सुभाषचन्द्र बोस – विचारधारा का सवाल
घोटालों का इतिहास होता है, पर कई बार लोग इतिहास के साथ ही घोटाला करने लगते हैं। उसके तथ्य, स्वरूप और घटित घटनाओं को तोड़ मरोड़कर अपने पक्ष में बनाना ही उनका सर्वोपरि एजेण्डा बन जाता है। इस समय स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास इसी प्रकार के घोटालेबाजों का शिकार है। ताजा मिसाल सुभाषचन्द्र बोस के महान व्यक्तित्व और विरासत को तबाह करना है। ऊपर से लगता है कि बोस को याद किया जा रहा, इंडिया गेट पर उनकी प्रतिमा लगाई जा रही है, पर वास्तव में यह बोस के प्रति प्रेम नहीं, स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपने लिए सम्मानजनक स्थान बनाने की संघ परिवार की ताजा कारस्तानी है।
संघ परिवार अभी तक इस आरोप से बहुत कोशिश कर, एड़ी चोटी का जोर लगाकर भी नहीं उबर पाया है कि उसकी देश की स्वाधीनता में कोई भूमिका नहीं थी। कांग्रेस, वामपंथियों और उग्रपंथियों, सबने अपना योगदान दिया पर संघ के पास व्यापक लोकप्रियता वाला कोई जननायक नहीं है। इसलिए वह कांग्रेस व कम्युनिस्टों की धारा में ही अपने वैचारिक सहयोगियों की तलाश की चेष्टा में जुटा रहता है और उपहास का विषय बनता है।
स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास का पुनर्लेखन भी उसे इतिहास में वह सम्मान नहीं दिला सकता है, जिसकी खोज में वह है। वर्तमान कांग्रेस को बदनाम करने के लिए गाँधी, नेहरू के ऊपर दिन-रात कीचड़ उछालता है। बोस अचानक से उसके लिए महत्त्वपूर्ण हो गए क्योंकि बोस ने कांग्रेस में रहते हुए भी कांग्रेस की नीतियों का विरोध किया और बाद में वे सैन्यबल, हिंसा तथा फासीवाद का सहारा लेते दिखे। वे इतिहास में कांग्रेस की वैचारिक उथल-पुथल के प्रतीक पुरुष हैं।
इन बातों का इस्तेमाल करने के लिए संघ वैसे ही चौकस हो गया है जैसे कि कोई होशियार शिकारी होता है। लेकिन बोस का अधिकांश राजनीतिक जीवन कांग्रेस के भीतर ही व्यतीत हुआ। 1921 से लेकर 1939 तक, लगभग 18 साल वे कांग्रेस से संबद्ध रहे। कांग्रेस के भीतर वे वामपंथी गुट के माने जाते थे और समाजवाद-साम्यवाद के आदर्शों पर विश्वास करते थे। उन्होंने सोवियत क्रान्ति की प्रशंसा की थी। अपनी पुस्तक ‘द इडिंयन स्ट्रगल’, जो दो खंडों में लिखी गई, में सोवियत क्रान्ति के योगदान के विषय में लिखा था कि रूस ने सर्वहारा की क्रान्ति कर संस्कृति-सभ्यता को बीसवीं सदी के दौरान समृद्ध किया है।
उन्होंने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में यह भी लिखा था- ‘मेरा यह निजी विचार है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दो ही उद्देश्य है, पहला राजनीतिक स्वाधीनता की प्राप्ति और दूसरा समाजवादी राज्य की स्थापना।’ बंगाल में बोस ही कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे और वे पार्टी के महासचिव भी रह चुके थे। 1938 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और 1939 में दोबारा अध्यक्ष चुने जाने के बाद गाँधी व अन्य कांग्रेसी नेताओं से उनका विवाद हुआ जिस कारण उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। पर ऐसा न था कि बोस अपने अलग रास्ते को खोजने की कोशिश करते हुए भी गाँधी तथा नेहरू के कट्टर विरोधी हो गए हों, या उनके प्रति कटु हो गए हों।
बाद में उन्होंने जब दूसरे महायुद्ध के दौरान जापान तथा सिंगापुर में आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया जिसमें दक्षिण-पूर्व एशिया में रहने वाले भारतीय तथा मलाया, सिंगापुर और वर्मा में जापानी सेना द्वारा बंदी बनाए गए भारतीय सैनिक तथा अधिकारी बड़ी संख्या में शामिल हुए थे। तब उन्होंने अपनी फौज के विभिन्न खंडों का नाम गाँधी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड और रानी लक्ष्मीबाई ब्रिगेड रखा था। उन्होंने किसी संघ परिवार के नेता के नाम पर आजाद हिंद फौज की ब्रिगेड का नाम नहीं रखा। उन्हें संघ परिवार की नीतियों व राजनीति से ही नहीं किसी भी प्रकार की धर्मकेंद्रित विचारधारा से खासी अरुचि थी। आजाद हिंद फौज में हिंदू तथा मुस्लिए बगैर किसी धार्मिक भेदभाव के एकसाथ कुर्बानियां दे रहे थे।
1945 में जब अंग्रेजों ने आईएनए के लोगों पर राजद्रोह के आरोप में ‘लालकिला ट्रायल’ के नाम से मुकदमा चलाया तो उसमें भी सभी धर्मानुयायियों के त्याग-बलिदान की कथा सामने आई। आईएनए के तीन बड़े कमांडर कर्नल प्रेमकुमार सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन और मेजर जनरल शाहनवाज खान इसमें मुख्य आरोपी थे तथा इसी मुकदमें के दौरान यह नारा गूंज उठा था- ‘लाल किले से आई आवाज- सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज।’ तीन अलग धर्मों के लोग लेकिन एक साथ आजादी के लिए लड़ते लोग। वर्तमान राजनीतिक सत्ता मुख्य रूप से धर्मों के बीच भेद बढ़ाने, गाँधी के प्रति घृणा का प्रचार करने तथा वाम-लोकतांत्रिक शक्तियों को देश का शत्रु साबित करने की ही चेष्टा अधिक करती है। पर बोस इन चीजों के सख्त विरुद्ध थे। धार्मिक-सांप्रदायिक घृणा उनमें होती तो वे आईएनए जैसे ठेठ धर्मनिरपेक्ष संगठन को न खड़ा करते।
गाँधी के प्रति सम्मान उनमें इतना था कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व उन्होंने सिंगापुर में 6 जुलाई 1944 को अपने रेडियो संदेश में गाँधी को ‘फादर आफ द नेशन’ कहकर पुकारा था और उसी के बाद आज तक गाँधी को राष्ट्रपिता के तौर पर ही याद किया जाता है जिससे संघ परिवार को खासी एलर्जी है। गाँधी को जो संबोधन बोस ने प्रदान किया, वह उसी के विरुद्ध है। इसी प्रकार जिस वाम-लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से संघ की वैचारिक शत्रुता है, उसी के पक्ष में बोस खड़े थे। वे रूसी क्रान्ति से प्रेरित थे तथा उनका बनाया आल इंडिया फारवर्ड ब्लॉक नामक संगठन अपने गठन के समय से समाजवादी नीतियों के प्रचार-प्रसार से जुड़ा रहा है।
फारवर्ड ब्लॉक संगठन चौथे दशक के अंत में बोस के द्वारा गठित हुआ था। इसी दशक में कांग्रेस के भीतर जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेंद्र देव के नेतृत्व में कांग्रेस समाजवादी पार्टी (1934) का गठन, आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन पार्टी (1936) तथा प्रगतिशील लेखक संघ (1936) की स्थापना जैसी महत्त्वपूर्ण घटनाएं हुई थीं जो स्पष्ट रूप से स्वाधीनता आन्दोलन के भीतर समाजवादी विचारों की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता का प्रमाण थीं। 1938 ई. में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में बोस की विजय इस बात की सूचक मानी गई कि नेहरू के बाद, जो उनके पहले कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके थे, कांग्रेस के भीतर समाजवादी विचारों का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। उसमें समाजवादियों के पास एक तिहाई बहुमत हमेशा रहता है जिसके बल पर वे सभी मुद्दों पर अपनी राय को मनवा सकते हैं।
वर्तमान में नेहरू और बोस के मतभेद व टकराव को बहुत हवा दी जा रही है, पर इतिहास के तथ्य दूसरे हैं। लंबे वक्त तक बोस ने नेहरू के साथ एक कांग्रेस में कार्य किया। दोनों ही गाँधी से मतभेद रखते थे, पर गाँधी के नेतृत्व को स्वीकारते थे। दोनों ही कांग्रेस में लेफ्ट विंग के समर्थक समझते जाते थे। उनके बीच ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने तथा फासीवाद के मुद्दे पर असहमतियां थीं लेकिन वह बहुत टकरावमूलक न थीं।
बोस के मन में हिटलर व मुसोलिनी के सैन्य फासीवाद के प्रति झुकाव भारत की गुलामी के प्रति क्रोध से पैदा हुआ था, न कि फासीवाद के प्रति आकर्षण के कारण। वे स्वयं स्टालिन के रूस तथा समाजवादी नीतियों के ही प्रशंसक थे। ऐतिहासिक तथ्य तो यह है कि वल्लभभाई पटेल वास्तव में बोस के अधिक विरोधी थी और 1939 ई. में जिन कांग्रेसियों ने बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के विरोध में कांग्रेस वर्किंग कमेटी से त्यागपत्र दिया था, उनमें पटेल भी शामिल थे। दूसरी ओर नेहरू निरंतर बोस से फासीवाद-नाजीवाद के समर्थन व विरोध से जुड़े वैचारिक मतभेद के बाद भी उनकी देशभक्ति की सराहना करते रहे। उन्होंने आईएनए के लिए अपनी बैरिस्टरी की शिक्षा का फिर से उपयोग किया।
स्वतंत्र होने के बाद उन्होंने लाल किले से 16 अगस्त 1947 को जो पहला भाषण दिया, उसमें केवल दो लोगों को याद किया। पहला गाँधी को और दूसरा सुभाषचन्द्र बोस को। बोस के बारे में उन्होंने उस भाषण में कहा- ‘आज के दिन हमें उन सभी को याद करना चाहिए जिन्होंने कुर्बानियां दीं और भारत की स्वतन्त्रता के लिए कष्ट सहे। उन सभी का नाम लेना मेरे लिए अनावश्यक है, लेकिन मैं सुभाष चन्द्र बोस का नाम नहीं भूल सकता, जिन्होंने देश को छोड़ दिया और विदेश में इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना की और भारत की स्वतन्त्रता के लिए बहादुरी भरा संघर्ष किया। उन्होंने विदेश में इस ध्वज को लहराया और जब लालकिले पर झंडा फहराने का समय आया तो वे अपना स्वप्न फलीभूत होते देखने के लिए हमारे साथ नहीं हैं। आज के दिन उन्हें लौट आना चाहिए था, पर अफसोस कि वे इस संसार में अब नहीं है।’
बोस का व्यक्तित्व गहरे आदर्शवाद से ओतप्रोत था और उन्होंने युवावस्था में यह कहते हुए अपनी सिविल सेवा की नौकरी को त्याग दिया था कि यदि मैं इस नौकरी की जंजीर से बंधा रहा तो कभी मातृभूमि की सेवा न कर सकूंगा। जीवन में कई अवसर आए जब उन्होंने दुस्साहस का परिचय दिया जिसे आज गाँधीवादी अहिंसा की तुलना में उनके मर्दाना शौर्य से जोड़कर देखा जाता है। पर सच यह है कि अपनी समस्त जटिलता के बावजूद बोस की राजनीतिक विचारधारा में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के विचारों का प्रबल असर था और वे भले राजनीतिक कुंठा के शिकार होकर हिंसा व उग्र नीतियों की तरफ झुके हों, लेकिन इन मूल्यों से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।