रंगमंच

सोहन गुरु के बोल जन-जन गावे

 

गीत के कुछ बोल होते हैं जिसे लिखनेवाला खुद गाता है और खुद सुनता है। लेकिन कुछ ऐसे बोल भी होते हैं जिसे लिखनेवाला तो गाता ही है, साथ में और लोग भी गाते हैं। औरतें खेत में जब फसल रोपा करती हैं, जाता में गेहूं पीस रही होती हैं, किसान जब अपनी माँग के लिए सड़क पर उतरते हैं, मजदूर फैक्ट्री गेट के बाहर धरने पर बैठते हैं और बेरोजगार निर्भीक होकर राजधानी की सड़कों पर जोर – जोर से नारे बुलंद करते हैं …

ऐसे ही एक जनकवि हैं… उनका नाम है, सोहन लाल गुप्ता। अपने नाम के आगे ‘स्नेहिल’ तखल्लुस लगाते हैं। लेकिन उनका एक नाम ‘गुरुजी’ भी है जो छात्रों और जवार भर के लोगों में काफी लोकप्रिय है। एक साथ कई भूमिकाओं को समानान्तर निभाते आ रहे हैं। लम्बे समय तक एक गम्भीर और प्रतिबद्ध शिक्षक की भूमिका निभाने के बाद अब रिटायर होने के बाद भोजपुरी गीत के आन्दोलन में होलटाइमर की तरह काम कर रहे हैं। वैसे तो वे अध्यापन के पेशे में आने के पूर्व से ही गीत, कविता लिखते रहे हैं, लेकिन भोजपुरी गीत के करीब कहीं न कहीं ज्यादा रहे हैं। संभवतः अपने आप को सम्प्रेषित करने में ज्यादा सहज महसूस करते हैं।

आज भोजपुरी गीत जो वृहत्तर समाज में अश्लीलता, फूहड़ता का पर्याय हो गया है, उनकी सबसे बड़ी चिन्ता है। सोहनलाल गुप्ता का मानना है कि भोजपुरी गीत की परम्परा वो नहीं है जो आज बाजार में है, भोजपुरी फिल्मों और ट्रकों-ऑटो में बजने वाले द्विअर्थी ऑडियो – वीडियों में है। परम्परा में भिखारी ठाकुर जैसे कवि, नाटककार हैं जिन्होंने भोजपुरी में जो लिखा, उसकी परम्परा भोजपुरिया समाज में रची – बसी वो संस्कृति हैं जो सालों से यहाँ की जमीन से जुड़ी है। भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों के माध्यम से आर्थिक विपन्नता के कारण मजदूरों – किसानों के गांवों से पलायन, बाल विधवा, अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों को नॉटंकी लोक शैली जो बाद में बिदेसिया के रूप में लोकप्रिय हुआ, रखा जो न केवल मनोरंजन तक सीमित था बल्कि चेतना विकसित करने के स्तर पर सफल रहा। उन्होंने अपने नाटकों के गीतों में जिस तरह सोहर, कजरी, पूरबी धुनों का प्रयोग किया, वो आज भी हमारे समाज में जीवित है।

सोहनलाल गुप्ता उसी परम्परा के वाहक हैं। इन्होंने कई गीत विस्थापन के सवाल पर हाल में लिखे हैं। उनका कहना है कि किसानों का विस्थापन जैसा भिखारी ठाकुर के समय में था, आज भी है। बल्कि और बढ़ ही गया है। आज़ादी के पहले अंग्रेजों द्वारा पूरब के गरीब खेतिहर लोगों को जबरन जंगलों की कटाई, खदानों की खुदाई और खेती के लिए दूसरे देशों में ले गये। उनके जाने के बाद रोजी – रोटी का कोई इंतजाम न होने पर विवश होकर कोलकाता के बजाय दूसरे दिल्ली, मुम्बई, सूरत जैसे महानगरों के साथ – साथ पंजाब भी गये। जाने के बाद उनके बीच जो आर्थिक समस्या के साथ – साथ सामाजिक और सांस्कृतिक संकट खड़ा हुआ, वो किसी भी जमीनी रचनाकार को तटस्थ नहीं रख सकता है।

सोहनलाल गुप्ता का भोजपुरी गीतों का संग्रह ‘मकई दूधइन्हीं पलों का जीवन्त दस्तावेज है। उन्होंने अपने गीत में किसानों का केवल दर्द, विरह, करुणा को ही नहीं उतारा है, बल्कि उनके चेहरे पर जो असहमति का भाव उभर रहा है … किसी न किसी रूप में गुस्सा का इजहार हो रहा है … वो भी साफ झलक रहा है। इनके गीत में गांव की औरतों का मिजाज भी पारम्परिक नहीं है। उनके गीतों में औरतें बराबर का अधिकार माँगती हुई दिखती हैं। उनके लिए गहना-गुड़िया ही सबकुछ नहीं है। वे अपने को मर्दवादी समाज का केवल उपभोग की सामग्री नहीं समझती है। न अपने को पुरुषों की तुलना में किसी स्तर पर निम्नतर। कहीं न कहीं सोहनलाल गुप्ता की कविता सामन्तवाद के विरोध में खड़ी दिखती है। इनके जो गीत हैं, सामन्तवाद द्वारा बिछाए वर्णवाद, जातिवाद, अन्धविश्वास, असमानता, कुरीतियों के जाल को जगह – जगह काटते नजर आते हैं।

उत्तर प्रदेश और बिहार का पूरबी इलाका जो बोलचाल में भोजपुरी समाज कहलाता है, में भूमि सुधार वाजिब ढंग से न होने के कारण जमींदारी प्रथा का लोगों के बीच गहरा प्रभाव रहा है। समाज वर्गों में ही नहीं वर्णों में भी लम्बे समय से बंटा रहा है। अभी भी यह सामन्ती अकड़न-जकड़न से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। इसलिए सामन्त वर्ग को कदापि आम जनमानस की संस्कृति-परम्परा न ग्राह्य होती है, न उसमें किसी चेतना का विकास बर्दाश्त होता है। बल्कि जब भी भिखारी ठाकुर जैसे संस्कृतिकर्मी को चेतना के सवाल पर कुछ मौलिक चिन्तन देखते हैं, सतर्क हो जाते हैं। उन्हें लगता है, यह धारा तो लोगों को सचेत करने की दिशा में ले जाएगी जो कहीं न कहीं उनके व्यवस्था के खिलाफ खड़ा कर देगी। इसलिए उनका पहला प्रयास होता है, ऐसी धारा को विकृत कर देना। एक खास साजिश के तहत उन्हें अश्लील रूप दे देना। भौंड़ा करार देना ताकि लोग उनसे जुड़ न सके। उससे नाक – भौं सिकोड़ने लगे।

सोहनलाल गुप्ता अपने आप को भिखारी ठाकुर की परम्परा का मानते हुए जहाँ एक तरफ रंगमंच पर सक्रिय हैं, दूसरी तरफ कवि सम्मेलन के मंचों पर तो गीत – संगीत के कार्यक्रमों में भी। मंचों पर वे अपने गीत सस्वर सुनाते हैं। भले उन्होंने संगीत का कोई प्रशिक्षण न लिया हो, विधिवत पढ़ाई न की हो लेकिन गीत – संगीत की पूरी जानकारी रखते हैं। सोहनलाल गुप्ता जो गीत लिखते हैं, उसकी धुन खुद तैयार करते हैं। सधा हुआ गला और मधुर आवाज होने के कारण उन्हें कोई विशेष जहमत नहीं उठानी पड़ती है। और उनके संगीत का जो रियाज है, कोई आज का नहीं है।

बचपन से ही संगीत के प्रति एक खास आकर्षण रहा है। उसी तरह साहित्य के प्रति भी उनका लगाव स्कूल के दिनों से ही है। वे कहते हैं कि जब वे छोटे थे तो उनके गाँव – घर के आस – पास जब भी कोई कवि या संगीत सम्मेलन हुआ करता, वे जरूर सुनने जाया करते थे। पूरी रात तन्मयता से कवियों के गीत सुना करते थे। बहुत सारे कवियों की उनदिनों की कविताएँ उनके जेहन में आज भी स्मरण है। वे इन कवि सम्मेलनों में कविताएँ केवल सुनाते ही नहीं थे, कहीं न कहीं खुद को भी तैयार कर रहे थे। बाद में जब स्कूल के शिक्षक विद्याधर उपाध्यायमंजुऔर विजय प्रकाश दुबेमहसर का सानिध्य मिला तो उनके कवि मन को जो दिशा मिली, धीरे – धीरे एक शक्ल में ढलती गयी। जो बीज बोयी, एक आकृति लेती गयी।

सोहनलाल गुप्ता की प्रारंभिक शिक्षा से लेकर इंटरमीडिएट तक कि पढ़ाई कफ्तान गंज में हुई है। इन्होंने श्री शिवा डिग्री, तेरही से ग्रेजुएशन और श्री दीनदयाल उपाध्याय, गोरखपुर विश्वविद्यालय से भूगोल विषय में पोस्ट ग्रेजुएशन किया है। बीएड करने के बाद मन बना लिया कि एक शिक्षक के रूप में ही समाज में योगदान देना है। समाज में जो अंधेरा है, उसको दूर करने का एक ही रास्ता है, वो है शिक्षा की जोत जलाना। कस्बाई जिंदगी को जो करीब से देखा – भोगा, उससे उन्हें अहसास हो गया था कि बहुत बड़ी लड़ाई लड़ने के बजाय कोई छोटी लड़ाई लड़ी जाय। लड़ाई के पहले की जो तैयारी होती, पहले उसे पूरा किया जाय। उन्हें लग गया था कि बगैर लोगों को शिक्षित किये कोई संघर्ष नहीं किया जा सकता है। कोई बड़ी लड़ाई जीतनी है तो पहले लोगों को चेतना के स्तर पर मजबूत करना जरूरी है। नहीं तो लड़ाई के भटकने और बिखरने का डर बना रहेगा।

एक मिशन के तहत सोहनलाल गुप्ता ने अपने कस्बा में, जहाँ वे रहते थे के कफ्तान गंज, आजमगढ़ में ‘मंजू बाल विद्या निकुंज और ‘श्रीराम लगन गुप्त स्मारक पूर्व माध्यमिक विद्यालयनाम से दो स्कूल खोला। स्कूल खोलने का उद्देश्य उनके सम्मुख स्पष्ट था। वे स्कूल के माध्यम से शैक्षिणक विकास के साथ – साथ छात्रों के अन्दर सांस्कृतिक विकास भी जगाना चाहते थे। वे स्कूल के छात्रों के अन्दर देश, समाज के प्रति दायित्व भाव को सबल करने पर भी जोर देते थे। उनकी कल्पनाशीलता को सांस्कृतिक रूप से जगाने की कोशिश करते थे।

बीस साल तक सरकारी स्कूल में शिक्षक भी रहे हैं। सन 2017 में रिटायर होने के बाद साहित्य के होलटाइमर हो गये हैं। फिलहाल अब तो साहित्य ही उनके लिए जीवन जीने का माध्यम है। गीत – संगीत ही उनका ओढ़ना – बिछौना है। रिटायर होने के बाद लोगों के लिए जहाँ समय काटना मुश्किल का काम हो जाता है, सोहनलाल गुप्ता को समय भी कम पड़ता है। बुनियादी कामों पर उनका ज्यादा जोर है। उनका मानना है कि नींव मजबूत हो तो ऊंची और मजबूत इमारत खड़ी की जा सकती है।

इसलिए जहाँ एक तरफ मंच पर गीतों के माध्यम से अपनी विचारधारा को व्यापकता दे रहे हैं, वहीं स्कूली छात्रों के बीच प्रासंगिक, सामाजिक नाटक तैयार करवा कर जमीन को ठोस कर रहे हैं। पचीसों साल इन्होंने कफ्तान गंज के बाजार में अपने निर्देशन में ‘रामलीला’ करवायी है। ऐसा नहीं कि मंचन में केवल रामकथा की पुनरावृति कर दी हो, बल्कि कथा के सबटेक्स्ट में जो सामाजिक तत्व होते थे … उसे उभारने से भी नहीं चूकते थे। समाज में जो भेद – भाव होता था, आर्थिक विषमताएं, गैरबराबरी होती थी … क्षेपकों द्वारा दर्शकों के बीच लाते थे। समाज में कटुता और क्षुद्र राजनीति के कारण इधर कई सालों से रामलीला के बंद होने का इन्हें दुःख है।

स्कूल के अलावा घरों में भी निजी लाइब्रेरी के वे घनघोर हिमायती हैं। इनकी जो निजी लाइब्रेरी है, संख्या और गुणवत्ता को लेकर काफी समृद्ध है। विशेषकर हिन्दी साहित्य की सारी चर्चित किताबें उपलब्ध हैं। वैसे तो सोहनलाल गुप्ता की रुचि हर तरह के साहित्य में है, लेकिन उसमें भी कविता, गीत, गजल अधिक प्रिय है। भोजपुरी साहित्य तो उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है। नयी पीढ़ी में भोजपुरी में जहाँ उन्हें भोलानाथगहमरी, वहीं हिन्दी के ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार, कवि नीरज और बशीर बद्र उनके चहेतों में है।

सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए नयी पीढ़ी के कवि, गीतकार आजकल मंचों पर जिस तरह चुटकुले पढ़ रहे हैं, फूहड़ रचना पाठ कर रहे हैं, इससे सोहनलाल गुप्ता को काफी नाराजगी है। और अभी का जो समय है, किस तरह आभिव्यक्ति पर अंकुश लगाया जा रहा है, असहमति को निशाने पर लिया जा रहा है, विरोध को देश के अहित में समझा जा रहा है, प्रतिरोध करने वाले को राष्ट्रद्रोही करार दिया जा रहा है … उसमें ऐसी रचना करने की जरूरत है जो लोगों में भाईचारा की भावना उतपन्न करें … आदमी को आदमी समझे … धर्म के नाम पर लोगों में वैमनस्य न फैलाये … जाति के आधार पर अस्पृश्यता को किसी तरह तवज्जो दी जाय।

सोहनलाल गुप्ता का सम्पूर्ण रचनाकर्म मनुष्यता के पक्ष में है … उनके गीत उमंग – उत्साह से ओत – प्रोत हैं। और किसी भी कवि के लिए रचनाधर्म के प्रति यही उद्देश्य भी होना चाहिए।

सोहनलाल गुप्ता के संग्रह ‘मकई दूध का एक – एक गीत इसकी बानगी है। उनका एक गीत है :

भले न सूरज चांद बनीं हम,
बरल करीं बनिके दियना।
घर – घर पसरे उजियारा औ
जोत जरे सबके अंगना।।
पहिला दीया बारल चाहीं, हम मजदूर किसान के
दूसरा दीया फिर बारीं हम नामें खेत खलिहान के
वह बलिदानिन के तिसरा दीया
हक के लिए लड़ें जेतना।।
भले …

इस गीत में सोहनलाल गुप्ता की कविता की पक्षधरता बिल्कुल स्पष्ट है। जन सामान्य से जुड़कर, उनको अपने गीत में सामंजस्य कर ही वे अपने साहित्यकर्म का उद्देश्य समझते हैं। वे अपने साहित्य को कदापि अभिजन के मनोरंजन व भोग विलास की सामग्री बनाना नहीं चाहते हैं, न सत्ता के गलियारे तक सीमित कर देना चाहते हैं। जहाँ लोग जाना नहीं चाहते हैं, जाने से परहेज करते हैं … सोहनलाल गुप्ता वहाँ अपने गीतों को पहुंचाना चाहते हैं। और उनका यह निर्णय कोई भावनात्मक नहीं है, वैचारिकता के आधार पर ठोस है।

संकलन में कई ऐसे गीत हैं जिनकी पंक्तियों पर गौर फरमाने की जरूरत है।

मुट्ठी भर झिंकिया

बड़ – बड़ दंतवा क बड़ बाटे जंतवा,
चले नाही मोरे छोटे, हंथवा रे ना,
पिया अपने त गइले कलकतवाँ रे ना।
मुट्ठी भर झिंकिया पहाड़ भइली माई,
कइसे क गेंहुवा पसेरी भर पिसाई
भइली अकेलि केहू सथवा रे ना
पिया अपने त गइले …

 

सनेहिया पाती

कउनी ठांवे भेजी हम, सनेहिया क पाती राम,
कबले जोगाई अपने, पियवा क थाती, सखी हो,
केहू कहेला पियवा, गइले कलकतवाँ,
लागेला डर हवे, जदुवा क देसवा,
केहू कहेला पियवा, बसेला गोंहाटी , सखी हो …
केहू बतावे दिल्ली, केहू देहरादून हो,
केहू कहेला सइयां, गइले रंगून हो,
केहू कहेला हम, देखलीं उनके रांची, सखि हो,
लखनऊ बतावे केहू, केहू कानपुर हो,
बम्बई बतावे केहू त केहू नागपुर हो,
केहू कहेला सौतन , रखले गुजराती, सखि हो,
सह नाही जाला हमसे ‘स्नेहिल’ वियोगवा
मारेला ताना सब, राने के लोगवा
जियरा कहेला अब, लगाई लेइ फांसी , सखि हो …

सोहनलाल गुप्ता ने बिदेसिया, पूरबी गीतों में गांव में अकेली रहनेवाली स्त्रियों की विरह को उकेरा ही, साथ ही उनके जीने की लालसा, उमंग और आशा को विभिन्न लोक शैलियों जैसे सोहर, होली, विवाह गीत – मंडप, पारंपरिक विदाई गीत, कँहरवा के माध्यम रखा है। बाजारवाद के दाखिल होने के कारण गॉवों में जहाँ तेजी से पर्व – त्योहार और रस्मों के गीत फिल्मी धुनों में तब्दील हो रहे हैं, सोहनलाल गुप्ता अपने रचनाकर्म से वर्षों की लोक धुनों की परंपरा को न केवल बचाने में लगे हैं बल्कि एक मिशन के तहत आंदोलन का रूप देने में प्रतिबद्ध होकर लगे हैं। शुरूआत के दौर में अकेले थे, लेकिन उन्हें विश्वास था कि आगे के सफर में जरूर लोग जुड़ेंगे।

पहले जहाँ गीत खुद रचते थे, खुद धुन बनाते और विभिन्न प्लेटफॉर्मों पर जाकर गाते थे … आज उनके साथ कई लोग जुड़ गये हैं। स्कूलों में असर दिखने लगा है। आज वहाँ जो भी सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, सोहनलाल गुप्ता के गीत किसी न किसी रूप में उपस्थित रहते हैं। रैलियों में पर्यावरण बचने का सवाल हो, चाहे किसी जोर – जुल्म के खिलाफ मजदूरों – किसानों – बेरोजगारों का सड़क पर उतरना हो या फिर अस्मिता के प्रश्न पर दलितों – महिलाओं का सत्ता के विरोध में संघर्ष करने का आगाज़ हो, सोहनलाल गुप्ता के गीतों के बोल सबसे बुलंद स्वर में फ़िज़ा में गूंजते हैं।

जरूरत है ‘मकई दूध’ की तासीर लोगों के जीभ पर उतारने की … ताकि अंदर जाकर ऐसा स्वाद जगाए जो भूख तो शांत करे ही, दिमाग जो शिथिल हो गया है … चेतना के तार झंकृत करना शुरू कर दे और सब मिलकर ऐसा स्वर भरे जो दूर – दूर जाए … खेत – खलिहानों में बैठे लोगों को सुनाए … जाता चलाती औरतें खुद – ब – खुद गुनगुनाने लगे …

नाक जिन छेदा हमरी, जिनि छेदा कनवां
मानि ला तू हमरो कहनवां ए माई,
हम नाहीं पहिरब गहनवां ए माई …

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राजेश कुमार

लेखक भारतीय रंगमंच को संघर्ष के मोर्चे पर लाने वाले अभिनेता, निर्देशक और नाटककार हैं। सम्पर्क +919453737307, rajeshkr1101@gmail.com
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