जो व्यक्ति अथवा देश अपना सर्वस्व (ज्ञानानुशासन–परम्परा) बिसरा दे और अपने गुरुओं की शिक्षा (ज्ञान!) से अत्यंत दूर चला जाए, उसे पुनः अपने अंतस में झाँकने और ज्ञान के आश्रय में जाने की आवश्यकता पड़ती ही है (देर–सवेर ही सही!)। ऐसे ही विलक्षण क्षण में भारत के ऋषि–संत–गुरुओं के महात्म्य और बानियों का पुनर्पाठ होगा। औद्योगीकरण और भारत में ब्रिटिश राज के दौर में जो कच्चा माल (raw) भारत से ले जाया जाता था, वही पुनः पक्के की शक्लो–सूरत में हमारा दामन तलाशता और पकड़ भी लेता था। वैश्वीकरण का दौर परवान चढ़ा तो साम्राज्यवाद के माध्यम से अंग्रेज़ी ग्लोबल भाषा (जिसे साम्राज्यवाद से ‘बल’ मिला, वही ‘ग्लो’ हुआ) बनी और उसी में रचा साहित्य सर्वजातीय, सर्वदेशीय और सर्वकालिक सत्य माना गया।
हमें लगा कि अपने साहित्य का दायरा सिमट गया है। हमने बिना सोचे–समझे सहज ही यह स्वीकार कर लिया कि विश्वगुरु बनने के लिए आयातीत वैचारिकी के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं है। फिर क्या था? अपने ही ज्ञान का सच्चा माल (raw) भाषा–रूप बदलकर हमारे सामने प्रकट होता रहा। जो लेखक–विचारक भारतीयता (स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति) में विश्वास रखते, उनके यह कहने पर कि रूप बदल कर प्रस्तुत हुआ ज्ञान हमारी प्राचीन ज्ञान–परम्परा में समृद्ध धरोहर के रूप में उपलब्ध है – बुद्धिजीवी वर्ग के विशेष पक्षकारों ने उन्हें ‘भारत–व्याकुल’, ‘गतानुगतिक’ इत्यादि कह डाला और उनके कहे की तसदीक भी नहीं की। अपना सर्वस्व (ज्ञान एवं चरित्र से बढ़ कर कुछ नहीं!) खोते जाने का यही आगाज़ था।
आज हम उत्तर–आधुनिक समय में वैश्विक ज्ञान की चर्चा–परिचर्चा तो कर लेते हैं लेकिन अपनी ज्ञान–परम्परा को लगभग बिसरा ही चुके हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि “भारतीय तत्व–चिन्तन का प्रभाव, यूनान में प्लाटिनस तथा सेण्ट आगस्टाईन जैसे ईसाई चिन्तकों पर पड़ा। यह प्रभाव उन्होंने पश्चिमी एशिया से लिया। पश्चिमी एशिया में हमारे आध्यात्मिक चिन्तन का गहरा प्रभाव था। वहीं इस्लाम के कुछ साधुओं ने उसे आत्मसात किया। उससे सूफी मत का आविर्भाव हुआ। इस आध्यात्मिक तत्व-चिन्तन का दूसरा प्रभाव आधुनिक काल में हुआ। वैदिक साहित्य योरोपीय भाषाओं में अनुवादित होकर जब पश्चिमी मनीषियों द्वारा पढ़ा गया तो वे बहुत प्रभावित हुए। अमरीका का चिन्तक इमर्सन तथा जर्मन दार्शनिक शापेनहॉर इसके उदाहरण हैं।”[1]
‘हुएन सांग की डायरी’ में मुक्तिबोध ने भारतीय तत्व–चिन्तन की समृद्धता पर कटाक्ष किया है, जो हमें अपनी समृद्ध किंतु विस्मृत चिन्तन–परम्परा का स्मरण कराता है – “कल सबेरे… प्रत्यूष बेला में मुझे यहाँ से चल देना है। धर्मगंज, नालन्दा के विशाल ग्रन्थालय में से छः सौ सत्तावन ग्रन्थों की अनुलिपि कर माता–भूमि चीन लिये जा रहा हूँ। जैसे कोई बालक–मन खिलौने देखकर मचल उठे, वैसे ही मैं धर्मगंज से तीन भवन – रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक – की ओर खिंचता चला गया। सचमुच एक–एक ग्रन्थ एक–एक रत्न ही है न! पर नहीं, रत्न जाज्वल्यमान तो होता है, पर रहता तो जड़ ही है न! इनमें तो प्राण हैं। एक–एक पुस्तक बोलती है – अपनी कथा कहती है। मूल ग्रन्थों के सर्जकों की मूर्तिमती साधना, भारत का यह ज्योति–पुंज, एक दिन मेरी मातृभूमि को आलोक से भर देगा, इसकी कल्पना मात्र से मेरे मन को बड़ा सुख और सन्तोष मिल रहा है।”[2] दो राय नहीं कि भारत के विश्वगुरु होने के कई प्रमाण ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में भी मिलते ही हैं।
बहरहाल, भारत जब ब्रिटिश गुलामी की जंज़ीरों में जकड़ा हुआ था, तब भारत की तत्कालीन युवा पीढ़ी विलायत में शिक्षार्जन करने पहुँची और जब वापस लौटी तो भारत को अपने नैरेटिव (गप्प!) में ऐसे पेश किया, जैसे उन्होंने ही भारत की खोज (?) की है और उनसे पहले भारत और दर्शन–चिन्तन का कोई अस्तित्व ही न था। इसलिए आज आश्चर्य नहीं होता कि ज्ञान की गौरवशाली परम्परा से विश्व को विस्मित कर देने वाले राष्ट्र – भारत के निवासियों में प्रायः अपने ज्ञान एवं चिन्तन की परम्परा के प्रति क्योंकर उदासीनता दिखाई देती है! अधिकतर लोगों (जनसामान्य से लेकर उच्चतम उपाधियाँ पाने वाले युवाओं तक!) को अपनी ज्ञान–परम्परा की नींव रखने तथा उसे सुदृढ़ करने वाले तत्ववेत्ता इतिहास पुरुषों के सम्बन्ध में ज्ञान (सूचना?) नहीं है। इस वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता कि भारतवर्ष की ज्ञान–परम्परा की जड़ें बहुत गहरी हैं। जितना खोजते जाएँ, उसकी उतनी और गहराइयाँ मिलती ही जाती हैं। विस्मृत हो रहे विदेही राजा जनक की राजसभा में नित दिन होने वाले संवाद और शास्त्रार्थ की परम्परा को पुनः स्मरण करने की आवश्यकता है। वास्तव में शास्त्रार्थ की ऐसी परम्परा को कभी भुलाया ही नहीं जाना चाहिए। विडम्बना यह है कि कितनों ने इस ज्ञान–परम्परा को अर्जित करने का प्रयास किया है?
अस्तु, शास्त्रार्थ और दर्शन–चिन्तन की हमारी यह उर्वर–भूमि कब और क्यों मरुभूमि बनी, इसके अनेकानेक कारण हैं, जिनको गिनाना इस लेख का उद्देश्य नहीं। परंतु जब गुरु नानक देव पर लिखने का प्रस्ताव मिला तो मैं नकार न सका और प्रकारान्तर से उक्त तथा अन्यान्य बातों के साथ–साथ शैशव की कुछ स्मृतियाँ पुनः जी उठीं। स्मरण हो आया ओशो के प्रवचनों का संकलन ‘एक ओंकार सतनाम’[3] और ‘पूरब और पश्चिम’ फ़िल्म का गीत ‘भारत का रहने वाला हूँ। भारत की बात सुनाता हूँ’। प्रश्न बारम्बार उठता है कि क्या यह सच नहीं कि हमने अपनी ही तत्व–चिन्तन परम्परा को विस्मृत कर दिया है? ‘एक ओंकार सतनाम’ की भूमिका की कुछ पंक्तियाँ भी हमारे मानस को निश्चय ही कुरेदे बिना नहीं रहतीं। लिखा है – “गुरु नानकदेव जी की देशनाओं को, जो आज के उत्तप्त माहौल में बुरी तरह भुला दी गयी हैं, उन्हें पुनरुज्जीवित करके हमारे देश और समूची मानवता के सामने रखा है। ये केवल पूजा–पाठ तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के लिए नहीं हैं। ये तो अपने जीवन को रूपांकित करके ध्यान, प्रेम, अहिंसा और अमन के पथ पर चलने के लिए हैं। लेकिन आज पंजाब, भारत और पूरा विश्व इन देशनाओं के विपरीत जा रहा है। इसलिए कुछ मित्रों को यह महसूस हुआ कि कम से कम पंजाब के प्राण तो उनसे आंदोलित हों।”[4]
क्या यह विचार बिना कुरेदे और प्रभावहीन ही रह जाताहै? क्या हम हम भूलते जा रहे हैं कि भारतवर्ष ऋषि–भिक्षु–संत–मुनि–गुरु–महात्माओं की भूमि है। सुधारों की भूमि है। जागृति की भूमि है। प्रियदर्शियों की भूमि है। तत्व–दर्शन–चिन्तन की भूमि है। कालबाह्य के खंडन और कालोचित (समय!) विचार–मूल्यों के सूत्रपात एवं उनके यथोचित समावेशी मंडन की भूमि है। अन्य विचार–दर्शन, धर्मावलंबियों का आदर करने वाली, अन्यों के लिए आदर–सत्कार की सीख देने वाली भूमि है। अखिल विश्व को कुटुंब (परिवार!) मानने वाले उदारचेताओं की भूमि है। यहाँ की मिट्टी में आरंभ से ही प्रगत विचारवान ऋषि–भिक्षु–संत–मुनि–गुरु–महात्माओं ने जन्म लिया और उनके ज्ञानोपदेशों से प्रत्येक युग में नए पंथ–संप्रदाय चल पड़े।
भारतवर्ष की भूमि में जन्मे प्रत्येक पंथ–संप्रदाय के केंद्र में अंतर्बाह्य समवाय, अनुशासन, ज्ञानार्जन एवं एकाग्रता (प्रज्ञा), परिश्रम (यत्न–प्रयत्न) एवं कल्याण, भगवद् भक्ति, सत्योपासना, शील (पवित्रता), शांति एवं करुणा इत्यादि तत्व–सत्व विद्यमान रहे हैं। चाहे वह सगुणी हो या निर्गुणी, बौद्ध, नाथ, जैन, सिख हो अथवा बिश्नोई जैसे अनेकानेक पंथ–संप्रदाय हो। विविधता में एकता का संधान करते हुए हमें उक्त बिंदुओं पर भी समानांतर और बराबर ध्यान देना चाहिए। भारत के इस ज्ञान–वैविध्य को भिन्न–भिन्न विद्वानों ने अपनी–अपनी विचारधारात्मक तुलाओं में तोला और उसके सार–सार को अपने–अपने नैरेटिव (गप्प) में गढ़ कर परोसा। आज की पीढ़ी को यह बारम्बार स्मरण कराने की आवश्यकता है कि ज्ञान का आधार ‘तर्क’ है और तर्कों से ही ज्ञान–प्रकाश (enlightenment) प्राप्त हो सकता है। निश्चय ही कुतर्कों (sophism) को ज्ञान–चिन्तन कहना तर्कसंगत नहीं होगा, जो कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पश्चिम से आए चिन्तन के आलोक में प्रचंड रूप में गढ़े और परोसे जा रहे हैं।
बहरहाल, यह समझना समीचीन होगा कि भारत ऋषि–मुनि–साधु–संत–गुरु–दार्शनिकों की भूमि रही और उन्होंने अपने समसामयिक समय में सामाजिक सुधार का जो उद्यम किया, उससे नित नवीन जीवन–दर्शन (सिद्धांत) उत्पन्न हुए और उनके चिन्तन से उपजी सामाजिक समरसता से जीवन–समाज निश्चय ही सुघड़ होता गया। भारत में ऋषि–मुनियों से लेकर बुद्ध, महावीर, बसव (बसवेश्वर), नामदेव, ज्ञानेश्वर, रविदास (रैदास), कबीर, जाम्भोजी (जाम्भेश्वर), चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानक देव, एकनाथ, तुकाराम, समर्थ रामदास, गुरु गोबिन्द सिंह तथा दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद इत्यादि और समकालीन समय में सद्गुरु जग्गी वासुदेव, श्री श्री रविशंकर इत्यादि तक सामाजिक सुधार और मानव कल्याण के मद्देनज़र ही ज्ञान–चिन्तन–परम्परा निरंतर विकसित होती रही। भारत की भूमि में उपजे पंथ–संप्रदाय ने कभी अपने मत–विचार–पंथ को प्रचारित–प्रसारित करने के लिए साम्राज्यवादी दृष्टि नहीं अपनाई, न ही विधर्मियों की भाँति धर्म प्रचार–प्रसार हेतु इन्द्रजाल (legerdemain) ही बिछाया। भारत की विशेषता रही कि ऋषि–भिक्षु–संत–मुनि–गुरु धरती पर, विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते हुए अपने विचारों से जनता में जागृति लाने का कार्य निरन्तर करते रहे। परिणामस्वरूप उनके तर्कों और विचारों के अनुयायी (followers) स्वयमेव बनते गये। भारत को ज्ञानदीप कहते हुए दिए जाने वाले तर्कों में यह पक्ष अनदेखा नहीं किया जा सकता।
ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार से कहा जा सकता है कि अनेकानेक परदेसी यात्री–विद्वान ज्ञान पिपासा के लिए भारत की धरा धरती पर आगमन करते रहे। इस संदर्भ में मुक्तिबोध द्वारा अमिताभ छद्म नाम से लिखा लेख – ‘हुएन सांग की डायरी’ का पारायण किया जा सकता है। मुक्तिबोध लिखते हैं –“हम सब सुदूर ताम्रपर्ण, चम्पा और स्वर्णदीप व चीन देश के जिज्ञासु लम्बी–लम्बी यात्राएँ समाप्त कर इस विश्वविद्यालय के द्वार पर ऐसे खिंचकर आ गये थे, जैसे मधुचक्र मधुमक्खियों को अपनी ओर खींच लेता है। पर्वतों और सागरों की सीमाएँ भी हमें रोक न सकीं। xxx पहली बार मैं नालन्दा के भवन देखकर दंग रह गया था। भव्यता और श्री में यह विद्या–मन्दिर बोधगया के विशाल मन्दिर से होड़ लेते जान पड़े। कैसा है यह देश जहाँ के राजा अपनी गरिमा राजभवन नहीं, वरन् विद्या–मन्दिर और धर्म–मन्दिर बनवाकर प्रकट किया करते हैं।”[5] निश्चय ही ऐसे अनेक संदर्भ एवं प्रमाण मिलेंगे, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि भारत के ज्ञान–दर्शन की परम्परा सुदीर्घ है।
यह भी ध्यातव्य है कि धर्म (पंथ–संप्रदाय) जाति–भाषा बहुल भारतवर्ष के अतिरिक्त ‘अनेकत्व’ (बहुलवाद-plurality) का अंगीकार करने और उसे सही अर्थों में जीने एवं अपनी उस स्थिति में फलने–फूलने वाला अन्य कोई राष्ट्र इस संसार में कदापि नहीं हुआ। सरस्वती-सिंधु नदी सभ्यता का यह अन्यतम वैशिष्ट्य है कि उसके विकास–चरणों में संकीर्णता ने नहीं, स्वस्थ–साहचर्य ने अपनी जड़ें मज़बूत कीं तथा अपने दीर्घकालीन विस्तार में विविधतापूर्ण एवं सबको आकर्षित करने वाली सभ्यता बन गयी। दो राय नहीं कि इस विविधता ने सबको आकर्षित किया और इसी विविधता में अनेक पंथ–संप्रदाय भी उत्पन्न हुए। यहाँ उपजे विभिन्न पंथ–संप्रदायों में एक धारा ऐसी भी रही, जिसने एकेश्वरवाद (monotheism) को प्रमुखता दी।
ध्यातव्य है कि सिख धर्म का आधार एकेश्वरवाद (ओंकार) ही है और यह एकेश्वरवाद सनातन धर्म से उपजे ॐ से उत्पन्न हुआ। लेकिन नानक के ‘इक ओंकार सतनाम’ कहने के बावजूद उनमें अनेकत्व (निरपेक्षता) और henotheism को सहज देखा जा सकता है। नानक ने अपने एकेश्वरवाद के आलोक में अन्य धर्मों की प्रतिष्ठा पर प्रश्न नहीं उठाए बल्कि समावेशी दृष्टि ही अपनाई। कृपाल सिंह ‘दि जाप जी’ में उल्लेख करते हैं –
पंथ–निरपेक्षता के सच्चे सार को गुरु गोबिंद सिंह की वाणी में भी देखा जा सकता है। कृपाल सिंह जी उनके विचारों को कुछ इस प्रकार उद्धृत करते हैं –“Hindu temples and the mosques of the Muslims are all the same. The Hindu ways of worship and the Namaz (Muslim mode of prayer) are all the same unto Him. All mankind is but an emanation from the same source of life. The differences between the men of various creeds — Turks, Hindus and others — are due to the customs and modes of living in their different countries.”[7] यह स्वीकारोक्ति भारतीय आध्यात्मिक तत्व–चिन्तन से सहज ही उपजा है। ‘धर्म–निरपेक्ष’ शब्द पर आए दिन होने वाले बहस–बवालों में यह बात कहीं–न–कहीं दब–सी जाती है कि भारत भूमि में उपजे पंथ–संप्रदाय निरपेक्षता के अन्यतम उदाहरण हैं। भारतीय ‘ईश्वर एक है’ (इक ओंकार सतनाम) और ‘एक ही ईश्वर है’ (इस्लामियत और ईसाइयत) में विद्यमान अंतर को निश्चय ही उनके आशय और बलाघात से समझा जा सकता है।
हमें ‘had begun to take root’ पर दृष्टि गड़ाए रखने और उसकी गहराई में जाने की आवश्यकता है। स्मरणीय है कि अमर्त्य सेन ने कबीर, नानक, चैतन्य महाप्रभु इत्यादि को non–sectarian कहा है। अर्थात् पंथी होकर भी पंथ–निरपेक्ष! लेकिन हमें थोड़ा और गहराई से सोचने की आवश्यकता है कि हमने अपने ज्ञान–गुरुओं के साथ क्या किया है! प्रसंगोचित है ‘एक ओंकार सतनाम’ की भूमिका में किया गया यह कटाक्ष –“जब संप्रदाय बनते हैं, नज़र और नज़रिया छोटी–छोटी इकाइयों में सीमित होता चला जाता है।”[9] शताब्दियों के बहाव में, कालान्तर में नानक की ‘सीख’ को ‘सिख’ पंथ के अनुयायियों ने प्रतीकों के रूप में ही ग्रहण किया। जबकि नानक को जीवन में उतारा जाना अपेक्षित था और आज भी ऐसा करना वांछित है। चूँकि उनकी बानियाँ प्रतीक बनती गयीं, हम निहितार्थ से दूर निकलते गये।
प्रायः यह लगता रहा है कि किसी भी कवि–लेखक–विचारक–दार्शनिक को प्रासंगिक नहीं ही होना चाहिए। हो भी क्यों? उसका प्रासंगिक रह जाना इस बात का संकेत ही नहीं प्रमाण भी है कि हमारी नज़र और नज़रिया सीमित हो गये। केवल प्रतीक शेष रह गये और उनके अर्थ खो गये। फिर क्या था? आज हम खाली–खाली निगाहों से उन प्रतीकों को नमस्कार करते हैं और उदासीन बने रहते हैं। वास्तव में ऐसा होकर गुज़रना किसी भी कवि–लेखक–विचारक–दार्शनिक के साथ अन्याय ही है कि हमने उनकी बानियों के निहितार्थ खो दिए। आज फिर–फिर लगता ही है कि नानक प्रासंगिक हैं, जो कि वास्तव में विडम्बना ही है। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि गुरुवाणी ही नाद है। गुरुवाणी ही वेद है। वह परमात्मा गुरुवाणी में समाया हुआ है। गुरु ही शिव, विष्णु, ब्रह्मा और वही पार्वती है।
किन्तु गुरु की वाणी को जीवन में चरितार्थ करने में निरन्तर चूक होती रही और गुरु प्रासंगिक बने रहे। लेखक–विचारक को कालजयी होना चाहिए। परन्तु वे पूजा–पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित हो गये। जो उन्होंने सोचा, चाहा – उसका घटित होना अब भी शेष है।
उल्लेखनीय है कि नानक का जन्म भारत के संकटपूर्ण समय में हुआ था। यह भारतीय इतिहास का मध्यकाल कहलाता है, जहाँ एक ओर आक्रांता–लूटेरों के रूप में आए और शासक बने मुसलमानों ने हिंदुओं के साथ अति दुष्ट व्यवहार किया और नृशंसतापूर्वक अत्याचार किए, वहीं दूसरी ओर इन गतिरोधों के बावजूद संतों–विचारकों ने भारत की दार्शनिकता को अत्यधिक समृद्ध किया। भक्ति का दर्शन अपने आप में विलक्षण है। बहरहाल, सैंडर्सन बेक ने ‘हिस्ट्री ऑफ पीस – भाग 1’ के अध्याय ‘सूफ़ीज़, फिलासफर्स एण्ड नानक’ में नानक देव पर विचार करते हुए इस्लाम के आरंभ और उसके विस्तार पर जो टिप्पणी की है, यहाँ प्रकारांतर से उल्लेखनीय है –
बावजूद इसके नानक बानी में सामाजिक समरसता का उच्च स्वर अंकित होना भारतीय तत्व–चिन्तन परम्परा और मूल्यों का अनुष्ठान ही कहा जा सकता है। मुक्तिबोध ने ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ में लिखा है –“जब तक समूचा विश्व सभ्य नहीं हो जाता, तब तक सभ्यता–केन्द्रों को खतरा ही रहता था।”[12]मुक्तिबोध इसी कड़ी में आगे लिखते हैं –“परिभ्रमणशील जातियों ने पुरानी सभ्यताओं को नष्ट कर दिया।”[13] अतः बसव (बसवेश्वर), नामदेव, ज्ञानेश्वर, रैदास, कबीर, जाम्भोजी (जाम्भेश्वर), गुरु नानक देव, चैतन्य महाप्रभु, एकनाथ, तुकाराम, समर्थ रामदास, गुरु गोबिन्द सिंह तथा दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद इत्यादि और समकालीन समय में सद्गुरु जग्गी वासुदेव, श्री श्री रविशंकर इत्यादि विश्व को सभ्य बनाने का ही उपक्रम करते रहे हैं (कर रहे हैं!)। कहना न होगा कि सभ्यता के विकास चरणों में इन संतों–गुरुओं की बानियाँ समूचे विश्व को सभ्य बनाने की ही प्रक्रिया का हिस्सा हैं। इस्लाम के मारकाट वाले दौर के बावजूद नानक समन्वय और समरसता के पक्षधर रहे हैं।
‘मारो और काट डालो’ हमारी संस्कृति नहीं है। हमारे पूर्वजों ने मनुष्य ही नहीं जीव–दया को भी उतना ही महत्व दिया। इसका प्रमाण महाराष्ट्र के संत तुकाराम के कर्मों में मिलता है। वे हरिद्वार से पवित्र गंगाजल ले जा रहे थे। तपती दोपहरी में उन्होंने प्यास से व्याकुल गधे को तड़पते देखा तो उसे गंगाजल पिला दिया, जो कि प्राचीन मान्यताओं के अनुसार रामेश्वर के कुंड में बहाना था। स्मरण करने की आवश्यकता है कि हमारी संस्कृति ने मध्यस्थता और गुत्थियों को सुलझाने को वरीयता दी है। आज भी गाँव या कहीं शहर में, गली–सड़क पर वाद–विवाद या हाथापाई होने लगती है तो बीच बचाव करते हुए सामान्य लोग भी कहते हैं – अरे! क्या हो गया? क्यों झगड़ रहे हो? कहो क्या बात है? हम सुलझाते हैं! हम हैं ना अब, हमें बताओ! आखिर सबको रहना यहीं है और सुबह उठ कर एक–दूसरे का मुँह भी देखना ही है। इसलिए बेहतर है, राजी–खुशी रहें। यही नानक हैं। यही हमारे सामाजिक समन्वय, समरसता और समर्पण की परम्परा है, जो अक्षुण्ण चली ही नहीं आ रही, अपितु निरन्तर परिष्कृत–परिवर्धित हो रही है।
ह्रषिकेश मुखर्जी निर्देशित तथा राज कपूर–नूतन अभिनीत फ़िल्म ‘अनाड़ी’ (1959) के लिए गीतकार शैलेन्द्र ने एक गीत लिखा था– ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार। किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार। किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार। जीना इसी का नाम है। ’यह गीत इसलिए भी स्मरणीय है कि भारतीय संतों की बानियों में उपरोक्त बातों की बानगी के साथ–साथ उसका सम्यक निर्वचन सहज ही दिखाई देता है।
समय बदला तो नानक की बानियों को ओशो ने नए सिरे से व्याख्यायित किया। वे नानक के विचारों को कुछ इस तरह व्याख्यायित करते हैं–“जीवन को जीने के दो ही ढंग हैं। एक ढंग है संघर्ष का, एक ढंग है समर्पण का। संघर्ष का अर्थ है, मेरी मर्जी समग्र की मर्जी से अलग। समर्पण का अर्थ है, मैं समग्र का एक अंग हूँ। मेरी मर्जी के अलग होने का कोई सवाल नहीं। मैं अलग अलग हूँ, संघर्ष स्वाभाविक है। मैं अगर इस विराट के साथ एक हूँ, समर्पण स्वाभाविक है। संघर्ष लाएगा तनाव, अशांति, चिंता। समर्पण :शून्यता, शांति, आनंद और अंततः परम ज्ञान। संघर्ष से बढ़ेगा अहंकार, समर्पण से मिटेगा।”[14] यही कारण भी रहा कि हमारी परम्परा समर्पण पर टिकी हुई है। आक्रांता आते रहे। लूट–खसोट मचाते रहे। बहुतों ने धन लुटा तो कई गधों–खच्चरों पर ग्रंथ लाद कर ले जाते रहे। ‘जाकी रही भावना जैसी’ के तर्ज पर भारत को प्रत्येक आक्रांता तथा अभ्यागत ने अपनी आवश्यकता के अनुसार ही देखा। कुछ आक्रांताओं ने तो ग्रंथालयों में आग तक लगा दी।[15] ओशो ने नानक का संदर्भ देते हुए लिखा है – “जो निर्भार है वही ज्ञानी है। जिसमें वजन है, अभी अज्ञानी है। xxx भारी आदमी के पीछे घृणा, हिंसा, वैमनस्य, क्रोध, हत्या चलती है। हलके मनुष्य के पीछे प्रेम, करुणा, दया, प्रार्थना अपने आप चलती है।”[16] गुरुदास जी ने नानक के सम्बन्ध में लिखा है –
उल्लेखनीय है कि सनातन धर्म की वैचारिकी में ‘ओंकार’ का अपना महत्व है और सिख पंथ में ओंकार को ही अन्तिम सत्य – ‘आदि सचु जुगादि सचु’ माना गया। सिख धर्म में नानक का मंत्र – “इक ओंकार सतिनाम, करता पुरखु निरभउ निरवैर। अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि।।” और जपु : “आदि सचु जुगादि सचु। है भी सचु नानक होसी भी सचु।।” ही जीवन–दर्शन का मूलाधार है। लेकिन जैसा कि ‘एक ओंकार सतनाम’ की भूमिका में लिखा है –“अलौकिक सच्चाइयाँ जो दुनिया वालों की पकड़ में नहीं आतीं, उन्हें कहने के लिए कुछ प्रतीक चुन लिए जाते हैं। कुछ गाथाएँ जोड़ ली जाती हैं, जो सच्चाइयों की ओर एक संकेत बनकर सदियों के संग–संग चलती हैं। ये गाथाएँ लोगों के अंतर में सोई हुई संभावनाओं को जगाने के लिए होती हैं।
लेकिन जब संप्रदाय बनते हैं, नज़र और नज़रिया छोटी–छोटी इकाइयों में सीमित होता चला जाता है, तो प्रतीक रह जाते हैं, अर्थ खो जाते हैं। और लोग खाली–खाली निगाहों से हर प्रतीक को नमस्कार करते हैं लेकिन उसी तरह उदासीन बने रहते हैं।”[18] संदर्भोचित तथ्य यह है कि अपने (भारतीय मनीषियों के!) ज्ञानोपदेश के प्रति उदासीनता इतनी गहरी है कि नानक जैसे ज्ञानियों की बानियों को “केवल पूजा-पाठ तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों”[19] तक ही सीमित कर दिया गया है। संत–महात्माओं की बानियों का बाना (filling) जीवन–दर्शन के परिष्कार से भिन्न न होने के बावजूद भी हममें उनके प्रति उदासीनता ही दिखाई देती है। नानक ने बानियों से चेतना की सोई हुई संभावनाओं में जागृत किया लेकिन कालांतर में उनकी सीख, जैसा कि उल्लेख किया गया है – केवल पूजा–पाठ तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों तक ही सीमित हो गयी।
सिख और उनके जीवन–मूल्य–दर्शन की जब कभी बात आती है तो प्रायः शैशव की स्मृतियों से बहुत–सारी बातें उफान मारने लगती हैं। मेरा जन्म महाराष्ट्र के नांदेड जिले में हुआ (जिले से लगभग 80 किलोमीटर दूर माचनुर ग्राम में)। वहीं पला और बड़ा हुआ। यदा–कदा अस्पताल इत्यादि के लिए गाँव से जिले जाने की आवश्यकता पड़ती तो गोदावरी नदी पर बने पुल से गुज़रती हुई खड़खड़ाती बस के टूटे–फूटे तड़तड़ाते झरोखों से गुरुद्वारा दिखाई देता। शुरू में, कई बार यही लगता रहा कि कोई–न–कोई मंदिर ही होगा लेकिन शैशव में ही जब ज्ञात हुआ कि गुरुद्वारा है तो बुद्धि कई तरह के प्रश्न करने लगी कि ‘गुरुद्वारा’ क्या होता है? मंदिर–मस्जिद तो सुन–देख चुका था लेकिन गुरुद्वारा? (तब तक ‘गिरिजाघर’ न सुनाई ही दिया था, न उस तरह उसका वजूद ही बन पाया था!) कैसा होता है गुरुद्वारा? क्यों बना गुरुद्वारा? किसने बनाया? ऐसे अनेकानेक प्रश्न लेकिन उत्तर एक ही मिलता, जैसे मंदिर–मस्जिद वैसे गुरुद्वारा।
गाँव के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए गाँव में स्कूल होना ही बड़ी बात हुआ करती थी। स्कूलों में शिक्षकों का होना और तिस पर उनका गुणवान–ज्ञानवान होना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी (गुणवान–ज्ञानवान शिक्षक आज भी अप्राप्य की चिरसाधना का–सा मामला है!), जो कि हमारे समय में हासिल न था। बहरहाल, समय बीतता गया और आयु बढ़ती गयी। मोटे तौर पर तब तक इतना जान गये थे कि ‘सिख’ नानक साहब की वाणी से प्रेरित होकर हिन्दू धर्म से ही उत्पन्न हुआ एक ‘पंथ’ है। परन्तु तब तक गुरुद्वारा देख ही नहीं पाए थे। जिज्ञासा जब परवान चढ़ी तो संभवतः 1998–99 में गुरुद्वारे पहुँच गये और तब से जाना कि सिख किसे कहते हैं और गुरुद्वारे क्यों बने?
हमारे पाठ्यक्रमों और उच्चतर शिक्षा में विश्वविद्यालयों की विडम्बना यही रही है कि हम अपने विचारकों–चिंतकों के प्रति अति उदासीन रहे हैं। हमें योरोपीय विचारक–चिंतकों के बारे में तो पढ़ाया जाता है (जिसका पूर्णतः निषेध नहीं!) लेकिन भारत की गौरवशाली चिन्तन परम्परा का ज्ञान नहीं दिया जाता। हमारी यह उदासीनता हमें अपने ज्ञानानुशासनों से दूर ले जा रही है और हमें दुर्बल बना रही है। अपनी जड़ों से कट कर कोई पौधा वृक्ष नहीं बन सकता। यह सृष्टि का ही नियम है। विडम्बना यह रही कि 1998-99 तक मैं 18–19 साल का हो चुका था लेकिन भारतीय चिन्तन परम्परा में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर गुरु नानक देव के बारे में जान न सका था।
आज तमिलनाडु के तिरुवारूर में बैठे देखता हूँ कि ईसाई अनुयायी दूर–दराज़ से वेलांकनी गिरिजाघर पहुँचते हैं। जबकि वेलांकनी चिन्तन परम्परा का नहीं, ईसाई धर्म के विस्तार (प्रचार–प्रसार) में निकले कुछ खास किस्म के लोगों की ‘विकलांग–श्रद्धा’ को महिमामंडित करने वाला और जीवन में पीड़ित (दीन–हीन, दुःखी–संतप्त) धर्मांतरित लोगों की अप्राप्य कामना की पूर्ति को संबल देने वाला स्थान है। ज्ञान–गुरु के रूप में जिस देश की ओर सबकी निगाहें अटकी रहीं, उस देश के बच्चे–युवाओं को अपने ही ज्ञान की धरोहर के बहुत–सारे अध्याय कभी पढ़ाए–बताए नहीं जाते। पंथी होकर भी पंथ–निरपेक्ष बने रहना भारत के दर्शन के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं मिलेगा।
मुझसे जब गुरु नानकदेव पर लिखने का निवेदन किया गया तो ऐसी–सी ढेरों बातें मन में उफान मारती रहीं कि क्योंकर हम और हमारे देशवासी, बुद्धिजीवी, राजनेता अपनी ही ज्ञान परम्परा की ओर हीन भावना से देखते हैं? क्यों हम अपने तत्व–चिन्तन के प्रति इतना उदासीन हो गये हैं? इससे आगे बढ़ते हुए ऐसा भी प्रतीत होता रहा कि भारतीय तत्व–चिन्तन के सम्बन्ध में न बता–पढ़ा कर शनैः–शनैः उसे विस्मृत कर देने का एक दुर्दमनीय षडयंत्र रचा गया है, जिसका आरंभ वैसे हुआ तो इस्लामिक आक्रमण और सत्तांतरण के दौरान परंतु तीव्र हुआ ब्रिटिश राज में! और आज देशांतर्गत देश–विरोधी तत्व भारतीय चिन्तन–परम्परा का अनुसरण, निर्वहन करने एवं उसे पुनर्स्थापित करने की सोच रखने वालों को ‘अतिराष्ट्रवादी’ (Ultranationalist) संबोधित करते हैं और यथेच्छित विदेशी विद्वानों का महिमा मंडन करने से नहीं चूकते।
भारतीय ज्ञानानुशासन, चिन्तन–दर्शन, समाज–संस्कृति को विस्थापित करना उत्तर–औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का निश्चय ही एक भयावह पक्ष है, जिसे जितना शीघ्र समझा जाए, उतनी ही शीघ्रता से बचाव एवं संस्कार किया जा सकता है। ऐसा नहीं ही होना चाहिए कि भारत की नवीन और आगामी पीढ़ी को अपने पूर्वजों द्वारा संचित ज्ञान–राशि का अनुमान ही न हो, जैसा अत्यंत दीर्घ समय तक मुझ जैसे ग्रामवासी (मुझसे एक दशक बाद जन्मे बच्चों–युवाओं) के साथ होता रहा है। अतः नानक तथा उक्त उल्लिखित भारतीय चिंतकों के वैचारिक पक्ष से सबको परिचित कराना अनिवार्य है ताकि निकट भविष्य में पीढ़ियाँ अपनी जड़ों से जुड़ी रह सकें और पंथी होकर भी पंथ–निरपेक्ष बन सकें।
[1]सं. नेमिचन्द्र जैन, मुक्तिबोध रचनावली : छह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (1986), 434
[2]वही, 187-188
[3]सं. अमृत साधना, स्वामी आनंद सत्यार्थी, डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि., नई दिल्ली (2006)
[4]वही, भूमिका
[5]मुक्तिबोध रचनावली : छह, 188
[6]Kripal Singh, The Jap Ji, Ruhani Satsang Books, Blain, USA (2008), 7
[7]वही, 8-9
[8]Amartya Sen, The Argumentative Indian, Farrar, Straus and Giroux, New York (2003), 287
[9]एक ओंकार सतनाम की भूमिका
[10]एक ओंकार सतनाम, 73
[11]Sanderson Beck, History of Peace – Volume 1, Guides to Peace and Justice from Ancient Sages to the Suffragettes, World Peace Communications
[12]मुक्तिबोध रचनावली : छह, 418
[13]वही, 418
[14]एक ओंकार सतनाम, 37
[15]स्मरणीय है 1857 के संग्राम का रोमांचक इतिहास और अंग्रेज़ों द्वारा झाँसी की लूट एवं समृद्ध ग्रंथालय को ध्वस्त कर देना।
[16]वही, 38
[17]जयराम मिश्र, नानक वाणी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (2008), देखें, परिशिष्ट (क)
[18]एक ओंकार सतनाम की भूमिका
[19]वही
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