सत्यजित राय एक अद्भुत चमत्कारी कथा लेखक थे, हालाँकि उनकी सर्वाधिक प्रसिद्धि उनके फिल्म निर्देशन – कौशल को लेकर ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं। वे 20 वीं शताब्दी के सर्वोत्तम फिल्म निर्देशकों में एक थे, पर उनके कहानीकार व्यक्तित्व के प्रसंग में कहना पड़ेगा कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी राय पटकथा लेखन, अभिनेता संधान, पार्श्व–संगीत संयोजन, चलचित्र, कलानिर्देशन, सम्पादन और प्रचार–प्रसार आदि का समस्त कार्य खुद ही करते हुए एक कुशल कहानीकार भी थे।
बंगला में कहानी को ‘गल्प’ कहा जाता है और हिन्दी में बातूनी आदमी को ‘गलक्कड़’ मतलब यह कि जो बहुत ‘गप्प’ हाँक सके, बातें बना सके वह कहानी यानी ‘गल्प’ बना सकता है, कहानी गढ़ सकता है। सन्देह नहीं कि सत्यजित राय में यह ‘गप्प’ गढ़ने की विरल क्षमता थी, जाहिर है कि ‘गल्प’ लिखने की अपार क्षमता थी। असल में एक कहानी को शुरू से अन्त तक रुचिकर बनाए रखने के लिए कौतुहल की बड़ी जरूरत होती है। इसीलिए एक लोकप्रिय और बड़े कथाकार को ‘गप्पकार’ जरुर होना चाहिए।
देखा जाए तो सत्यजित राय की हर कहानी में गप्प का तत्त्व भरपूर है। फलत: उत्सुकता, मनोरंजन और अटूट आकर्षण से पाठक आविष्ट रहता है। अर्थात गल्प शब्द की अवधारणा राय के समस्त कथा साहित्य में सार्थक हो उठती है। कौतुहल, मनोरंजन, रोमांच आदि के संयोजन के साथ–साथ राय की कहानियों का अभीष्ट उच्च मानवीय मूल्य ही होता है। अर्थात मानवता और सृष्टि से भरपूर उनकी कहानी सरलता से आरम्भ होती हुई एक गम्भीर जुझारू, जीवन मूल्य के चरम पर सम्पन्न होती है।
सत्यजित राय अपनी कहानियों में मानवीय विवेक या कि जमीर को झकझोर कर रोमांचकारी रास्ते से जगाते हैं। संगीत की भाषा में अगर राय बनायी जाए तो एक ऐसे ‘सम’ पर कथा ख़त्म होती है कि गूंज देर तक ध्वनित होती रह जाती है। सत्यजित राय की रचनाओं की इसचामत्कारिक आबद्धता ने ही उनकी फिल्मों की अटूट लोकप्रियता भी बनायी। अकिरा कुरुसावा ने कहा है कि ‘राय का सिनेमा न देखना इस जगत में सूर्य या चन्द्रमा नहीं देखने जैसा है’।
देखा जाए तो उनकी कहानियों में उनकी बहुमुखी प्रतिभा झलमला उठती है। सत्यजित राय अपनी कहानियों में कथा-तन्तुओं को इतनी बारीकियों से सजाते हैं, आकाश या धरती कहाँ से वे दृश्यों का अवलोकन करते हैं वह साफ–साफ कैमरे की आँखों से देखा हुआ सा वर्णित होता है। कहीं मानो वे अल्पना बना रहे होते हैं, कहीं कैमरे से दृश्य, बिम्ब समेट रहे होते हैं, कहीं संगीत का ‘स्पेस’ (अन्तराल) छोड़ रहे होते हैं तो कहीं गति और स्थैर्य ;सारे संयोजन में बस कल्पना सच और पात्र सजीव हो उठते हैं।
पाठक सृजन के एक मायावी जाल में तब तक आविष्ट हो पड़ा रहता है जब तक कहानी खत्म न हो और शायद बाद तक भी। जासूसी नजर रखने वाले उनके किरदार फेलुदा ,वैज्ञानिक शंकु और कथा वाचक तारणी बाबू को लेकर लिखी कहानियों में तो जासूसी और मनोरंजन का रोमांच भरा है ही पर इनसे इतर पात्रों को लेकर भी जो कहानियाँ सत्यजित राय ने लिखी है, उनका जाल भी कम मायावी और चमत्कारी नहीं है।
बंगला में उनका एक सौ एक चमत्कारी कहानियों का संग्रह अत्यन्त लोकप्रिय हुआ ही है पर उसके साथ-साथ उनकी बारह कहानियों का भी संकलन अत्यन्त ही प्रसिद्ध हुआ है। इस संकलन में सदा उनके नाम में बारह से सम्बधित शब्दों का चामत्कारिकप्रयोग अक्सर चकित करता है जैसे एकेर पीठे दुई = एक पर दो मतलब बारह। राय ने अपनी कहानियों में पहेलियाँ और बहुअर्थी शब्दों के प्रयोग से अपनी एक नयी पहचान बनायी। फेलुदा का तो चरित्र ही है पहेलियों को सुलझाने वाला।
शेरलॉक होम्स और डॉ वाटसन की तरह फेलुदा की कहानियों में उसका चचेरा भाई तापस उपस्थित रहता है। प्रोफेसर शंकु भी एक बड़े वैज्ञानिक होते हुए भी सरल व्यक्तित्व वाले हैं। उनकी वैज्ञानिक सूझ भरी कथाएँ डायरी के रूप में उनके चले जाने के बाद प्राप्त होती है। राय की कहानियों में अज्ञात और रोमांचक तत्त्व एक दूसरे का हाथ पकड़ कर चलते हैं और अन्ततः अज्ञात रोशनी में आ जाता है और एक गहरे रहस्य का पर्दाफाश हो जाता है। रहस्य का ऐसा चामत्कारिक उदघाटन पाठक को एक गहरे इत्मीनान और चैन में पहुँचाता है। निसन्देह राय की रचनात्मक और स्वास्थ्यकर सार्थकता है।
सत्याजित राय की हास्य, कौतुक, चमत्कार और मनोरंजन की प्रधानता वाली कहानियों के अलावा वैज्ञानिक कहानियों की भी एक विशेष कोटि है। सत्याजित राय भारतीय लेखकों में ‘साइंस फिक्सन’ (वैज्ञानिक कहानियों) के इकलौते अद्भुत कहानीकार थे, जिन्होंने विज्ञान के सिद्धान्तों, प्रक्रियाओं, प्रतिक्रियाओं का मात्र गहन अध्ययन ही नहीं बल्कि अपनी रचनाओं तथा सम्पूर्ण शिल्प और कलाओं में इनका तर्कसंगत उपयोग भी किया था।
शेरलॉक होम्स के प्रसिद्ध लेखक कोनन डॉल का बहुत प्रभाव देखा जाता है। हालाँकि यह प्रभाव भी उनमें उनकी मौलिकता के साथ ही उजागर होता है। उनकी वैज्ञानिक कहानियों में सीधे-सीधे विज्ञान मिल जाए ऐसा नहीं, वहाँ भी उनकी तीक्ष्ण उदात्त कल्पना, बौद्धिक कौशल पाठक को बाँध लेने वाले संवाद, उनकी मौलिक भाषा शैली सभी कथा को एक रोमांचक पर मानवीय मूल्य के चरम पर पहुँचाते हैं।
राजपाल एंड संस से प्रकाशित सत्याजित राय की बारह कहानियों के हिन्दी अनुवाद के संकलन में पहली कहानी है ‘सेंटोपस की भूख’। यह एक वैज्ञानिक कहानी है, इसके अलावा इस संग्रह में बंकू बाबू का मित्र विपिन चौधरी का स्म्रति भ्रम, दो जादूगर, अनाथ बाबू का भय, शिबू और राक्षस की कहानी, टेरोडैकटिल का अण्डा, चमगादड़ की विभीषिका, पटल बाबू फ़िल्म स्टार बने, नील कोठी का आंतक, फेलुदादा की जासूसी, कैलाश चौधरी का पत्थर, ग्यारह और कहानियाँ हैं।
इन सारी कहानियों में रचनाकार का मूल वैशिष्ट्य यानि ‘गल्प’ का कौतुहलपूर्ण ताना-बाना के बीच रहता ही है बावजूद इसके हर एक कहानी अपने चरम पर मानवीय मूल्यों की एक–एक मजबूत छतरी पाठक को जरूर थमाती है, जिसे लेकर वह परिवेशगत वैर भाव वैमनस्य, ईर्ष्या, लोभ, शुद्रता जैसे मूल्यहीन सन्त्रास की बौछार को थोड़ी देर के लिए ही सही, थाम ले और अन्ततः खुद को बचा ले। ऐसे में उनकी एक वैज्ञानिक काहानी ‘सेंटोपस की भूख’ को ही यदि लें तो यह मानव और प्रकृति की अन्न्योन्याश्रिता को उजागर करती एक विशिष्ट प्रकार की वैज्ञानिक कथा है।
यह उद्भिद विज्ञान का एक वैचित्र्य खोलता है। एक तरफ दार्शनिकों ने जहाँ प्रकृति को सर्वाधिक विवेकवान माना है वहीं राय की कहानी यह सिद्ध करती है की कहीं–कहीं पूरी तरह से मानव की तरह ही अविवेकी, असंवेदनशील, अतिक्रमणकारी, विध्वंशक, क्रूर, हिन्श्र, और दानवी व्यवहार कर सकती है। कहानी में ‘सेंटोपस’ एक मांसाहारी पेड़ है। सत्याजित राय ने ऑक्टोपस (समुद्री जीव) के वजन पर काल्पनिक नाम ‘सेंटोपस’ दिया है।
वनस्पति विज्ञान के अध्ययन से पता चलता है कि प्रकृति में मांसाहारी पेंड़-पौधों की छह सौ से अधिक प्रजाति पाई जाती है, जो देखने में तो बहुत सुन्दर और आकर्षक होती हैं, पर इनके करीब जाने या छूने के दु:साहस का परिणाम बड़ा भयंकर होता है। इन मांसाहारी पेंड़-पौधों का अपना मायावी जाल होता है। जिसके तहत वह जीव-जन्तुओं को पहले तो आकर्षित करते हुए पुनः उनका शिकार कर अपना पोषण करते हैं। इन पेंड़–पौधों में निपेंथिस–ट्रोपिकल पीचर प्लांट- मटकेनुमा होता है। हिन्दी में इसे ‘घटपरणी’ या ‘मंकी कप’ भी कहते हैं।
‘सनड्यू’ सुराहीदार मीठा जूस फेंकने वाला एक दूसरा मांसाहारी पौधा होता है जो कीट-पतंगों, मक्खियों को फंसाकर उनको भोजन बनाता है। इस तरह के राक्षसी प्रवृत्तियों वाले ढेर सारे पेड़-पौधों को कहानी के एक पात्र कान्ति बाबू ने अपने ग्रीन हाउस में देश विदेश से एकत्र किया है। पेशे से वे वनस्पति शास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं। कथा में कान्ति बाबू लेखक परिमल के पास एक लम्बे अरसे बाद पहुँचते हैं। जो कभी अव्वल दर्जे का निशानेबाज भी रहा है।
भले ही उसकी वर्तमान प्रवृत्ति बिल्कुल ही अहिंसक हो चुकी है। पर कान्ति बाबू का ध्यान लेखक के कमरे की दीवार पर टंगी ‘बाघ की छाल’, उसकी अव्वल निशानेबाजी के प्रमाण पर ही रहता है। बातों–बातों में कान्ति बाबू कहते हैं कि “एक प्राणी से दूसरे प्राणी का भोज्य और भक्षक का सम्बन्ध सृष्टि के प्रारम्भ से ही चला आ रहा है”। ऐसे संवाद के माध्यम से वे लेखक को अपने आने का मकसद बताते हैं कि वह अपनी निशानेबाजी को अतीत कह कर न टाले बल्कि उनके साथ अपनी बन्दूक लेकर चले। उसका मानो आज भी प्रयोजन है।
हालाँकि वे अपने आग्रह के कारण को रहस्य ही बना कर रखते हैं। लेखक भी कुछ सोच-समझ कर ही उन्हें छेड़ते नहीं। कान्ति बाबू अपने विशेष उद्देश्य के लिए लेखक परिमल के चुनाव का कारण विशेष भी बताते है “तुम में भी एक नये प्रकार के अनुभव के प्रति आकर्षक है। उसके अलावा पहले भी मैं बहुत कम आदमियों से सम्पर्क रखता था और एक तरह से कहा जा सकता है कि सम्पर्क है नहीं”। परिमल कान्ति बाबू के आग्रह पर अपने दोस्त अभिजीत और उसके प्राण से भी प्यारे उनके कुत्ते के साथ कान्ति बाबू के घर पहुँचे।
वहाँ उन्होंने परिमल बाबू के ग्रीन हाउस को देखा जहाँ तरह–तरह के कीट–भक्षी पेड़ों का संग्रह था। उन्हीं में से सबसे विचित्र था यह सेंटोपस। यह अनेक सूँड़धारी किसी आश्चर्यजनक जानवर की तरह दिखाई पड़ रहा था। गौर से देखने पर पाँच-छह हाथ ऊँचा इसका तना एक मस्तक में जाकर समाप्त हो गया। मस्तक से करीब एक हाथ नीचे उसे एक गोलाकार रूप में घेर कर सात सूंड थे। पेंड़ का तना धूसर वर्ण का चिकत्ते भरा चिकना सा था। सूंड अभी मिट्टी की और झुके पड़े थे, देखने में निर्जीव लगते थे। पर फर्श पर उसके चारों और चिड़ियों की पांखे बिखरी हुई थी। कान्ति बाबू ने बताया कि पेड़ अभी सो रहा है। लगता है अभी जगने का समय हो गया है। उन्होंने यह भी बताया कि आज वे एक विशेष निर्णय पर पहुँच चुके है।
चूहे, मेंढक, मुर्गी, सड़क पर मरे हुए कुत्ते, बिल्ली से लेकर बकरा तक को लेकर इस मांसाहारी सेंटोपस को खिलाने का सिलसिला कान्ति बाबू के यहाँ कई वर्षो से जारी है पर जब एक दिन इस पेड़ ने उनके सेवक प्रयाग के हाथ को दबोच लिया और कान्ति बाबू की लाठी के आघात के बाद ही उसे मुक्त किया तब से कान्ति बाबू ने उसे मौत दे देने का कठोर निर्णय ले लिया। मनुष्य की ओर लपलपाती उसकी जिह्वा को वह बर्दाश्त न कर सके, अपने शौक की इस अमानवीय परिणति के वे बिल्कुल खिलाफ थे।
इसलिए वे परिमल को उस पेड़ पर निशाना लगाने की तरकीब बता रहे थे। सोई हुई अवस्था में उसके सातों सूंड जमीन की तरफ लटके हुए थे पर जब वह जगा तो सभी सूंड भी सक्रिय हो गये और तब एक विचित्र सी गन्ध वातावरण में फैलने लगी। इसी विचित्र गन्ध से वह अपने शिकार को आकृष्ट करता था। कान्ति बाबू अभ्यागतों को इस गन्ध और परिणाम के बारे में विस्तार से कुछ बताते कि खिड़की से जंजीर में बंधा कुत्ता बादशाह अचानक बेकाबू हो जंजीर तोड़ कर भागा और ग्रीन हाउस की खिड़की से छलांग लगाकर भीतर सेंटोपस पर टूट पड़ा उसके पीछे भागते हुए दरवाजा खोलकर जब तीनो मनुष्य भी उस पेड़ के पास पहुँचे तब उन्होंने बादशाह को सेंटोपस की दो सूंडों की जकड़ में गरजता हुआ पाया।
किन्तु जकड़ इतनी मजबूत थी कि उसके छूटने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। इधर कान्ति बाबू का निर्णय पक्का था हिंस्र जीव का मानो अन्त होना ही चाहिए। कान्ति बाबू ने परिमल को सेंटोपस के सिर पर निशाना लगाने को कहा पर अभिजीत ने तत्क्षण उसे रोकते हुए अपने प्राण से प्यारे कुत्ते बादशाह को सेंटोपस के पाश से छुड़ाने का पूरे बल के साथ प्रयास किया। उसकी तीव्र गति के आघात से बादशाह तो छूट गया पर अभीजीत सेंटोपस की जकड़ में आ गया।
अब ये पाश अभिजीत को उठाकर सेंटोपस के तत्क्षण खुले मुंह में ग्रास की तरह फेंकने ही वाले थे कि परिमल ने सेंटोपस के सिर पर गोली चला दी। निशाना पक्का था। सेंटोपस के सिर से खून का फव्वारा फूट पड़ा। अब उसके प्राण उड़ चुके थे वह मर चुका था। उसके पास से अभिजीत मुक्त हो चुका था पर उसकी पसलियाँ टूट चुकी थीं। कान्ति बाबू ने चैन की साँस ली थी। अब उन पर से ऐसे पेड़ों का नशा काफूर हो चला था।
बादशाह सेंटोपस के ग्रास से मुक्त होकर भी उसके विषैले प्रभाव के कारण जीवित न रह सका पर अभिजीत ने नये नस्ल के दो कुत्तों को लेकर बादशाह का गम भुला दिया था। इस तरह कहानी अपने अन्त में ऐसे चरम पर पहुँचायी गयी है जहाँ आदमी अपनी प्रवृत्तियों का मूल्यांकन करता हुआ आत्ममन्थन करता है, आत्मसन्धान करता है, तब वह ऐसे निर्णय पर पहुँचता जो उसे आदमियत के सच्चे मूल्य के लिए उत्सर्ग होना सिखलाता है। सत्यजित राय कमोवेश अपनी हर रचना में जिन्दगी के उबड़–खाबड़ रास्तों पर चलते हुए आदमी को अन्ततः इस उत्सर्ग के मूल्य तक पहुँचाते ही हैं। यही उनकी सार्थक सृजनधर्मिता है।
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