झंडा गीत के रचयिता श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उत्प्रेरक झंडा गीत ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा, इसकी शान न जाने पाए चाहे जान भले ही जाए’ की रचना के लिए श्यामलाल गुप्त पार्षद इतिहास में सदैव याद किए जाएंगे। श्यामलाल गुप्त कानपुर में नरवल के रहने वाले थे। उनका जन्म 16 सितंबर 1893 को एक गरीब परिवार में हुआ था। गरीबी में भी उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की थी। उनमें देशभक्ति का अटूट जज्बा था, जिसे वह प्रायः अपनी ओजस्वी राष्ट्रीय कविताओं में व्यक्त करते थे।
यह गीत उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में आजादी के आंदोलन के दौरान लिखा गया था। इस गीत को लिखने वाले श्यामलाल गुप्त भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक सेनानी, पत्रकार, समाजसेवी एवं अध्यापक थे। स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के दौरान श्री गुप्त चोटी के राष्ट्रीय नेता मोतीलाल नेहरू, महादेव देसाई, रामनरेश त्रिपाठी और अन्य नेताओं के संपर्क में आए। स्वतंत्रता संघर्ष के साथ ही पार्षद का कविता रचना का कार्य भी चलता रहा।
पार्षद 1916 से 1947 तक पूर्णतः समर्पित कर्मठ स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रहे। उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रेरणा से फतेहपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इस दौरान ‘नमक आंदोलन’ और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रमुख संचालन व लगभग 19 वर्षों तक फतेहपुर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद के दायित्व का निर्वाह भी किया। असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण पार्षद जी को रानी असोथर के महल से 21 अगस्त 1921 को गिरफ्तार किया गया। जिला कलेक्टर द्वारा उन्हें दुर्दान्त क्रान्तिकारी घोषित करके केन्द्रीय कारागार आगरा भेज दिया गया। इसके बाद 1924 में एक असामाजिक व्यक्ति पर व्यंग्य रचना के लिए पार्षद के ऊपर 500 रुपये का जुर्माना हुआ। 1930 में नमक आंदोलन के सिलसिले में फिर गिरफ्तार किया और कानपुर जेल में रखे गया। पार्षद सतत स्वतन्त्रता सेनानी रहे और 1932 और 1942 में फरार भी रहे। 1944 में पार्षद को फिर गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। इस तरह आठ बार में कुल छः वर्षों तक राजनैतिक बन्दी रहे।
श्यामलाल पार्षद की आजादी के प्रति दीवानगी देखकर अंग्रेज अधिकारी भी हैरान थे। उनके देश भक्ति गीतों की लेखनी इतनी ओज पूर्ण थी कि लोगों के पढ़ते ही आंदोलन खड़ा हो जाता था। उनकी ऐसी लेखनी की वजह से कई बार अंग्रेजों ने श्यामलाल गुप्त पार्षद को जेल में डाल दिया। इसी तरह श्यामलाल गुप्त पार्षद को अंग्रेजों ने फतेहपुर की जेल में डाल दिया। पार्षद को फतेहपुर जेल की बैरक नंबर नौ में बंद रखा गया था। वही पर पार्षद ने 3-4 मार्च 1924 को एक रात्रि में भारत प्रसिद्ध ‘झण्डा गीत’ की रचना की।
पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में 13 अप्रैल 1924 को ‘जालियांवाला बाग दिवस’ पर फूलबाग कानपुर में सार्वजनिक रूप से झण्डा गीत का सर्वप्रथम सामूहिक गान हुआ। इसी दौरान जवाहर लाल नेहरू ने पार्षद के बारे में कहा था कि भले ही लोग पार्षद को नहीं जानते होंगे, लेकिन समूचा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे उनके गीत से परिचित हैं।
जब यह लगभग तय हो गया था कि अब आजादी मिलने ही वाली है, उस वक्त कांग्रेस ने देश के झण्डे का चयन कर लिया था। लेकिन एक अलग “झण्डा गीत” की जरूरत महसूस की जा रही थी। गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’, पार्षद जी के काव्य-कौशल के कायल थे। विद्यार्थी जी ने पार्षद जी से झण्डा गीत लिखने का अनुरोध किया। पार्षद जी कई दिनों तक कोशिश करते रहे, पर वह संतोषजनक झण्डा गीत नहीं लिख पाए। जब विद्यार्थीजी ने पार्षद जी से साफ-साफ कह दिया कि उन्हें हर हाल में कल सुबह तक “झण्डा गीत” चाहिए, तो वह रात में कागज-कलम लेकर जम गये।
आधी रात तक उन्होंने झण्डे पर एक नया गीत तो लिख डाला, लेकिन वह खुद उन्हें जमा नहीं। निराश हो कर रात दो बजे जब वह सोने के लिए लेटे, अचानक उनके भीतर नये भाव उमड़ने लगे। वह बिस्तर से उठ कर नया गीत लिखने बैठ गये। पार्षद जी को लगा जैसे उनकी कलम अपने आप चल रही हो और ‘भारत माता’ उन से वह गीत लिखा रही हो। यह गीत था-“विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।” गीत लिख कर उन्हें बहुत सन्तोष मिला।
सुबह होते ही पार्षद जी ने यह गीत ‘विद्यार्थी’ जी को भेज दिया, जो उन्हें बहुत पसन्द आया। जब यह गीत महात्मा गांधी के पास गया, तो उन्होंने गीत को छोटा करने की सलाह दी। आखिर में, 1938 में कांग्रेस के अधिवेशन में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इसे देश के “झण्डा गीत” की स्वीकृति दे दी। यह ऐतिहासिक अधिवेशन हरिपुरा में हुआ था। नेताजी ने झण्डारोहण किया और वहाँ मौजूद करीब पाँच हजार लोगों ने श्यामलाल गुप्त पार्षद द्वारा रचे झण्डा गीत को एक सुर में गाया।
भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिए श्यामलाल गुप्त पार्षद ने नंगे पांव रहने का संकल्प लिया था। उन्होंने 1921 में कहा था कि जब तक भारत को अंग्रेजों से आजादी नहीं मिल जाती, तब तक नंगे पांव रहूंगा।
श्यामलाल गुप्त पार्षद को स्वतंत्र भारत ने सम्मान दिया और 1952 में लाल किले से उन्होंने अपना प्रसिद्ध ‘झंडा गीत’ विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा… गाया। 1972 में लालकिले में उनका अभिनन्दन किया गया। 1973 में उन्हें ‘पद्म श्री’ से अलंकृत किया गया। पार्षद जी को एक बार आकाशवाणी कविता पाठ का न्योता मिला। उनके द्वारा पढ़ी जाने वाली कविता का एक स्थानीय अधिकारी द्वारा निरीक्षण किया गया जो इस प्रकार थी:-
सिंह यहाँ पंचानन मरते और स्यार स्वछन्द बिचरते,
छक कर गधे खिलाये खाते, घोड़े बस खुजलाये जाते।
इन पंक्तियों के कारण उनका कविता पाठ रोक दिया गया। इससे नाराज पार्षद जी कभी दुबारा आकाशवाणी केन्द्र नहीं गये। 13 मार्च 1972 को ‘कात्यायनी कार्यालय’ लखनऊ में एक भेंटवार्ता में उन्होंने कहा:
देख गतिविधि देश की मैं मौन मन में रो रहा हूँ,
आज चिन्तित हो रहा हूँ।
बोलना जिनको न आता था, वही अब बोलते हैं।
रस नहीं बस देश के उत्थान में विष घोलते हैं।
सर्वदा गीदड़ रहे, अब सिंह बन कर डोलते हैं।
कालिमा अपनी छिपाये, दूसरों की खोलते हैं।
देख उनका व्यक्तिक्रम, मैं आज साहस खो रहा हूँ।
आज चिन्तित हो रहा हूँ।”
10 अगस्त 1977 को इस स्वतंत्रता सेनानी जनकवि ने अंतिम सांस ली। उनकी मृत्यु के बाद कानपुर और नरवल में उनके अनेकों स्मारक बने। नरवल में उनके द्वारा स्थापित बालिका विद्यालय का नाम ‘पद्मश्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ राजकीय बालिका इण्टर कालेज किया गया। फूलबाग, कानपुर में ‘पद्मश्री’ श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ पुस्तकालय की स्थापना हुई। 10 अगस्त 1994 को फूलबाग, कानपुर में उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई।