श्रमण महावीर का जन्म-स्थान : पुनरावलोकन
बिहार प्रान्त के जमुई जिले के कण-कण में इतिहास की कथाएँ सिसक रही हैं। काकन्दी की धरती फोड़कर निकलती हुई पंक्तिबद्ध कमरों की दीवारें जैन-धर्म के नवें तीर्थंकर की जन्मभूमि की गौरवगाथा कह रही है, इनपैगढ़ के ध्वंसावशेष पालवंश के अन्तिम दिनों की महिमा बता रहे हैं, गिद्धौर का वर्तमान गढ़ चन्देलवंश के अतीत का वैभव सुना रहा है। उसी तरह नौलखागढ़, घोस, मनजोस, पिरहण्डा, काकेश्वर, नोनगढ़ आदि स्थानों के टीले इतिहास-पुरातत्त्व को गर्भ में समेटे चुपचाप पड़े हैं। ये स्थान मुझे बार-बार कुछ समझने, कुछ लिखने के मौन-निमन्त्रण देते रहे हैं। इन्हीं को उजागर करने के लिए मैंने 1971 ईस्वी में जमुई नगर में ‘अनुमण्डलीय साहित्य संस्कृति अनुसन्धान केन्द्र’ की स्थापना की थी। इसी के परिणामस्वरूप जमुई नगर में एक छोटा सा संग्रहालय भी स्थापित किया गया है। इस जमुई नगर का सौभाग्य है कि यहीं भगवान महावीर का भूअवतरण भी हुआ और इसी धरती पर प्रवहमान ‘उलाई’ नदी के तीर पर उन्हें केवल-ज्ञान भी मिला।
जैन धर्म के अन्तिम और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था—अबतक यही पढ़ता-जानता रहा था। किन्तु, मुझे लगा कि यह स्थापना अप्रामाणिक है। 1961 ईस्वी में, जब के.के.एम. कालेज जमुई के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक बनकर आया तो इस क्षेत्र के इतिहास-भूगोल ने मुझे बड़ा अभिभूत किया। तब से हर वर्ष बहुसंख्य जैन धर्मावलम्बी यात्रियों को जमुई आते-जाते देखकर मेरा जिज्ञासु मन उत्सुकता की डोर में बँध गया। ज्ञात हुआ कि ये जैन यात्री भगवान महावीर के ‘जन्मस्थान’ के दर्शनार्थ लछुआड़ की ओर पहाड़ों के पार तक जाते हैं। मुझे लगा, यह बात मेरे पूर्वसंचित ज्ञान के सर्वथा प्रतिकूल है। इसी आश्चर्य ने मुझे श्रमण महावीर के वास्तविक जन्मस्थान की दिशा में शोध करने की प्रेरणा दी।
निस्सन्देह पिछले कई दशकों से भारतीय विद्वानों की सारस्वत-साधना ने अनेक प्राचीन मान्यताएँ खण्डित कर दी हैं और नित नवीन अनुसन्धान की सम्भावनाएँ जुड़ती चली जा रही हैं। मैं भी भगवान महावीर के वास्तविक जन्म-स्थान के सम्बन्ध में विभिन्न साक्ष्यों की खोज करने लगा। इतिहास ग्रन्थों के अध्ययन क्रम में मुझे यह साफ लगा कि भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में विदेशी इतिहासकारों के श्रम और निष्ठा की प्रशंसा की जानी चाहिए। उनकी बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने इस देश के दुर्गम कोने को भी कठिन यायावर की तरह घूमकर देखा, और प्राप्त सूचनाओं के आधार पर उन्हें जैसा जो कुछ लगा, उन्होंने पुस्तकों का आकार दे दिया। दुख है कि भारतीय विद्वानों ने उन्हें ही अकाट्य सत्य मानकर सन्तोष की साँस ले ली, औरउनका हवाला देकर इतिहास लिखने की परम्परा चल पड़ी। आवश्यकता यह थी कि हम भी उन स्थानों तक जाकर उन स्थापनाओं की जाँच भारतीय परिवेश में करते।
जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर श्रमण महावीर के जन्म-स्थान के सन्दर्भ में भी, भारतीय विद्वानों ने विदेशी इतिहासकारों को आधार बनाकर, भ्रान्त मान्यताएँ स्थापित कर दीं। इन विद्वानों ने सदा यही दुहराया कि श्रमण महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था। किन्तु अनेक परवर्त्ती विद्वानों के मन में यह मान्यता प्रश्नवाचक चिह्न बन गयी। इन अनुसन्धायकों ने पूर्वाग्रह से मुक्त होकर विभिन्न आधारों का परीक्षण किया और उन्होंने पूर्वस्थापित मान्यताओं को स्वीकृति नहीं दी। उन्हें भी लगा कि इस सन्दर्भ में पुनर्मूल्यांकन और अनुसन्धान की आवश्यकता अभी भी शेष है।
वैशाली से महावीर के सम्बन्धों को नकारा नहीं जा सकता है।यह सत्य है कि उनकी माता त्रिशला वैशाली के राजा चेटक की बहन थी। अतः वैशाली में उनका ननिहाल या मामाघर प्रमाणित है। किन्तु वहीं उनका जन्म-स्थान भी है, यह अस्वीकार्य ही नहीं, निर्मूल भी है।
जैन धर्म के प्रामाणिक ग्रन्थ कल्पसूत्र, विभिन्न आगमों तथा अन्य सूत्रों में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान महावीर का जन्म ईसा से लगभग छह सौ वर्ष पूर्व कुण्डग्राम नामक स्थान में हुआ था। यह एक महाग्राम था, जिसकी दो शाखाएँ थीं—ब्राह्मण कुण्डग्राम (माहण कुण्डग्गाम) और क्षत्रिय कुण्ड ग्राम (खत्तिय कुण्डग्राम)। महावीर का जन्म क्षत्रिय कुण्डग्राम के राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला के गर्भ से क्षत्रिय कुण्डग्राम में हुआ था। जन्म-स्थान के रूप में इस स्थापित सत्य को कोई अस्वीकार नहीं करता है। किन्तु यह कुण्डग्राम वस्तुतः कहाँ है- वैशाली में या अन्यत्र- यही विवादास्पद है।
सभी विवादों को नजरअन्दाज कर प्राचीन इतिहास के प्रणम्य पण्डित डा योगेंद्र मिश्र ने सन 1948 में यह स्थापित कर दिया कि महावीर वैशाली में ही जन्मे थे। उनकी इस स्थापना के मूलाधार पाश्चात्य इतिहासविद हरमन जैकोबी, हार्नले और विसेंट स्मिथ थे। इन विद्वानों को वैशाली में ही कुण्डग्राम की अवस्थिति का आभास मिला। मुझे बस इतनी ही शिकायत है कि जब वैशाली के अतिरिक्त भी महावीर के जन्म-स्थान होने के विवाद उठ चुके थे तो मिश्रजी के लिए यह नैतिक दायित्व था कि इन स्थानों तक आकर, उनके उन भौगोलिक परिवेश एवं अन्य आधारों की जाँच कर लेते, जिनके उल्लेख महावीर के जन्म-स्थान से जुड़े हुए हैं।
मैंने महावीर के जन्म-स्थान से सम्बद्ध साक्ष्यों का अध्ययन किया। दुराग्रह या पूर्वाग्रह से सर्वथा अलग होकर, उत्सुक पाठक के रूप में, विभिन्न जैनागमों एवं सूत्रों के उल्लेखों को देखा। उनमें उल्लिखित जन्म-स्थान के भौगोलिक परिवेश पर विचार किया और वर्द्धमान के गृह-त्याग के बाद उनकी यात्रा के मार्गों, स्थानों, ग्रामनामों पर मनन किया। कई-कई बार उन स्थानों की अर्थ और श्रमसाध्य यात्रा भी की। मेरी प्रसन्नता की सीमा न रही, जब ये सारे परिवेश, यात्रामार्ग, यात्रास्थान और ग्रामनाम इस जमुई जिले में ही मुझे मिल गये और यहाँ हजारों वर्ष से बहुसंख्य जैन यात्रियों के आने के औचित्य पर विश्वास हो गया। अपने शोध कार्य का तथ्यात्मक विवेचन करके मैंने उन प्राचीन स्थापनाओं का विनम्र और प्रामाणिक खण्डन किया तथा सन 1979 में महावीर जयन्ती के दिन यह पुस्तक रूप में प्रकाशित होकर विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत हुआ।
मेरी इस पुस्तक ‘महावीर का जमस्थान क्षत्रियकुण्ड : जमुई’ के प्रकाशित होने के बाद जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में पुनर्विचार करने की दिशा में इतिहासकारों, इतिहासज्ञों और जैन धर्म के मर्मज्ञ विद्वानों को विवश होना पड़ा। वैशाली के पक्षधरों की चिन्ताएँ बढ़ीं। अन्तत: नवम्बर, 1984 में मधुवन (शिखरजी : गिरिडीह) में पाँच सत्रों का त्रिदिवसीय ‘अखिल भारतीय इतिहासज्ञ विद्वत सम्मेलन’ सम्पन्न हुआ। इस आयोजन का सारा श्रेय तत्रभवान आचार्य भगवन्त अचलगच्छाधिपति श्री गुणसागर सूरीश्वरजी महाराज साहब और उनके प्रमुख गणिवर्य, प्रातिभ वैदुष्य सम्पन्न श्री कलाप्रभ सागरजी महाराज को देता हूँ।
इस सम्मेलन में भारतवर्ष के अनेक इतिहासज्ञों ने भाग लिया और विषय के पक्ष-विपक्ष में अपने लेख प्रस्तुत किये। अनेक विवाद, विश्लेषण और समीक्षा के बाद मेरी मान्यताओं को, प्रस्ताव ग्रहण कर, स्वीकार किया गया कि भगवान महावीर का जन्म वस्तुतः बिहार प्रान्त के जमुई के सिकन्दरा अंचल से दक्षिण, लछुआड़ ग्राम के समीप, पहाड़ों के उस पार (खैरा अंचल में) अवस्थित क्षत्रिय कुण्ड में ही है। फलस्वरूप जन्म स्थान के रूप में वैशाली सम्बन्धी मान्यता खण्डित हो गयी। बाद में भी शोध जारी रखने के कारण कुछ और नयी सामग्रियों एवं तथ्यात्मक सूचनाओं की जानकारी मिलने पर उक्त पुस्तक का दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हुआ।
प्रथम संस्करण के प्रकाशन के उपरान्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इसकी अच्छी समीक्षाएँ आयीं, विद्वानों के विचार-सुझाव मिले और अनेक कठोर प्रतिक्रियाएँ भी मिलीं। ये सब मेरे लिए उपयोगी हो गये। ‘मधुवन सम्मेलन’ में देश भर के विद्वान इतिहासज्ञों, विद्वान जैनाचार्यों और बुद्धिजीवियों ने भगवान महावीर के वास्तविक जन्म-स्थान सम्बन्धी मेरी मान्यता को स्वीकार कर ही लिया तो दूसरे संस्करण में उक्त सम्मेलन में पढ़े गये मेरे अभिभाषण और गृहीत प्रस्ताव को भी यथावत समाहित किया गया। प्रसन्नता की बात है कि 21 अक्टूबर 1993 को, मुझे भगवान महावीर के पितृश्री सिद्धार्थ के राजमहल का स्थल और भग्नावशेष भी मिल गये। यहाँ प्राप्त मृदभाण्ड खण्ड भी इस काल के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। इसी दूसरे संस्करण में ‘चेनमा पहाड़ का किला:महावीर का जन्म-स्थल’ शीर्षक देकर इस विषय पर विस्तृत विवेचन किया गया है। ये पुरातात्विक साक्ष्य जमुई के संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
अनेक विद्वान एवं कल्प सूत्र ने भगवान महावीर की केवलज्ञान-भूमि उल्लुवालिया (ऋजुबालिका) अर्थात वर्तमान उलाई नदी के तीर पर अवस्थित, जामू नामक ग्राम को स्वीकार किया है। गिद्धौर के निकटवर्ती ग्राम जामू में सम्प्रति वर्तमान ‘टीला’ इसका प्रमाण माना जा सकता है। मेरे इस सारस्वत प्रयास का ही प्रतिफल है कि भारतीय रेल विभाग ने जमुई, किउल, लखीसराय और नवादा रेलवे स्टेशनों पर, मेरी मान्यता के अनुसार महावीर के जन्म-स्थान के दर्शन हेतु, क्षत्रिय कुण्ड, जमुई तक पहुँचने का मार्ग-निर्देश लिखवा दिया है, जिसे अभी भी देखा जा सकता है।
मैंने अपनी पुस्तक ‘महावीर का जन्म-स्थान क्षत्रिय कुण्ड : जमुई’ में विस्तार से विभिन्न साक्ष्यों का उल्लेख करके सिद्ध किया है कि श्रमण महावीर का जन्म जमुई के क्षत्रिय कुण्ड में हुआ था और वैशाली को प्रमाणित करने वाले श्रद्धेय डा योगेंद्र मिश्र जी के तर्कों को अपने तथ्यों के आधार पर अप्रामाणिक सिद्ध किया है, जिसे प्राचीन इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान डा राधाकृष्ण चौधरी ने ‘मधुवन सम्मेलन’में अन्य सुप्रसिद्ध इतिहासकारों की उपस्थिति में स्वीकार किया और तदनुसार निर्णय भी लिए गए।
‘मधुवन सम्मेलन’ में डा मिश्र जी तो उपस्थित नहीं हो सके थे, फिर भी उन्होंने अपने प्रतिनिधि डा ओ पी अग्रवाल को भेज था। मेरी स्थापनाओं की स्वीकृति के उपरान्त डा मिश्र ने मुझे पात्र लिखा था, जिसमें उन्होंने हिदायत दी थी कि अगर मुझे इतिहास पर ही काम करना था तो मुझे उनसे मिलकर करना चाहिए था। मैंने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया था कि मैंने उनके ही काम को आगे बढ़ाया है। इसके बाद फिर उनसे कोई सम्पर्क नहीं हो सका। बाद में, पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष डा बी पी सिन्हा ने मेरी स्थापनाओं से सहमत होकर मेरी शोध सामग्रियों का यथास्थान उपयोग भी किया है।यहाँ अति संक्षेप में कुछ तर्कों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
वस्तुतः भगवान महावीर की जन्मभूमि की पहचान के सम्बन्ध में सर्वाधिक प्राचीन मत श्वेताम्बरों का है, जिनके अनुसार यह स्थान जमुई में लछुआड़ के समीप सिद्ध होता है। परन्तु परवर्ती विद्वानों ने पाश्चात्य इतिहासकारों की भ्रमपूर्ण सूचनाओं के प्रभावों में आकर, भगवान महावीर के जन्मस्थान को विवादग्रस्त बना दिया।
जैन धर्म की किसी शाखा, दिगम्बर अथवा श्वेताम्बर के विरुद्ध मेरा कोई आग्रह नहीं है। बिना किसी प्रतिबद्धता के पाश्चात्य विद्वानों और उनके अनुयायी भारतीय इतिहासकार, दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आगम ग्रन्थों, कल्पसूत्र तथा अन्य उल्लेखों के अध्ययन-मनन के पश्चात मैं इसी निष्कर्ष पर आया कि भगवान महावीर का जन्म न तो कुण्डलपुर में हुआ था न वैशाली में। दिगम्बर जैन धर्मावलम्बियों ने नालन्दा के निकटवर्ती ‘बड़गाँव’ को कुण्डलपुर मानकर भगवान महावीर का जन्म-स्थान स्वीकार कर लिया। वहाँ मन्दिरों के निर्माण भी हो गये। परन्तु यह स्थापना एकदम भ्रान्त और साक्ष्यविहीन है। यह क्षत्रियकुण्डनहीं हो सकता। वस्तुतः यह स्थान भगवान महावीर के प्रमुखगणधर इन्द्रभूति गौतम की जन्मभूमि है।
बुकानन के अनुसार उनके समकालीन मगधराज श्रेणिक ने बड़गाँव में गणधर गौतम का चरण-चिह्न स्थापित किया था। इस कुण्डलपुर का वर्तमान मन्दिर संग्राम सिंह नामक एक व्यापारी ने लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व बनवाया था और सन्तोनाथ (शान्तिनाथ?) की एक मूर्ति प्रतिष्ठापित की थी। डॉ. पाटिल के अनुसार भी यह स्थान जनश्रुतियों से स्वीकृत कुण्डलपुर नगर है। आगमों, सूत्रों तथा इतिहास ग्रन्थों में इसकी प्रामाणिकता के साक्ष्य नहीं मिलते और न उपर्युक्त ग्रन्थों के अनुसार भगवान महावीर के जन्म-स्थान से सम्बद्ध अन्य ग्राम नाम तथा भौगोलिक परिवेश ही यहाँ मिलते हैं। अतएव दिगम्बर सम्प्रदाय की भगवान महावीर के जन्म-स्थान सम्बन्धी, इस कुण्डलपुर की मान्यता एकदम निर्मूल ठहरती है।
इतिहास के प्रणम्य पण्डित ने हरमन जैकोबी, विसेन्ट ए स्मिथ, जार्ल चारपेंटियर आदि पाश्चात्य विद्वानों के उल्लेखों की जाँच किए बिना, उन्हें अपना आधार बनाकर, बिहार के वैशाली नामक स्थान को भगवान महावीर का जन्म-स्थान सिद्ध कर दिया। इस सन्दर्भ में डा मिश्र की पुस्तक ‘ऐन अर्ली हिस्ट्री आफ वैशाली’ द्रष्टव्य है। इसी पुस्तक में सूचना दी गयी है कि वैशाली संघ के अनेक प्रयासों के फलस्वरूप वैशाली जनपद को भगवान महावीर की जन्मभूमि मानकर जैनों ने सन 1948 की चैत्र शुक्ल त्रयोदशी (महावीर जयन्ती) तिथि से पूजा प्रतिष्ठा देना आरम्भ किया। इसे सरकारी मान्यता भी मिल गयी।
कल्पसूत्र, आचारांगसूत्र तथा अन्य आगमग्रन्थों में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के जन्म-स्थान के रूप में कुण्डग्गाम (कुण्डग्राम) नामक स्थान का उल्लेख आया है। यह एक महाग्राम या पुर था। इसके दो भाग थे- माहण कुण्डग्गाम (ब्राह्मण कुण्डग्राम) और खत्तीय कुण्डग्गाम (क्षत्रिय कुण्डग्राम)। दोनों का सम्मिलित रूप कुण्डग्राम कहलाता था। इस स्थापित सत्य को सभी स्वीकारते हैं कि भगवान महावीर का जन्म कुण्डग्राम में हुआ था। परन्तु यह कुण्डग्राम है कहाँ? यही विचारणीय है और इसी कुण्डग्राम को मैंने जमुई के लछुआड़ में सिद्ध किया है।
हरमन जैकोबी ने कुण्ड ग्राम को वैशाली के अन्तर्गत बताया है। बौद्ध सूत्रों में उल्लिखित ‘कोटिग्राम’ (वैशाली के दक्षिणी सीमान्तकुण्डपर अवस्थित) ही क्षत्रिय कुण्ड ग्राम है। डा हार्नले के अनुसार वैशाली का वासुकुण्ड ही कुण्ड ग्राम है तथा कोल्लाक या कोल्लाग नामक स्थान भी वैशाली में है।
विसेन्ट स्मिथ ने कुण्ड ग्राम को वैशाली के अन्तर्गत बताते हुए, वहाँ के वसुकुण्ड को ब्राह्मण कुण्ड ग्राम कहा है। इनके अनुसार कोल्लाग भी वैशाली में ही है, जिसकी पहचान उन्होंने Monkey Tank के समीप कोलुआ अथवा कोल्हुआ नामक स्थान से की। डॉ. मिश्र ने इस स्थापना पर विश्वास कर कल्याण विजय जी का हवाला देते हुए, उनके भौगोलिक ज्ञान की पुष्टि इस दावे के साथ की है-“ There is no Kollaka Sannivesa near Lachchuad.” कामता जैन का हवाला देते हुए डॉ. मिश्र ने लिखा कि “महावीर को विदेह, वैशालिय, विदेह सुकुमार कहा गया है। अतएव वह विदेह जनपद के वैशाली में पैदा हुए थे।”
जैकोबी का कोटि ग्राम ‘कुण्ड ग्राम’नहीं हो सकता। इसमें ध्वनि-साम्य अवश्य है। इस कोटि ग्राम को अश्वघोष ने ‘बुद्ध चरित’ में कुटी कहकर अभिहित किया है। संयुक्त निकाय के कोटि ग्रामवग्ग के दस सुत्तों का उपदेश महात्मा बुद्ध ने कोटि ग्राम में निवास करते समय दिया था। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि अगर महावीर के समकालीन महात्मा बुद्ध के समय में इस स्थान का नाम कोटि ग्राम ही था तो महावीर के लिए भी यह कुण्ड ग्राम नहीं हो सकता।
हार्नले के वसुकुण्ड और कुण्ड ग्राम में केवल कुण्ड शब्द की समानता है। अगर इसे ब्राह्मण कुण्ड ग्राम भी मान लें तब भी कोई तुक नहीं बैठता। दोनों में कुण्ड शब्द की समानता अवश्य है, परन्तु ब्राह्मण और वसु सर्वथा भिन्न शब्द हैं। इस दृष्टि से विसेन्ट स्मिथ और कामता प्रसाद जैन की स्थापना भी नहीं ठहरती। इनमें अटकलबाजियाँ और बुद्धि व्यायाम अधिक है। डा मिश्र ने जिन सूत्रों का हवाला देकर महावीर के नाम के साथ विदेह शब्द का प्रयोग दिखा कर, उनके वैशाली में होने के पक्ष में हमारा ध्यान आकृष्ट किया है, वह मातृकुल सूचक शब्द है।
उससे कोई भौगोलिक निर्देश नहीं मिलता। इतिहास साक्षी है कि मगधराज श्रेणिक की पत्नी चेलना को विदेह कन्या और उनके पुत्र कोणिक (अजातशत्रु)को वैदेही पुत्र कहा गया है। उसी तरह सम्राट चन्द्रगुप्त की पत्नी कुमारदेवी को लिच्छवी कन्या तथा समुद्रगुप्त को लिच्छवी दौहित्र कहा गया है। कल्पसूत्र में 30 वर्षों तक महावीर के गृहवास का वर्णन करते समय उनके साथ विदेह शब्द का प्रयोग हुआ है, जो भौगोलिक क्षेत्र को निर्दिष्ट नहीं करता, बल्कि उनकी उदासीन, आत्मस्थ अथवा देहातीत अवस्था को। आचरांगवृत्ति में महावीर के लिए ‘विदेह’ का अर्थ ‘विशिष्ट देह’ ग्रहण किया है।
इस तरह डा मिश्र ने वैशाली के लिए जिन मान्यताओं को अपना आधार बनाया है, वे ही ठोस नहीं हैं। जैन वाङ्गमय एवं विभिन्न इतिहास ग्रन्थों के उल्लेख के अनुसार भगवान महावीर का जन्म ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व क्षत्रिय कुण्ड ग्राम के राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला के गर्भ से हुआ था। दिगम्बर मत के अनुसार त्रिशला वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी, परन्तु श्वेताम्बर मत के अनुसार उनकी बहन थी।
जन्म के उपरान्त तीस वर्षों तक महावीर ने गृहवास किया। माता-पिता के स्वर्गारोहण के पश्चात 30 वर्ष की अवस्था में महावीर ने भवबन्ध तोड़ कर ‘केवल ज्ञान’ प्राप्ति हेतु कुण्ड ग्राम का परित्याग कर दिया। वहाँ से चलकर वह क्षत्रिय कुण्ड ग्राम से उत्तर-पश्चिम दिशा में नायखण्ड वन पहुँचे, वहाँ बहुशाल चैत्य के नीचे उन्होंने दीक्षा प्राप्त की। इसे शालवन उद्यान भी कहा जाता है। यहाँ से श्रमण महावीर ने जो यात्रा आरम्भ की और जिन-जिन मार्गों से वे गये , उन सभी मार्गों के नाम जमुई जिले में कुछ उच्चारण भेद के साथ मिलते हैं, जिनका विस्तार से उल्लेख मैंने अपनी पुस्तक में किया है। संक्षेप में यहाँ इतना ही निवेदन है कि भगवान ने गृहत्याग करने के बाद जिन मार्गों से यात्रा की थी वे अभी भी जमुई क्षेत्र में ही मौजूद हैं।
अभी भी क्षत्रिय कुण्ड से पर्वतों को लाँघकर, उत्तरी तलहटी में आने पर, आम्लकी, अशोक, शाल आदि वृक्षों के वनप्रान्त मिलते हैं। इसी किनारे पर महणा ग्राम की अवस्थिति आज तक है। कदाचित सौभाग्यशालिनी देवानन्दा इसी ग्राम की ब्राह्मणी थी जिसके गर्भ में सर्वप्रथम महावीर पधारे थे और इन्द्रदूत हरिणैगमेषी ने देवानन्दा का गर्भापहरण कर भगवान महावीर को क्षत्रिय कुण्ड की महारानी त्रिशला की कुक्षि में प्रतिष्ठित कर दिया था। इस घटना का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, आवश्यक निर्युक्ति आदि में भी मिलता है। दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती।
भगवान महावीर गृहत्याग करने के बाद इसी क्षत्रिय कुण्ड ग्राम से उत्तर-पश्चिम दिशा में, नाय खण्डवन (ज्ञात खण्डवन) में पधारे थे।यहीं से अविलम्ब भगवान ने साधना मुद्रा में केवलज्ञान प्राप्ति हेतु बारह वर्षों की कठिन यात्रा आरम्भ की और दिन का मुहूर्त शेष रहते हुए कमरि अथवा कुर्मार (कुमार) ग्राम पहुँचे। कल्पसूत्र एवं आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग में उल्लेख है कि कुमार पहुँचने के दो मार्ग थे-एक स्थल और दूसरा जल मार्ग। महावीर स्थल मार्ग से ही गए। दूसरे दिन वह कुमार से चलकर कोल्लाग सन्निवेश पहुँचे। कोल्लाग से दूसरे दिन मौराक सन्निवेश आये, जहाँ दुईज्जन्तक नामक ऋषि के आश्रम में कुलपति के आग्रह पर पर्णकुटी में रहने लगे। मौराक से वह अथ्थिय अथवा अस्थिक ग्राम आये।
इस तरह इनकी यात्रा का प्रथम वर्ष समाप्त हुआ। पुनः दूसरे वर्ष में वह वहाँ से लौटकर मौराक हीआये। इसके बाद दक्षिणवाचाल, कनखल, उत्तरवाचाल, श्वेताम्बी, सुरभिपुर, थुणाक सन्निवेश, राजगृह, नालन्दा का विहार करते हुए, उन्होंने अपनी साधना का दूसरा वर्ष समाप्त किया। तीसरे वर्ष के प्रारम्भ में वह पुनः नालन्दा से कोल्लाग चले आये। वहाँ से सुवर्णखल, ब्राह्मण कुण्ड ग्राम होते हुए वह चम्पा चले गये। इनकी यात्रा का तीसरा वर्ष समाप्त हुआ। चौथे वर्ष के प्रारम्भ में वह चम्पा से कालाय सन्निवेश, पत्तकालाय, कुमाराक, चौराक होते हुए पृष्ठचम्पा चले आये। पाँचवे वर्ष में अनेक ग्राम होते हुए वह चौराक सन्निवेश पुनः आये। बारहवें वर्ष की यात्रा चम्पा में समाप्त करने के बाद भगवान ने ऋजुवालिका अथवा उल्लुवालिका नदी के उत्तर तट पर, जम्भिय नामक ग्राम में, केवलज्ञान की प्राप्ति कर ली।
जमुई में जैनसंघडीह नामक एक ग्राम सिकन्दरा अंचल में है। यह ग्राम इसका प्रमाण उपस्थित करता है कि यहाँ कभी जैनों का संघ रहा होगा। महावीर अगर वैशाली के होते तो इनकी भाषा तत्कालीन ‘बज्जिका’ होनी चाहिए थी। महावीर की भाषा ‘अर्द्धमागधी’ थी, जो मगध क्षेत्र की भाषा थी। ध्यातव्य है कि जमुई प्रदेश मगध क्षेत्र के अन्तर्गत है। इस आधार पर भी महावीर का जन्म वैशाली में होना प्रामाणिक नहीं ठहरता है। ऐसे अनेक प्रमाण मैंने अपनी पुस्तक में निवेदित किये हैं।
इतिहास कहता है कि महावीर के निर्वाण से पूर्व ही वैशाली के राजा चेटक कोणिक अजातशत्रु का युद्ध हुआ था। आवेश में आकर अजातशत्रु ने सम्पूर्ण वैशाली को हल चलवा कर ध्वस्त कर दिया था। निश्चय ही वैशाली के अन्तर्गत कुण्ड ग्राम या क्षत्रिय कुण्ड भी समाप्त हो गया होगा। महावीर के जीवनवृत्त से सम्बद्ध उल्लेखों के अनुसार उनके निर्वाण का समाचार पाकर उनके भाई नन्दिवर्धन, जो उस समय क्षत्रिय कुण्ड के स्वतन्त्र राजा थे, अपने भाई के निर्वाण स्थल, पावापुरी, पर अविलम्ब शोक विह्वल होकर पहुँचे थे। विचारणीय है कि अगर वैशाली के क्षत्रिय कुण्ड का अस्तित्व ही समाप्त हो गया तो नन्दिवर्धन किस क्षत्रिय कुण्ड की राजगद्दी पर आसीन थे। अतएव निश्चय ही क्षत्रिय कुण्ड वैशाली में नहीं था। महावीर के निर्वाण पर नन्दिवर्धन का तुरन्त निर्वाण स्थल तक पहुँचना भी यह प्रमाणित करता है कि यह क्षत्रिय कुण्ड वैशाली नहीं, जमुई में ही था। यहाँ से शीघ्र पावापुरी पहुँचा जा सकता है।
दिनांक 23.11.1984 को गिरिडीह के मधुवन में जो ‘अखिल भारतीय इतिहासज्ञ विद्वत सम्मेलन’ हुआ था, उसके समापन सत्र 25.11.1984 को निम्नलिखित प्रस्ताव पर मुहर लगायी गयी थी—
“आज दिनांक 25 नवम्बर 1984 के समापन सत्र की अध्यक्षता प्रो राधाकृष्ण चौधरी ने की। सम्मेलन में निम्नलिखित भारतीय स्तर के उपस्थित विद्वान प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से निम्नांकित प्रस्तावों को पारित किया। समापन सत्र के खुले अधिवेशन में हजारों-हजार की संख्या में जैन एवं जैनेतर प्रेक्षक देश के कोने-कोने से आकर उपस्थित थे।
प्रस्ताव 1– जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म जमुई अनुमण्डल (उस समय जमुई जिला नहीं बना था) के वर्तमान सिकन्दरा प्रखण्ड में लछुआड़ ग्राम की दक्षिणी सीमा पर पर्वतीय प्रदेश में अवस्थित कुण्ड ग्राम के ‘क्षत्रिय कुण्ड ग्राम’ में ही हुआ था।
प्रस्ताव 2– इतिहासकार उपर्युक्त क्षत्रिय कुण्ड ग्राम को भगवान महावीर का जन्म स्थान स्वीकार कर इतिहास ग्रन्थों एवं सभी स्तरों की पाठ्य-पुस्तकों में इसका ही उल्लेख करें।
प्रस्ताव 3– बिहार एवं भारत के पुरातत्त्व-विभाग उपर्युक्त स्थान को महावीर का जन्म स्थल मान कर सुरक्षित क्षेत्र घोषित करे।
प्रस्ताव 4– पर्यटन विभाग (बिहार) यहाँ (क्षत्रिय कुण्ड ग्राम में) अपना एक केंद्र स्थापित करे।
इस घोषित प्रस्ताव पर शोधकर्ता, संयोजक एवं स्वागताध्यक्ष के रूप में मेरा, सत्राध्यक्ष प्रो राधाकृष्ण चौधरी, बिहार पुरातत्त्व एवं संग्रहालय के निदेशक डॉ. सीताराम राय के अलावा अनेक विद्वान इतिहासज्ञ प्रतिनिधि तथा जैन आचार्यों के हस्ताक्षर सुरक्षित हैं।
निष्कर्षत: यह सिद्ध होता है कि जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म न तो वैशाली में हुआ था और न कुण्डलपुर में ही, बल्कि जमुई के अन्तर्गत लछुआड़ के दक्षिणी सीमान्त पर, पर्वतों से घिरे कुण्ड ग्राम के क्षत्रिय कुण्ड ग्राम में ही हुआ था। वैशाली से उनका सम्बन्ध अस्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वहाँ उनका नाना घर या मामा घर था। स्पष्ट है कि सारे साक्ष्य जमुई के ही पक्ष में हैं। यहाँ तक कि दिगम्बरी शाखा के ग्रन्थ भी वैशाली के पक्ष को समर्थन नहीं देते हैं। इस तरह महावीर की पवित्र भूमि होने के कारण जमुई का इतिहास गौरवपूर्ण है।