वारा भूमिहार जाति की जमींदारी धारा से सहयोग कोई नयी परिघटना न थी बल्कि एक पुरानी लड़ाई का नया स्वरूप था। 1930 के दशक में बिहार में इस जाति जमींदारी धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे अंग्रेजों से सर की उपाधि पाने वाले सद गणेश दत्त सिंह जबकि जमींदार विरोध विरोधी किसानी धारा स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में आगे बढ़ा रही थी। स्वामी सहजानंद सरस्वती वाली धारा इतनी सशक्त थी कि बिहार जमींदारी उन्मूलन करने वाले पहला राज्य बना। और प्रख्यात इतिहासकार रामशरण शर्मा के अनुसार ‘‘ यदि स्वामी सहजानन्द सरस्वती के नेतृत्व में ताकतवर किसान आंदोलन न चला होता तो सामाजिक न्याय की ताकतों व लालू प्रसाद का बिहार में इतनी जल्दी अभ्युदय न हुआ होता। जमींदारी के जुवे से मुक्ति ने ही पिछड़ी दलित ताकतों को लिबरेट किया।’’
गणेश दत्त व स्वामी सहजानंद का झगड़ा ‘‘ भूमिहार महासभा’’ से शुरू हुआ। जब स्वामी सहजानंद सरस्वती ने देखा कि ये ये जातीय सभा जमींदारों के हाथों की कठपुतली है, चलता-पुर्जा लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाल तथा अंग्रेजी राज का गुणगान करने वाली है तो उन्होंने उस जातीय सभा को जमींदारों की सभा साबित पर उस पर ऐसा मर्णांतक प्रहार किया कि वो ‘भूमिहार सभा’ दुबारा सर न उठा सकी। जब स्वामी सहजानंद जातीय सभा से किसान सभा की ओर बढ़ रहे थे इसके बाद भूमिहार जमींदारों अपनी रणनीति बदल रहे थे और पिछड़ों को अपना हथियार बनाया।
1929 में प्रांतीय किसान सभा की स्थापना हुई। उसे काउंटर करने के लिए जमींदारों ने यादव-कुर्मी-कोईरी के धनाढ्य तबकों का लेकर 1933 में त्रिवेणी संघ बनाया। त्रिवेणी संघ के नेताओं में गुरू सहाय लाल भी थे जो 120 एकड़ भूमि के मालिक थे और लगभग 15 मजदूरों को रखकर खेती का काम कराते थे। पेशे से वकील थे। संभवतः इन्हीं वजहों से किसान सभा के नेतागण त्रिवेणी संघ का ‘‘ आरा और सासाराम के खुदगर्ज वकीलों की संस्था’’ कहा करते। इन तीनों जातियों के धनाढ्य तबकों की बनाई 1933 में बनी त्रिवेणी संघ ने क्रांतिकारी किसानों के संगठन किसान सभा के साथ न जाकर जमींदारों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस के साथ चली गयी। समाचारपत्र ‘त्रिवेणी संघ’ को जमींदारों की पक्षधर संस्था कहा करते अंततः उसी कांग्रेस में, 1942 में ,उसका विलय हो गया। 1942 के बाद जब किसान सभा कुछ-कुछ कमजोर पड़ने लगी थी। त्रिवेणी संघ अपनी ऐतिहासिक भूमिका को अदा कर जमींदारों के प्रभाव वाले कांग्रेस में विलीन हो गयी। त्रिवेणी संघ का एक प्रमुख नारा था ‘‘ धनी बनो’’।
‘त्रिवेणी संघ’ ने किसान सभा को भूमिहारों का प्रभाव वाली सभा कहकर विरोध किया था। स्वामी सहजानंद सरस्वती पर भी भूमिहारवाद का आरोप लगाया गया। सार्वजनिक जीवन के उनके प्रारंभिक चरण में भूमिहारों को भी ब्राह्रणों की तरह पूजा कराने के अधिकार के लिए चले आंदोलन ने भी इस आरोप को बल प्रदान किया। त्रिवेणी संघ व लालू प्रसाद में निरंतरता को त्रिवेणी संघ के एक वयोवृद्ध नेता के इस बयान से समझ जा सकता है ‘‘ हमने जिस जीप को स्टार्ट किया लालू प्रसाद उसका चैथा ड्राइवर है’’। इस प्रकार जब लालू प्रसाद जब बिहार में आए तो उन्होंने स्वामी सहजानंद की जमींदार विरोधी किसानी परम्परा के बजाए जमींदारों के नायक सर गणेश दत्त की जमींदारी परम्परा से जोड़ने में खुद को अधिक सहज महसूस किया। गएोष दत्त की भूमिहार महासभा का वैचारिक अस्त्र था ‘भूमिहारवाद’, लालू प्रसाद ने कई दशकों पश्चात उसका इस्तेमाल किया। कन्हैया को ‘भूमिहार’ कहना उसी पुरानी लड़ाई का नया रूप है।
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