बातों का रंगरेज़
प्रसिद्ध साहित्यकार शिवकुमार शिव नहीं रहे। 70 वर्ष की उम्र में कोलकाता के एक अस्पताल में कोविड का उपचार कराते हुए कल बुधवार दोपहर को उन्होंने आखिरी साँस ली।
यारबाजी, सहयोग करने की तत्परता और आयोजनधर्मिता उनके व्यक्तित्व के आकर्षक आयाम थे। विशिष्ट और देसज कथाभाषा ने उन्हें कथा जगत में एक अलग पहचान दी। पिछले कई दशकों से भागलपुर में साहित्यिक गतिविधियों के केन्द्र में वे ही रहे, देश भर के कथाकारों से उनका हमेशा जीवन्त और आत्मीय सम्पर्क बना रहा। हाल ही में उन्हें जयपुर में राजेन्द्र यादव स्मृति सम्मान और भागलपुर में पण्डित निशिकांत मिश्र स्मृति सम्मान दिया गया। किस्सा पत्रिका के वे प्रधान सम्पादक थे। उनका जाना हिन्दी साहित्य की तो क्षति है ही, भागलपुर में राधाकृष्ण सहाय के बाद शिवकुमार शिव की अनुपस्थिति ने भागलपुर को थोड़ा और सूना और सांस्कृतिक रूप से सूखा बना दिया है।
कुछ दिन पहले हिन्दी के चर्चित कवि विनय सौरभ ने उनपर एक संस्मरण लिखा था। उसकी महत्ता और प्रासंगिकता को देखते हुए इसे फिर से प्रकाशित किया जा रहा है। – सम्पादक
27 सालों के हमारे परिचय में पहली बार यह शख्श हमारे घर नोनीहाट आया। एकदम औचक ! इस बीच गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका है। वे 1990 के दिन थे। टी एन बी कॉलेज का छात्र था। भागलपुर शहर से कोई ख़ास पहचान न थी। साहित्य की लत लग चुकी थी। एक दिन सुनता हूँ कि हँस संपादक राजेन्द्र यादव, कथाकार शैलेष मटियानी, संजीव,गिरिराज किशोर, धीरेन्द्र अस्थाना, अवध- चित्रा मुदगल सहित साहित्य के कई समकालीन नामचीन सितारे भागलपुर आ रहे हैं।
ज़ाहिर है, यह मेरे लिए कौतुहल और आकर्षण का विषय था। दो- तीन दिनों तक चले इस भव्य समारोह का भौंचक दर्शक मैं भी था। याद आता है कि सारे अख़बारों में इसकी शानदार कवरेज थी।
भागलपुर में यह कार्यक्रम भगवान पुस्तकालय में व्यवस्थित ढंग से आयोजित हुआ था। भगवान पुस्तकालय साहित्य संस्कृति प्रेमियों की एक महत्वपूर्ण जगह उन दिनों हुआ करता था। इस समारोह की धमक बिहार और उसके बाहर भी थी, जिसकी अनुगूंजें लंबे समय तक बनी रहीं।
जहाँ तक मेरी जानकारी है, भागलपुर में ऐसा बड़े स्तर का साहित्यिक जुटान फिर संभव नहीं हुआ। पता चला कि इस कार्यक्रम के सूत्रधार थे -शिव कुमार शिव। शिव कुमार शिव की कहानी” मुर्दा “हंस में छपी थी। बस इतना ही जानता था उनके बारे में। लेकिन इस समारोह में उनकी भूमिका, व्यस्तता, निर्देशन, मंच संचालन और वक्तृत्व कला ने मुझे थोड़ा सम्मोहन की अवस्था में डाल रखा था। गर्मियों की एक सुबह थी। मिलने की उत्कंठा और संकोच से भरा मैं अजंता सिनेमा के पीछे दीना साह लेन में खड़ा था। यह कथाकार इसी गली में रहता था जहाँ उसकी डाक लंबे समय तक इसी पते पर आती रही।
एक पुराने मकान की सीढ़ियां चढ़कर ऊपर पहुंचा तो एक शालीन किस्म की स्त्री ने मेरा स्वागत किया और अपने पतिदेव के कमरे तक ले गईं । किताबों से भरे कमरे में यह कथाकार एक गाव तकिये के सहारे औंधा लेटा था और एक नए पत्रकार को लिखने की बारीकियां समझा रहा था। मैंने लगभग हड़बड़ी में और अव्यवस्थित ढ़ंग से कहा कि आप की कहानी मुर्दा पढ़ी है और आपने अभी यह जो कार्यक्रम कराया है, मैं उसमें तीनों दिन शामिल रहा हूँ। लगा कि वे खुश हो गये। इधर-उधर की बातें की। परिवार के बारे में पूछा। समारोह से और कथाकारों से संबंधित बातें की। बातें रसदार थीं और कहने का अंदाज़ अनोखा था। उनकी बातें सुनने में मज़ा आ रहा था। बहरहाल, जब उनके घर से बाहर निकला तो पेट शानदार नास्ते से भरा था और दिल उनके आत्मीय व्यवहार से।
यह आदमी तो बातों का रंगरेज़ है…. वापस अपने कमरे पर लौटते हुए मैं सोच रहा था। अगले रविवार को मैं फिर उनके घर पर था। फिर वही बातों के सिलसिले ! बातों से बात निकलती जाती थी ! मैंने पहली बार बियर चखी। बातों के इसी रंगरेज के साथ।
शिव कुमार शिव के बारे में कितनी ही बातें दिलचस्प थीं और हैरत में डालती थीं। कलात्मक लिखावट का धनी और मात्र दसवीं पास ! ठेकेदारी के धंधे से जुड़ा यह शख्स मारवाड़ी समाज से आया था, जहाँ किशोरावस्था से बच्चे पैसे बनाने के गुर सीखने लग जाते हैं । व्यापारी समाज का यह आदमी भटकता हुआ इधर साहित्य-संस्कृति की दुनिया में कैसे आ गया था ? आ ही नहीं गया था, रम भी गया था ! देश के चर्चित लेखकों, ख़ासकर हँस संपादक राजेन्द्र यादव से इस आदमी का गहरा साबका था।
कैसे ? मैंने राजेन्द्र जी की कई आत्मीय, पारिवारिक किस्म की चिट्ठियाँ उनके घर पर देखी थीं।
बाद के दिनों में रिक्शे में इनके साथ घूमते बतियाते एक बात तो यह पता चली कि 36 -37 साल के इस कथाकार का दायरा बहुत बड़ा है। छोटे मोटे व्यवसाइयों से लेकर शहर के धन्नासेठों, पत्रकारों, डॉक्टरों, संस्कृतिकर्मियों और फुटपाथ के परचुनियों तक से यह आदमी जिस तरह से हिला-मिला था कि यह सब बातें अबूझ सी लगती थीं।
उन दिनों डॉक्टर वीरेंद्र कुमार शहर के नामी गिरामी चिकित्सक हुआ करते थे मरीजों के साथ व्यवहार में एकदम अशालीन और रूखे ! डॉक्टर वीरेंद्र कुमार का यह व्यवहार जगज़ाहिर था। उन दिनों इस कथाकार ने भागलपुर के शुजागंज के व्यस्त बाज़ार में पर्दे -बेडशीट की दुकान खोली थी। मैंने अपनी कई शामें उस उस दुकान पर गुजारी हैं। वहाँ मैंने डॉक्टर वीरेंद्र को कई दफ़े बैठा पाया था। एकदम शांत और विनम्र ! पता चला कि डॉक्टर वीरेंद्र की कविताएँ यह कथाकार दुरुस्त कर रहा है ! ओह ! तो डॉक्टर साहब कविताएं भी लिखते थे !
और “सिल्की” उनकी दुकान तो पढ़ने लिखने वालों की जैसे मिलन स्थली बन गयी थी। कमाल का मैनेजमेंट था इस आदमी का ! हर कोई मुरीद था और रक़ीब तो जैसे उन दिनों कोई था ही नहीं !
1992-93 के बाद मेरा भागलपुर जाना कम हो गया। 1996 में , जब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली का छात्र था, तब उनसे आकस्मिक भेंट होती है विश्व पुस्तक मेले में, जहाँ राजेंद्र यादव उनके नए कहानी संग्रह का विमोचन कर रहे होते हैं। बेहद संक्षिप्त मुलाकात फिर लगभग एक दशक की लंबी संवादहीनता !
इस कथाकार का कोई अता-पता नहीं! कहाँ है? क्या कर रहा है? फिर 2005 में उनके भागलपुर आने की खबर सुनता हूँ। जाकर मिलता हूँ। चेहरा बदल रहा है। लेकिन वही आत्मीयता वही दोस्ताना स्वभाव ! वही यारबाश शख्सियत! एक दशक के बाद मिलने पर यह आदमी अपनी कहानियाँ सुना रहा है। अपने जख्मों की कहानियाँ रस ले ले कर सुना रहा है! इस आदमी ने झटके बहुत खाए हैं । कई बार ऐसे मौक़े भी आए हैं कि सब कुछ बिखर जाने के भय से भर चुका है, पर इन्हीं झटकों ने इस आदमी को जीने की ताक़त दी है। मेरे पास इस किस्सागो से मुलाक़ातों की जितनी भी यादें हैं , मैंने इसे हमेशा बेफिक्ऱ -सा पाया है एक ख़ास किस्म की साफ़गोई और जिंदादिली के साथ।
मुझे हमेशा यह आदमी कुछ अज़ीब सा, पहेलीनुमा और कभी कभी खुली क़िताब की तरह लगा है। दोस्तों के लिए जीने वाला। अपनों के लिए परेशान होने वाला। और नापसंदगी के दायरे में, अगर कोई है, तो यह आदमी उसकी और मुड़ कर देखेगा भी नहीं! अगर यह दायरा बड़ा हुआ तो यह गालियाँ भी अपने दुश्मनों को क्या ख़ास अंदाज में देता था! राम! राम!
आज सोचता हूँ तो लगता है कि ज़िंदगी में इतने पापड़ बेलने, दर-ब-दर होने के बाद भी यह आदमी इतना रच कैसे सका! आज उनके हिस्से में 5 कहानी संग्रह 6 उपन्यास और 1 नाटक की क़िताब है । अपने आत्मकथात्मक उपन्यास “नेपथ्य के नायक” में बेहद दिलचस्प ढंग से उन्होंने अपनी जीवन यात्रा और भागलपुर के बनने की दास्तान दर्ज़ की है।
इन दिनों वे डॉ. योगेंद्र के साथ मिलकर किस्सा नाम की कथा केंद्रित राष्ट्रीय प्रसार वाली पत्रिका निकाल रहे हैं। यह सब मुझे उनकी ज़िद का हिस्सा लगता रहा है। रचनात्मक ढंग से जीवन को जीने की ज़िद। लीक से हटकर जीने की ज़िद!
उनकी कई सफलताएं में मुझे विस्मित करती हैं और कई वाक़ए मुझे आश्चर्य में डाल देते हैं । 2005 तक भागलपुर में किराए के मकान में रहने वाले इस किस्सागो के पास, सुनता हूँ कि भागलपुर सहित इस देश के दो-तीन बड़े महानगरों में बेहतरीन आशियाने हैं। बेटे आनंद ने अपने पेशे में नयी और अविश्वसनीय ऊँचाइयाँ हासिल की हैं। कहना ना होगा कि उसके बनने में पिता की सीखें, जीवन मूल्य और वे बारीकियाँ शामिल हैं , जिसे उसके पिता ने किताबें पढ़ते-लिखते और जीवन की कई लड़ाइयों से हासिल किया है।
बेटी अनामिका शिव ने कभी अच्छी कविताएं लिखकर कविता के परिदृश्य में अपनी उपस्थिति दर्ज़ की थी। उसका एक कविता संग्रह भी आया था। बहरहाल, मैं जानता हूँ और उनके जानने वाले भी यह कहेंगे ही शिव कुमार शिव के पास चाहे कितने ही आशियाने हो जायें पर यह शख़्श भागलपुर से कहीं जाने से रहा! आत्मा बसती है उसकी यहाँ! शुजागंज, वैरायटी चौक से लेकर चित्रशाला, खलीफ़ाबाग चौक तक अपने घर पहुँचते-पहुँचते दस लोगों से टकराकर जब तक उसके कंधे छिलेंगे नहीं, बातों का यह रंगरेज़ रात का खाना नहीं खा सकता।
.