शख्सियतसिनेमा

मुरैना और इरफ़ान (1967-2020)

 

    “बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नही जाता

     जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नही जाता”  –  निदा फाज़ली (1936-2016)

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बीते दिनों भारतीय सिने-जगत ने अपना एक प्रतिभाशाली कलाकार खो दिया। न्यूरोइंडोक्राइन कैंसर की  बीमारी के चलते इरफ़ान, आज हमारे बीच में नहीं है। एक तरफ उत्तर भारत मई की भारी तपिश से जूझ रहा है तथा दूसरी ओर देश व दुनिया कोरोना के भारी बज्रपात से सन्निपात में है। ऐसे मौके पर किसी अपने का जाना मन में एक एकाकीपन व बैचैनी को भर देता है।

      चम्बल संभाग का जिला मुरैना, इरफ़ान को आज़ादी के तीन दशक तक की मुरैना की पृष्ठ-भूमि पर आधारित तिग्मांशु धूलिया लिखित और निर्मित फिल्म पान सिंह तोमर (2012) के मुख्य किरदार, पान सिंह तोमर के लिए याद कर रहा है। यह किरदार आज भी उतना ही यथार्थ लगता है, जितना इतिहास के पन्नों में दर्ज है। पान सिंह तोमर के किरदार के बाद इलाके के लोगों में इरफ़ान ने, वास्तविक सिनेमा के महत्व तथा धारदार अभिनय देखने व परखने की सिनेमाई समझ और लालसा, दोनों को मूलतः बढ़ा दिया है।

      बतौर कलाकार से लेकर निजी जिंदगी में भी अपनी सादगी एवं संजीदगी के लिए मशहूर इरफान ने अपना रिश्ता एक ऐसे बगावती अँचल में भी स्थापित किया, जिसे लोग पहली नज़र में पसंद नहीं करते। मुरैना में सूबेदार पान सिंह तोमर के नाम से लोग इरफान को जानते हैं व अपने सूबेदार दद्दा (पान सिंह तोमर) जितना ही चाहते हैं। आज़ादी के आठवें दशक में भी बुनियादी ज़रूरतों में पिछड़ेपन का शिकार मुरैना, इरफान को अपने दिल में बसाता है, अब भला बसाये भी क्यों न?  इरफान ने पान सिंह तोमर फिल्म में बहुत गंभीर ढ़ंग से एथिलीट सूबेदार पान सिंह तोमर – जोकि मिल्खा सिंह के साथी रहे –  बागी कैसे बनता है का यथार्थ चित्रण अपने दमदार अभिनय से किया है और सूबे को एक अलग पहचान दी है।

विवाद की कहानी 

राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात् 1 नवम्बर 1956  में अस्तित्व में आये, मध्यप्रदेश के मुरैना ज़िले में अक्सर ज़मीनी विवाद के मामले पंचायत (जिसमें कई गाँव के बुजुर्ग व प्रतिष्ठित लोग शिरकत करते हैं) के माध्यम से सुलझाए जाते हैं। ज़मीन को लेकर हुए विवाद में, प्रथम पंचायत में पान सिंह के चचेरा भाई (भँवर सिंह) ने बात नहीं मानी, पुनः महापंचायत बुलाई गयी (दावा किया जाता है, करीब 2000 लोग उस पंचायत में थे)।morena

जिसमें जिले के कलेक्टर व एसपी ने सामूहिक रूप से शिरकत की व पंचायत इस नतीजे पर पहुँची कि पान सिंह अपने चचेरे भाई को एक हजार रूपये अदा करेंगे व चचेरे भाई उन्हें खेत वापस करेंगे, जब पान सिंह तोमर ने अपने चाचा को एक हजार रूपये दिये, तब चचेरे भाई ने उन्हें अपने जूते से उच्छालते हुए कहा “तोय तो एक ककरा ना देनें, जमीन तो बहुत बड़ी बात है” (तुझे तो एक कंकड़ नहीं दूंगा, ज़मीन तो दूर की बात है)। यह पान सिंह के चचेरे भाई के शब्द कम, शासन व्यवस्था को खुले तौर पर चुनौती ज्यादा थी, व एक बर्बादी की आहट भी।

पान सिंह तोमर (1932-1981)

मुरैना जिले के भिड़ौसा गाँव में पैदा (1932) हुआ पान सिंह एक आम नागरिक की तरह, सुविधाओं के अभाव के वाबजूद आगे बढ़ना चाहता है। निश्चित और अपर्याप्त संसाधनों के बावजूद वह जिन्दगी में सपने देखता है, जिसमें देश अन्तर्निहित होता है। पारिवारिक समस्याओं और आर्थिक अभाव की वजह से वह नौकरी लेने की कोशिश में रहता है और सेना में भर्ती हो जाता है। सेना में मिली सुविधाओं का फायदा उठा कर आगे एक सफल इन्सान बनना चाहता है, जो देश के काम आये। उसके खुद के सपने देश के साथ जुड़े हुए हैं।

अफसोस कि जिन अन्तराष्ट्रीय खेलों से मिले मेडल्स को वो ज़िन्दगी की कमाई और शान समझता है, उनको एक पुलिस वाला मज़ाक उड़ा-कर उसी के मुँह पर फेंक देता है। सेना में अत्यधिक भोजन की लालसा के कारण वह सेना के खेल सम्बन्धित विभाग का हिस्सा बनता है, वह शुरूआत में धावक व कुछ समय उपरान्त स्टीपल चेज़ नामक विशेष दौड़ में अपने कोच के आग्रह पर चला जाता है।

हिन्दुस्तानी सिनेमा में बागी  

अब-तक हिन्दुस्तानी सिनेमा में बागियों के किरदार को नकारात्मक रूप से दिखाया गया और उनके संघर्ष की कहानी को गहरा दबा दिया जाता है। लेकिन पान सिंह के किरदार ने हिन्दुस्तान के सामने ये बात मुखर रूप से रखी है, कि लगन और बुलन्दियाँ छूते इंसान के सपनों की कैसे निर्ममता से हत्या कर दी जाती है। इरफ़ान का किरदार सरकार की सारी व्यवस्थाओं पर सवाल करता है, चाहे वो कानून व्यवस्था हो, या अफसरशाही। आज भी मुरैना जिले के हालात अभी भी बहुत हद तक ऐसे ही हैं, चाहे वो शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था और राजनीति।paan singh tomar irfan

जिस पान सिंह तोमर के सपनों का उदय हिन्दुस्तान की आज़ादी के साथ ही शुरू होता है, उसके सपनों को कौन रोक लेता है? पान सिंह तोमर की जिन्दगी में देश के लिए प्रेम कम नहीं होता है। उदाहरण के लिए पान सिंह तोमर मूवी में फिल्माए एक दृश्य से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है:

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आर्मी अफसर: आप सरकार में भरोसा रखते हैं?

पान सिंह तोमर : ना, सरकार तो चोर है।

आर्मी अफसर : देश के लिए मर सकते हो?

पान सिंह तोमर : मर भी सकते हैं, मार भी सकते हैं, देश तो माँ होती है।

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यह इस बात का प्रमाण है कि उसका सरकार में भरोसा ना होकर, देश के लिए अटूट प्रेम होता है।

ये बीहड़ कोई शौक से नहीं चुनता, न कोई अपना सबकुछ खोना चाहता है। यदि समस्या का निदान ठीक ढ़ंग से हो, कानून का राज हो, संविधान सम्मत व्यवस्था हो, बुनियादी जरूरतों पर समय रहते सोचा जाये, तब शायद चम्बल के किसी जिले का कोई घर तबाह न हो। अन्यथा यह बीहड़ अँचल के लिए पार्लियामेंट से ज्यादा लोकतांत्रिक व पवित्र माने जाते हैं। अमेरिका के महान समाज सुधारक और उल्मूलनवादी नेता फ्रेडरिक दौग्लस (1817-1895) कहते थे, विद्रोह से बुरी कोई चीज होती है, तो वह विद्रोह का कारण होती है।

यह भी पढ़ें- बीहड़ में तो बागी होते हैं

“बीहड़ में तो बागी होते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में होते हैं” यह फिल्म का डायलॉग स्पष्ट कर देता है कि जब भी स्टेट अपराधी की शरणगाह बन जाते हैं, ये बीहड़ अपनी बाहें फैलाये खड़े हैं, बिना किसी भेदभाव व ऊँच नीच के, समानता का पाठ पढ़ाते हुए, अपराध के ख़िलाफ बोलने का साहस देने के लिए, सच कहने के लिए और मुखरता से बिना किसी लाग-लपेट के बात रखने के लिए।

भाषा:

ब्रज भाषा को आम लोगों तक पहुँचाने में इरफ़ान ने इस किरदार के माध्यम से अहम् भूमिका निभाई है, इरफ़ान ने भाषा को इलाके के डायलेक्ट में प्रस्तुत कर किरदार को और जीवन्त बना दिया और ब्रज भाषा को आम हिस्दुस्तानी तक लेके गये हैं व युवाओं में भाषा को लेकर दिलचस्पी पैदा की है। हालाँकि, ये बड़े दुर्भाग्य की बात है सूरदास, कबीर, अब्दुल रहीम, चिंतामणि त्रिपाठी और अमीर खुसरो जैसे अनगिनत महान लोग देने वाली और बारहवी सदी के भक्ति आन्दोलन के कवियों की भाषा के संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए सरकार कुछ नहीं कर रही है।

मुरैना एवं बुनियादी सुविधाएँ

तमाम चीज़ें होने के बावजूद आजतक चम्बल सम्भाग का विकास नही हो पाया है, नौजवान अपनी खुद की मेहनत और लगन से आगे बढ़ रहा है। सरकारों ने अबतक इलाके को शिक्षा, स्वास्थ और रोजगार के अवसर उपलब्ध ना कराके, इलाके के युवाओं की प्रतिभा को दबाने का काम किया है। आज भी कई युवा सुविधाओं के अभाव में खेल छोड़ने को मजबूर हैं।  प्राकृतिक और राष्ट्रीय सम्पदा से भरे मुरैना जिले में अपार संभावनाएँ हैं।

1.उच्च शिक्षा और आय  

उच्च शिक्षा के विकल्पों की कमी के कारण आज शिक्षा के क्षेत्र में घाटी के हाल बहुत उम्दा नहीं हैं। दिखने में साक्षरता 71% है, लेकिन सरकारी परिभाषा के हिसाब से 7 वर्ष से ऊपर का व्यक्ति जो पढ़ एवं लिख सकता है। साक्षर कहलाता है। उच्च शिक्षा में यदि देखा जाय तो 1% से कम बच्चे सही मायनों में उच्च शिक्षा हासिल कर रहे। आज भी पिछड़ेपन का शिकार मुरैना में, आय का मूल स्रोत कृषि कार्य ही है, यह उनके ज़मीन से लगाव का मुख्य कारण है, ऐसे में वे इस ज़मीन पर किसी कुत्सित नजर को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। यह न केवल आय का मूल स्रोत है बल्कि, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा की भी बात है।

2. स्वास्थ्य

जनसंख्या अनुपात के हिसाब से स्वास्थ सुविधाओं से जुड़े आंकड़ों व तथ्यों को  देखें तो यह इलाके की दुर्गति को बताता है और सरकारी अवहेलना को दर्शाता है। उदाहरण के लिए: 39,669 (2011 की  जनगणना के अनुसार) शहरी आबादी जनसंख्या वाले पोरसा तहसील के हॉस्पिटल में डॉक्टरों की कुल संख्या 3 है। अनुपातिक हिसाब से प्रति 10,000 व्यक्ति पर 1 डॉक्टर है। अगर WHO के पैमाने के अनुसार 1000 व्यक्ति पर 1 डॉक्टर की उपलब्धता को देखा जाय तो ये आंकड़े डरावने हैं और सरकारी व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाते हैं, खासकर जब देश कोरोना जैसी भीषण महामारी से गुजर रहा है।

3. सामाजिक संरचना

देश का लिंगानुपात 940 है, जबकि इसमें मध्य प्रदेश का 931 है। मुरैना जिले में यह अनुपात मात्र  840 है, जो आजादी के समय 832 था। आंकड़े दर्शाते हैं कि इसमें महज नाम मात्र का इजाफा हुआ है। पुरुष साक्षरता दर 82.93 और महिला साक्षरता दर 56.90 है। स्पष्ट है कि साक्षरता दर में खिची खाई, समाज की पिछड़ी हुई सोच और झकझोर देने वाली सच्चाई को प्रदर्शित करती है। इससे हमें महिलाओं की दयनीय स्थिति तथा महिलाओं के प्रति समाज की रूढ़िवादी सोच का प्रतिबिम्ब प्राप्त होता है।

मुरैना और इरफ़ान

इरफ़ान ने चम्बल सम्भाग के मुरैना को एक नयी पहचान दी। अँचल में आज लोग इरफ़ान को ही पान सिंह समझते हैं। जिस पात्र को उन्होंने परदे पर संजीदगी से जिया वह मुरैना के लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया है। मुरैना जिला के लिए इरफान एक अदाकार/सिने स्टार न होकर, वे उनमें अपने सूबेदार दद्दा (पान सिंह) को देखते हैं। इसलिए खासकर इलाके के युवा इरफ़ान के जाने के बाद सोशल मीडिया पर अपनी डीपी में इरफ़ान का फोटो लगाये हुए हैं व इरफ़ान के अभिनय की तारीफ और यादों को पोस्ट करते नहीं थक रहे हैं।

यह भी पढ़ें- मैं इरफ़ान : जाने ऊँट किस करवट बैठेगा

पान सिंह तोमर के इस पहलू को दिखाने के लिए इरफान भले आज फानी दुनिया से कूच कर गये हो, लेकिन अँचल के बगावत की कहानी को धारदार अभिनय के माध्यम से अमिट करने के लिए इरफान की यादें सूबे के लोगों के दिल और दिमाग में हमेशा ताजा रहेंगी। पान सिंह तोमर एक ही हुआ, वैसे ही सिनेमा सितारे बहुत हुए लेकिन इरफान अपने आप में एक सिनेमा हैं। मुरैना जिले का हर इन्सान इरफ़ान को श्रद्धांजलि अर्पित करता है। अँचल में शोक इस कदर है मानो भिड़ौसा (पान सिंह का जन्मस्थान) के सूबेदार दद्दा दोबारा चले गये। आँचलिक भाषा में इलाका दद्दा को सलाम करता है, दद्दा यह अँचल क्रूरता, बेईमानी, झूठ, नफ़रत और भेदभाव के खिलाफ सदा मुखर रहेगो, कोऊ जाके आंगें सरेंडर नहीं करैगो (कोई भी सरकारी क्रूरता, बेईमानी, झूठ, नफ़रत और भेदभाव के आगे सरेंडर नहीं करेगा)। मुरैना हमेशा आपका ऋणी रहेगा।

अनगिनत यादों के लिए शुक्रिया इरफान।।।

सहायक लेखक

  1. रोहित शर्मा (बीए एलएलबी (ऑनर्स), अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय)
  2. आदित्य सिंह (बीए राजनीति शास्त्र, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय)

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मोहम्मद इरशाद

लेखक इन्द्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं तथा लगातार ‘सूचना की नैतिकता और राजनीति’ से सम्बन्धित विषयों पर विभिन्न समाचारपत्रों में लिखते हैं और इन्टरनेट अधिकार कार्यकर्ता हैं। सम्पर्क  +918826874390, imohd62@gmail.com 
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