फूलन की भारतीय समाज में उतनी ही हिस्सेदारी है जितनी कि प्रधानमन्त्री की बेटी इंदिरा की, अन्तर इतना है कि फूलन का जन्म देवीदीन निषाद के घर हुआ था, जो न तो इज्ज़तदार थे न ही जमींदार, देवीदीन न तो अपनी फूलन को उचित शिक्षा दिला पाए, न ही लच्छेदार भाषा मे नैतिकता व इतिहास का पाठ पढ़ा सके। देवीदीन और फूलन की दुनियाई वास्तविकताएँ ही अलग थी, जिसे उलटने में उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया। फूलन देवी का जीवन भारतीय समाज में कहीं गहरी बसी उन शोषणकारी व गैरबराबरी की पोषक शक्तियों से लम्बे संघर्ष की कहानी है।

देवीदीन निषाद
स्वतन्त्रता के बाद शाषक वर्ग एवं आम जनमानस के बीच जो पहला समझौता हुआ, वह भारत का संविधान था। कहने के लिए तो भारतीय गणतन्त्र ने अपने सभी नागरिकों को समानता के अधिकार दे दिए थे। पर आधी से ज़्यादा आबादी को सम्मान के साथ जीने का अधिकार (राईट टू डिग्निटी) अभी भी नहीं मिल सका था। संविधान के अस्तित्व में आने के दो दशकों बाद जन्मी फूलन और उनके जैसी कई स्त्रियों के लिए वास्तविकता की धरातल पर कुछ भी नहीं बदला था। इसमें फूलन का कोई दोष नहीं था।
असल मे भारत की सत्ता एक लम्बे समय तक बिचौलियों व दलालों के बीच रही है, जिसके परिणाम स्वरूप स्वतन्त्रता के बाद दिल्ली में बैठी सरकारों ने जनता के सबलीकरण के बजाय सत्ता के नए बिचौलिए व दलाल पैदा किए। सत्ता के इन बिचौलियों ने समाज में व्याप्त सामन्ती हितों की सेवा में एवं इस ढाँचे को यथावत बनाए रखने में एक लम्बे समय तक सहयोग किया। परिणाम यह रहा कि राज्य, पितृसत्ता, समाज व जाति ने आपस मे साठ-गाँठ की एक लचर व्यवस्था को स्थापित कर लिया था। फूलन ने इसी सांठ-गाँठ के खिलाफ विद्रोह का बिगूल फूंका था। फूलन को कम उम्र में ही राज्य,पितृसत्ता, समाज व जाति की चौतरफ़ा मार को सहना पड़ा।
फूलन ने अपने बाग़ी तेवर से राज्य के लचर तन्त्र को व पूरे समाज को एक गहरी नींद से उठाने का काम किया था। यह सब कुछ इतना आसान बिल्कुल भी न था। फूलन को एक लम्बी पीड़ा दायक व संघर्ष की यात्रा से गुज़रना पड़ा था। फूलन ने एक ऐसा संघर्षमयी जीवन जिया है जो आज अनेक पिछड़े व शोषितों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बन चुका है। अफ़सोस मात्र इस बात का है कि आज भी समाज का एक बड़ा तबका फूलन को दिल से स्वीकार नहीं पाया है। फूलन का संघर्ष कोई जाति संघर्ष नहीं था, यह उसके आत्मसम्मान की लड़ाई थी।
सम्मान के साथ जीने का अधिकार भला किसे प्रिय नहीं होता, यही तो फूलन माँग रही थी, इस समाज से, इस लचर तन्त्र से और जब अधिकार माँगने से ना मिलें तो उनके लिए लड़ना पड़ता है, संघर्ष करना पड़ता है। उसी का चरितार्थ है फूलन देवी का संघर्षमयी जीवन। निषाद-मछुआ समाज के राजनैतिक लामबन्दी एवं उनके सबलीकरण की प्रेरणा स्रोत बन चुकी फूलन देवी निषाद समाज के ऐतिहासिक महानायकों की श्रृंखला को सदैव ही अलंकृत करती रहेंगी।
राजनैतिक समीकरणों की उलट-पुलट लोकतन्त्र मे अपनी गति से ही चलेंगें, आवश्यक है कि समाज के हर तबक़े की हिस्सेदारी लोकतन्त्र में स्थापित हो जिससे हमारा लोकतन्त्र सुदृढ़ एवं समृद्ध बन सके। एक ऐसा लोकतन्त्र जहाँ सबको सामाजिक एवं आर्थिक समानता का अधिकार और सम्मान के साथ जीवन का अधिकार मिल सके। अधिकारों की यह लड़ाई लोकतांत्रिक धरातल पर ही लड़ी जाये इसके लिए जरूरी है कि राज्य उस उपेक्षित समाज तक पहुँचने का प्रयास करे जो आज भी इस लोकतन्त्र के हाशिये पर खड़ा हैं।
सुशांत मिश्रा
लेखक युवा इतिहासकार हैं, तथा इन दिनों उत्तर प्रदेश के उपेक्षित समुदायों पर शोध कर रहे हैं। सम्पर्क- +919559128991, sushant.history08@gmail.com

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